ख़्वाजा हैदरअली ‘आतिश’ ख़ारजी शायरी से अब हम एक दो क़दम दूर जाकर उसी समय के एक दो और शायरों का जिक्र करेंगे जिन्होंने दाख़िली और खारजी दोनों ही तरीक़ों से बहुत उम्दा शायरी की है। ख्वाजा हैदरअली ‘आतिश’ नवाब मुहम्मद अली की मुलाज़िमत में लखनऊ में रहे। उन्होंने ‘मुसहफ़ी’ की शागिर्दी में शेरो-सुख़न की तालीम हासिल की अतः इन पर खारजी रंग का असर ज्यादह नहीं रहा। ‘नासिख’ इन्हीं के समय पर थे ओर वे ख़ारजी रंग के पहुँचे हुए शायर थे। उस समय ख़ारजी शायरी अपनी बुलंदी पर थी इसलिए आतिश का नासिख जितना नाम न था। लेकिन बाद में जब ख़ारजी रंग का खुमार शायरी पर से टूटा तो आतिश को शोहरत नसीब हुई। शायरे-आज़म मिर्जा गालिब ने आतिश को नासिख से बेहतरीन शायर माना है। आतिश के चन्द यादगार अशआर पेशे-ख़िदमत है। ज़मीने-चमन गुल खिलाती है क्या क्या ? बदलता है रंग आसमाँ कैसे-कैसे।। खुशी से अपनी रूसवाई1 गंवारा हो नहीं सकती। गरीबाँ2 फाड़ता है तंग जब दीवाना होता है।। काम हिम्मत से जवाँमर्द अगर लेता है। साँप को मार कर गंजीनयेज़र3 लेता है।। बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का। जो चीरा तो इक क़तराए खूँ न निकला।। अब हुस्न की प्रशंसा में उनके लिखे चंद शेरों का जायज़ा लीजिए - सामने आईना रखते तो गश4 आ जाता। तुमने अंदाज नहीं अपनी अदा का देखा।। 1. रूसवाई- जगहँसाई, बदनामी; 2. गरीबाँ- गिरेबान; 3. गंजीनयेज़र- जमीन में गड़ी सम्पति; 4. गश- चक्कर। आईना देखने का गुजरता नहीं ख्याल। अपनी ख़बर नहीं उन्हें मेरी ख़बर कहाँ।। जब देखिये कुछ और ही आलम1 है तुम्हारा । हर बार अज़ब रंग है, हर बार अज़ब रूप।। अज़ब तेरी है ए महबूब ! सूरत । नज़र से गिर गए सब खूबसूरत।। गैरते-महर2 रश्के-माह3 हो तुम, खूबसूरत हो बादशाह हो तुम। हुस्न में है तुम्हारे शाने-खुदा, इश्क-बाजों के सज़दागाह हो तुम।। गये जिस बज्म़ में, रोशन चिराग़े-हुस्न से कर दी। बहारे-ताजा आई, तुम अगर गुलज़ार4 में आये।। चमन में शब को जब वह शोख, बेनक़ाब आया। यकीन हो गया शबनम5 को, आफ़ताब आया।। कुछ नज़र आता नहीं उसके तसव्वुर6 के सिवा। हसरते-दीदार ने आँखों को अंधा कर दिया।। कुछ नज़र आया न फिर जब तू नज़र आया मुझे। जिस तरफ देखा, मुक़ामे-हू7 नज़र आया मुझे।। हुस्न-ए-परी एक जलवाये-मस्ताना है उसका। हुशियार वही है कि जो दीवाना है उसका।। वह याद है उसकी कि भुला दे दो जहाँ को। हालात को करे ग़ैर वोह याराना है ! उसका।। और अब फ़लसफ़ा देखिये - सिवाय नाम के बाकी असर निशाँ से न थे। जमीं से दब गये झुकते जो आस्माँ से न थे।। मुफ़लिस का काम याँ नहीं दौलत का खेल है। दुनिया क़िमारख़ाना8 है, चलती है ज़र9 की चोट।। दुश्मन भी हो तो दोस्ती से पेश आयें हम। बेगानगी10 से अपना नहीं आशना-मिज़ाज़।। 1. आलम- हालत, दशा, दुनिया; 2. गैरते महर- शर्म, स्वाभिमान; 3. रश्के माह- चाँद भी जिससे ईर्ष्या करें; 4. गुलजार- बाग, गुलशन; 5. शबनम- ओस; 6. तसव्वुर- ख़्याल; 7. मुकामे हू- शून्य स्थान, वीराना; 8. किमारखाना- जुए का फड़; 9. जर-पैसा, सम्पत्ति; 10. बेगानगी- परायापन। सर शनासा1 सा कटाइये पर दम न मारिये। मंजिल हज़ार दूर हो हिम्मत न हारिये।। अब एक नज़्म धर्म निर्पेक्षता पर पेश है - कुफ्रो-इस्लाम2 की कुछ कैद नहीं, ए आतिश। शेख़ हो या कि बिरहमन हो, पर इंसान हो।। हम क्या कहें किसी से, क्या है तारीफ़ अपनी। मजहब नहीं है कोई, मिल्लत नहीं कोई।। दिल की क़ुदूरतें3 अगर इंसान से दूर हों। सरे-इत्तफ़ाक गबरू मुसलमाँ से दूर हों।। हासिल हुआ न ख़ाक भी आपस की नज़अ4 से। दिल से ग़ुबारे-काफ़िरो दींदार5 ले चले।। और अब चन्द अशआर पेश हैं ख़ुदा हाफ़िज़6 कहने के लिए‒ हिज्र7 में वस्ल8 का मिलता है मज़ा आशिक को। शौक का मर्तबा9 जब हद से गुज़र लेता है।। दिखला के जलवा आँखों ने इक शम-ए-नूर का। गुल कर दिया चिराग़ हमारे शऊर का।। तो ऐसी आग थीं जनाब आतिश की शायरी में। * 1. शनासा- वाकिफ; 2. कुफ्रो इस्लाम- अधर्म, धर्म; 3. कुदूरतें- मलिनता, गंदी सोच; 4. नज़अ- विरोध, नफरत; 5. गुबारे काफिरो दींदार-घर्मी अधर्मी से रंजिश; 6. हाफिज - सुरक्षित; 7. हिज्र- जुदाई; 8. वस्ल- मिलन; 9. मर्तबा- ओहदा, रूतबा।