फैज़ अहमद फैज़ एक शायर की कल्पना देखिये और उसकी उपमायें देखिये- (माशूक की याद का दिल में आना और वीराने में बहार का आना। रेगिस्तान में ठंडी बयार का आना और बीमार को बिना वजह करार आना।) रात यूं दिल में तेरी खोई हुई याद आई। जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाये।। जैसे सहराओं1 में हौले से चले बादे नसीम2। जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाये।। वाह! वाह! क्या बात कही है! ये शायर कौन हैं जनाब? इनका तो अन्दाज लाजवाब! यही होगी आपकी दाद? ये शायर हैं जनाब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़! आपका जन्म 3 फरवरी 1911 को कस्बा कादिर खां जिला सियाल कोट, पाकिस्तान में हुआ। आप काफी तालीम याफ़्ता शायर रहे हैं एवं तालीम भी आला दर्जे से हासिल की हुई थी। चार बरस की उम्र में कुरान कंठस्थ करना, मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करना, इंटरमीडिएट में प्रथम श्रेणी, बी.ए. और फिर अरबी में बी.ए. आनर्स, अँग्रेजी में एम.ए. और फिर अरबी में एम.ए. प्रथम श्रेणी। एक बार अँग्रेजी के पर्चे में आपको प्रोफेसर साहब ने 150 में से 165 नंबर दे दिये। इस बात पर जब आपत्ति उठी तो प्रोफेसर साहब ने कहा कि मैंने उसे 150 में से 165 नम्बर इसलिए दिये क्योंकि उससे ज्यादा मैं दे ही नहीं सकता था। आपने अंग्रेजियत कुबूल की और एक अंग्रेज महिला मिस एलिस जार्ज से 1941 में निकाह कर लिया। पर निकाह मुस्लिम संस्कारों के अनुसार ही हुआ। आपका निकाह शेख अब्दुल्ला साहब ने पढ़वाया था। आपने अपनी ही कलम-दस्ती के बारे में फरमाया कि- हम परवरिशे-लौहो-क़लम3 करते रहेंगे। जो दिल पे गुज़रती है रक़म4 करते रहेंगे।। 1. सहराओं- रेगिस्तान; 2. बादे नसीम- ठण्डी हवा; 3. परवरिशे लौहो क़लम- तख्ती और क़लम का प्रयोग; 4. रक़म- लिखना। यानि जो भी फ़ैज़ साहब के दिल पर गुज़री उसका बयाँ उन्होंने अपनी शायरी में कर दिया। फ़ैज सेना में कर्नल के पद पर रहे, कॉलेज में प्रोफ़ेसर रहे, रेडियो में काम किया, और पत्रकारिता जैसा जोखिम का पेशा भी अपनाया। पर कभी उन्होंने कोई भी बात ऊँचे स्वर में नहीं की। इतने नाजुक मिजाज कि आस-पास में भी तनाव या हिंसा का माहौल हो तो इनकी कैफ़ियत पर असर आ जाता था। जब पाकिस्तान की सरकार ने विद्रोह के आरोप पर जेल की सज़ा दी तब भी आपने अपनी शिकायत बहुत ही जहीन तरीके से कुछ इस तरह से प्रकट की- फ़िक्रे-दिलदारिये-गुलज़ार1 करूं या न करूं। जिक्रे-मुर्गाने-गिरफ़्तार2 करूं या न करूं।। किस्सए-साज़िशे-अगियार3 कहूं या न कहूँ। शिकवये-यारे-तरहदार4 करूं या न करूं।। जाने क्या वज्अ है अब रस्मे-वफ़ा की ऐ दिल। वज़्ए-देरीना5 पे इसरार6 करूं या न करूं।। (देश रूपी बाग़ीचे के रख-रखाव की चिन्ता करूं या न करूं। इस बागीचे के कैदी पक्षियों का जिक्र करूं या न करूं। शत्रुओं के षडयंत्र को उज़ागर करूं या न करूं। यार की रंगीनियों की शिकायत करूं या न करूं। अब पता नहीं मुहब्बत के इज़हार की रस्म कैसे अदा होती है, पुराने ढंग से मैं इसका इसरार करूं या न करूं।) फ़ैज़ बुनियादी रूप में एक रूमानी-शायर थे और प्रेयसी के प्रेम पर शायरी करते थे। वे देश-प्रेम को भी ठीक वैसी ही वेदना और व्यथा के साथ व्यक्त करते थे। पहले उन्होंने दिल से शायरी की पर फ़िर वक्त की तंगी तथा कई अन्य कारणों से थोड़ी मुश्किलात हुई तो खुद अपनी शायरी से मुखातिब हुए और कहा कि- अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै। और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा।। राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा। मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग।। 