जलील हसन ‘जलील’ मानिकपुरी लख़नवी रंग के शायरों में ‘जलील’ मानिकपुरी साहब का नाम भी बहुत शान से रोशन है। आपका पूरा नाम जलील हसन ‘जलील’ था और आप 1864 में मानिकपुर (अवध) में पैदा हुए थे। आप ‘अमीर मीनाई’ साहब के शागिर्द थे और ‘अमीरूललुगात’ जैसे वृहद कोष के संपादक थे। आप हैदराबाद के निज़ाम के उस्ताद भी रहे और आपको ‘इमामुल-मुल्क’ के ओहदे से नवाज़ा गया था। आपके तीन दीवान प्रकाशित हुए जिनमें दो के नाम थे-‘जाने-स़ुखन’ और ‘सरताजे-सुखन’। आपका इंतकाल सन् 1946 में हुआ। आपके चंद यादगार अशआर पेशे-खिदमत हैं- किधर चले मेरे अश्के-रवां 1 नहीं मालूम। भटक रहा है कहाँ करवाँ नहीं मालूम।। उठा दिया तो है लंगर हवा के झोंकों में। किधर सफ़ीना2 है, साहिल कहाँ नहीं मालूम। जमाना है कि गुज़रा जा रहा है। यह दरिया है कि बहता जा रहा है।। जमाने पै हँसे कि कोई रोये। जो होना है, वोह होता जा रहा है।। क्या पूछता है तूं मेरी बर्बादियों का हाल। थोड़ी सी खाक ले के हवा में उड़ा के देख।। अब क्या करूँ तलाश किसी कारवाँ को मैं। गुम हो गया हूँ पा के तेरे आस्ताँ 3 को मैं।। तेरे ख़याल में आये जो उनसे कह देना। मेरी समझ में तो कुछ नामाबर नहीं आता।। जुदा होने पै दोनों का यही मामूल4 ठहरा है। वोह हम को भूल जाते हैं, हम उनको याद करते हैं।। 1. अश्के रवां- बहते रहने वाले आँसू; 2. सफ़ीना- नाव, जाहज; 3. आस्तां- ठिकाना, दर; 4. मामूल- दस्तूर, रिवाज। हसरतों का सिलसिला कब खत्म होता है ‘जलील’। खिल गये जब गुल तो पैदा और कलियाँ हो गई।। यार तक पहुँचा दिया बेताबिये-दिल1 ने मेरे। इक तड़प में मंजिलों का फ़ासला जाता रहा।। शाम होते ही कभी जान सी आ जाती थी। अब वही शब है कि मर-मर के जिये जाते हैं।। आज ही आ जो तुझको आना है। कल खुदा जाने मैं हुआ न हुआ।। ए जलील आँसू बहाये तुमने क्यों। उनको हँसने का बहाना मिल गया।। थी इश्को-आशिकी के लिए शर्ते-जिंदगी। मरने के वास्ते मुझे जीना जरूर था।। वोह बेखुदी की आड़ में लिपटे जलील से। क्यों कर कहूँ कि होश न था, था, जरूर था।। ये जो सर नीचे किये बैठे हैं। जान कितनों की लिए बैठे हैं।। हमारी बेखुदी का हाल वोह पूछें तो ए कासिद। यह कहना होश इतना है कि तुमको याद करते हैं।। जलील अच्छा नहीं आबाद करना घर मुहब्बत का। यह उनका काम है जो जिन्दगी बरबाद करते हैं।। आते-आते आयेगा उनको ख्याल। जाते-जाते बे-ख़याली जायेगी।। देखते हैं गौर से मेरी शबीह2। शायद इसमें जान डाली जायगी। ऐ तमन्ना तुझको रो लूं शामे-वस्ल। आज तू दिल से निकाली जायेगी।। कब्र में भी होगा रोशन दागे-दिल। चाँद पर क्या ख़ाक डाली जायेगी।। मज़े बेताबियों के आ रहे हैं। वोह हमको, हम उन्हें समझा रहे हैं।। 1. बेताबिये दिल- दिल की बेताबी (उत्कंठा); 2. शबीह- तस्वीर, बुत। भला तौबा का मयख़ाने में क्या जिक्र। जो है भी तो कहीं टूटी पड़ी है।। हुए क्या हसरत-कदा1 था दिल हमारा ऐ जलील। हो गया दो रोज में आबाद भी बरबाद भी।। इज़हारे- हाल पै मुझे कुदरत नहीं रही। उनको ये वहम है कि मुहब्बत नहीं रही।। दिलचस्प हो गई तेरे चलने से रहगुज़र। उठ-उठ के गर्दे-राह लिपटती है राह से।। या खुदा दर्दे-मुहब्बत में असर है कि नहीं। जिस पै मरता हूँ उसे मेरी