मौलवी अब्दुल बारी ‘आसी’ उल्दानी मौलवी अब्दुल बारी ‘आसी’ उल्दान नामक गाँव में सन् 1793 में पैदा हुए। परिवार खानदानी शायरों का था सो फारसी पढ़ना लाजमी था और सुखन फहमी भी। पहला शेर जो कहा वह था कि- यह क्या तुमने जख़्मी किया दिल हमारा। बड़ा तीर मारा, बड़ा तीर मारा।। आप ‘नातिक’ गुलावठी के शार्गिद थे और नासिखाना रंग में शायरी करते थे। धीरे-धीरे हाली के रंग पर आये और अंत में दाग के टकसाली रंग में। आसी ने वैसे तो गजलें, नज़्में, कसीदे, रूबाईयात मसनवी सभी कुछ लिखा लेकिन गज़लें और रूबाईयात कहने में महारत हासिल की। लखनऊ जाने पर वहाँ की हवा के अनुसार कहने लगे। कभी गालिब के तसव्वुफ और फ़लसफ़े से अफ़रोज हुए तो कभी हाली के ज़ज्बात से प्रभावित हुए। लेकिन अंत में अपना एक अलग अंदाज बना लिया। खूब सारी पुस्तकें लिखीं और तीन दीवान प्रकाशित हुए। आपके शार्गिदों में शौकत थानवी का नाम सबसे जियादह मशहूर हुआ। आपके कुछ चुने हुए शेर पेशे-खिदमत हैं- इब्तिदा वोह थी कि दुनिया थी मलामतगर1 मेरी। इन्तिहा यह है कि कोई कुछ नहीं कहता मुझे।। कहते हैं कि उम्मीद पै जीता है ज़माना। वोह क्या करे, जिसको कोई उम्मीद नहीं हैं।। कहते हैं कि सिज़्दा करना तो मैखाने से सीखें जहाँ जाने पर सौ तरह से सिज्दा करना आ जाता है। खुदा से इश्क तो केवल उसका ध्यान करने से होता है। रस्माई सिज्दे करना उसके लिये जरूरी नहीं। और इस बात को कैसे फरमाया है यह देखें- 1. मलामतगर- बुराई करने वाला। अदब-आमोज1 है मैखाने का ज़र्रा-ज़र्रा। सैकड़ों तरह से आ जाता है सिज़्दा करना।। इश्क़ पाबन्दे-वफ़ा2 है, न कि पाबन्दे-रसूम3। सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिज़्दा करना।। आदमी का अहंकार मुफलिसी4 के आलम में भी कायम रहता है। क्या हो अगर उसे बादशाह बना दिया जाये। इस फ़क़ीरी में यह हालत मेरे इन्कार की है। बादशाही मिल जाये तो आफ़त हो जाय।। कहते हैं कि शिकायत वो जो कभी लब तक न आए पर ऐसा हो तो क्या होगा? रह गई दिल में तो क्या हाल करेगी दिल का ? वोह शिकायत कभी लब तक जो न लाई जाये।। कहते हैं ज्ञानी कि दुनिया है फानी लेकिन वो यह कब कहते हैं? जब दुनिया को उनकी जरूरत ही नहीं रहती! हुआ एहसास पैदा मेरे दिल में तर्के-दुनिया5 का। मगर कब ? जब कि दुनिया को जरूरत ही न थी मेरी।। दुनिया में अच्छा-बुरा कुछ नहीं, केवल नजरों का फेर है इसका बयाँ देखिये- यह सब फ़रेब6 है, नज़र-ए-इम्तियाज़7 का। दुनिया में वरना कोई अच्छा बुरा नहीं।। आदम ज़ात के वजूद में ही कई खामियाँ होती हैं हालाँकि खुदा ने उन्हें कम करने के लिये सौ बार उसे बनाकर मिटाया था। है कुछ खराबियाँ मेरी तामीर8 में ज़रूर। सौ बार बना कर मिटाया गया हूँ मैं।। गरीब का घर कहाँ होता है ? जहाँ वह थक कर घड़ी भर बैठ जाये। मिसाले-गर्दे-रह9 मस्कन10 कहाँ है हम ग़रीबों का। घड़ी भर के लिए थककर जहाँ बैठें वहीं घर है।। आदमी जब उत्थान पर होता है तभी उसके पतन की वह नींव खोदता जाता है। उसे अपना भविष्य दिखता नहीं इस कारण वह गुलों की तरह बहार में हंसता रहता है। इस बात को क्या खूब कहा है इस पेशकश में- 1. अदब आमोज़- इज़्ज़त से भरा; 2. पाबन्दे वफ़ा-वफ़ाई