1. फ़िक्रे दिलदारिये गुलज़ार- वतन के बागीचे की फिक्र; 2. ज़िक्रे मुर्गाने गिरफ्तार- कैदी पक्षियों का ज़िक्र; 3. किस्सए साज़िशे अगियार- शत्रुओं के षड्यन्त्र का ज़िक्र ; 5. शिकवये यारे तरहदार- रंगीले मित्रों की शिकायत; 6. वज़ए देरीना- प्राचीन ढंग; 7. इसरार- ताकीद। अपने पहले दीवान ‘नक़्शे-फरियादी’ के प्राक़्क़थन में उन्होंने इस बात को लिखा कि बेवजह शेर लिखना कोई अक्लमंदी का काम नहीं। आप लगभग चार साल से अधिक समय तक जेल में बन्द रहे और तीन महीने कैदे-तनहाई में रहे। इस दौरान आपने काफ़ी नज़्में लिखीं जो उनके दीवान ‘दस्ते-सबा’ और ‘जिंदानामा’ में संग्रहित कर प्रकाशित की गई हैं। आपको सन् 1962 में लेनिन पुरस्कार से नवाज़ा गया। जिन्दगी की शाम दमे के रोग से ग्रसित रही और आपका इन्तकाल 20 नवंबर 1985 को लाहौर में हुआ। अदबी महफिलों के इस शायर ने गालिब और इकबाल का सिलसिला जारी रखा। प्रतीकात्मक नज्में लिखने में आपका कोई सानी न था। अपने पहले दीवान ‘नक़्शे-फरियादी’ में आपने समाज के बेघर-आवारा लोगों के जीवन और दर्शन पर एक नज़्म लिखी, जिसका शीर्षक था ‘कुत्ते’। इस नज़्म के चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं‒ ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते। कि बख़्शा गया जिनको ज़ौक़े-गदाई1।। ज़माने की फटकार सरमाया इनका। जहाँ-भर की दुत्कार इनकी कमाई।। न आराम शब को न राहत सवेरे। गलाज़त2 में घर, नालियों में बसेरे।। जो बिगड़ें तो इक-दूसरे से लड़ा दो। ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो।। ये हर एक की ठोकरें खाने वाले। ये फाकों3 से उकता4 के मर जाने वाले।। ये मज़लूम मख्लूक़ गर सर उठाये। तो इंसान सब सरकशी5 भूल जाये।। ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें। ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें।। कोई इनको अहसासे-ज़िल्लत6 दिला दे। कोई उनकी सोई हुई दुम हिला दे।। यहाँ कुत्ते उन बेघर लोगों के प्रतीक हैं जो अपनी रातें फुटपाथ पर आवारा घूमते, फटकार खाते ज्यों-त्यों बिताते हैं। सिर उठाना, दुम हिलाना, हड्डियाँ चबाना आदि शब्द इस वर्ग की भावनाओं के प्रतीक हैं। यह नज़्म यथार्थ परक है और समाज की व्यवस्था पर एक तंज हैं। 1. ज़ौके गदाई- भीख मांगने का शौक; 2. गलाज़त- गंदगी; 3. फाकों- भूख; 4. उकता- व्याकुल; 5. सरकशी- अकड़; 6. अहसासे ज़िल्लत- अपमान का अहसास। फैज साहब की एक और नज़्म जिसका शीर्षक ‘सोच’ है, पेश करता हूं‒ क्यों मेरा दिल शाद1 नहीं है, क्यों खामोश रहा करता हूं। छोड़ो मेरी राम कहानी, मैं जैसा भी हूँ अच्छा हूँ।। मेरा दिल ग़मगीन है तो क्या, ग़मगीं ये दुनिया है सारी। ये दुःख तेरा है न मेरा, हम सब की जागीर है प्यारी।। तू गर मेरी भी हो जाये, दुनिया के ग़म यूँ ही रहेंगे। पाप के फंदे, जुल्म के बंधन, अपने कहे से कट न सकेंगे।। गम हर हालत में मोहलक2 हैं, अपना हो या और किसी का। रोना-धोना, जी को जलाना, यूं भी हमारा, यूं भी हमारा।। क्यूं न जहाँ का ग़म अपनालें, बाद में सब तद्बीरें3 सोचें। बाद में सुख के सपने देखें, सपनों की ताबीरें4 सोचें।। बेफिक्रे धन दौलत वाले, ये आख़िर क्यों खुश रहते हैं। इनका सुख आपस में बाँटें, यह