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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:17 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
अब्दुल हई ‘साहिर’ लुधियानवी अब्दुल हई ‘साहिर’ का जन्म सन् 1921 में लुधियाना पंजाब के एक जागीरदार घराने में हुआ। परन्तु ऐय्याश पिता की इस एक मात्र संतान को उनकी जागीर से कुछ भी न मिला। बचपन का सुख-वैभव सब छिन गया क्योंकि कोर्ट-कचहरी में ये पिता के खिलाफ तथा माँ के साथ खड़े रहे। पिता की धमकी और माँ के डर के चलते उनके मन में दौलत से घृणा और सामाजिक असुरक्षा के भाव पैदा हो गये। मानसिक उलझनों के बीच प्रेम से भी रूबरू हुए पर गरीबी और साहस की कमी के चलते वह भी विफल रहा। इसी असफल प्रेम के कारण कॉलेज से भी बेदखल कर दिया गया। तब छोटी-मोटी नौकरियाँ करके अपना और माँ का गुजारा चलाते थे। मन को हर वक्त तल्खियाँ घेरे रहती और जीवन के इन्हीं कटु अनुभवों ने उन्हें मुफ़लिसी का शायर बना दिया। उनकी शायरी में अपने पिता तथा अपनी प्रेमिका के पिता के प्रति घृणा एवं विद्रोह, सांसारिक समस्याओं से उपजी कटुता कूट-कूट कर भरी रहती है। उनकी इस मानसिकता को उनके इन अशआर में बखूबी देखा जा सकता है- न कोई जादह1, न मंजिल, न रोशनी, न सुराग़। भटक रही है ख़लाओं2 में जिन्दगी मेरी।। इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊंगा कभी खोकर। मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स3 मगर यूं ही।। प्रेम की असफलता के दर्द और प्रेमिका की याद ने उन्हें हर वक्त सर्द आहें भरने को मजबूर किया और तड़प कर वे पूछ बैठे कि‒ मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजाने वाली। तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं।। पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको। मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है कि नहीं।। मेरी दरमांदा4 जवानी की तमन्नाओं के। मुज़महिल5 ख़्वाब की ताबीर बता दे मुझको।। 1.जादह- सफ़र का सामान; 2. ख़लाओं- शून्य; 3. हमनफ़स- साथी; 4. दरमांदा- मजबूर, लाचार; 5. मुज़महिल- कमज़ोर। तेरे दामन में गुलिस्ताँ भी हैं वीराने भी। मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझको।। अपनी प्रेमिका के उस प्रेम को जो हासिल न हुआ, वे अपनी सुकून की मंजिल समझते रहे और सोचते रहे कि- कि जिन्दगी तिरी जुल्फों की नर्म छाओं में। गुजरने पाती तो शादाब1 हो भी सकती थी।। ये तीरगी2 जो मिरी जीस्त का मुक़द्दर है। तेरी नज़र की शुआओं3 में खो भी सकती थी।। और फिर खुद ही कह बैठते थे कि-मगर ये हो न सका....! फिर निराशा की मानसिकता में दुबारा उसी से मुखातिब हो कर कहते कि- तुझको ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह4 को। बर्बाद कर दिया तेरे दो दिन के प्यार ने।। साहिर से पहले आस्माने शाइरी में, इकबाल, जोश, मज़ाज, फिराक, तथा फ़ैज़ जैसे सितारे चमक रहे थे। साहिर खुद भी मजाज़ और फैज़ साहब के कद्रदाँ थे और उनकी शायरी का असर भी बहुत था इन पर। अपने जज़्बात और अनुभवों के बल पर साहिर की शायरी में इक अलग बात पैदा हो गई जिसके बल पर वे आस्मान की बुलंदियों पर अपना एक अलग वजूद कायम कर गये। उनके पहले दीवान का नाम था ‘तल्खियाँ’ जो 1945 में लाहौर से प्रकाशित हुआ। और इसके छपने के साथ ही ‘साहिर’ की अपनी पहचान बन गई। आजादी के बाद उन्हें