शकील अहमद ‘शकील’ बदायूनी बाकी रहा था जिन्दा-दिलों में बस इक ‘शकील’। वो भी गमे-फिराक का मारा है आजकल।। ये शेर जनाब ‘शकील’ बदायूंनी साहब ने अपने ही बारे में फरमाया है। शकील साहब को आप बतौर फिल्मी गीतकार बहुत अच्छी तरह से जानते होंगे। ‘‘ये जिन्दगी के मेले’’... (फिल्म-मेला), ‘छोड़ बाबुल का घर’....(फिल्म-बाबुल), ‘जिंदगी देने वाले सुन’... (फिल्म-दिले नादां) ‘बचपन के दिन भुला न देना’.... (फिल्म-दीदार), ‘ओ दुनिया के रखवाले’...(फिल्म- बैजू-बावरा), और ‘ओ दूर के मुसाफिर’... (फिल्म-उड़न खटोला) जैसे अमर गीतों के रचियेत-शकील एक गज़लगो शायर थे। शकील अहमद ‘शकील’ का जन्म सन् 1916 में 3 अगस्त को बदायूँ (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उनके वालिद मौलाना जमील अहमद सोख़्ता क़ादरी साहब ने बहुत प्यार से बेटे को घर पर ही अरबी, फ़ारसी, उर्दू तथा हिन्दी की शुरूआती तालीम दिलवाई। उनके चाचा मौलाना जिया उल क़ादिरी साहब हज़रत मोहम्मद की प्रशंसा में नाअते लिखा करते थे और काफी मशदूर नाअत-गो शायर थे। उस समय बदायूँ मे लख़नवी स्कूल की शायरी का बोलबाला था। और शकील अपने चचा के साथ अक्सर मुशायरों में जाया करते थे। बदायूँ के आसपास की इस शायरी का असर उनकी खुद की शायरी में आना सहज ही था। बीस वर्ष की उम्र में सन् 1936 में शकील आगे की तालीम हासिल करने के लिए अलीगढ़ आए और विश्व विद्यालय में दाखिला लिया जहाँ से आपने बी. ए. तक तालीम हासिल की। वहाँ आपके दोस्त ‘राज’ मुरादाबादी साहब ने इनकी मुलाकात ‘ज़िगर’ मुरादाबादी साहब से करवा दी। जिगर साहब ने आपके शेरो-सुखन के शौक को खूब हवा दी तथा शायरी को बुलन्दियाँ अता की। मौलाना ‘अहसन’ मारहर्वी जो उर्दू के प्राध्यापक थे आपके बड़े रहनुमा रहे। वे ‘शकील’ को कॉलेजों तथा यूनिवर्सिटियों में आयोजित मुशायरों में ले जाते थे। इन मुशायरों में ‘शकील’ और उनके दोस्त ‘राज’ आकर्षण का मरकज हुआ करते थे और इन्हें काफी इनाम, इकराम भी मिले। आपने अलीगढ़ का नाम काफी रोशन किया लेकिन बदायूँ के होने से अपने नाम के साथ ‘बदायूनी’ ही लगाया। जिगर साहब से प्रभावित होकर आप गज़लें लिखने लगे और आपने गज़लों का परचम उस समय बुलन्द रखा जब मजाज़, मजाल, जाँनिसार ‘अख़्तर’ आदि प्रगतिशील शायर गज़ल का जनाज़ा निकालने की कोशिशें कर रहे थे। वे गज़ल की तुलना ‘अफीम’ से करते थे जिसने चीन को बर्बाद कर दिया और रूस की क्रांति से प्रभावित हो गज़लगो शायरों को प्रतिक्रियावादी कहा करते थे। ये वो समय भी था जब अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव उर्दू शायरी में भी आने लगा था। और ‘फ्री वर्स’ तथा ‘ब्लैंक वर्स’ जैसे प्रयोग यहाँ पर भी होने लगे थे। लेकिन ‘ज़िगर’ मुरादाबादी से प्रभावित हो शायरों का एक तबका गज़ल में नई जान फूंकने में लगा था। इस तबके में ‘मजरूह’ सुल्तानपुरी, ‘राज’ मुरादाबादी और ‘शकील’ बदायूनी साहब के नाम सबसे अहम थे। शकील साहब ने ‘मज़रूह’ की तरह गज़ल के साथ नये प्रयोग तो नहीं किये लेकिन ‘ज़िगर’ साहब का अन्धानुकरण भी नहीं किया। कुल मिला कर ‘शकील’ गज़ल की पुरातन विधि का परचम बीसवीं सदी में मजबूती से थामे रहे और उसमें तरन्नुम तथा भाषा की सरलता लाने का सफल प्रयास किया। उन्होंने शायरी का स्तर भी कायम रखा और उसे लोकप्रिय बनाने की भी कोशिश की। उनका मानना था कि भले गज़लें प्रेम और खूबसूरती की कविताएं सही परन्तु इश्क़ और सुंदरता दोनों की अहमियत भी जीवन में किसी अन्य विषय से कम नहीं होती। अलीगढ़ से बी.ए. करने के बाद शकील रसद विभाग में नौकर होकर दिल्ली आ गये और सन् 1942 से 1946 तक वहीं पर रहे। इस दौरान उन्होंने भारत के सभी मुख्य शहरों में आयोजित मुशायरों में शिरकत की और सुनने वालों से खूब दाद और वाहवाही हासिल की। यह वाहवाही उनके दिल को बहुत सुकून देती थी और वे इस वाहवाही के काफी आदी हो गये थे। वे चाहते थे कि उनको सब लोग जान जायें, उनके नग्में, उनकी गजलें हर दिल अज़ीज हों व देश के कोने-कोने में लोग उन्हें गुनगुनाएं। तब उनके दिल में ‘साहिर’ की तरह फिल्म जगत में आ कर गीत लिखने की तमन्ना जगी। सन् 1946 में शकील बम्बई आ गये और फिल्मी नग़्मे लिखने लगे। फिल्म जगत को उस समय शकील जैसे गज़ल गो शायर की ही ताब थी सो उसने शकील को सिर आँखों पर लिया और उनसे सरल भाषा में लोक-प्रिय नग़्में लिखवाये जो इतने प्रसिद्ध हुए कि शकील हिंदोस्ताँ की आवाम के पसंदीदा गीतकार बन बैठे। ऐसा नहीं है कि उनकी मुखालफत नहीं हुई हो। ‘मजरूह’ सुल्तानपुरी के उनसे सैद्धान्तिक मतभेद रहे क्यों कि वे गज़लों में विभिन्न प्रकार के प्रयोगों के हिमायती थे जबकि शकील ने गज़ल में प्रयोग नहीं किये। साहिर ने भी शकील को केवल गज़लगो शायर माना। लेकिन इस मक्तबे-ख़्याल के इख़तिलाफ के चलते भी दोनों ही ने शकील के कलाम को ऊँचे स्तर का माना है। फिर ‘शकील’ ने कभी भी अपने विरोधियों की परवाह नहीं की। उन्होंने फरमाया कि- शेर-ओ-अदब की राह में हूँ गामज़न ‘शकील’। अपने मुखालिफ़ीन1 की परवाह किये बगैर।। जनाब ‘ज़िगर’ मुरादाबादी ने ‘शकील’ को शायरे-कारीगर के बजाय शायरे-फितरत माना जो स्वाभाविक शायरी करता था। क्योंकि उनका कलाम उनकी जिन्दगी का आईना था। लोग कहते हैं कि वे गज़ल के पारम्परिक रूप पर ही कायम रहे उसको नया रंग नहीं दे पाये पर ये सौ टका सही नहीं है। उन्होंने गज़ल में तरन्नुम और भाषा की सरलता का नयापन तो डाला था ही जिससे वह लोकोपयोगी हो गई और आम आदमी भी उसमें रस लेने लगे। उन्हीं के शब्दों में- है यही वक़्ते-अमल2 जहदे-मुसलसल3 की क़सम। बेसहारों की तरह हाथ न मलते रहना।। ऩग्मा-ए-इश्क न हो एक ही घुन पर क़ायम। वक्त के साथ ज़रा राग बदलते रहना।। आइए अब हम उनके कलाम की चुनिंदा गज़लें और नज्में