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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:04 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
मुहम्मद मीर तकी ‘मीर’ ज्यों-ज्यों मुग़लिया सल्तनत का सूरज अस्त होता गया उर्दू शायरी परवान चढ़ती गई। इस समय मीर, दर्द, सौदा और सोज जैसे महान् शायर हुए जिनका लोहा ज़ौक़, ग़ालिब, मोमिन नासिख़ और आतिश जैसे शायरों ने भी माना है। इन उस्तादों ने उर्दू ज़ुबान में कुछ ऐसी बात पैदा की कि सुनने वाले कलेजा थाम लें। मीर ने ‘वासोख्त’ (जिसमें माशूक के बेवफ़ा होने और आशिक के रंजो मलाल पर नज़्म कही जाती है।) और सौदा ने क़सीदा (प्रशंसा में की गई शायरी) तथा हिज़ो (व्यंगात्मक शायरी) की ईजाद1 की । ‘दर्द’ ने इश्क़ के गम को एक नया जलाल2 बख्शा। मीर-तकी-मीर को ‘आबरू-ए-सुखन’ कहा जाता है। इश्क़ को बुलन्दी देने वाले कई शेर मीर साहब ने ही कहे हैं। मीर आगरे में पैदा हुए लेकिन जवाँ होने तक दिल्ली में आ बसे। नवाब आसिफुद्दौला के समय वे लखनऊ चले गये। क्या मीर का भी बाज़ारी इश्क़िया शायरी से कोई तआल्लुक रहा होगा? उनके चन्द अशआर पेश है। फोड़ा सा सारी रात जो पकता रहेगा दिल। तो सुबह तक तो हाथ लगाया न जायेगा।। याद उसकी इतनी .खूब नहीं मीर! बाज आ। नादान फिर वह दिल से भुलाया न जाएगा।। हस्ती3 अपनी हुबाब4 की सी है। यह नुमाइश5 सराब6 की सी है।। नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए। पंखड़ी इक गुलाब की सी है।। बार बार उसके दर पर जाता हूँ। हालात अब इज़्तराब7 की सी है।। 1. ईजाद - आविष्कार, खोज; 2.जलाल - प्रताप, अजमत; 3. हस्ती - वजूद, अस्तित्व; 4. हुबाब - बुलबुला; 5. नुमाइश - प्रदर्शनी; 6. सराब - मरीचिका, भंगुर; 7. इज़्तराब - जुनून, बेचैनी। मैं जो बोला, कहा कि यह आवाज। उसी ख़ाना खराब़ की सी है।। ‘मीर’ इन नीम-बाज़1 आँखों में। सारी मस्ती शराब की सी है।। मीर साहब के पाक इश्क़िया शायरी के चन्द शेर आप पहले भी देख चुके हैं। उनके पाक इश्क़ की बुलन्दी का आलम ये था कि वे माशूक की वादा खिलाफ़ी पर भी यही कहते थे कि - जिगर कावी नाकामी, दुनिया है आखिर। नहीं आये जो ‘मीर’ कुछ काम होगा।। और माशूक की दरकारी2 को भी इश्क़ की कमी बताते हैं- मुझी को मिलने का ढ़ब कुछ न आया। नहीं तक़सीर3 उस ना-आश्ना की।। मीर ने अपनी ज़िंदगी में जो भोगा उसी की व्यथा तथा पीड़ा उनकी शायरी में भरी पड़ी है। मीर साहब ही की ज़ुबानी‒ किस-किस तरह से उम्र को काटा है मीर ने। तब आखिरी ज़माने में यह रेख़्ता कहा। और - हमको शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब हमने। दर्दो-ग़म कितने जमा किये तो, दीवान बना।। अगर ‘हाफ़िज’ फ़ारसी शायरी के आबरू-ए-सुखन थे तो ‘मीर’ को उर्दू शायरी का आबरू-ए-सुखन4 कहा जा सकता है। यह बात निर्विवाद रूप से सही है और इस पर आज-तक किसी ने तर्क