तथा उनकी माँ को लाहौर से दिल्ली आना पड़ा क्योंकि अपनी पत्रिका ‘सवेरा’ में उनकी कलम ने राज्य के खिलाफ कुछ छाप दिया था। पर दिल्ली से साहिर शीघ्र ही बम्बई चले गये जहाँ फिल्म जगत उनका बेसब्री से इंतजार कर रहा था। बम्बई में साहिर का गीतकार जागा, आगे बढ़ा और छा गया। साहिर का व्यक्तित्व बहुत असहज किस्म का था। मौका पड़ने पर वह दिन भर, रात भर, निरंतर बोलते रहते थे। ज्यादा देर तक टिक कर बैठ सकना उनके लिए असंभव था। हमेशा परिचितों, दोस्तों से घिरे रहना चाहते थे। चाय-सिगरेट के शौकीन थे और गज़ब की याददाश्त के मालिक थे। अपने जीवन की हर घटना, अपने तथा अन्य शायरों के कलाम, नज़्में, गज़लें सब पूरे के पूरे याद, यहाँ तक कि अपने लिखे, दूसरों से मिले पत्र और अपने लिखे दूसरों के पढ़े लेख भी लाइन दर लाइन याद। फिल्मों के पूरे के पूरे संवाद मुख जबानी। तो ऐसे थे ‘साहिर’! कभी सरल स्वभाव वाले हँसमुख साहिर आत्म प्रंशसा से भर कर मित्रों पर ही व्यंग बाण छोड़ने लगते तो उनकी शख्सियत पर एक सवाल उठ खड़ा होता। परन्तु अगले ही पल वापस वही सरल और मित्रवत व्यवहार! जरा-जरा-सी बात पर उनका मिज़ाज बदलता है। कभी उकताना, कभी शरमाना तो कभी घबरा जाना उनकी फितरत में शामिल था। अनिर्णय की स्थिति के चलते अपनी शादी जैसे विषय पर भी वह निश्चय नहीं कर पाये! मुहब्बत की नाकामी ने साहिर की उमंगों पर ऐसा पानी फेरा कि वह कह बैठे- 1. शादाब- खुशहाल, हरी भरी; 2. तीरगी- अंधकार; 3. शुआओं- रोशनी की किरणें; 4. सादा लौह- निश्छल, सीधे-सादे। मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़। अपनी मासूम उमंगों का फ़साना न सुना।। जिन्दगी तल्ख़ सही, जहर सही, गम ही सही। दर्दो-आज़ार1 सही, जब्र2 सही, गम ही सही।। लेकिन इस दर्दो-गमो-जब्र की वुसअत3 को तो देख। जुल्म की छाँओं में दम तोड़ती ख़लकत4 को तो देख।। अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना। मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेड़।। मुफ़लिसी के आलम में जिन्दगी बसर करने को मजबूर हुए साहिर ने शहंशाहों के इश्क की धज्ज़ियाँ उखेड़ डालने वाले कलाम लिखे। उनकी नज़्में ‘ताजमहल’ और ‘नूरजहाँ के मज़ार से’ पेश करता हूँ ताकि ‘साहिर’ का यह अंदाज आप देखें‒ ताज तेरे लिए इक मज़हरे-उल्फ़त5 ही सही। तुझको इस वादी-ए-रंगीं से अकीदत ही सही।। मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे ! बज़्मे शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी ? सिब्त6 जिस राह पर हों सतवते-शाही7 के निशाँ। उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी ? मेरी महबूब पसे-पर्दा-ए-तश्हीरे-वफ़ा। तूने सतवत के निशानों को तो देखा होता।। मुर्दा शाहों के म़काबिर8 से बहलने वाली। अपने तारीक मकानों9 को तो देखा होता।। 1. दर्दो आज़ार- दर्द और रोग; 2. जब्र- काबू, दबाव; 3. वुसअत- विशालता; 4. ख़लकत- प्रजा, जनता; 5. मज़हरे उल्फ़त- प्रेम की यादगार; 6. सिब्त- चिपके हुए; 7. सतवते शाही- राजकीय शान; 8. मक़ाबिर- मकबरों; 9. तारीक मकानों- अंधेरे मकानों। अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है। कौन कहता है कि सादिक न थे जज़्बे उनके।। लेकिन उनके लिए तश्हीर1 का सामान नहीं। क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे।। मेरी महबूब ! