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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:15 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
उर्दू शायरी का सफरनामा-III हमारा सफ़र अब काफ़ी आगे बढ़ गया है परन्तु अब भी काफ़ी बाकी है। सच ही कहा है कि- मुझसे पहले कितने शायर आये और आकर चले गये। कुछ नग्मे गा कर लौट गये कुछ गीत सुनाकर चले गये।। और यह सिलसिला चलता ही रहा है, चलता ही रहेगा पर थोड़ा सा ठहर लेना हर सफ़र में लाज़मी होता है सो यहां पर भी है। आइए कुछ और बात करें। आप जानना चाहेंगे न कि गज़ल क्या है? और इसकी इज़ाद कहाँ पर हुई। जी हां हम आपको यह जरूर बतायेंगे। गज़ल शब्द अरबी भाषा से लिया गया है लेकिन गज़ल कहने और सुनने का ज्यादा प्रचलन ईरान, फ़ारस में रहा। फ़ारसी किताबों में गज़ल को ‘सुखन अज़ज़नान’ बताया गया है जिसका सही मतलब निकलता है औरतों की बात करना या औरतों के बारे में लिखना। गज़ल का मुख़्य विषय होता है औरतों की नाज़ोनज़ाकत और हुस्न का शेरों से बखान और उनसे इश्क़ का दम भरना। गज़ल का इश्क़ आशिक़ और माशूक़ का इश्क़ है, वह और कोई तरह की मुहब्बत पर नहीं लिखी जा सकती। हिन्दी में यदि कविता से गज़ल की तुलना करें तो गज़ल वह कविता है जिसमें प्रेमी-प्रमिकाओं के भावों को प्रदर्शित किया गया हो। लेकिन हर किसी प्रकार की प्रेम कविता गज़ल नहीं कहीं जा सकती। गज़ल का अपना अलग व्याकरण है। अपनी एक खास जबान-अदबी1 और लबो-लहज़ा2 है। इसका विषय एक सीमित लेकिन खास विषय है। बाद में गज़ल में तसव्वुफ और फ़लसफ़ा भी विषय स्वरूप शामिल कर लिये गये। ऐसा होने पर गज़लगो शायर दो शाखाओं में बंट गये। एक तो वो जो खुदाई इश्क़ पर गज़लें कहते और दूसरे वो जो दुनियावी या मज़ाज़ी इश्क़ पर गज़लें कहते। इस बात का जिक्र हम इस क़िताब की शुरूआत में कर चुके हैं कि ‘इश्क़े-हक़ीक़ी’ और ‘इश्क़े-मज़ाज़ी’ में क्या फ़र्क है। हम यह भी देख चुके हैं कि इश्क़े-मज़ाजी में भी फिर दो अलग तरीके के शायर हुए। एक वो जो हक़ीक़त के इश्क़ का जिक्र करते थे जिसके तजुर्बात से वो गुज़र चुके थे ओर दूसरे वो जो केवल कल्पना के धरातल पर गज़लगोई करते थे। 1. ज़बान अदबी- भाषा का व्याकरण, शिष्टाचार; 2. लबो लहजा- अदायगी का तरीका। इश्क़ को दो अलग अलग तरीकों से इन मज़ाज़ी शायरों ने शेरों गज़लों में बांधा। कुछ शायरों ने इश्क़ को बहुत ऊँचा दर्जा दिया और माना कि मुहब्बत खुदा है। उनका इश्क़ ता-उम्र किसी एक का दम भरता रहा और ‘पाक इश्क़’ कहलाया। दूसरे शायरों ने मुहब्बत को विषयों तथा कामनाओं का गुलाम बना दिया और निचले स्तर पर ला छोड़ा। इस प्रकार का इश्क़ ‘बाज़ारी इश्क़’ कहलाया। वास्तव में पाक इश्क़िया शायरी का कलाम उर्दू भाषा में बहुत ही कम पाया जाता है। इसका कारण यह रहा कि