नहीं किया। ‘नियाज’ फ़तहपुरी साहब के शब्दों में‒ ‘‘दोस्त-दुश्मन सबने इनको ग़ज़ल का इमाम तस्लीम5 किया है। और हक़ीक़त ये है कि उर्दू शायरी कितनी ही जदीद फ़तूहात (सफ़लतायें) हासिल कर ले, लेकिन वह उस मुमलिकत (सल्तनत) में कोई फ़ातिहाना (विजयी) क़दम नहीं रख सकती जो ‘म़ीर’ के कब्जे में आ चुकी है। ज़बान की हलावत (मिठास), आशिक़ाना उफ़्तादगी (प्रेम में समर्पण), वालिहाना रबूदगी (प्रेम का दर्द) कौन सी ऐसी चीज़ है जो मीर की गज़लों में नहीं पाई जाती। और अब किसमें हिम्मत है जो उनमें कोई इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) कर सके।’’ 1. नीमबाज़- अधखुली; 2.दरकारी- चाहत प्राप्त करने की इच्छा; 3. तकसीर- कसूर; 4. खुदायेसुखन- शायरी का खुदा; 5. तस्लीम- मानना। मिसाल के तौर पर उनकी पाकिया-इश्क़ की शायरी का एक नमूना पेश है। आग थे इब्तदाये-इश्क़1 में हम। अब जो हैं ख़ाक इन्तिहा2 है यह।। इश्क़ के बारे में मीर साहब की कही कुछ बातें पेशे-खिदमत हैं- इश्क़ करते हैं उस परीरू3 से। ‘मीर’ साहब भी क्या दिवाने हैं।। हम तेरे इश्क़ से तो वाकिफ़4 नहीं, मगर हाँ। सीने में जैसे कोई दिल को मला करे है।। फिरते हो ‘मीर’ साहब सबसे जुदे-जुदे5 तुम। शायद कहीं तुम्हारा दिल इन दिनों लगा है।। हम जानते तो इश्क न करते किसूके साथ। ले जाते दिल को ख़ाक में इस आरज़ू6 के साथ।। फिरते हैं ‘मीर’ ख़्वार5 कोई पूछता नहीं। इस आशिकी में इज़्ज़ते-सादात7 भी गई।। किस तरह से मानिये यारों कि यह आशिक नहीं। रंग उड़ा जाता है, टुक चेहरा तो देखो ‘मीर’ का।। दिल गया, रूसवा हुआ, आखिर को सौदा हो गया। इस दो रोजा-जीस्त8 में, इस पर भी क्या-क्या हो गया।। कुछ तुम्हीं मिलने से बेज़ार10 हो मेरे वर्ना। दोस्ती नंग नहीं, ऐब नहीं, आर11 नहीं।। चाहत का इज़हार12 किया सो अपना काम ख़राब हुआ। इस परदे के उठ जाने से उसको हमसे हिज़ाब13 हुआ।। कुछ ज़र्द-ज़र्द14 चेहरा, कुछ लाग़िरी15 बदन में। क्या इश्क़ में हुआ है ऐ ‘मीर’ ! हाल तेरा।। 1. इब्तदा - शुरूआत; 2. इंतिहा-अंत; 3. परीरू - परी से चेहरे वाला; 4.वाकिफ- जानकार; 5. जुदे जुदे- अलग अलग; 6. आरजू- इच्छा; 7. ख़्वार- बेआबरू; 8. सादात- बुजुर्गी, श्रेष्ठता (हज़रत अली के वंशज सैयद कहलाते हैं और उनकी वंशानुगत श्रेष्ठता को सादात कहते हैं); 9. जीस्त- जीवन; 10. बेज़ार- नाखुश; 11. आर- दोष, धिन, गैरत; 12. इजहार- अभिव्यक्ति; 13. हिजाब- पर्दा; 14. जर्द-पीला; 15. लागिरी - कमजोरी। हर जिन्स1 के ख़्वाहाँ2 मिले बाज़ारे-जहाँ में। लेकिन मिला न कोई खरीदारे-मुहब्बत।। गदा3 शाह दोनों हैं दिलबाख़्ता4। अजब इश्क़-बाज़ी का दस्तूर है।। हमने अपनी सी बहुत की लेकिन। मरीज़े-इश्क़ का इलाज़ नहीं।। इन सब अशआर को पढ़कर लगता है कि मीर को मुहब्बत के हर पहलू का अच्छा अनुभव था और ये बात सही भी है। इश्क़ की इंतिहा देख और महसूस कर चुका इंसान