देखते हैं क्योंकि ‘हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या’ एक गज़ल पेशे खिदमत है, विषय है इश्क और उसका गम- मेरी जिन्दगी है ज़ालिम तेरे ग़म से आशकारा4। तेरा गम है दर-हक़ीक़त मुझे जिन्दगी से प्यारा।। वो अगर बुरा न मानें तो जहाने-रंगो-बू5 में। मैं सुकूनेदिल6 की ख़ातिर कोई ढूँढ़ लूं सहारा।। मुझे तुझसे ख़ास निस्बत7, मैं रहीने-मौजे-तूफ़ां8। जिन्हें जिन्दगी थी प्यारी, उन्हें मिल गया किनारा।। मुझे आ गया यकीं सा कि यही है मेरी मंजिल। सरे-राह जब किसी ने मुझे दफ़अतन9 पुकारा।। 1. मुखालिफ़ीन- विरोधियों; 2. वक्ते अमल- काम का समय; 3. जहदे मुसलसल- निरंतर प्रयत्न; 4. आशकारा- प्रकट ज़ाहिर; 5. जहाने रंगो बू- रंग सुगंध की दुनिया; 6. सुकूनेदिल- मन की शांति; 7. निस्बत- लगाव; 8. रहीने मौजे तूफां- तूफानी लहरों में घिरा हुआ; 9. दफ़अतन- यकायक। ये खुनक-खुनक हवायें, ये झुकी-झुकी घटायें। वो नज़र भी क्या नज़र है, जो न समझ ले इशारा।। मैं बताऊँ फर्क नासेह! जो है मुझमें और तुझमें। मेरी जिन्दगी तलातुम1, तेरी जिन्दगी किनारा।। मुझे गुफ़्तगू से बढ़कर, गमे-इज़्ने-गुफ़्तगू2 है। वही बात पूछते हैं, जो न कह सकूं दुबारा।। कोई ऐ शक़ील देखे, ये जुनूं नहीं तो क्या है। कि उसी के हो गये हम, जो न हो सका हमारा।। तो देखा आपने गज़ल का अन्दाज वही पुराना, जमीं भी वही मरा इश्क़ लेकिन तरन्नुम और भाषा की सरलता ने कितना पठनीय बना दिया है इसे और गीत सी सरलता तथा माधुर्य ला दिया है! इसी प्रकार की एक और गज़ल पेश करता हूँ जिसे चाहें तो आप भी अपने ही तरन्नुम में गा सकते हैं और खुशगुलु नहीं तो गुनगुना सकते हैं- जुनूं से गुज़रने को जी चाहता है। हँसी ज़ब्त करने को जी चाहता है।। वो हमसे ख़फ़ा है, हम उनसे ख़फ़ा है। मगर बात करने को जी चाहता है।। है मुद्दत से बेरंग नक़्शे-मुरव्वत। कोई रंग भरने को जी चाहता है।। कज़ा3 मुज्दा-ए-जिंदगी4 ले के आये। कुछ इस तरह से मरने को जी चाहता है।। निजामे-दो-आलम5 की खैर या रब। फिर इक आह करने को जी चाहता है।। गुनाहे-मुकर्रर6 ‘शकील’ अल्लाह-अल्लाह। बिगड़ कर संवरने को जी चाहता है।। इश्क़ का जुनून, और इश्क का ग़म आशिक-ओ-माशूक के लिये पीड़ा का मादक आनन्द होता है जो वह खुशी-खुशी एक-दूसरे के लिये झेलते हैं। इश्क़ की लड़ाई में जुदाई के ग़म को जीत लेना ही आशिको-माशूक की कामयाबी मानी जाती है। इसीलिये कहा गया है कि-इश्क़ में मरना वफ़ा वालों का पहला काम है। इसी जज़्बे पर लिखी एक गज़ल पेशे-खिदमत है। 