से बन्धा हुआ; 3. पाबन्दे रसूम- रस्म रिवाजो से बँधा; 4. मुफलिसी- गरीबी का समय; 5. तर्के दुनिया- संसार का त्याग; 6. फरेब- धोखा; 7. नज़रे इम्तियाज़- अंतर देखने वाली निगाह; 8. तामीर- निर्माण; 9. मिसाले गर्दे रह- रास्ते की धूल की माफ़िक; 10. मस्कन- घर। रंगे-निशात1 देख, मगर मुत्मईन2 न हो। शायद कि यह भी हो कोई सूरत मलाल3 की।। गुलशन बहार पर है, हँसो ऐ गुलों ! हँसो। जब तक ख़बर न हो तुम्हें, अपने मआल4 की।। एहसास अब नहीं है, मगर इतना याद है। शक्लें जुदा-जुदा थी उरूजो-जवाल5 की।। धीरे-धीरे आदमी अपनी मौत की ओर बढ़ता है। एक-एक रोज करके उसकी उम्र कम होती है। इस बात का अहसास करके चमन भी हर सुब्ह ओस रूपी आँसू बहा लेता है। रफ़्ता रफ़्ता यह जमाने का सितम होता है। एक दिन रोज मेरी उम्र से कम होता है।। बाग़ रोता है असीराने-कफ़स6 को शायद। दामने-सब्जो-गुल7 सुब्ह को नम होता है।। इस दुनिया में आदमी स्वयं की अक्ल के अनुसार भी काम करने के लिए आजाद नहीं है। कोई नासेह, कोई हमदर्द, कोई दोस्त उसे घेरे रहता है- कोई नासेह है, कोई दोस्त है, कोई गमख़्वार। सबने मिलकर मुझे दीवाना बना रखा है।। इंसान मौत से क्यूं डरता है ? वह तो एक न एक रोज आनी ही है। उम्र फ़ानी8 है तो फिर मौत से डरना कैसा ? इक न इक रोज ये हंगामा हुआ रक्खा है।। इस दुनिया में हर जगह फ़रेब और धोखा है इसीलिए मौत पर भी इंसान ऐतबार नहीं कर सकता। यकीन रख कि यहाँ हर यकीन में है फ़रेब। ब़का9 तो क्या है, फ़ना का भी एतबार न कर।। ताजा फूलों को देखकर वे उनसे उस जिन्दगी की चाह करते हैं जो बस मुस्कुराने ही में गुजर जाये! कहीं से ढूंढ़ के ला दे हमें भी ऐ गुले-तर10! वोह जिन्दगी जो गुज़र जाये मुस्कुराने में।। 1. रंगे निशात- खुशी के रंग; 2. मुतमईन- संतुष्ट; 3. मलाल- दुःख; 4. मआल- नतीजा, परिणाम, अंजाम; 5. उरूजो जवाल- उत्थान और पतन, चढ़ाव-उतार, उन्नति अवनति; 6. आसीराने कफ़स- कैद में रहने वालों, गुलामों; 7. दामने सब्जो गुल- हरियाली और फूलों का दामन; 8. फ़ानी- नाशवान; 9. ब़का- अस्तित्व; 10. गुलेतर- खिला हुआ फूल। प्रिय इंसान जब दूर चला जाता है तो उसकी हस्ती यादगार बन कर रह जाती है, इस बात को कैसे कहा है यह देखें- नक्शे-हस्ती1 बनी नज़र तेरी, न गई याद उम्र भर तेरी। अब जुदाई में याद आती है, गुफ़्तगू2 बात-बात पर तेरी।। अब ‘आसी’ उल्दानी साहब की एक गज़ल के चन्द शेर पेशे खिदमत हैं। नज़र में, दिल में, तख़ैय्युल3 में जगमगाए जा। चिरागे-खान-ए-आशुफ़्तगी4 जलाए जा।। शराब आग है साकी! यह जानता हूँ मगर। बनाके आग को पानी मुझे पिलाए जा।। सुकून जिसका लिया, नाम हमनशीं तूने। कहाँ है, कौन है, क्या है, जरा बताए जा।। जमीं फ़रेबे-तमाशा5, फ़लक फरेबे-नज़र6। फ़रेब ही की है दुनिया, फ़रेब खाए जा।। कहीं शकेब7, कहीं हसरतें, कहीं आँसू। वफ़ा की राह में जो कुछ मिले लुटाए जा।। यह मेरा फ़र्ज है कि मैं तुझको ढ़ूँढ़ने निकलूं। ये तेरा काम कि रस्ता मुझे बताए जा।। सफ़र लिया है तो हिम्मत न हार, थक के न बैठ। बहुत करीब है मंजिल, कदम बढ़ाए जा।। रूबाईयात पर ‘आसी’ साहब ने एक पूरा दीवान लिखा है और आपकी रूबाईयात बहुत ही फ़लसफ़ना होती हैं। इनमें से कुछ चुनी गई रूबाईयाँ पेशे-खिदमत हैं। आपने कहाँ से क्या सीखा देखिये इस रूबाई में- दौरे-इशरत8 से शाद9 होना सीखा। रंगे-इबरत10 से होश खोना सीखा।। गुल ने दी थी मुझे हँसी की तालीम। शमए-महफ़िल से मैंने रोना सीखा।। इस दुनिया के बन्धन जो छोड़ देता है उसके लिये यह सिर्फ एक ख्वाब बन जाती है जिसे वह बिना प्रभावित हुए देख सकता है। 