ही यह कह सकता है कि‒ चाहें तो तुमको चाहें, देखें तो तुमको देखें। ख़्वाहिश5 दिलों की तुम हो, आँखों की आरज़ू तुम।। इश्क़ में सारी उम्र माशूक की गली के फेरे लगाये। इश्क़ में आने वाली आफ़ात6 को सब्र के साथ झेला। परन्तु अन्त में पछतावे के सिवा क्या हाथ लगा? इस बात का बयान देखें। जुल्म हुए हैं क्या-क्या हम पर, सब्र किये हैं क्या-क्या हम। आन लगे हैं गोर7 किनारे उस की गली में जा-जा हम।। इश्क़ किया है उस गुल से या आफ़त लाये सर पर हम। झाँकते उसको साथ सबा8 के सुबह फिरे हैं घर-घर हम।। हम न कहा करते थे तुमसे, ‘‘दिल न किसूसे लगाओ तुम’’। जी देना पड़ता है इसमें, ऐसा न हो पछताओ तुम’’।। इश्क़ एक ऐसी बीमारी है जिससे मुक्ति की कोई आशा नहीं होती। दिल की नहीं बीमारी ऐसी जिसमें हो उम्मीदे-शफ़ा9। क्या संभलेगा ‘मीर’ सितम-कश, वह तो मारा ग़म का है।। लेकिन इश्क़ में हुई नाकामी से बहुत निराशा होती है। इस निराशा में आशिक़ क्या-क्या मंसूबे बनाने लगता है जरा देखें तो सही। यूं नाकाम रहेंगे कब तक, जी में है इक काम करें। रूसवा10 हो कर मारे जावें, उसको भी बदनाम करें।। दिल में जागे अहसासात और बनावटी भावातिरेकों में दिन-रात का अन्तर होता है। कहावत है कि ‘‘जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने 1. जिन्स - चीज,वस्तु; 2. ख़्वाहाँ- इच्छा रखने वाले; 3. गदा- भिखारी; 4. दिलबाख़्ता- दिलदार; 5. ख़्वाहिश- इच्छा; 6. आफ़ात- मुसीबतें; 7. गोर- कब्र; 8. सबा- ठंडीहवा; 9. शफा- सेहत, तन्दरूस्ती, स्वास्थ्य; 11. रूसवा-बदनाम, निन्दित। पीर पराई।’’ मीर ने इश्क़ के दर्द को भोगा तथा परखा और अपने तजुर्बे के बल पर इश्क़िया-शायरी की। इसीलिए मीर के इश्क़िया कलाम में जो दर्द आ गया वो दूसरे शाइरों के कलाम में नहीं मिलता। और अपने तजुर्बात1 से वे ये वसीयत2 कर गये कि‒ वसीयत ‘मीर’ ने मुझको यही की। कि सब कुछ होना, तू आशिक़ न होना।। इस वसीयत के बावज़ूद इश्क़ पर सबसे बेहतर3 कलाम मीर साहब ही का है। आइए इसे भी देख लें- इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो। सारे आलम4 में फिर रहा है इश्क़।। इश्क़ माशूक़, इश्क़ आशिक है। यानी अपना ही मुब्तला5 है इश्क़।। कौन मक़सद6 को इश्क़ बिन पहुँचा। आरज़ू इश्क़, मुद्दआ है इश्क़।। इश्क़ है तर्जे-तूर7 इश्क़ के तई। कहीं बन्दा कहीं ख़ुदा है इश्क़।। वास्तव में मीर को अपनी ही कौम की एक लड़की से इश्क़ हो गया था। उसको हासिल करने हेतु उन्होंने पारिवारिक तथा सामाजिक दोनों ही स्तरों पर कोशिशें की, बन्धनों को तोड़ने का साहस भी किया लेकिन मायूसी8 हाथ लगी। उन्होंने फिर भी तमाम9 उम्र उसी की चाहत में काट दी। इश्क़ के अपने इस अनुभव में उन्होंने जो व्यथा-टीस तथा वेदना झेली उसे अपनी शायरी में ढाल दिया। इसीसे उनके कलाम में सादगी और स्वाभाविकता आ गई जो दूसरे शायरों के पास अक्सर नहीं