ख़्वाजा अल्ताफ़ हुसैन ‘हाली’ ख़्वाजा अल्ताफ़ हुसैन ‘हाली’ पानीपत में पैदा हुऐ थे। वे शेफ़्ता के शर्गिद थे और मिर्ज़ा ग़ालिब के भी। पहले हाली भी इश्क़िया शायरी करते थे और गज़लें कहते थे पर बाद में सर सैयद अहमद से परिचय होने पर कौमी नज्में लिखने लगे। वे सदाचारी और धार्मिक थे और हिन्दोस्ताँ में अपनी कौम की दुर्दशा के कारण परेशान रहते थे। ग़दर के बाद हुई मुसलमानों की खाना खराबी ने उन्हें और भी परेशान किया। लाहौर आने के बाद उनका एक-एक पल मुसलमानों को जाग्रत करने में खर्च होने लगा। उनकी नज्मों का दीवान ‘मुस्सदसे हाली’ के नाम से छपा लेकिन उनका एक गजलों का भी दीवान छपा था और इसमें लिखी उनकी गजलें इस लिहाज से दूसरी गजलों से अलग थीं कि उनमें हर शेर के तार आपस में जुड़े होते थे। सर सैयद अहमद की सुहबत ने हाली को पूरा बदल दिया। कौम की तरफ़दारी ने उन्हें एक कौमी शायर बना कर रख दिया। वे शायर से ज्यादा वाइज और नासेह नज़र आने लगे। दिल उनका मर गया और वे मौलवी बन गये। लाहौर के सरकारी बुक डिपो में रहकर वे मगरिब के तरफ़दार भी बन गये। इसीलिए उन्होंने फरमाया कि- हाली ! अब आओ परैवी-ए-मगरबी1 करें। बस इक्तदाये2 ‘मुसहफ़ी’ और ‘मीर’ कर चुके।। उनका ‘दीवाने-हाली’ गजलों, रूबाईयों और मर्सियों का संग्रह है। पहले जिस ‘हाली’ ने इश्क़ की प्रशंसा में कहा था कि- इश्क़ सुनते थे जिसे हम, वोह यही है शायद। खुदबखुद दिल में इक शख़्स समाया जाता है।। उसी ‘हाली’ ने फिर इश्क़ के लिये फ़र्माया कि- ऐ इश्क़ तूने अक्सर कौमों को खा के छोड़ा। जिस घर से सर उठाया उसको बिठा के छोड़ा।। 1. पैरवी ए मगरबी- अनुसरण, पश्चिमी दुनिया की वकालत, तरफदारी; 2. इक़्तदा- तरफदारी, प्रसंशा। अबरार तुझसे तरसा, अहरार तुझसे लरज़ा। जो ज़द पै तेरी आया उसको गिरा के छोड़ा।। रावों के राज छीने, शाहों ताज छीने। गर्दन-कशों1 को अक्सर, नीचे दिखा के छोड़ा।। क्या मुगनियों2 की दौलत, क्या जाहिदों3 का तकवा4। जो गंज तूने ताका उसको लुटा के छोड़ा।। जिस रह-गुजर5 पै बैठा तू गौलेराह6 बनकर। सनआँ7 से रास्तरौ8 को रस्ता भुला के छोड़ा।। वे इश्क़ से नफ़रत करते थे और मानते थे कि इश्क़ किसी का भी बना बनाया घर उजाड़ सकता है। ऐ इश्क़ ! दिल को रक्ख़ा, दुनिया का और न दीं का। घर ही बिगाड़ डाला, तूने बना बनाया।। वे ये भी मानने लगे कि यह जो कमबख़्त दिल है सीने में, वही सारे गमों की जड़ है। नसीहत बेअसर है गर न हो दर्द। ये गुर नासेह9 को बतलाना पड़ेगा।। बहुत याँ ठोकरें खाई हैं हमने। बस अब दुनिया को ठुकराना पड़ेगा।। बशर10 पहलू में दिल रखता है जब तक। उसे दुनिया का ग़म खाना पड़ेगा।। उनके शेरों में तसव्वुफ भी बहुत मिलता है चन्द नमूने पेश हैं‒ उनके जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत। न दीवार की सूरत है न दर की सूरत।। किससे पैमाने वफ़ा बांध रही है बुलबुल। कल न पहचान सकेगी गुलेतर की सूरत।। (गुल की खूबसूरती इतनी अस्थाई होती है कि एक दिन ही में वह इतना मुरझा जाता है कि पहचान ही में नहीं आता है। तो बुलबुल का उससे वफ़ादारी का वायदा लेना कैसे सफ़ल होगा।) 