उस समय जब उर्दू शायरी का जन्म हुआ यहां के समाज में तमाशाबीनी और बादाख़्वारी एक रोग की तरह फैली हुई थी। एय्याशी के इस दौर में पाक इश्क़ के ज़ज़्बे की कोई कद्रोकीमत नहीं थी। अब तक हमने कई शायरों के बाज़ारी इश्किया कलाम देख लिये हैं। इंशा को देखा, जुरअत को देखा, जलील को देखा, रंगीन को देखा। इन सबके कलाम का माशूक़ शोख, बेअदब, बेवफ़ा, बे-मुरव्वत, बेरहम, बदज़बान, संगदिल, ज़ालिम, हरज़ाई, और कातिल होता है। ऐसे हबीब1 का तसव्वुर उर्दू शायरी में वैश्याओं की वज़ह से आया। सभी शायरों को हक़ीकत की मोहब्बत तो नसीब होती न थी। वे वैश्याओं से इश्क़ फरमा लिया करते थे। तवाइफें2 महफ़िलें सजाती थीं और उनमें आने वाले रईसों, जागीरदारों नावाबों आदि से मोहब्बत का नाटक करती थीं। ये नाटक तब तक चलता था जब तक आशिक़ की जेबों में पैसा रहता था। पैसा हज़म खेल ख़तम। फिर यह खेल दूसरे से खेला जाता। एक साथ कईयों के साथ खेला जाता। इस कारण से माशूक़ बाज़ारी हो गया और इश्क़ भी भौंडा और बाज़ारी हो गया। इन तवाईफों में जो शायराना नाज़ो-अन्दाज़ होता था वो अस्ल के इश्क़ में भला कहाँ से आये। सभी शरीफ़ जादियाँ तो गैरत के मारे पर्दे में रहती थीं, सो उनसे दीदबाजी3 कैसे हो, बार बार मुलाक़ातें कैसे हों, हिज्र और वस्ल की बात कैसे हो? इसलिए उस समय रईस तवाइफें रखा करते थे। यहां तक कि अपने बच्चों को तवाइफ़ों के यहां बाकायदा तौर-तरीके सीखने के लिये भेजा करते थे। तवाइफ़ों के यहां पहुँच आसान थी और उनकी नाज़ो-अदा ही को इश्क़ समझ लेते थे। जो ज्यादा दौलत लुटाता था तवाइफ़ें उसी की मुहब्बत का दम भरतीं, दूसरे आशिकों को धता बता दी जाती। सरे बज़्म उनको उठवा दिया जाता और अगर वह ज्यादा अड़े तो पिटवा दिया जाता। ऐसा आशिक! माशूक़ के हरज़ाई होने का, बेवफ़ा होने का, ज़ालिम होने का शिकवा न करे तो क्या करे। जो शायर खुद ऐसे आशिक न होते थे वे भी पैसों के खातिर इन जैसे आशिकों के मज़मून पर सुखन फहमी करते थे, गज़लगोई करते थे। इस तरह से उर्दू शेरो-शायरी का सफ़र आगे बढ़ता रहा। शायरी में दाखिली रंग से ज्यादा खारजी रंग आता गया जो ज़नाब नासिख़ के समय लखनऊ में परवान पर पहुंचा। 1. हबीब- माशूका; 2. तवाइफ- वैश्या; 3. दीदबाजी - आँखें लड़ाना। देहली के शायरों को ऐतिहासिक कारणों से कष्टों से दो-चार होना पड़ा और उनकी शायरी में दर्द/टीस का समावेश हुआ जो उनको लख़नवी शायरों से जुदा करता था। देहली वाले शायरों ने ज़्यादातर पाक इश्किया, तसव्वुफ1 और फ़लसफ़े की शायरी की जिसे ‘दाखिली शायरी’ के नाम से जाना जाता है और लखनऊ वालों ने ज्यादातर ‘बाज़ारी इश्क़िया’ शायरी की जो ‘खारजी शायरी’ के नाम से जानी जाती है। यह दो अलग अलग स्कूलों की शायरी के नामों से भी जानी जाती है, ‘लख़नवी स्कूल’ और ‘देहलवी स्कूल’। रामपुर और