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी। जिनकी सन्नाई 2 ने बख्शी है इसे शक्लो-जमील।। उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनामो-नमूद3। आज तक उनपे जलाई न किसी ने कंदील4।। ये चमन ज़ार ये जमना का किनारा, ये महल। ये मुनक्कश5 दरो-दीवार, ये मेहराब ये ताक़।। इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर। हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक।। मेरी मेहबूब कहीं और मिलाकर मुझसे! नूरजहाँ जनता की बेटी थी। किसी और की बीबी थी। वह शहजादे सलीम को भा गई। ये वही सलीम साहब हैं जिन्हें अनार कली से इश्क़ था और जिनके वालिद ने एक कनीज़ से मोहब्बत के उनके जज़्बे को और कनीज़ के अरमानों को कहीं गहरे दफ़्न करवा दिया था। जब यही सलीम, जहाँगीर बनकर शंहशाह हुए तो नूरजहाँ को जबरन इश्क़ फरमाने को मजबूर किया। फिर इसी नूरजहाँ ने तख़्तो-ताज के अन्दाज अपनाये तो जहाँगीर के चहेते शहजादे खुर्रम ने इन्हें वापस अपनी औकात बता दी। इसी नूरजहाँ के मज़ार का उजड़ा मन्जर देख ‘साहिर’ ने कहा कि- पहलु-ए-शाह में ये दुख़्तरे-जम हूर की कब्र। कितने गुमगश्ता फ़सानों6 का पता देती है।। कितने ख़़ूंरेज़ हकायक से उठाती है नक़ाब। कितनी कुचली हुई जानों का पता देती है।। कैसे मगरूर शहंशाहों की तस्कीं के लिए। सालहा-साल हसीनाओं के बाज़ार लगे।। कैसे बहकी हुई नज़रों के तअय्युश7 के लिए। सुर्ख महलों में जवां जिस्मों के अंबार लगे।। 1. तश्हीर-शोहरत, इश्तहार; 2. सन्नाई- कारीगरी; 3. बेनामो नमूद- गुमनाम, अज्ञात; 4. कंदील- शमा, मोमबत्ती; 5. मुनक्कश- नक्काशी किये हुए; 6. प़फ़सानों- कहानियों; 7. तय्युश-अय्याशी। कैसे हर शाख से मुंह बंद महकती कलियाँ। नोच ली जाती थी तज़ईने-हरम1 की खातिर।। और मुर्झा के भी आज़ाद न हो सकती थी। जिल्ले-सुबहान की उल्फ़त2 के भरम की खातिर।। कैसे इक फ़र्द के होटों की जरा सी जुंबिश। सर्द कर सकती थी बेलौस3 वफ़ाओं के चिराग़।। लूट सकती थी दमकते हुए हाथों का सुहाग। तोड़ सकती थी मए-इश्क़ से लबरेज़ अयाग़4।। सहमी सहमी-सी फ़ज्राओं में ये वीरां मरकद। इतना खामोश है, फरियाद-कुनाँ5 हो जैसे।। सर्द शाखों में हवा चीख रही है ऐसे। रूहे-तकदीसो-वफ़ा6 मर्सिया-ख्वाँ7 हो जैसे।। लगता है ‘साहिर’ ने जब ये नज़्म कही तो उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने प्यार की रूसवाई की है और उनका माशूक इस नज़्म को सुनकर हैरान है। शायद इसीलिए उन्होंने अंत में कहा कि- तूं मेरी जान ! मुझे हैरतो-हसरत से न देख। हममें कोई भी जहाँनूरो-जहाँगीर नहीं।। तूं मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है। तेरे हाथों में मेरे हाथ हैं जंजीर नहीं।। अपनी महबूबा को आजाद समझने वाले ‘साहिर’ हमेशा ये चाहते रहे कि वे खुद उसकी घनेरी जुल्फ़ों की कैद में बंधे रहते। उनकी नज़्म ‘कभी-कभी’ जो कि गीत के रूप में प्रसिद्ध हुई के चन्द अशआर आप पहले पढ़ चुके हैं, और बाकी के पेश करता हूँ, ताकि आप ‘साहिर’ को और करीब से जान सकें। अजब न था कि मैं बेगाना-ए-आलम8 रहकर। तेरे ज़माल की रानाइयों9 में खो रहता।। तेरा गुदाज़ बदन, तेरी नीम-बाज आँखें10। इन्हीं हसीन फसानों में महव्11 हो रहता।। 