ख़बर है कि नहीं।। आप से आँख मिलाऊँ यह ताकत नहीं। देखता यह हूँ कि अगली-सी नज़र है कि नहीं।। कह दो ये कोहकन से कि-मरना नहीं कमाल। मर-मर के हिज्रेयार में जीना कमाल है।। इस महवियत2 पै आपकी कुर्बान मैं जलील। इतना नहीं ख़याल कि किसका ख़याल है।। उन शोख हसीनों पै जो आती है जवानी। तलवार बना देती है एक-एक अदा को।। चमन के फूल भी तेरे ही ख़ोशाची3 निकले। किसी पै रंग है तेरा किसी पै बू तेरी।। बनी है जान पै, जाने की तुमने खूब कही। मेरा यह हाल फिर आने की तुमने खूब कही।। मुझको जमाना बुरा कह रहा है, कहने दो। गरज़ है तुमसे ज़माने की तुमने खूब कही।। मस्त कर दे मुझे साकी पर इस शर्त के साथ। होश इतना रहे बाकी कि तुझे याद करूँ।। हुस्न देखा जो बुतों का तो खुदा याद आया। राह काबे की मुझे मिली है बुतखाने से।। 1. हसरत कदा - अपूर्ण इच्छाओं का घर; 2. महवियत- खोया रहना; 3. खोशाचीं- दूसरों के गुणों को अपनाने वाले। हम तुम मिले न थे तो जुदाई का मलाल था। अब यह मलाल है कि तमन्ना निकल गई।। कुछ अख़्तियार1 नहीं किसी का तबीयत पर। यह जिस पै आती है बे-अख़्तियार आती है।। बयाबाँ से निकलना अब मेरे मजनूँ का मुश्किल है। ये काँटा भी उलझ के रह गया सेहरा के दामन से।। हवास2 आये हुए फिर खो दिये लैला ने मजनूं के। यह कहना ताज़याना3 था, ‘मेरा दीवाना आता है’।। इस इत्तफ़ाक़ को फ़ज्ले-खुदा4 समझ वाइज। कि हिजवये-मय5 तेरे लब पै थी मुझे होश न था।। दुकाने-मय जो पहुँच कर खुली हकी़क़ते-हाल। हयात बेच रहा था वोह मय-फ़रोश न था।। ऐ चर्ख6 ! कितने खाक से पैदा हुए हसीन ? तूं एक आफ़ताब को चमका के रह गया।। किसी का हुस्न अगर बेनकाब हो जाता। निज़ामे-आलमे-हस्ती7 ख़राब हो जाता।। कासिद पयामे-शौक़8 को देना बहुत न तूल। कहना फ़क़त यह उनसे कि ‘आँखें तरस गई’। न इशारा, न कनाया9, न तबस्सुम, न कलाम। पास बैठे हैं मगर दूर नज़र आते हैं।। क्या कहूँ ! मर-मर के जीने का मज़ा। ऐ खिज़र10 ये जिन्दगानी और है।। गज़ब होता जो तेरी सूरत बे-परदा कहीं होती। कि तुझपे जो निगाह पड़ती वापसी होती।। नज़र पड़ती है तुम पर सर्वकद11 मुझको रश्क़ आता है। चलो ख़िलवत12 में चल बैठें निकलकर बज़्मे-मशहर13 से।। 1. अख़्तियार- काबू; 2. हवास- होश, औसान; 3. ताजयाना- चाबुक लगाना; 4. फज़्ले खुदा- खुदा का रहम; 5. हिज़वयेमय- शराब की बुराई; 6. चर्ख- आस्मां; 7. निजामे आलमे हस्ती- संसार के अस्तित्व का इंतजाम; 8. पयामे शौक- प्रेम संदेश; 9. कनाया- संकेत, गुप्त बात; 10. खिजर- रहनुमाँ, मार्गदर्शक; 11. सर्वकद- लम्बे कदवाली; 12. ख़िलवत- अकेले में; 13. बज़्मे मशहर- मशहूर लोगों की महफिल। तुम ने आ कर मिज़ाज पूछ लिया। अब तबीयत कहाँ बहलती है।। दे रहे हैं मय वो अपने हाथ से। अब यह शय इन्कार के काबिल नहीं।। अजब हौसला हमने देखा गुंचे का। तबस्सुम पे लुटा दी सारी जवानी अपनी।। आके दो दिन को फस्ले-गुल1 स़ाकी। मुब्तला2 कर गई गुनाहों में।। खिज्र3 को ढूंढ़ने मैं निकला था। मिल गये मय कदे की राहों में।। गुजरी इस तरफ से हसीनों की टुकड़ियाँ। कुछ रो गईं तो कुछ मेरे रोने पे हँस गई।। * 1. फ़स्ले गुल- जवानी, बहार; 2. मुब्तला- फँस जाना; 3 खिज्र- वह फरिश्ता जिसे अमृत का पता मालूम है