टांडा के नवाबों के यहां और हैदराबाद के निज़ामों के यहां इन दोनों तरीकों की शायरी का मिलान हुआ और एक नई तर्ज़ की शायरी का जन्म हुआ जिसके पहुंचे हुए फ़नकार2 थे ‘अमीर’ मीनाई और ‘दाग’ देहलवी साहब। ये शायरी गालिबाना तसव्वुफ और फ़लसफ़ा भी रखती थी तो नासिखाना रंगो-रवायत भी। लेकिन यह मान लिया गया कि गहराई के बिना सिर्फ़ ख़ारजी शायरी को आला दर्ज़े की शायरी नहीं कहा जा सकता। इसी कारण से मिर्ज़ा ग़ालिब और आतिश जिन्हें अपनी जिन्दगी में वो शुहरत न मिली को बाद में शायरे आज़म कुबूल किया जाने लगा और ‘जुरअत’, ‘इंशा’ तथा ‘नासिख’ जिनकी तूती बोला करती थी उनको हल्के दर्ज़े का शायर माना जाने लगा। इस बात का असर आगे आने वाले शायरों के कलाम पर पड़ा जो हम देखेंगे। हमने नज़ीर अकबराबादी को भी पढ़ा और देखा कि वे गज़ल-गो शायर न थे। उन्होंने इश्क़िया शायरी को अपने शेरों ओर नज़्मों से बरतरफ3 रखा। उनकी नज़्मों को दाद तो बहुत मिली पर उस समय के उर्दू सुखन फहमों ने उन्हें शायर मानने से इन्कार कर दिया था। उनका कोई शर्गिद न रहा और उनकी नज्में उनका तौर तरीका उन्हीं के साथ दफ़्न कर दिया गया। वह ज़माना गजलों का ज़माना था, ख़ारजी रंग का ज़माना था। तब गज़ल का वह पतन नहीं हुआ था जो मुगलिया सल्तनत की समाप्ति के बाद हुआ। 1857 के ग़दर के बाद मुसलमानों की शोचनीय हालत ने हाली और आज़ाद जैसे शायरों को सोचने के लिये मज़बूर किया। मुसलमान अपने पतन को दर किनार कर के भी इश्क़िया शायरी और गज़ल ग़ोई में मशगूल थे। यह बात सर सैयद अहमद खान जैसे विचारक और ‘हाली’ तथा ‘आज़ाद’ जैसे चिन्तकों को नागवार गुज़रीं। उन्हें गज़ल से ही नफ़रत हो गई और उन्होंने कौम को ललकारती नज़्में कहनी शुरू कर दीं। वे इश्क़ से नफ़रत करने लगे, जिसने कौम की रगों में विलासिता और कायरता भर दी थी। उनकी ये नज़्में गज़ल को कल्पना के आकाश से उतार कर हक़ीक़त की ज़मीन पर ले आई। गज़ल अपने ख़ारजी, रवायती, फ़हाशी4, और बनावटी उसूलों को छोड़कर आज़ादी की सांसें लेने लगी। 4. तसव्वुफ- खुदा का ध्यान; 2. फ़नकार- ज्ञान रखने वाला, हुनरवान; 3. बरतरफ- जुदा, अलग; 4. फ़हाशी- अश्लीलता। हालांकि अब भी कई गज़ल-गो शायरों ने इस बदलाव को मंजूर करने से मना कर दिया और लकीर के फकीर बन गये लेकिन दाग जैसे रंगीन गज़ल उस्ताद के चन्द शार्गिदों ने नज़्मों की और उनके कारण से आये गज़ल में बदलाव दोनों की न सिर्फ़ हिमायत की बल्कि खुद गज़ल गोई छोड़कर नज़्में कहने लगे। इनमें अज़ीम नाम थे सर इकबाल, ‘सीमाब’ अकबराबादी और ‘जोश’ मलसियानी। इन शायरों को बड़े साहस से काम लेना पड़ा क्योंकि उस समय भी उर्दू जबान के 60 फ़ीसदी शायर हज़रत दाग़, ‘अमीर’ मीनाई और ‘जलाल’ के रंगों में रंगे थे। फिर नज़्म के साथ कुछ और नाम जुड़े जो दम खम वाले सुखन-फहम थे। इनमें मुख्य