मिर्ज़ा ज़ाकिर हुसैन ‘साकिब’ लख़नवी लख़नवी स्कूल के एक और अज़ीम शायर हुए मिर्जा जाकिर हुसैन ‘साकिब’ ये ‘साकिब’ लख़नवी के नाम से जाने जाते हैं व इनका जन्म आगरे में सन् 1868 में हुआ। इनको जन्म के बाद इनके पिता लखनऊ ले आये। अपने पिता की शायरी से खिलाफ़त के चलते आपको शायरी के शौक से जाहिरा तौरपर काफी समय तक वंचित रहना पड़ा। फिर आप 1885 से 1891 तक अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिये आगरे में रहे। उस समय आपको मोमिन हुसैन खाँ ‘सफ़ी’ जैसे उर्दू, फ़ारसी और अरबी के अच्छे जानकार उस्ताद मिले। मिर्जा साक़िब जितनी अच्छी गज़ल कहते थे उतने ही अच्छे तरन्नुम में पढ़ भी लेते थे। आप अक़्सर चलते हुए शेर बनाते थे और उसमें खो जाने के कारण राहगीरों से टकरा भी जाते थे। इनको फिलबदी शेर कहने का भी अच्छा अभ्यास था। आप राजा मेहमूदाबाद के यहाँ मुलाज़िम रहे और 50 रुपये माहवार की तनख़ा पर जीवनयापन करते रहे। मिर्जा ‘साकिब’ की शायरी की शुरुआत भी ‘नासिख’ के खारजी रंग की शायरी से ही हुई। इसके चन्द नमूने पेश हैं‒ मेरे लहू से अगर होके सुर्खरू1 आये। मलो तो बर्गे-हिना2 में वफ़ा की बू आये।। देर-पा3 है किस क़दर ‘साकिब’ हसीनों का शबाब। उम्र भर अपनी जवानी की कसम खाते रहे।। जख़्मे-ज़िगर से अबरूए-कातिल4 ने चाल की। दिल तक शिगाफ़5 दे गई, चोट उस हिलाल6 की।। खफ़ा क्यों हो जो पैग़ामे - कज़ा अब तक नहीं आया। बुरे दिल से तुम्हें खुद कोसना अब तक नहीं आया।। साफ कह दीजिए वादा ही किया था किसने। उज्र7 क्या चाहिए झूठों को मुकरने के लिए।। 1. सुर्खरू- लाल चेहरे वाले, कामयाब; 2. बर्गे हिना- मेंहदी के पत्ते; 3. देर पा- देर तक ठहरने वाला; 4. अबरू ए कातिल- कातिल की भौहें; 5. शिगाफ़- चीरा, नश्तर लगाना; 6. हिलाल- दूज का चाँद; 7. उज्र- बहाना, आपत्ति। पर जल्द ही मिर्ज़ा की शायरी पर से ख़ारजी रंग का जादू उतर गया और वे भावपूर्ण शायरी करने लगे। उस समय भारत अपनी आजादी की जंग लड़ रहा था और जवानों के दिलों में अंग्रेजों की ख़िलाफत की आग धधकती थी। इस बात, इस ज़ज़्बे को उन्होंने इस शेर से बयाँ किया‒ तमाशा सोजे-दिल1 का देख जाकर सहने-गुलशन2 में। क़फ़स में हूँ, मगर शोले भड़कते हैं नशेमन में।। संसार में सुख और दुःख के संगम और बनने बिगड़ने के संयोग को उन्होंने इस शेर में बयाँ किया- रस्मे-दुनिया है कोई खुश हो कोई नाशाद3 हो। जब उजड़ गये नशेमन4 तो कफ़स आबाद हो।। भारत और पाकिस्तान की माँग और उस पर खून खराबे ने मिर्ज़ा को मजबूर किया यह शेर कहने को - हमदम चमन की खैर मना आशियाँ तो क्या ? दो चार दिन अगर ये हवा और चल गई।। मिर्ज़ा ने बाज़ारी इश्किया कलाम से परहेज रखा, वे पाक इश्क़िया शायरी के कायल रहे। वे दिल में इश्क़ को छिपाये रखने की ताकीद5 करते हैं‒ दिल ने रग-रग से छिपा रखा है, राजे-इश्क़ ए दोस्त। जिसको कह दे नब्ज ऐसी मेरी बीमारी नहीं।। मिर्ज़ा इश्क़ को ज़ाहिर कर बदगुमाँ6 करने के हिमायती नहीं थे बल्कि इश्क़ में खामोशी के साथ शम्अ की तरह जलने के तरफ़दार रहे। उम्र भर जलता रहा दिल और खामोशी के साथ। शम्अ को इक रात की सोज़े-दिली7 पर नाज़ था।। मिर्ज़ा का माशूक भी बेहया और बेशर्म नहीं बल्कि पाक पर्दानशीं होता था- फैला है हुस्ने-आरिज़े-रोशन8 नकाब में। क्या-क्या तड़प रही है, तज़ल्ली9 हिज़ाब10 में।। शबे-वस्ल में भी इक हिज्र का अंदाज पैदा है। इधर मैं हूँ, उधर वोह हैं, हया हाइल11 है, परदा है।। 