1. तलातुम- तूफान; 2. गमे इज़्ने गुफ़्तगू- बातचीत की अनुमति का दुख; 3. कज़ा- मौत; 4. मुज्दा ए ज़िंदगी- जीवन का शुभ संदेश; 5. निजामे दो आलम- दोनो जहाँ का प्रबंध; 6. गुनाहे मुकर्रर- पुनः पाप करना। बन जाए क़हर इशरते-पैहम1 कभी-कभी। दिल को सुकूं न दे जो तेरा गम कभी-कभी ।। लम्हाते-यादे-दोस्त2 को स़र्फ़े-दुआ3 न कर । आते हैं जिन्दगी में ये आलम कभी-कभी ।। जाहिद की मैक़शी पे तअज्जुब न कीजिये। लाती है रंग फ़ितरते-आदम4 कभी-कभी।। क़ैफ़ो-निशाते-दर्द5 का आलम6 न पूछिये। हंस कर गुज़ार दी है शबे ग़म कभी-कभी।। उनकी खुशी को अपनी खुशी जानकर ‘शकील’। सर कर लिया7 है मार्का-ए-गम8 कभी-कभी।। माशूक की तमन्ना, माशूक की याद और माशूक का ग़म इन तीन कीमती चीजों के सहारे आशिक आराम से अपनी जिन्दगी बसर कर लेता है। दुनिया भले उसे दीवाना और पागल समझे पर यार के नाम से उसे जो शांति मिलती है वह वसलत से भी बढ़ कर होती है। हर सुबह इक नई आस और हर शाम एक नई शुरूआत समझकर आशिक माशूक के खत और पैगाम की राह जोता हुआ कैसे अपना जीवन काटता है इस पर ये गज़ल देखिये- सुबह का अफसाना कह कर शाम से। खेलता हूँ गर्दिशे-अय्याम9 से।। उनकी याद, उनकी तमन्ना, उन का ग़म। कट रही है जिन्दगी आराम से।। इश्क़ में आयेंगी वो भी साअतें10। काम निकलेगा दिले-नाक़ाम से।। लाख मैं दीवाना-ओ-रूसवा11 सही। फिर भी इक निस्बत12 है तेरे नाम से।। सुबहे-गुलशन13 देखिए क्या गुल खिलाए। कुछ हवा बदली हुई है शाम से।। हाए मेरा मातमे-तिश्ना-लबी14। शीशा मिल कर रो रहा है जाम से।। हर नफ़स महसूस होता है ‘शकील’। आ रहें हैं नामा-औ-पैग़ाम15 से।। 1. इशरते पैहम- लगातार खुशी; 2. लम्हाते यादे दोस्त- दोस्त की याद के क्षण; 3. सर्फे दुआ- प्रार्थना में खर्च; 4. फितरते आदम- व्यक्ति का स्वभाव; 5. क़ैफ़ो निशाते दर्द- दर्द की खुशी का आनंद; 6. आलम- दशा, हालत; 7. सर कर लिया- जीत लिया; 8. मार्का ए गम- दुखों का संग्राम; 9. गर्दिशे अय्याम-मुसीबत के दिन; 10. साअतें-क्षणिकायें; 11.दीवाना ओ रूसवा-पागल और बदनाम; 12. निस्बत- संबंध; 13. सुबहे गुलशन- गुलशन की सुबह; 14. मातमे तिश्ना लबी- प्यासे होंठों का दुख करना; 15. नामा औ पैग़ाम-पत्र और संदेश। इश्क़ की ही जमीन पर से आरंभ हो कर कभी-कभी उनकी गज़लें दूसरे विषयों पर सफ़र करती-करती फ़लसफ़े और तसव्वुफ पर भी आ जाती थी। ऐसी ही एक बेमिसाल गज़ल पेश करता हूँ- गमे-इश्क़ रह गया है, गमे-जुस्तजू1 में ढल कर। वो नज़र से छुप गये हैं, मेरी जिंदगी बदल कर।। तेरी गुफ़्तगू को नासेह दिले-ग़मज़दा2 से जल कर। अभी तक तो सुन रहा था, मगर अब जरा संभलकर।। न मिला सुरागे-मंज़िल3 कहीं उम्र भर किसी को। नज़र आ गई है मंजिल कहीं दो क़दम ही चल कर।। ग़मे-उम्रे-मुख़्तसर4 से, अभी बेखबर हैं कलियाँ। न चमन में फैंक देना, किसी फूल को मसलकर।। हैं किसी के मुन्तजिर हम मगर ऐ उमीदे-मुबहम5। कहीं वक्त रह न जाये यूँ ही करवटें बदल कर ।। मेरी तेज-गामियों से नहीं बर्वफ़6 को भी निस्बत। कहीं खो न जाये दुनिया मेरे साथ-साथ चलकर।। कभी यक-बयक तवज्जुह7, कभी दफ़अतन तगाफुल। मुझे आजमा रहा है, कोई रूख बदल-बदल कर।। है ‘शकील’ जिन्दगी में ये जो वसुअतें नुमाया। इन्हीं वुसअतों