1. तज़ईने हरम- शयन कक्ष की सज्जा के लिये; 2. जिल्ले सुबहान की उल्प़फ़त- बादशाह के प्रेम; 3. बेलौस- निषकपट; 4. मय इश्व़फ़ से लबरेज़ अयाग़- इश्व़फ़ की शराब से भरा प्याला; 5. प़फ़रियाद कुनाँ- प़फ़रियाद करना; 6. रूहे तकदीसो वप़फ़ा-पवित्र प्रेम की आत्मा; 7. मर्सिया ख़्वाँ- शोक-अलापना; 8. बेगाना ए आलम- दुनिया को भुलाकर; 9. रानाईयों- चमक दमक; 10. नीम बाज़ आँखें- अध खुले नयन; 11. महव्- अभिभूत, खोया। पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ जमाने की। तेरे लबों से हलावत1 के घूँट पी लेता।। हयात2 चीखती फिरती बरहना-सर3 और मैं। घनेरी जुल्फों के साये में छुप के जी लेता।। मगर ये हो न सका और अब ये आलम4 है। कि तूं नहीं, तेरा गम, तेरी जुस्तजू भी नहीं।। गुज़र रही है कुछ इस तरह जिंदगी जैसे। इसे किसी सहारे की आरजू भी नहीं।। जमाने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले। गुज़र रहा हूँ कुछ अजनबी गुज़र गाहों5 से।। महीब साये6 मेरी सम्त7 बढ़ते आते हैं। हयातो-मौत के पुरहौल8 ख़ार ज़ारों9 से।। महबूबा की उपेक्षा, उसका ये कहना कि अब मत मिलो मुझसे, और ये कह कर उसका उदास और गमगीन हो जाना, सभी ‘साहिर’ को नागवार गुजरे। लेकिन उसने यही चाहा कि उसकी खुशियां बरकरार रहे। ‘किसी को उदास देखकर’ नाम की उनकी नज़्म के चन्द अशआर पेश हैं। मुझे तुम्हारे तगाफुल से क्यों शिकायत हो। मेरी फ़ना मेरे अहसास का तक़ाज़ा है।। मैं जानता हूँ कि दुनिया का खौफ़ है तुमको। मुझे खबर है कि, ये दुनिया अज़ीब दुनिया है।। यहाँ हयात के पर्दे में मौत पलती है। शिकस्ते-साज़ की आवाज रूहे-नग़्मा10 है।। मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं। मेरे ख़याल की दुनिया में मेरे पास हो तुम।। ये तुमने ठीक कहा है, तुम्हें मिला न करूं। मगर मुझे ये बता दो कि क्यों उदास हो तुम।। खफ़ा न होना मेरी जुर्रते-तखातुब11 पर। तुम्हें खबर है मेरी जिन्दगी की आस हो तुम।। मेरा तो कुछ नहीं है मैं रोके जी लूंगा। मगर खुदा के लिए तुम असीरे-गम12 न रहो।। 1. हलावत - मिठास; 2. हयात- जीवन; 3. बरहना सर- नंगे सर; 4. आलम- स्थिति; 5. गुज़र गाहों- रास्तों; 6. महीब साये- विशाल परछाइयाँ; 7. सिम्त-तरफ; 8. पुर हौल- डरावने; 9. ख़ार ज़ारों-काँटो भरे रास्ते; 10. रूहे नग़्मा-गीत की आत्मा; 11. जुर्रते तखातुब- संबोधन का साहस; 12. असीरे गम- दुखों की कैदी। हुआ ही क्या जो जमाने ने तुमको छीन लिया। यहाँ पे कौन हुआ है किसी का जरा सोचो तो।। मुझे कसम है मेरी दुःख भरी जवानी की। मैं खुश हूँ मेरी मुहब्बत के फूल ठुकरा दो।। अब कोई कितना भी उदार दिल क्यूं न हो इश्क़ में जो ठेस दिल को लगती है वह शिकवा बन कर उभरती तो जरूर है। अपने मेहबूब से यही शिकायत करते हुए वे उसे सीख देते हैं कि- तूने सर्माए1 की छाओं में पनपने के लिए। अपने दिल, अपनी मोहब्बत का लहू बेचा है।। दिन की तज़ुईने-फ़ुसुर्दा2 का आसासा लेकर। रात की शोख मसर्रत का लहू बेचा है।। इससे क्या फ़ायदा रंगीन लबादों के तले। रूह जलती रहे, गलती रहे, पज़मुर्दा3 रहे।। होंठ हँसते हों दिखावे के तबस्सुम4 के लिये। दिल ग़मे-ज़ीस्त से बोझिल रहे आज़ुर्दा रहे।। दिल की तस्कीं भी है आसाइशे हस्ती5 की दलील। जिंदगी सिर्फ़ ज़रो-सीम6 का पैमाना नहीं।। जीस्त अहसास भी है, शौक भी है, दर्द भी है। सिर्फ अन्फ़ास की तरतीब का अफसाना नहीं।। उम्र भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है। एक लम्हा जो तेरी रूह में वुसअत भर दे।। एक लम्हा जो तेरे गीत को शोख़ी दे दे। एक लम्हा जो तेरी लै में मसर्रत भर दे।। इश्क़ के अलावा कई दूसरी जमीनों पर भी ‘साहिर’ ने गजलें, नज़्मे व गीत लिखे। ऊँचे लोगों को ये सोच होता है कि मुफ़लिस लोगों को तहजीब नहीं होती, गरीबों में शराफत नहीं होती और भूख आदाब के साँचे में नहीं ढल सकती है। इस सोच पर ‘साहिर’ ने तंज करते हुए लिखा कि- (‘मादाम’ नामक नज़्म) आप बेवजह परेशान-सी क्यों हैं मादाम। लोग कहते हैं तो वे ठीक ही कहते होंगे।। मेरे एहबाब ने तहज़ीब न सीखी होगी। मेरे माहौल में इंसान न रहते होंगे।। 