1. सोजे दिल- दिल की तपिश; 2. सहने गुलशन- बाग का आँगन; 3. नाशाद- नाखुश, दुखी; 4. नशेमन- घर, घौंसला; 5. ताकीद- आग्रह, चेतावनी; 6. बदगुमाँ- नाराज; 7. सोजे दिली- दिल की तपिश; 8. हुस्ने आरिजे रोशन- सुंदरी के गालों का चमकता सौन्दर्य; 9. तजल्ली- रोशनी, नूर; 10. हिज़ाब- पर्दा; 11. हया हाइल- शर्म रुकावट। हुस्न की बड़ाई करने में भी उनका अंदाज जुदा होता था। दीद-बाज़ी जैसे हल्के मौजू पे भी वे सिर्फ़ ये कहते थे कि‒ दीदये-दोस्त तेरी चश्म-नुमाई1 की कसम। मैं तो समझा कि दर खुल गया मैख़ाने का।। और अंगड़ाई लेने की अदा की तारीफ़ देखिये - वोह उठे अँगड़ाईयाँ लेते हुए। मैं ये समझा हश्र बरपा हो गया।। इश्क़ हुआ तो दिल गया और आशिक बेचारा खो गया। इस मंजर पर उन्होंने फरमाया- इश्क़ में दिल गँवा के हाल यह है। कुछ मैं खोया हुआ सा रहता हूँ।। लेकिन लाख छुपाओ, इश्क वो आग है जो छिपाये न छिपे और दिखाये न बने। अब इस मौज़ू पर उनका शेर पेशे-ख़िदमत है - हिचकियों से राजे-उल्फ़त खुल गया। आ गई मुँह पर जो दिल में बात थी। और जब बात खुल गई तो फिर दास्ताने-बयाँ का अंदाज देखिये‒ बड़े शौक से सुन रहा था जमाना। हमीं सो गये दास्ताँ कहते कहते।। मिर्जा ‘साकिब’ शेरों में मुहावरों का प्रयोग भी बहुत कौशल से करते थे। बानगी देखिए- लहद पर चलने वाले थम कि हम कुछ कह नहीं सकते। जमीं रखती है, ‘मुँह पर हाथ’ जब हम फ़रियाद करते हैं।। (मुँह पर हाथ रखना, मुहावरा चुप कर देने के लिए प्रयुक्त है।) बाग़बाँ ने ‘आग दी’ जब आशियाने को मेरे। जिन पै ‘तकिया था’ वही पत्ते हवा देने लगे।। (आग देना-जला देना। तकिया था-विश्वास था।) इश्क़ के बाद अब हवादिस की जरूरत क्या रही। आस्माँ दम ले, मेरे मरने का सामाँ हो गया।। (दम लेना-ठहरना) (हवादिस-दुर्घटनायें) 1. चश्म नुमाई- आँखें दिखाने। अब हम मिर्ज़ा ‘साकिब’ के चन्द यादगार अशअर देखेंगे - बताइये, रहेगी शम्अ किस तरह हिज़ाब में। यह क्या समझ के हुस्न को छिपा दिया नकाब में।। अपने ही दिल की आग में आखिर पिघल गई। शम्ए-हयात मौत के साँचे में ढल गई।। जो कुछ हुआ आलम में होता न तो क्या होता। बेहतर था बिगड़ने को यह दिल न बना होता।। शादी में भी कुछ गम के पहलू निकल ही आते हैं। बेसाख़्ता1 हँसने में आँसू ढ़ल ही जाते हैं।। उम्र भर गफ़लत रही, हस्तिए बे-बुनियाद से। उठ गये इक नींद लेकर आलमे-ईजाद2 से।। छुपाओ आपको जिस रंग या जिस भेस में चाहो। मगर चश्मे-हक़ीक़तबीं3 से परदा हो नहीं सकता।। दिले-मुर्दा कभी जीने का तलबगार4 न था। होशियारी को समझता था पै हुश्यार न था।। दर्द से इक आह भी करने नहीं देते मुझे। मौत है आसाँ मगर मरने नहीं देते मुझे।। उरूसे-दहर5 को दिल देके आजमाऊँ क्या ? सँवारने में जो बिगड़े उसे बनाऊँ क्या ? या न था उनके सिवा दहर में ज़ालिम कोई। या सिवा मेरे कोई और गुनहगार न था।। किस मुँह से जबाँ करती इज़हारे-परेशानी। जब तुमने मेरी हालत सूरत से न पहचानी।। मुख़्तार6 है बंदा कोई मज़बूर नहीं है। फिर क्या है जो दिल पर मेरा मक़दूर7 नहीं है।। दिले-ग़मनाक ऐसा है कि दर्द ईजाद करता है। जमाना रो रहा है, यूँ कोई फरियाद करता है।। 