भी आखिर हम जैसे हैं।। हमने माना जंग कड़ी है, सर फूटेंगें खून बहेगा। खून में ग़म भी बह जायेंगे, हम न रहें, गम भी न रहेगा।। इंसान की जिंदगी में गम ही गम आते हैं। दुनिया में ऐसा कोई नहीं जिसके पास गम न हो। ग़मों को मिटा देना किसी के बस की बात नहीं। गमों से छुटकारा रोने-धोने से नहीं मिलता। ये सब भाव इस नज़्म में समाहित हो गये हैं। नज़्म अच्छी बन पड़ी है। एक और नज़्म में आपको फ़ैज़ साहब के फन की इंतिहा की मिसाल के तौर पर नज़र करता हूँ। नज़्म का शीर्षक है ‘शीशों का मसीहा कोई नहीं!’ मोती हो के शीशा, जाम हो कि टुर। जो टूट गया सो टूट गया।। कब अश्कों से जुड़ सकता है। जो टूट गया सो टूट गया।। तुम नाहक टुकड़े चुन-चुन कर। दामन में छुपाये बैठे हो।। शीशों का मसीहा5 कोई नहीं। क्या आस लगाये बैठे हो।। शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं। वो सागरे-दिल है जिसमें कभी।। सद नाज़6 से उतरा करती थी। सहबाए-गमे जानां की परी।। 1. शाद- प्रसन्न; 2. मोहलक- जानलेवा; 3. तदबीरे- जतन; 4. ताबीरें- परिणाम; 5. मसीहा- हिफाज़त का ज़िम्मेदार; 6. सद नाज़- सौ नखरे। फिर दुनिया वालों ने तुम से। ये सागर लेकर फोड़ दिया।। जो मय थी बहा दी मिट्टी में। मेहमान का शहपर तोड़ दिया।।... ...या शायद इन जर्रों में कहीं। मोती है तुम्हारी इज़्ज़त का।। वो जिस से तुम्हारे इज़्ज़ पे भी। शमशादक़दों ने नाज किया।। उस माल की धुन में फिरते थे। ताज़िर भी बहुत, रहज़न1 भी बहुत।। है चोर-नगर याँ मुफ़लिस की। गर जान बची तो आन गई।। ये सागर-शीशे,2 लालो-गुहर3। सालम4 हों तो क़ीमत पाते हैं।। यूं टुकड़े-टुकड़े हों तो फ़कत। चुभते हैं, लहू रूलवाते हैं।। तुम नाहक शीशे चुन-चुन कर। दामन में छुपाये बैठे हो।। शीशों का मसीहा कोई नहीं। क्या आस लगाये बैठे हो।।... इस नज़्म के ऊपर लिखे चंद अशआरों से आपको फ़ैज़ साहब से गहरी बाबस्तगी का अहसास होगा। आपकी एक नज़्म है जिसका नाम है ‘तराना’। यह बहुत अच्छी बन पड़ी है और काफ़ी मशहूर भी रही है, पेश करता हूँ- दरबारे-वतन5 में जब इक दिन, सब जाने वाले जाएंगे। कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा6 ले जायेंगे।। ए ख़ाक नशीनों ! उठ बैठो, वो वक्त करीब आ पहुँचा है। जब तख़्त गिराए जायेंगे, जब ताज़ उछाले जाएंगे।। अब दूर गिरेंगी जंजीरे, अब ज़िन्दानों7 की ख़ैर नहीं। जो दरिया झूम के उट्ठेंगे, तिनकों से न टाले जाएंगे।। कटते भी चलो बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत। चलते भी चलो कि अब डेरे, मंजिल पे ही डाले जाएंगे।। 1. रहज़न- मार्ग में लूटने वाले; 2. सागर शीशे- शिशे का गिलास, जाम; 3. लालो गुहर- माणक, मोती; 4. सालम- साबुत; 5. दरबाने वतन- जनता के दरबार में; 6. जज़ा- इनाम; 7. ज़िन्दानों- कैदखानों जेलों। ऐ जुल्म के मारों ! लब खोलो, चुप रहने वाले चुप कब तक। कुछ हश्र1 तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जाएंगे।। इसी नज़्म से शीर्षक निकाल कर एक और नज़्म लिखी जिसका शीर्षक बना, ‘सब ताज़ उछाले जायेंगे, सब तख़्त गिराए जायेंगे’। इस नज़्म के चन्द अशआर पेश हैं- दम महकूमों2 के पाँओं तले, जब धरती धड़-धड़ धड़केगी। और अहल-ए-हिकम3 के सर ऊपर, जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी। जब अर्जए-खुदा4 के काबे से, सब बुत उठवाए जाएंगे। हम अहले-सफ़ा5 मरदूदे6 हरम, मसनद7 पे बिठाये जाएंगे। सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाऐगें।। अब इनकी लिखी एक दो गज़लें पेश करता हूँ- हर हक़ीक़त मजाज़8 हो जाए। काफ़िरों की नामज़ हो जाये।। मिन्नते-चारा साज़9 कौन करे। दर्द जब जां-नवाज़10 हो जाये।। इश्क़ दिल में रहे तो रूसवा11 हो। लब पे आये तो राज़12 हो जाये।। लुत्फ़ का इंतिज़ार करता हूँ। जोर ता-हद्दे-नाज़13 हो जाये।। उम्र बेसूद14 कट रही है फ़ैज़। काश ! अफ़शा-ए-राज़15 हो जाये।। 