1. सर्माए- धन दौलत; 2. तज़ुईने फुसुर्दा- दुखों से सजी पूँजी; 3. पज़मुर्दा- निर्जीव; 4. तबस्सुम- मुस्कुराहट; 5. आसाइशे हस्ती- आराम दायक जीवन; 6. जरो सीम- सोने चाँदी। नूरे-सरमाया1 से है रूए-तमद्दुन की ज़िया2। हम जहाँ है वहाँ तहजीब नहीं पल सकती।। मुफ़लिसी हिस्से-लताफ़त3 को मिटा देती है। भूक आदाब के साँचे में नहीं ढल सकती।। लोग कहते हैं तो लोगों पे तअज्जुब कैसा। सच तो कहते हैं कि नादारों 4 की इज़्ज़त कैसी।। लोग कहते हैं मगर आप अभी तक चुप हैं। आप भी कहिये गरीबों में शराफत5 कैसी।। नेक मादाम ! बहुत जल्द वो दौर आएगा। जब हमें जीस्त के अदवार6 परखने होंगे।। अपनी जिल्लत की क़सम, आपकी अज़मत की क़सम। हमको ताज़ीम7 के मेआर परखने होंगे।। हमने हर दौर में तजलील8 सही है लेकिन। हमने हर दौर के चेहरे को ज़िया बख़्शी9 है।। हमने हर दौर में मेहनत के सितम झेले हैं। हमने हर दौर के हाथों को हिना बख़्शी है।। लेकिन इस तल़्ख मुबाहिस10 से भला क्या हासिल। लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे।। मेरे एहबाब ने तहजीब न सीखी होगी। मैं जहाँ रहता हूँ इन्सान न रहते होंगे।। सरमा-ए-दारों के साए से निकल कर जब जम्हूरियत आयेगी तो गरीब गुरबां के लिए इक नई सुबह का आगाज़ होगा। इन विचारों से लबरेज़ एक गीत ‘साहिर’ ने लिखा जिसका मुखड़ा था ‘वो सुबह कभी तो आएगी’। इस गीत की कुछ पंक्तियाँ पेशे-खिदमत हैं - वो सुबह कभी तो आएगी! वो सुबह कभी तो आएगी। इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा।। जब दुःख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा। जब अम्बर झूल के नाचेगा, जब घरती नग्मे गाएगी।। वो सुबह कभी तो आयेगी ! 1. नूरे सरमाया-धन की रोशनी; 2. रूए तमद्दुन की ज़िया- सभ्यता की, रूप की चमक; 3. हिस्से लताफ़त- कोमलता की संवेदना; 4. नादारों-निर्धन; 5. शराफत-शिष्टता; 6.अदवार-घटनायें; 7. ताज़ीम-प्रतिष्ठा; 8. तज़लील- अपमान; 9. ज़िया बख़्शी- सुन्दरता प्रदान करना; 10. तल़्ख मुबाहिस- कड़वी बहस। जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से हम सब मर-मर कर जीते हैं। जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं।। इन भूखी-प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फरमायेगी। वो सुबह कभी तो आएगी! उनकी एक और खूबसूरत नज़्म ‘खूब सूरत मोड़’ को फिल्मी गीत की शक़्ल अता की गई। पेश करता हूँ- चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों! न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिलनवाज़ी1 की। न तुम मेरी तरफ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से।। न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये मेरी बातों से। न जाहिर हो तुम्हारी कश्मकश2 का राज नजरों से।। तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेश-क़दमी3 से। मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराये हैं।। मेरे हम राह भी रूसवाईयाँ4 हैं मेरे माज़ी5 