1. बेसाख्ता- बेबाक, खुलकर; 2. आलमे ईजाद- ईश्वर की दुनिया; 3. चश्मे हकीकतबीं- वास्तविकता खोजने (देखने) वाली आँखें; 4. तलबगार- इच्छा रखने वाला; 5. उरूसे दहर- संसार रूपी दुल्हन; 6. मुख़्तार- आजाद ख्याल, अधिकार सम्पन्न; 7. मक़दूर- मजाल, बस। ख़ामोशी पर मेरे क्यों बदगुमानी है मेरे दिल से। वो क्या नाला करे जो साँस लेता हो मुश्किल से।। हाथों की ख़ता हो कि मुकद्दर की जफ़ा1 हो। जो चाक न होता हो वो गरेबाँ नहीं देखा।। हमारी दस्ताने-गम रूलाती है जमाने को। वो हम हैं जो ज़बाने-ग़ैर से फ़रियाद करते हैं।। वोह काँटे जिन को चुन लाया हूँ मैं वादीए-वहशत2 से। निकालूंगा अगर वुसअत3 हुई सहरा के दामन से।। या इलाही कौन सी बिजली गिरी थी बाग में। जो नशेमन4 से सरक कर मेरे दिल पर आ गई।। शब को जिंदाँ5 में मेरा सर फोड़ना अच्छा हुआ। आज कुछ कुछ रोशनी आने लगी दीवार से।। कैद करता मुझको लेकिन जब गुज़र जाती बहार। क्या बिगड़ जाता जरा सी देर में सैयाद का।। चोट देकर आजमाते हो दिले आशिक का सब्र। काम शीशे से नहीं लेता कोई फ़ौलाद का।। ‘साकिब’ जहाँ में इश्क़ की राहें है बेशुमार। हैरान अक्ल है कि चलूं किस निशान पर।। हादसों के जलजले से जामे दिल छलका किया। एक चुल्लू खून ही क्या ? बहते-बहते बह गया।। सैकड़ों नाले करूँ लेकिन नतीज़ा भी तो हो। याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।। उनपै दावा कत्ल का महशर6 में आसाँ है मगर। बाका का खून है खंजर पै जाहिर भी तो हो।। सदायें देके हमने एक दुनिया आज़मा देखी। यही सुनते चले आये-बढ़ो आगे यहाँ क्या है।। मैं जो रो रहा हूँ दिल को तो बेकसी के लिए। वगरना मौत तो दुनिया में है सभी के लिए।। 1. जफा- बेवफाई; 2. वादीए वहशत- दीवानगी की वादी; 3. वुसअत- जगह, लगाव; 4. नशेमन- घर, घौंसला, आशियाना; 5. जिंदाँ - कैद खाना; महशर- कयामत के दिन, न्याय के वक्त। इक नया दिल जुल्म सहने को बनाना चाहिए। हो तो सकता है मगर उसको जमाना चाहिए।। जिंदगी में क्या मुझे मिलती बलाओं से निज़ात। जो दुआऐं की वो सब तेरी निगेहबाँ1 हो गई।। कम न समझो दहर में सरमाये-अरबाबे-ग़म2। चार बूँदें आँसुओं की बढ़ के तूफाँ हो गई।। मकां-मुनअम3 का सोने से, यह खूने-दिल से बनता है। ख़सो-ख़ाशाक4 का घर भी, बड़ी मुश्किल से बनता है।। किसी का रंज देखूँ यह नहीं होगा मेरे दिल से। नज़र सैयाद की झपके तो कुछ कह दूं अनादिल5 से।। बर्क़ के गिरने से मातम एक ही होता तो खैर। आशियाँ के साथ आँच आई मेरी हसरत पै भी।। हो गये बरसों कि आँखों की खटकी जाती नहीं। जब कोई तिनका उड़ा घर अपना याद आया मुझे।। गनीमत है कफ़स, फिक्रे-रिहाई6 क्या करे हमदम। नहीं मालूम अब कैसी हवा चलती है गुलशन में।। देखा किये वो चाँद को अपने गुमान पर। मैं खुश हुआ कि तीर चले आसमान पर।। कुछ वफ़ा कुछ ज़ुल्म के आसार रहने दीजिए। खून में डूबी हुई तलवार रहने दीजिए।। शिकायत जुल्मे-खंजर की नहीं, गम है तो इतना है। जबाने-गैर से क्यूं मौत का पैग़ाम आता है।। मुट्ठियों में ख़ाक लेकर दोस्त आये वक़्ते-दफ़न। जिंदगी भर की मुहब्बत का सिला देने लगे।। * 1. निगेहबाँ- रक्षा करने वाली; 2. सरमाये अरबाबे गम- गम की दौलत; 3. मकां मुनअम का- मालदार लोगों का घर; 4. खसो खाशाक- सूखी घास और कूड़ा करकट; 5. अनादिल- बुलबुलों, अन्दलीबों; 6. फिक्रे रिहाई- मुक़्त होने की चिन्ता।