1. नक्शे हस्ती- अस्तित्व के निशान; 2. गुफ़्तगू- बातचीत; 3. तख़ैय्युल- ख्यालों; 4. आशुफ़्तगी- परेशानी; 5. फरेबेतमाशा- झूठा (धोखे का) तमाशा; 6. फ़रेबे नज़र- नज़र का धोखा; 7. शकेब- सब्र; 8. दौरे इशरत- खुशी का ज़माना; 9. शाद- खुश; 10. रंगे इबरत- डरावने हालात। चेहरे का नक़ाब हो गई है दुनिया। आँखों का हिज़ाब1 हो गई है दुनिया।। जब से दुनिया से मैंने मुंह मोड़ा है। भूला हुआ ख्वाब हो गई है दुनिया।। दुनिया में आना जाना किसी के बस का नहीं। अगर बस में होता तो इतनी कोफ़्त उठाने यहाँ कोई क्यूं आता। जाने के लिये सूए-जहाँ2 क्यों आता? करता हुआ नाला-ओ-फुगाँ3 क्यों आता?? होता जो मेरे बस में आना-जाना। तो कोफ़्त उठाने मैं यहाँ क्यों आता।। ‘जाहिद’ और ‘वाइज’ दोनों बहुत नसीहतें देते हैं। ‘वाइज’ कहता है कि खुदा की इबादत करो तो वह तुम्हें बाहिश्त देगा। लेकिन ‘आसी’ कहते हैं कि क्या खुदा भी बनिया है जो बाहिश्त की कीमत माँगता है? कहते हैं खुदा खुलूसे-ताअत4 लेगा। तस्लीमो-तवक्कुल-ओ-कनाअत5 लेगा।। जिसने लाखों को मुफ़्त शाही दे दी। क्या हमसे बाहिस्त की कीमत लेगा।। ‘वाइज’ का खुदा इतना निराला होता है कि उसका बन्दा सिवा ‘वाइज’ और कोई नहीं होता। ऐसे खुदा की उदारता और रहमो-करम के बारे में क्या कहा जाये? उस जूद6 को और उस सखा को देखा। उस लुत्फ़ को और उस अदा को देखा।। जिसका बन्दा नहीं सिवा तेरे कोई। देखा वाइज़ ! तेरे खुदा को देखा।। खुदा भी कंजूसों को ही धन देता है जो उसका कोई सदुपयोग नहीं करते। उन कंजूसों तथा उनके खुदा से ‘आसी’ साहब का फ़र्माना है कि- मालूम है तुझको ऐ बऱवीलों7 के खुदा। जर तूने दिया तो किन कमीनों को दिया।। अब और तो क्या कहूँ मैं तुझसे लेकिन। होना नहीं चाहिए था यह, जो हुआ।। 1. हिज़ाब- पर्दा; 2. सूए जहाँ- दुनिया में; 3. नाला-ओ-फुगाँ- रोता चीखता; 4. खुलूसे ताअत- इबादत की तन्मयता; 5. तस्लीमो तवक्कुल ओ कनाअत- संतोष और भरोसे का वचन (स्वीकारोक्ति); 6. जूद- विशाल हृदय वाला; 7. बऱवीलों- कंजूसों। शराब मैकश के लिए तो आबे-हयात है परन्तु सूफ़ी और जाहिद की नज़र में वह धर्म ख़राब करती है। कुल मिलामर ये वो शै है जिसका पीना भी दुरूस्त और न पीना भी दुरूस्त। रिन्दों के यहाँ शफा-ए-बातिन1 है शराब। सूफ़ी की नज़र में दीन करती है ख़राब।। अलक़िस्सा यह वह अज़ीब शै है जिसका। पीना भी सवाब और न पीना भी सवाब।। जन्नत में हूरें हैं और शराब भी है पर इसको दुनिया में जो भोगता है उसे जाहिद कहता है कि जन्नत नहीं मिलती। तो फिर वहाँ शराब कौन पीयेगा- ऐ हजरते-ज़ाहिद! मुअल्ला-अलकाब2। दीजे मेरे इक सवाल का आप जवाब।। दोजख़ में रहेंगे जब शराबी सारे। फिर कौन पियेगा जा के जन्नत में शराब।। वाइज इंसान को दोज़ख का नजारा बता कर डराता है और जन्नत का