की। तुम्हारे साथ भी गुजरी हुई रातों के साए हैं।। तआरूफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर। तअल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा।। वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन। उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।। चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाये हम दोनों! साहिर दिल्ली से मुंबई गये तो केवल फिल्म जगत के लिए। वहाँ गीतकार के रूप में उन्होंने नाम भी कमाया और पैसा भी। खुद सरमाएदारों की जमात से निकल कर मुफ़लिसी में आए तो माँ की खातिर और उसी माँ की दुआओं से सफलता हासिल की। लोग कहते हैं अमृता-प्रीतम उनकी प्रेयसी रही। लेकिन ये बात भी सही हो तो गलत क्या है? इसमें कौनसा सितम है? कि नज़र झुका के जियें! इसी जज़्बे को प्रकट करते कुछ शेर पेश हैं। न मुँह छुपा के जिये हम, न सर झुका के जिये। सितम गरों6 की नज़र से नज़र मिला के जिये।। अब इक रात अगर कम जिये तो कम ही सही। यही बहुत है कि हम मश्अलें जला के जिये।। 1. दिलनवाज़ी- तसल्ली देना, ढाढ़स बंधाना; 2. कश्मकश- असमंजस; 3. पेश क़दमी- आगे बढ़ना; 4. रूसवाईयाँ- बदनामी; 5. माज़ी- भूतकाल; 6. सितम गरों- ज़ालिम, अत्याचारी। इन सब ज़ज्बों और तजुर्बों के बीच झूलती साहिर के जीवन की नाव दिल का दौरा पड़ने से 26 अक्टूबर 1980 के रोज डूब गई। कुल मिला कर शायद इस जिन्दगी का हश्र कुछ ये रहा कि- देखा है जिन्दगी को कुछ इतना करीब से। चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से।। इस रेंगती हयात का कब तक उठाएं बार। बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब1 से।। इस तरह जिन्दगी ने दिया है हमारा साथ। जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब2 से।। साहिर दुनिया से खफ़ा रहे और अपने आपको दिल वाले तथा वफ़ा वाले समझते रहे। लेकिन एक टूटे दिलवाले और फटे गिरेबान वाले इंसान को हमेशा यही चाह रहती है कि कोई उसका सा हमराह मिले। इसीलिये उन्होंने फरमाया कि- अहले-दिल और भी हैं, अहले-वफ़ा और भी हैं। एक हम ही नहीं दुनिया से खफ़ा और भी हैं।। हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लके-शोरीदा-सरी3। चाक-दिल और भी हैं चाक-कबा4 और भी हैं।। क्या हुआ गर मेरे यारों की जुबानें चुप हैं। मेरे शाहिद5 मेरे यारों के सिवा और भी हैं।। सर सलामत है तो क्या संगे-मलामत6 की कमी। जान बाकी है तो पैकाने-कज़ा7 और भी हैं।। मुन्सिफे-शहर8 की वहदत पे न हर्फ आ जाए। लोग कहते हैं कि अरबाबे-जफ़ा9 और भी हैं।। तो कुल मिला कर साहिर साहब हमें उसी की सौगात दे गये जो तजुर्बातो हवादिस की शक़्ल में दुनिया ने उन्हें दिया। तल्खियाँ, बरबत के तराने और सरमाए दारों की खिलाफत के गीत, इश्क़ में नाकामी की नज़्में और अपने न हासिल हुए अरमान। पर उनकी ये सौगात भी एक ऐसी सौगात है जिसे बिना दिल से लगाये न बने। इससे बन जाये वो बात जो बनाये न बने। ‘साहिर’ को सलाम कह अब उनसे रूखसत लेते हैं। * 1. तबीब- वैद्य, डाक्टर; 2. रक़ीब- शत्रु, दुश्मन; 3. मस्लके शोरीदा सरी- प्रेम धर्म को मानने वाले; 4. चाक कबा- फटे हाल; 5. शाहिद- साक्षी; 6. संगे मलामत- भर्त्सना में फेंके जाने वाले पत्थर; 7. पैकाने कज़ा- जानलेवा तीर; 8. मुन्सिफे शहर- नगर न्यायाधीश; 9. अरबाबे जफ़ा- अन्याय करने वाले।
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