होती। शायरी किसी के दबाव, फ़र्माइश, प्रलोभन आदि से नहीं की जा सकती। जब तक दिल में किसी किस्म का जोश या वलवला न हो तब तक शेर नहीं कहा जा सकता, और कह भी दिया जाये तो उसमें वह वज़न आ नहीं पाता जो एक अच्छे शेर में होना चाहिए। इश्क़ में कूचये-महबूब10 का दर्ज़ा काबा-ओ-फ़िरदौस से भी बेहतर होता है और महबूब का मर्तबा11 ख़ुदा से कम नहीं होता इस बात का बयां देखिए- 1. तजुर्बात- अनुभव; 2. वसीयत- अन्तिम इच्छा पत्र; 3. बेहतर- अच्छा; 4. आलम- संसार; 5. मुब्तला- फंसा,हुआ; 6. मकसद- हासिल, लक्ष्य; 7. तर्जेतूर- तूर के पहाड़ सा; 8. मायूसी- निराशा; 9. तमाम- पूरी, पूर्ण; 10. कूचएमहबूब- महबूब की गली; 11. मर्तबा- ओहदा, पद। फ़िरदौस1 को भी आँख उठा देखते नहीं। किस दरज़ा सैर-चश्म2 हैं कूए-बुताँ3 से हम ? ज़न्नत की मिन्नत उनके दमाग़ों से कब उठें ? ख़ाके-रह उसकी, जिसके क़फन का अबीर हो। फ़रो4 न आये सर उसका तवाफ़े5-काबा से। नसीब6 जिसको तेरे दर की जबीं साई7 हो।। किसको कहते हैं, नहीं जानता मैं इस्लामो-कुफ्र। दैर8 हो या काबा, मतलब मुझको तेरे दर से है।। इसी ज़मीन पर मीर के दो बेहतरीन शेर भी पेशे-खिदमत हैं- हज़ार-मर्तबा बेहतर है बादशाही से। अगर नसीब तेरे कूचे की गदाई हो।। बैठने दे है कौन फिर उसको ? जो तेरे आस्ताँ9 से उठता है। यूं उठे आह उस गली से फलक, जैसे कोई जहाँ से उठता है।। माशूक का ज़माल और उसका बयान एक बहुत ही नाज़ुक ज़मीन है। यहाँ ज़रा सा चूके कि फ़िसले और गिरे अश्लीलता पर। पाक-इश्क़िया शायरी में तो यह काम और भी मुश्किल होता है क्यों कि वहाँ महबूब की पाक-दामनी भी ख़तरे में आ जाती है। परन्तु मीर साहब ने तो माशूक के मुख पर झलके पसीने की भी क्या तुलना की है देखिए- यूं अर्क़10 जलवागर है उसके रूख़ पर। जिस तरह ओस फूल पर देखो।। और माशूक के लबों की नाज़ुकी की तुलना तो इससे भी बेहतरीन है- नाजुकी उन के लब की क्या कहिए। पंखड़ी इक गुलाब की-सी है।। माशूक के नहाने के मंजर का जिक्र करना तो अश्लीलता को न्यौता देने से कम नहीं परन्तु मीर साहब से तो यह जिक्र भी कुछ ऐसे हुआ मानो कोई पानी में पड़ा मोती देख रहा हो। शब नहाता था जो वह रश्के-क़मर12 पानी में। गुंथी मेहताब13 से उठती थी लहर पानी में।। 1. फिरदौस- स्वर्ग, बाहिश्त; 2. सैर चश्म- देखने के शौकीन; 3. कूए बुताँ- हसीनों की गली; 4. फरो- कोताही, चूक; 5. तवाफे काबा- काबे की पैकरमा; 6. नसीब- किस्मत, मिलना; 7. जबीं साई- माथा रगड़ना; 8. दैर- मन्दिर; 10. आस्ताँ- दर, दरवाजा; 11. अर्क- पसीना; 12. रश्के-कमर- चाँद जिससे ईर्ष्या करे; 13. मेहताब- चाँद। साथ उस हुस्न के देता था दिखाई वोह बदन। जैसे झमके है पड़ा गोहरे-तन1 पानी में।। और अब आँखों की मस्ती देखिये- देखी थी इक रोज़ तेरी मस्त अँखड़ियाँ। अँगड़ाइयाँ ही लेते हैं अब तक ख़ुमार2 में।। खिलना कम कम कली ने सीखा है। उसकी आँखों की