1. गर्दन कशों- अकड़ी हुई गर्दन (घमंडी); 2. मुगनियों- धनिकों; 3. जाहिदों- न पीने वालों; 4. तकवा- परहेज़गारी, खुदा का डर; 5. रहगुजर- राह, रास्ता; 6. गौलेराह- रास्ता बताने वाला; 7. सनआँ- कारीगरी; 8. रास्तरौ- सीधे रास्ते पर चलने वाला; 9. नासेह- नसीहत देने वाला; 10. बशर- इंसान। देखिये शेख ! मुसव्विर1 से खिंचे या न खिंचे। सूरत और आपसे बे-ऐब-बशर2 की सूरत।। वाइजों ! आतिशे-दोज़ख3 से जहां को तुमने। वह डराया कि खुद बन गये डर की सूरत।। अपनी जेबों से रहें सारे नमाज़ी हुशयार। इक बुजुर्ग आते हैं मस्ज़िद में खिज़र4 की सूरत।। (दुनिया में दीन वालों ने आदमी को दोज़ख की आग से इतना डराया कि वह स्वयं एक डर की सूरत बन गये और लोग उनसे कन्नी काटने लगे। है कोई ऐसा जो एक ऐसी सूरत बना दे जिसमें कोई ऐब न हो। आजकल तो मस्जिद में कोई बुजुर्ग दीनदार की सूरत भी बना कर आता है तो नमाजियों को अपनी जेब के कट जाने की दहशत हो जाती है।) काफ़िले गुज़रे वहां क्यों कर कि सलामत वाइज। हो जहां रहजन और रहनुमा एक ही शख़्स।। (जहाँ के रहनुमा (मार्ग दर्शक) ही रहजन (मार्ग में लूटने वाले) बन गये हों वहां से काफ़िले कैसे सकुशल गुज़र सकते हैं।) हाजियों हमको है घरवाले से काम। घर के महराबो-सुतूँ5 से क्या गरज़।। (हाजियों तुम शौक से काबे के मेहराब और खंभों को सज़दा करते रहो, मुझे तो इस घर के मालिक खुदा की तालाश है।) इक सम्भलते हम नजर आते नहीं। वर्ना गिर-गिरकर गये लाखों सम्भल।। कब तक आखिर ठहर सकता है वह घर। आ गया बुनियाद में जिसकी खलल।। (बाकी सब तो गिरे लेकिन फिर सम्भल गये एक हम ही नहीं सम्भल पाये क्योंकि हमारी तो जड़ ही हिल गई है। वो घर कब तक ठहरेगा जिसकी नींव हिल गई हो।) कम से कम वाज6 में इतना तो असर हो वाइज। बोल कव्वाल के जो दिल में असर करते हैं।। जुहदो-ताअत7 का सहारा नहीं जबसे जाहिद। याद अल्लाह को हम आठ पहर करते हैं।। 1. मुसव्वर- चित्रकार; 2. बे ऐब बशर- बिना बुराई वाले इन्सान; 3. आतिशे दोजख- नर्क की आग; 4. खिज़र- दीनदार इंसान, मौलवी; 5. महराबो सुतूँ- महराब और खंबे; 6. वाज- प्रवचन; 7. जुहदो-ताअत- विरक्ति (त्याग) और उपासना। (वाइज तेरी सीख में इतना असर तो हो जितना किसी कव्वाल के बोलो में होता है। यहां तो हाल यह है कि नेकचलनी और बंदगी को भूल गये हैं और आठों पहर खुदा-खुदा करते रहते हैं।) ऐब ये है कि करो ऐब हुनर दिखलाओ। वर्ना याँ ऐब तो सब फर्दोबशर1 करते