थे ‘सफ़ी’ लख़नवी, ‘साकिब’ लख़नवी, ‘आरजू’ लख़नवी, यास यागाना ‘चंगेजी’, ‘फानी’ बदायूनी, ‘असगर’ गौण्डवी, ‘हसरत’ मोहानी और ‘ज़िगर’ मुरादाबादी। इन्होंने गजलें भी लिखीं और नज़्में भी लेकिन उनके विषय बदल गये और इश्क़, आशिक, माशूक़ उनका हुस्न, सितम, नाज़ो-अदा, आहोज़ारी से ऊपर उठकर गज़ल ने नये आयाम प्राप्त कर लिये। वतन के लिए सरफ़रोशी, कौम की इज़्ज़त-अस्मत, दीन दुखियों के जीवन का दर्द आदि इसके विषयों में शामिल हो गये। शायरी अब रियाज़1 का विषय न रही, केवल उन लोगों की अमानत हो गई जो शायराना मिज़ाज़ और दिलो-दिमाग लेकर पैदा हुए थे। कुदरत और हक़ीक़त के जज़्बे अब रवायात की जगह लेने लगे। ‘मीर’ जिन्हें ‘खुदाये-सुखन’ की पदवी अता फरमाई गई है ने इश्क़िया शायरी तब की जब उनका खुद का इश्क़ नाकामयाब रहा और इससे उनकी पाक इश्क़िया शायरी में जो सोज़ो-गुदाज़2 और असर पैदा हुआ वह आज तक भुलाया न जा सका। इसीके चलते ज़ौक़ जैसे उस्तादे-शहंशाह तक को कहना पड़ा कि‒ न हुआ पर न हुआ, मीर का अन्दाज़ नसीब। ज़ौक़ यारों ने बहुत जोर गज़ल में मारा।। केवल लफ़्फ़ाजी से शेर या गज़ल में यह सोज़ो-गुदाज़, यह असर नहीं आता अन्यथा मीर को यह नहीं कहना पड़ता कि- हमको शायर न कहो मीर कि साहब हमने। दर्दे-ग़म कितने किये जमा तो दीवान बने।। जब तक दिल में कोई बात का दर्द नहीं हो या कोई जज्बा न हो तब तक शेर दमदार बन ही नहीं सकते। उर्दू के ज़्यादातर शायरों ने बिना जज्बात, बे-मुरव्वत3 शायरी में शिरकत4 कर अपना नाम कमाने के लिये या फिर पैसे के लिये पेशेवर शायरी की थी। उनके शेरों में और गज़लों में वोह दम जो होना चाहिए नज़र नहीं आता। यह बात उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे 10 वर्षों के शायरों पर लागू नहीं होती और उनमें से जिसे भी शोहरत मिली अपने दम पर और काम के बल पर मिली। अब हम इन नये युग के शायरों की शायरी का सफ़र तय करेगें और उसका लुत्फ उठायेंगे। 1. रियाज- अभ्यास; 2. सोज़ो गुदाज़- मर्म को छू सकने की क्षमता; 3. बे मुरव्वत- लगाव न रखने वाला; 4. शिरकत- भाग लेना, शामिल होना। यहां पर भी देहलवी शायर और लख़नवी शायर दोनों की अलग अलग ज़मातें कायम रहीं। लख़नवी स्कूल के शोहरत-मंद शायर थे, ‘साकिब’ लख़नवी, ‘आरजू’ लख़नवी, ‘रियाज़’ ख़ैराबादी, ‘ज़लील’ मानेकपुरी, ‘दिल’ शाहजहानपुरी, ‘हफ़ीज़’ ज़ौनपुरी, ‘नातिक’ लख़नवी और ‘असर’ लख़नवी जबकि देहलवी स्कूल के नामी गिरामी शायर थे ‘शाद’ अज़ीमाबादी, ‘हसरत’ मोहानी, ‘फ़ानी’ बदायूनी, ‘यास’ यागाना चंगेजी, ‘आसी’ गाज़ीपुरी, ‘असगर’ गौण्डवी और ‘ज़िगर’ मुरादाबादी। हम इन सभी शायरों और उनके कलामों पर एक एक नज़र डालेंगे। देहलवी और लख़नवी शायरी की सबसे अच्छी तुलना तभी की जा सकती है जब एक शायर एक स्कूल से लिया जावे और दूसरा दूसरी स्कूल से। आगे