नीम-ख़्वाबी से।। उस समय आशिक की आहो-ज़ारी भी हुस्नो-इश्क़ रूपक का एक अहम मसला समझा जाता था। और इस मसले पर मीर साहब का शेर अर्ज़ है- कभी ‘मीर’ उस तरफ़ आकर जो छाती कूट जाता है। खुदा शाहिद3 है, अपना तो कलेजा टूट जाता है।। यार के जमाल से तुलना करने को जब फूल उठ खड़े हुए तो देखिये कि जमाले-यार ने क्या कमाल किया- चमन में गुल ने जो कल दावये-ज़माल4 किया। ज़माले-यार ने मुँह उसका खूब लाल किया।। और जब चराग़ों ने यार के रूख़े-रोशन5 से मुक़ाबिला किया तो देखिये क्या कमाल हुआ- वो आए बज़्म में, इतना तो मीर ने देखा। फ़िर उसके बाद चराग़ों में रौशनी न रही।। (इस शेर में वास्तव में हजरत मूसा की खुदा से हुई मुलाकात का जिक्र्र है।) मीर की शायरी का दौर वह दौर था जब मुग़लिया सल्तनत के अंजर-पंजर ढीले हो रहे थे, औरंगजेब के बाद आये सभी मुगलिया शासक नकारा साबित हुए। सत्ता की वास्तविक डोर तब ‘सैयद-बिरादरान’ के हाथों में आ गई और वे बादशाहों को बनाने और बिगाड़ने लगे। सन् 1739 में देहली को, जिसे मीर ने ‘दुनिया में इंतख़ाब’6 कहा ईरान के गड़रिये नादिरशाह ने लूटा और तबाह किया। वह मुगलिया अज़मत7 के दो निशानों ‘तख़्ते-ताऊस’ और ‘कोहीनूर’ को अपने साथ ले गया। तख़्ते-ताऊस के साथ-साथ मुग़लिया शानो-शौकत की भी विदाई हो गई। देहली कभी अहमदशाह अब्दाली से हारी तो कभी मराठों ने वहाँ अपनी मनमानी की। एक रोज गुलाम क़ादिर ‘रोहिल्ला’ नामक एक हिजड़े ने सरे आम बादशाह शाह-आलम की आँखों में जलते सुए सरिये घोंप कर उन्हें अंधा कर दिया। मीर-तकी-मीर जो उस समय दिल्ली में थे ने यह मंजर देखकर कहा कि- 1. गोहरे तन- बदन रूपी मोती; 2. खुमार- मदहोशी, मस्ती; 3. शाहिद- साक्षी, गवाह; 4. दावये ज़माल- सुंदरता का दावा; 5. रूखे रोशन- चमकता, चेहरा; 6. इंतखाब- चुना हुआ, श्रेष्ठ; 7. अज़मत- प्रसिद्ध, बड़ाई, प्रभुता। शहाँ1 की कुह्ले-ज़वाहिर2 थी जिनकी ख़ाके-पा3। उन्हीं की आँख में फिरती सलाइयाँ देखीं।। यह कहावत मशहूर हो गई थी कि ‘सल्तनते शाह आलम अज़ दिल्ली ता पालम’। लेकिन जब दिल्ली में भी शाह की यह हालत कर दी गई तो मीर को वहाँ रहना सही न गुजरा। मीर जब लखनऊ पहुँच जाते हैं और वहाँ की आबो हवा और रवायतों में रच बस जाते हैं तो वहाँ की रंगीन फिज़ाओं की शायरी में ढल कर ऐसे शेर भी कह बैठते हैं‒ मिलो इन दिनों हम से एक रात जानी। कहाँ हम कहाँ तुम कहाँ फिर जवानी।। मीर तकी मीर के छोकरों से इश्क़ संबंधी अशआर भी पाये जाते हैं। इन अशआर को पढ़कर यह नहीं लगता कि ये वही मीर हैं जिन्हें ‘आबरू-ए-सुख़न’ कहा जाता है। और जिन्होंने कहा था कि‒ ‘‘मर-मरके हमने काटी हैं अपनी जवानियाँ।’’ या फिर लिखा था कि- ‘‘थमते थमते थमेंगे आँसू, रोना है कुछ हँसी नहीं है।’’ अब हम मीर की चन्द गजलों का लुत्फ़ लेते हैं। ये गजलें छोटी तथा बहुत उम्दा हैं। हम हुए तुम हुए कि ‘मीर’ हुए। उनकी जुल्फ़ों के सब ‘असीर’4 हुए।। नहीं आते किसू की आंखों में। हो के आशिक़ बहुत हक़ीर5 हुए।। आगे यह बेअदाइयां6 कब थीं । इन दिनों तुम बहुत शरीर हुए।। 1. शहाँ- राज की; 2. कुह्ले जवाहिर- जवाहरात पड़ा सुरमा; 3. खाके पा- पाँवों की खाक; 4. असीर- कैदी; 5. हक़ीर- ज़लील, ख्वार; 6. बेअदाइयाँ- शोखियाँ, शरारतें। एक दूसरी ऐसी ही गज़ल पेश है‒ जिन-जिनको था ये इश्क़ का आज़ार1 मर गए। अक़्सर हमारे साथ के बीमार मर गए।। यूं कानों-कान गुल2 ने न जाना चमन में आह। सर को पटक के हम पसे-दीवार3 मर गए।। सद-कारवां क़ा है कोई पूछता नहीं। गोया मता-ए-दिल4 के ख़रीदार मर गए।। और तीसरी इनसे भी उम्दा ग़ज़ल पेश है- सोज़िशे-दिल5 से मुफ़्त गलते हैं। दाग़ जैसे चिराग़ जलते हैं।। इस तरह दिल गया कि अब तक हम। बैठे रोते हैं हाथ मलते हैं।। भरी रहती हैं आज यूं आंखें। जैसे दरिया कहीं उबलते हैं।। तेरे बेख़ुद जो हैं सो क्या चेतें। ऐसे डूबे कहीं उछलते हैं।। फ़ितना-दर-सर बुताने हश्र6 ख़िराम7। हाय रे किस ठसक से चलते हैं।। ‘मीर’ साहब को देखिए जो बने। अब बहुत घर से कम निकलते हैं।। एक और बेहतरीन गज़ल पेशे खिदमत है- क़स्द8 गर इम्तिहान है प्यारे। अब तलक नीम-जान है प्यारे।। सिजदा करने में सर कटे हैं जहां। सो तेरा आस्तान9 है प्यारे।। गुफ़्तगू10 रेख़्ते में हमसे न कर। यह हमारी ज़बान है प्यारे।। छोड़ जाते हैं दिल को तेरे पास। यह हमारा निशान है प्यारे।। 1. आजार- बीमारी; 2. गुल- फूल; 3. पसे दीवार- दीवार के पीछे; 4. मता ए दिल- दिल की पूंजी; 5. सोजिशे दिल- दिल की जलन, कुढ़न; 6. हश्र- कयामत का दिन; 7. खिराम- नाज से चलना; 8. कस्द- इरादा, नीयत; 9. आस्तां- ठिकाना; 10. गुफ़्तगू- बातचीत। ‘मीर’ अम्दन1 भी कोई मरता है। जान है तो जहान है प्यारे।। और मीर-तकी मीर से विदा लेने से पहले एक आखिरी गज़ल और पेश है- देख तो दिल कि जां से उठता है। यह धुआं-सा कहां से उठता है।। गोर2 किस दिलजले की है ये फ़लक। शोला इस सुब्ह यां से उठता है।। ख़ाना-ए-दिल से ज़िन्हार3 न था। कोई ऐसे मकां से उठता है।। बैठने कौन दे है फिर उसको। जो तेरे आस्तां से उठता है।। यूं उठे आह उस गली से फलक। जैसे कोई जहाँ से उठता है।। इश्क़ एक ‘मीर’ भारी पत्थर है। कब ये तुझ नातवां4 से उठता है।। अब एक कतआ पेश कर ‘मीर’ साहब को खुदा हाफिज़ कहते हैं- मेरे मालिक ने मेरे हक़ में ये एहसान किया। ख़ाक-ए-नाचीज़5 था मैं सो मुझे इन्सान किया।। मुझको शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने। दर्दो-ग़म कितने किए जम्अ तो दीवान किया।। * 1. अम्दन- जानबूझकर; 2. गोर- कब्र, मजार; 3. ज़िन्हार- सचेत, खबरदार; 4. नातवां- कमजोर, हल्का; 5. ख़ाक ए नाचीज़- अस्तित्वहीन, ख़ाक।
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December 13, 2021 at 4:53 PM
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