से पैदा कोई आलमे-गज़ल8 कर।। इसी प्रकार की एक और गज़ल पेशे-खिदमत है जिसमें इश्क़िया शायरी के रूपक भी हैं तो जगहँ-जगहँ फ़लसफ़ा भी। उनसे उम्मीदे-रू-नुमाई9 है। क्या निगाहों की मौत आई है।। दिल ने ग़म से शिकस्त खाई है। उम्रे-रफ़्ता10 ! तेरी दुहाई है।। दिल की बर्बादियों पे नाजाँ11 हूँ। फतह या फिर शिकस्त खाई है।। मेरे माअबद12 नहीं हैं दैरो-हरम। एहतियातन जबीं13 झुकाई है।। वो हवा दे रहें हैं दामन की। हाय ! किस वक्त नींद आई है।। 1. गमे जुस्तजू-गम की तलाश; 2. दिले ग़मज़दा-उदास मन; 3. सुराग़े मंज़िल- मंज़िल का पता; 4. ग़मे उम्रे मुख़्तसर- अल्पआयु के दुख; 5. उमीदे मुबहम- अस्पष्ट आशा; 6. बर्क- बिजली; 7. यक बयक तवज्जुह- अचानक कृपा; 8. आलमे गज़ल- गज़ल की हालात़ 9. उम्मीदे रू नुमाई- दीदार की आशा; 10. उम्रे रफ्ता- ढलती उम्र; 11. नाजाँ- अभिमानी; 12. माअबद- पूजनीय; 13. जबीं- माथा। खुल गया उनकी आरज़ू में ये राज़। जीस्त अपनी नहीं पराई है।। दूर हो गुन्चे1 मेरी नज़रों से। तूने मेरी हँसी चुराई है।। गुल फ़सुर्दा2, चमन उदास ‘शकील’। यूं भी अक्सर बहार आई है।। ‘शकील’ की गजलों से शेर इकठ्ठे कर नग़्मे भी बनाये गये लेकिन गज़ल की रचना नग़्मे के रूप में नहीं हुई। ऐसी एक गज़ल पेश है। आँखों से दूर, सुबह के तारे चले गये। नींद आ गई तो ग़म के नज़ारे चले गये।। दिल था किसी की याद में मसरूफ, और हम। शीशे3 में जिंदगी को उतारे चले गये।। अल्लाह री बेख़ुदी कि हम उनके रूबरू। बेइख़्तियार उनको पुकारे चले गये।। मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी का जीतना। कुछ जीतने के खौफ़ से हारे चले-गये।। नाकामिये हयात5 का करते भी क्या गिला6। दो दिन गुज़ारना था गुज़ारे चले गये।। उनके बगैर जीस्त बहरहाल7 जीस्त थी। जैसी गुज़र रही थी गुज़ारे चले गये।। जल्वे कहाँ जो ज़ौक़े-तमाशा8 नहीं ‘शकील’। नजरें चली गईं तो नज़ारे चले गये।। गज़लगो शायर के लिये मय, मयखाना और वाइज की बात करना जरूरी हो जाता है। इस मसले पर एक गज़ल पेश है। न पैमाने खनकते हैं न दौरे-जाम चलता है। नई दुनियां के रिंदों में खुदा का नाम चलता है।। ग़मे-इश्क़ो-ग़मे-हस्ती9 के हंगामें जुदा लेकिन। वहाँ भी दिन गुजरते हैं यहाँ भी काम चलता है।। छुपे हैं लाख हक के मरहले10 गुमनाम होठों पर। उसी की बात चल जाती है जिसका नाम चलता है।। 1. गुन्चे- कली; 2. गुल फ़सुर्दा- उदास फूल; 3. शीशे- मदिरा पीने का पात्र; 4 बेइख़्तियार- अनायास, बिना रुके; 5. नाकामिये हयात- जीवन की असफलता; 6. गिला-शिकायत; 7. बहरहाल- हर हाल में; 8. ज़ौक़े तमाशा- दीदार का शौक; 9. ग़मे इश्क़ो ग़मे हस्ती- प्रेम का दुख और जीवन का दुख; 10. हक के मरहले-अधिकार की स्थिति। जुनूने-रहरवी को वक्त की रफ़्तार से पूछो। कोई मंजिल नहीं लेकिन ये सुब्हो-शाम चलता है।। ‘शकीले’-मस्त को मस्ती में जो कहना है