हैं।। इक यहाँ जीने से बेज़ार हमीं हैं या-रब। या इसी तरह से सब उम्र बसर करते हैं।। (ऐब तो सभी इंसान करते हैं। अस्ल में ऐब तो यह है कि करो और यह दिखाओ कि यह ऐब नहीं हुनर है। इस संसार में हम ही जीने से बेज़ार हुए हैं या सभी ऐसा ही दोग़ला जीवन जीते हैं।) हो फरिश्ता भी तो नहीं इन्सान, दर्द थोड़ा बहुत न हो जिसमें। (जो गुनाहों से पाक और साफ़ हो वह इंसान फ़रिश्ता है लेकिन जिसके दिल में दूसरों का दर्द नहीं वह अगर फ़रिश्ता हो तो भी इंसान नहीं हो सकता।) जानवर, आदमी, फ़रिश्ता खुदा। आदमी की है सैकड़ों किस्में।। (आदमी कई प्रकार के होते हैं। वह जो केवल खाना, पीना और सोना जानते हैं, तो जानवर हैं। जिसे अपने आदमी होने के फर्जों का अहसास होता है वह आदमी कहलाता है। जो गुनाहों से पाक और साफ़ हो वह आदमी फ़रिश्ता या देवता समान है। और जो रूहानियत के आखिरी दर्ज़े पर पहुंच गया हो वह आदमी खुदा के समान है।) हाली ने ‘रहीम’ और ‘कबीर’ ही के समान दोहों की भी रचना की है जिसमें दुनियादारी का तजुर्बा भरा हुआ था। उनके ये चन्द दोहे भी मैं यहां पेश करूंगा जो मसनवी के रूप में लिखे हैं। बढ़ाओ न आपस में मिल्लत2 ज़ियादा। मुबादा3 कि हो जाय नफ़रत ज़ियादा।। तकल्लुफ़ अलामत4 है बेगानगी की। न डालो तकल्लुफ़ की आदत ज़ियादा।। करो दोस्तों पहले आप अपनी इज्जत। जो चाहो करें लोग इज़्ज़त ज़ियादा।। करो इल्म से इक्तासाबे-शराफ़त5। नजाबत6 से है ये शराफ़त ज़ियादा।। 1. फर्दोबशर- हर आदमी; 2. मिल्लत- मेल मिलाप; 3. मुबादा- ऐसा न हो कि; 4. अलामत- निशानी; 5. इक्तासाबे शराफ़त- मेहनत से नेकी कमाओ; 6. नजाबत- कुलीनता। फ़राग़त1 से दुनिया में दमभर न बैठो। अगर चाहते हो फ़राग़त ज़ियादा।। मुसीबत का इक इक से अहवाल2 कहना। मुसीबत से है ये मुसीबत ज़ियादा।। फिर औरों की तकते फिरोगे सख़ावत3। बढ़ाओ न हद से सख़ावत ज़ियादा।। कहीं दोस्त तुमसे न हो जाये बदज़न। जताओ न अपनी मुहब्बत ज़ियादा।। जो चाहो फ़कीरी में इज़्ज़त से रहना। न रक्खो अमीरों से मिल्लत ज़ियादा।। है उल्फ़त भी वहशत भी दुनिया से लाज़िम। पै उल्फ़त ज़ियादा न वहशत ज़ियादा। फ़रिश्ते से बेहतर है, इंसान बनना। मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़ियादा।। इनके अलावा भी कई शेर हाली साहब ने अपने तजुर्बात से लिखे जिनमें नसीहतें दी गई हैं‒ कबक4 और कुमरी5 में है झगड़ा कि चमन किसका है। कल बता देगी खिजां6 कि यह चमन किसका है।। दोस्त गर भाई न हो, दोस्त है तो भी लेकिन। भाई गर दोस्त नहीं तो नहीं कुछ भी भाई।। जो कहिये तो झूंठी, जो सुनिये तो सच्ची। खुशामद भी हमने अज़ब चीज पाई।। 1. फ़राग़त- आराम, फुर्सत, मुक्ति; 2. अहवाल- वर्णन करना; 3. सख़ावत- दान वीरता; 4. कबक- चकोर; 5. कुमरी- फाख्ता; 6. खिजां- पतझड़।