का सफ़र हमें इसी प्रकार तय करना है। नई लख़नवी स्कूल वास्तव में ‘नज़्म’ तबातबाई से शुरू हुई जो सन् 1850 में जन्मे और जिनका इंतकाल 1933 में हो गया। उनकी शायरी खारजी रंग में ही रंगी थी लेकिन उन्होंने अंग्रेजी की कविताओं का उर्दू तर्जुमा1 बहुत ही कुदरती तरीके से कर नाम कमाया। ये ‘दाग’ के रंग में कलाम लिखते थे, बानगी देखिये‒ अदाये सादगी में कंघी चोटी ने खलल2 डाला। शिकन3 माथे पै, अबरू4 में गिरह5, गेसू में बल डाला।। कहने सुनने से जरा पास आके बैठ गये। निगाह फेर के त्यौरी चढ़ा के बैठ गये।। निगाहे यास6 मेरी काम कर गई अपना। रूलाके उठे थे वोह मुस्कराके बैठ गये।। इसके बाद ‘सफ़ी’ लख़नवी का नाम लूंगा जो 1862 में लखनऊ में जन्मे और जिनका 1950 में इंतकाल हुआ। इनकी कौमी नज़्मों ने काफी शुहरत पाई और मुसलमान इन्हें कौम की आवाज मानने लगे। सफ़ी साहब गज़लों को आकाश की कल्पना से उतारकर यर्थाथ के धरातल पर लाये। इनके चन्द चुने हुये शेर पेशे खिदमत है‒ निकले है तीन नाम मिरे तिफ़्ले-इश्क7 के। नूरे-निगाह8, लख़्ते-ज़िगर9, यादगारे-दिल।। कैसी कैसी सूरतें ख्वाबे-परीशां10 हो गईं। सामने आँखों के आईं और पिन्हा हो गईं।। 1. तर्जुमा- अनुवाद; 2. ख़लल- व्यवधान; 3. शिकन- सलवट; 4. अबरू- भवें; 5. गिरह- गाँठ; 6. यास- मायूसी, निराशा; 7. तिफ़्ले इश्क- बचपन का इश्क; 8. नूरे निगाह- आँखों की रोशनी; 9. लख़्ते जिगर- दिल का टुकड़ा; 10. ख्वाबे परीशां- बुरा सपना। इन्सान मुसीबत में हिम्मत न अगर हारे। आसानों में वह आसाँ है मुश्किल से जो मुश्किल।। दुनिया की तरक्की है इस राज़ से वाबस्ता1। इंसान के कब्जे में सब कुछ है अगर दिल है।। जो चीज नहीं बस की फिर उसकी शिकायत क्या। जो कुछ नज़र आता है अच्छा नज़र आता है।। * 1. वाबस्ता - जुड़ी हुई। मुंशी नौबतराय ‘नज़र’ लख़नवी नयी उम्र के लख़नवी शायरों में जो नाम पहले पहल शुहरत की बुलंदी पर आया वो था जनाब नौबतराय ‘नज़र’ साहब का। वे 1766 में पैदा हुए और 1823 में खुदा को प्यारे हुये। खुद का कोई पुत्र न था सो नवासे को गोद लिया पर खुदा ने उसे भी छीन लिया। उसी मौत पर उन्होंने फरमाया कि‒ थमो थमो कि इस उजड़े मकां का था ये चराग। बहार पर था इसी नौनिहाल से ये बाग।। न होगा मुझे अब हासिल कभी जहाँ में फराग1। तमाम उम्र दिल नातवां है और यह दाग।। फुगाने-बुलबुले-जाँ2 दिल के पार होती है। ‘नज़र’ के बाग से रूख़सत3 बहार होती है।। नज़र ने फिर इस सदमें से उबरने के लिये पड़ौसी के एक बच्चे को अपने साथ रखा पर जब वह भी छत से गिर कर मर गया तो नज़र का इंतकाल हो गया। जाते जाते उन्होंने जो शेर कहा वह उनके जीवनकाल की व्यथा को साकार करता है। ऐ इनकलाबे-आलम4 तू भी गवाह रहना। काटी है उम्र हमने पहलू बदल बदल कर।। नज़र के कलाम में दर्द के साथ जो सादगी थी उससे उसका असर, उसका सोजो-गुदाज़ और बढ़ जाता था। उनकी शायरी का एक भी शेर ज़लील या हकीर5 विचारों से भरा नहीं है। उनके कहे चन्द शेर पेशे-खिदमत हैं‒ फ़ना होने में सोजे-शम्अ6 की मिन्नत-कशी7 कैसी। जले जो आग में अपनी उसे परवाना कहते हैं।। 