1. हश्र- प्रलय; 2. महकूमों- प्रजा; 3. अहल ए हिकम- राजा; 4. अर्जए खुदा-खुदा की धरती; 5. अहले सफ़ा-चबूतरे पर बैठने वाले; 6. मरदूदे- तिरस्कृत; 7. मसनद- गद्दी; 8. मजाज़- प्रकट; 9. मिन्नते चारा साज़- दवा देने वाले को प्रार्थना; 10. जां नवाज़- जीवनदायी; 11. रूसवा- बदनाम; 12. राज़- भेद; 13. ता हददे नाज़- नज़ाकत की हद तक; 14. बेसूद- व्यर्थ; 15. अफ़शा ए राज़- भेद खुलना। दूसरी गज़ल है कि- राजे-उल्फ़त छुपा के देख लिया। दिल बहुत कुछ ज़ला के देख लिया।। और क्या देखने को बाक़ी है। आप से दिल लगा के देख लिया।। आस उस दर से टूटती ही नहीं। जाके देखा, न जा के देख लिया।। वो मेरे होके भी मेरे न हुए। उनको अपना बना के देख लिया।। आज उनकी नज़र में कुछ हमने। सब की नज़रें बचा के देख लिया।। फ़ैज़ तकमीले-ग़म1 भी हो न सकी। इश्क़ को आज़मा के देख लिया।। फ़ैज़ साहब की शायरी के बारे में ‘असर’ लख़नवी ने फरमाया था कि उनकी शायरी पढ़कर ऐसा लगता है कि परियों का एक झुण्ड किसी तिलिस्म में उड़ रहा हो या फिर इन्द्रधनुषी बादलों से रंग बिरंगी बारिश हो रही हो। उनकी इस तारीफ में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। यह बात ऊपर उद्धरित नज़्मों तथा गज़लों को पढ़कर स्पष्ट दिखाई देती है। अब हम उनके चन्द यादगार अशआर पर गौर करेंगे और इस बात की दुबारा पुष्टि करेंगे। तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं। किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं।। हर अजनबी हमें महरम2 दिखाई देता है। जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं।। बेबसी का कोई दरमा3 नहीं करने देते। अब तो वीराना भी वीरां नहीं करने देते।। उनको इस्लाम के लुट जाने का इतना डर है। अब तो काफ़िर को मुसलमां नहीं करने देते।। वक़्फे-हिर्मानो-यास4 रहता है। दिल है अक्सर उदास रहता है।। तुम तो गम दे के भूल जाते हो। मुझको एहसां का पास रहता है।। 1. तकमीले ग़म- दुखों की पूर्ति; 2. महरम- अपना; 3. दरमा- उपचार; 4. वक़्फे हिर्मानो यास- वेदना एवं दुखों को समर्पित। कर रहा था गमे-जहाँ का हिसाब। आज तुम याद बेहिसाब आये।। न गई तेरे गम की सरदारी। दिल में यूं रोज़ इंक़िलाब आये।। फिक्रे-सूदो-ज़ियाँ1 तो छूटेगी। मिन्नते-ईनो-आं2 तो छूटेगी।। ख़ैर, दोज़ख़ में मय मिले न मिले। शैख़ साहब से तो जाँ छूटेगी।। शम्ए-नज़र, ख़याल के अंजुम,3 ज़िगर के दाग। जितने चिराग हैं तेरी महफ़िल से आए हैं।। उठकर तो आ गये तेरी बज़्म से मगर। कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं।। हम जैसे फ़ैज़ पर आ कर फ़ैज़ के हो गये हैं। लेकिन सफ़र को आगे जारी रखना होगा, कारवां को जहाँ से गुज़रना होगा। तो फ़ैज़ साहब को शब्बा-खैर उन्हीं के इन अशआर के साथ- बात बस से निकल चली है। दिल की हालत संभल चली है।। अब जुनूँ4 हद से बढ़ चला है। अब तबीयत बहल चली है।। * 1. फिक्रे सूदो ज़ियाँ- लाभ हानि की चिंता; 2. मिन्नते ईनो आं- इसकी उसकी आजिज़ी; 3. ख़याल के अंजुम- विचारों के तारे; 4. जुनूँ- जोश।