हाल बता कर फुसलाता है जबकि हक़ीक़त में न तो उसने इन्हें देखा होता है और न किसी और ने इन्हें देखा होता है। ऐ वाइजे-खुश-बयान3 मुझे तंग न कर। बातों का तेरी नहीं मेरे दिल पे असर।। आने वाला न कोई, जाने वाला। फिर किस से सुनी बाहिश्त-ओ-दोज़ख4 की ख़बर।। आदमी ज्यों ज्यों बूढ़ा होता है उसके बाल तो सफेद होते जाते हैं और उसका दिल दुनियाँ के तर्जुबों से जल कर काला। इस बात का बयां है- जब कश्तिये-उम्र5 आई साहिल की तरफ़। और पहुँची हयात अपनी मंजिल की तरफ़।। काफूरे-कफ़न6 से हो गये बाल सफ़ेद। बालों से सियाही आ गई दिल की तरफ़।। इंसान यह सोचता रहता है कि दूसरा हर कोई इंसान कामिल नहीं है। पर देखिये कि आसी साहब का क्या कहना है इस बाबत। 1. शफा ए बातिन- आत्म शुद्धि की दवा; 2. मुअल्ला अलकाब- उस्ताद कहलाने वाले; 3. वाइजे खुश बयान- प्रवचक; 4. बाहिश्तो दोज़ख- स्वर्ग-नर्क; 5. कश्तिये उम्र- उम्र की कश्ती; 6. काफूरे कफ़न- कफ़न की सफ़ेदी। हर्गिज न कहो, कि कोई आकिल1 ही नहीं। जाहिल है तमाम, कोई आमिल ही नहीं।। अपने पै क़यास, दूसरों का न करो। क्या तुम जो नहीं, तो कोई आकिल ही नहीं।। आदमी जब पैदा हुआ और उसे अहसास हुआ कि यहाँ ग़म ही ग़म है और सभी नाशवान हैं, तब उसका इस दुनिया में दिल बैठने लगा लेकिन समय क्योंकि धीरे-धीरे सब ग़म गलत कर देता है अतः वह अभी तक जिन्दा बचा है। इस बात का बयां देखिये- हस्ती ने कहा ग़मे-फना2 दूँगी मैं। दुनिया ने कहा कि दिल बिठा दूँगी मैं।। इंसान को सुन के यह बड़ा रंज हुआ। गफ़लत ने कहा कि सब भुला दूंगी मैं।। जो इंसान मौत के डर से मर-मर के जीते हैं उनके लिये फर्माया कि- पैहम3 दमे-सर्द4 क्यों भरे जाते हो? बे वक्त कज़ा से क्यों डरे जाते हो? मुश्किल नहीं मौत आज़माओ तो सही। मौत आने से पहले ही क्यूं मरे जाते हो।। मौत को आसी साहब जीवन की व्यवस्था का ही एक हिस्सा मानते हैं। किस बात का खौफ़ है, कैसा डर है। क्या मौत निजामे-जीस्त5 से बाहर है।। इतना ही तो फर्क है मौत-ओ-जिन्दगी में। कल सर पै था चाँद आज तुर्बत6 पर है।। लोगों की मज़हब परस्ती पर आपका फरमाना है। आईनो-तारीक़ो-दीनो-मशरब7 क्या हैं। कुफ्रो-इस्लाम क्यों हैं, यह सब क्या हैं।। मज़हब है अगर खुदा के खुश करने को। हम भी तो सुनें खुदा का मज़हब क्या है।। 1. आकिल- अक्लमंद; 2. गमे फनां- मौत का दुख; 3. पैहम- लगातार; 4. दमे सर्द- ठंडी आहें; 5. निजामे जीस्त- जीवन की व्यवस्था; 6. तुर्बत- कब्र; 7. आईनो तारीक़ो दीनो मशरब- धार्मिक विधान व मैखाने का धर्म। इंसान पैदा होने के बाद से लगातार गलती पर गलती करता है और उसकी पूरी जिन्दगी गुनाहों के सुपुर्द हो जाती है। फिर भी अन्त में वह चाहता है कि खुदा उसके गुनाहों को माफ करने का करम करदे ! तूने मुझे जो उम्र अता कर दी थी। सब नज़रे-गुनाह1 ऐ खुदा कर दी थी।। अब तू भी करम2 की इन्तिहा3 कर दे। मैंने तो खता की इन्तिहा कर दी थी।। इसके साथ ही ‘आसी’ उल्दानी साहब से रूख़सत लेते हैं। लेकिन अगर उनका कहा मानें तो‒ सफ़र लिया है तो हिम्मत न हार, थक के न बैठ। बहुत करीब है मंजिल कदम बढ़ाए जा। * 1. नज़रे गुनाह- पापों को अर्पित; 2. करम- दया; 3. इन्तिहा- आखिरी हद।