1. फराग- अमन चैन, मुक्ति; 2. फुगाने बुलबुले जाँ- आत्मी रूपी बुलबुल की आवाज़, माशूक के रोने की आवाज; 3. रूखसत- विदा; 4. इन्कलाबे आलम- संसार की उलट-पलट; 5. हकीर- नीच, ओछा; 6. सोजे शमअ- शमा की तपिश (ज्वाला); 7. मिन्नत कशी- प्रार्थना करना। दिल की हालत नहीं बदलने की। अब ये दुनिया नहीं संभलने की।। तबाही दिल की देखी है जो हमने अपनी आँखों से। हो अब कैसी ही बस्ती हम उसे वीराना कहते हैं।। कोई मुझसा मुस्तहके-रहमो-गम-ख़्वारी1 नहीं। सौ मरज़ है और बज़ाहिर कोई बीमारी नहीं।। इश्क़ की नाकामियों ने इस कदर खींचा है तूल। मेरे गमख़्वारों को अब चाराये-गमख़्वारी2 नहीं।। खिजां अन्जाम3 है सबकी बहारें, चन्द रोजा की। बहुत रोता हूं सूरत को देखकर गुल-हाये-खन्दा4 की।। वोह एक तुम कि सरापा बहारो-नाज़िशे-गुल5। वोह एक मैं कि नहीं सूरत आशनाये-बहार6।। जमीं पै लाल-ओ-गुल बन के आशकार7 हुआ। छुपा न खाक में जब हुस्न खुदनुमाए-बहार8।। वोह शम्अ नहीं कि हो इक रात के मेहमाँ। जलते हैं तो बुझते नहीं हम वक्ते-सहर भी।। कफ़स से छूटकर पहुंचे न हम दीवारे-गुलशन तक। रसाई9 आशियां तक किस तरह बे-बालो-पर होगी।। फ़कत इक सांस बाकी है मरीज़े-हिज्र के तन में। यह कांटा भी निकल जाये तो राहत से बसर होगी।। दिल था तो हो रहा था अहसासे-जिन्दगी भी। जिन्दा हूँ कि अब मुर्दा मुझको ख़बर नहीं है।। मरने पर ज़िस्मे-ख़ाकी10 क्या साथ रूह का दे। राहे-अदम में गाफ़िल ! गर्दे-सफ़र नहीं है।। 1. मुस्तहके रहमो गमख़्वारी- गम बाँटने और रहम पाने का हकदार; 2. चाराए गमख़्वारी- गमों के इलाज; 3. खिजाँ अन्जाम- पतझड़ का अन्त; 4. गुल हाये खन्दा- मुरझाया फूल; 5. बहारो नाज़िशे गुल- ऐसी बहार जिस पर फूल भी घमण्ड करे; 6. आशनाये बहार-बहार की सूरत से परिचित; 7. आशकार- प्रकट, पैदा; 8. खुदनुमाए बहार- खुद बहार बन कर प्रकट हुआ; 9. रसाई- पहुँच; 10. जिस्मे ख़ाकी- माटी से बना शरीर; । सोजाँ ग़मे-जाविद1 से दिल भी है जिगर भी। इक आह का शोला कि इधर भी है उधार भी।। वोह अंजुमने-नाज है और रंगे-तगाफुल। याँ है मरहला-ए-आह2 भी अन्दोहे-असर3 भी।। अभी मरना बहुत दुश्वार है ग़म की कशाकश से। अदा हो जायेगा ये फर्ज़ भी फुर्सत अगर होगी।। मुआफ-ए-हमनशीं ! गर आह कोई लब पै आ जाये। तबीयत रफ़्ता-रफ़्ता खूगरे-दर्दे-ज़िगर4 होगी।। * 1. गमे जाविद- स्थायी गम; 2. मरहल ए आह- आह की मंजिल; 3. अन्दोहे असर- रंजीदा, रंज से प्रभावित; 4. खूगरे दर्दे ज़िगर- दिल के दर्द को सहने का आदी (अभ्यास)।
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