कहने दो। ये मैखाना है ऐ वाइज़ यहाँ सब काम चलता है।। काबे तथा बुतखाने की अस्लियत और वाइज की नादानी के साथ हर गज़लगो शायर अपना फ़लसफ़ा बयान करता है। ‘शकील’ साहब भी इस बात का अपवाद न थे। मिसाल पेश करता हूँ- पिनहा दिले-बेताब में अरमान बहुत हैं। घर अपना सलामत रहे मेहमान बहुत हैं।। बुतखाने में गो कुफ्र1 के सामान बहुत हैं। काबे में भी ग़ारत-गरे-ईमान2 बहुत है। तूं खुद को फ़रिश्ता न समझ वाइज़े-नादाँ। दुनिया में तेरे रंग के इंसान बहुत हैं।। तरगीबे-मफ़र3 हम को न दे ऐ ग़मे-दौरां। हस्ती पे गमे-इश्क़ के अहसान बहुत हैं।। हँसता हुआ कुहसारे-हवादिस4 से गुज़र जा। फिर देख कि तेरे लिए मैदान बहुत हैं।। तनजीमे जहाँ5 नई हो कि पुरानी। मेरे लिये यारब तेरे फरमान बहुत हैं।। जिक्रे-लबे-साहिल6 से अभी कुछ नहीं हासिल। कश्ती की ख़बर लीजिये, तूफान बहुत हैं।। होगा न ‘शकील’ आपसे इज़हारे-तमन्ना7। मुश्किल हैं वही काम जो आसान बहुत हैं।। ‘शकील’ की एक गज़ल पर ‘ताजमहल’ फिल्म में एक कव्वाली भी फिल्माई गई है। शब्दों में हेर-फेर जरूर हुआ है। इस गज़ल के चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं- ये ऐशो-तरब8 के मतवाले बेकार की बातें करते हैं। पायल की लमों ? का इल्म नहीं झंकार की बातें करते हैं।। नाहक9 है हवस के बन्दों को नज़्ज़ारा-ए-फितरत10 का दावा। आँखों में नहीं है बेताबी दीदार की बातें करते हैं।। ग़म में भी रहा एहसासे-तरब देखो तो हमारी नादानी। वीराने में सारी उम्र कटी गुलज़ार की बातें करते हैं।। 1. कुफ्र- अधर्म; 2. ग़ारत गरे ईमान- धर्म से भटकाने वाले; 3. तरगीबे मफ़र- निकल भागने को उकसाना; 4. कुहसारे हवादिस- विपत्ति की पहाड़ियाँ; 5. तनज़ीमे जहाँ- संसार की व्यवस्था; 5. ज़िक्रे लबे साहिल- समुद्र के किनारों का वर्णन; 7. इज़हारे तमन्ना- इच्छा प्रकट करना; 8. ऐशो तरब- भोग विलास; 9. नाहक- अकारण़; 10. नज़्ज़ारा ए फितरत- प्रकृति दर्शन। बे-नकदे-अमल1 जन्नत की तलब क्या शै है जनाबे-वाइज़ भी। मुट्ठी में नहीं है दामो-दिरम बाज़ार की बातें करते हैं।। कहते हैं उन्हीं को दुश्मने-दिल है नाम उन्हीं का नासेह2 भी। वो लोग जो रह कर साहिल पर मझधार की बातें करते हैं।। पहुँचे हैं जो अपनी मंजिल पर उनको तो नहीं कुछ नाज़े-सफ़र। चलने का जिन्हें मक़दूर3 नहीं रफ्तार की बातें करते हैं।। ये अहले-कलम4, ये अहले-हुनर5 देखो तो शकील इन सबके जिगर। फ़ाक़ों से हैं दिल मुर्झाये हुए, दिलदार की बातें करते हैं।। इस पर बनी कव्वाली भी अपने आप में बहुत शानदार बन पड़ी है तथा बहुत ही खूबसूरती से फिल्माई गई है। शकील बदायूँनी को गीतकार के रूप में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई। ये क्यों मिली इस बात का राज जानने के लिये आइये उनके कुछ नग्मात पर भी नज़र डालें। सबसे पहले फिल्म ‘उड़न खटोला’ का एक गीत पेश है- चले आज तुम जहाँ से हुई जिन्दगी पराई। तुम्हें मिल गया ठिकाना हमें मौत भी न आई।।........ ओ दूर के मुसाफ़िर हमको भी साथ लेले। हम रह गये अकेले, हम रह गये अकेले।। तूने वो दे दिया गम, बे-मौत मर गये हम। दिल उठ गया जहाँ से, ले चल हमें यहाँ से।। किस काम की ये दुनिया जो जिंदगी से खेले। हमको भी साथ ले ले, हम रह गये अकेले।। सूनी हैं दिल की राहें, खामोश हैं निगाहें। नाक़ाम हसरतों6 का, उठने को है ज़नाज़ा।। चारों तरफ लगें हैं, बार्बादियों के मेले। ओ दूर के मुसाफिर हम को भी साथ लेले। अब आप की खिदमत में पेश है ‘बाबुल’ फिल्म का वो विदाई गीत जो दुल्हनों की डोली उठने पर आज भी बदस्तूर बजाया जाता है, जो उस समय की दुल्हन की मानसिकता का दर्पण है तथा जिसका अब तक कोई सानी नहीं है। छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर, आज जाना पड़ा, आज जाना पड़ा। संग सखियों के जीवन बिताती थी मैं, ब्याह गुड़ियों का हँस-हँस रचाती थी मैं। 1. बे नकदे अमल- बिना कर्म के किये; 2. नासेह- नसीहत देनेवाला; 3. मक़दूर- सामर्थ्य; 4. अहले कलम- लेखक; 5. अहले हुनर- हुनरमंद; 6. नाक़ाम हसरतों- अपूर्ण इच्छायें। सबसे मुँह मोड़ कर, क्या बताऊँ किधर, दिल लगाना पड़ा, आज जाना पड़ा। याद मैके की दिल से भुलाए चली, प्रीत साजन की मन में बसाये चली। याद करके ये घर, रोयें आँखें मगर, मुस्कुराना पड़ा, आज जाना पड़ा। पहन उल्फ़त का गहना, दुल्हन मैं बनी, डोला आया पिया का, सखी मैं चली। ये था झूठा नगर, इसलिए छोड़कर, मोहे जाना पड़ा, आज जाना पड़ा। ऐसी ही एक अन्य अमर रचना है फिल्म बैजू बावरा का वो भजन जिसे बहुत ही तरन्नुम और जी जान लगा कर मुहम्मद ‘रफी’ साहब ने ऐसा गाया है कि भगवान का दिल यदि पत्थर का हो तो भी पिघल जाये। इस गीत का मुखड़ा है, ‘‘ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले........। भगवान से ‘शकील’ का शिकवा इकबाल के खुदा से मुसलमानों के शिकवे से भी बेहतर तरीके और तरन्नुम में बाँधा गया है फिल्म ‘दिले नादाँ’ के इस नग्में में, जिसे तलत अज़ीज साहब ने क्या खूब गाया है कि वल्लाह! ये नग्मा पेश है- जिन्दगी देने वाले सुन, तेरी दुनिया से दिल भर गया, मैं यहाँ जीते जी मर गया। रात कटती नहीं दिन गुज़रता नहीं, जख़्म ऐसा दिया है कि भरता नहीं। आँख वीरान है दिल परीशान है, गम का सामान है, जैसे जादू कोई कर गया। जिन्दगी देने वाले सुन, तेरी दुनिया से दिल............ बेख़ता1 तूने मुझसे खुशी छीन ली, ज़िन्दा रक्खा मगर जिन्दगी छीन ली। कर दिया दिल का खूं साफ क्यूं न कहूँ, तू ख़ुशी से मेरी डर गया। जिन्दगी देने वाले सुन, तेरी दुनिया से दिल............. तो क्या ‘शकील’ के कलाम से आप का दिल भी भर गया? जी नहीं मेरा तो नहीं भरा। मगर, सितारों के आगे जहाँ और भी हैं! तो चलें फिर उनको खोजें और उनका लुत्फ़ लें। * 1. बेख़ता- बिना दोष।