सैयद फजलुलहसन ‘हसरत’ मौहानी देहलवी स्कूल के एक और शायर जिन्हें इस नये दौर में शोहरत हासिल हुई वे थे सैयद फजलुलहसन ‘हसरत’। वह सन् 1875 ई. में उन्नाव जिले के मोहाना कस्बे में पैदा हुए। इसलिये ‘हसरत’ मोहानी के तरवल्लुस से शायरी करते थे। ये कट्टर मुसलमान थे और अंग्रेजों के घोर विरोधी थे। सैयद अहमद के अहमदिया आंदोलन के बावजूद वे अंग्रेजों के ख़िलाफ कायम रहे और लोकमान्य तिलक के हिमायती थे। ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ पत्र का संपादन करते थे और काँग्रेस के कार्यकर्ता थे सो जेल तो जाना ही था। किसी के टर्की से सम्बन्धित एक लेख को छापने के सिलसिले में 1908 में दो वर्ष की कैद भुगत ली। उसी समय का कहा गया एक शेर पेश है- है मश्क़े-सुख़न1 जारी, चक्की की मशक्कत भी। इक तुरफ़ा2 तमाशा है, हसरत की तबीयत भी।। स्वदेशी आन्दोलन के समर्थक होने से विदेशी कपड़ों से सख्त परहेज़ रहता था। जेल में रमज़ान का महीना आया तो रोज़े तो रखे पर इफ़्तारी का प्रबंध न होने से खाना बंद, तो शेर कहा - कट गया कैद में माहे-रमज़ान भी हसरत। गरचे सामान सहर3 का था न इफ़्तारी4 का।। ख़िलाफ़त आन्दोलन में भी नजरबंद हुए तो असहयोग आन्दोलन में भी जेल गये। लेकिन धार्मिक कट्टरता के चलते 1924 में मुस्लिम लीग से जुड़ गये। पाकिस्तान के समर्थक हो गये लेकिन बँटवारे के समय पाकिस्तान नहीं गये क्योंकि जिन्ना साहब से पटरी बैठती न थी। हसरत सिर्फ गज़लें लिखा करते थे। फ़लसफ़ा और तसव्वुफ उनको रास नहीं आता था। परन्तु तबीयत सूफियाना थी। उनकी आशिकाना और सूफियाना शायरी का कलाम बहुत कम है। हसरत की आशिकाना शायरी में सच्चाई की झलक मिलती है। सियासत में वे सदैव मुख़ालफ़त 1. मश्के सुखन- शेरो शायरी का अभ्यास; 2. तुरफा- अजीब; 3. सहर- खुबह का नाश्ता; 4. इफ़्तारी- रोज़ा खोलने के समय का भोजन। की आवाज बुलंद करते थे। इसलिए सियासत में भी वे ज्यादा सफ़ल न हो सके। हसरत ने हक़ीक़त में इश्क़ किया और माशूक को बीबी बना लेने में भी सफल रहे। उनका तजुर्बा रहा कि शादी हो जाने पर माशूक माशूक नहीं रहता वह अपना मर्तबा खो बैठता है। हसरत की इश्क़िया शायरी जवानी की शायरी है और उम्र के चढ़ाव के साथ साथ उसमें उतार आता गया। इश्क़िया शायरी जो उस समय प्रचलित थी के चन्द नमूने पेश हैं। ये शेर हसरत साहब के नहीं है। ईद का दिन है परीज़ाद1 हैं सारे घर में। राजा इंदर का अखाड़ा है हमारे घर में।। परदा उठा के मुझसे मुलाकात भी न की। रूख़सत के पान भेज दिये बात भी न की।। वस्ल की रात चली एक न शोख़ी उनकी। कुछ न बन आई तो चुपके से कहा मान गये।। सुबह को आये हो भूले शाम के, जाओ अब तुम रहे किस काम के। हाथा-पाई से यही मतलब भी था, कोई मुँह चूमे कलाई थाम के।। पान बन बन के मेरी जान कहाँ जाते हैं। ये मेरे कत्ल के सामान कहाँ जाते हैं।। क्यों मुझसे है मुफ़्त की तक़रार2 क्या हुआ ? अच्छा जो मैंने कर ही लिया प्यार क्या हुआ ?? जब वो बाँहें गले का हार नहीं। दूर का प्यार कोई प्यार नहीं।। किसी से वस्ल में सुनते ही जबान सूख गई। ‘‘चलो हटो भी हमारी ज़बान सूख गई’’।। आंखें दिखलाते हो जोबन तो दिखाओ साहब। वोह अलग बाँध के रक्खा है जो माल अच्छा है।। इस तरह की इश्क़िया शायरी में फँसी ऊर्दू शायरी को हसरत ने जिंदगी बख़्शी। वे लखनऊ की ख़ारजी शायरी के विरोधी थे और जनाब ‘नसीम’ को अपना उस्ताद मानते थे- 1. परीज़ाद- परियाँ, परियों के जाये; 2. तकरार- नोंक झोंक। ‘हसरत’ मुझे पसन्द नहीं तर्जे-लखनऊ1। पैरो2 हूँ मैं शायरी में जनाबे-नसीम का।। हसरत की माशूका इतनी पाक थी कि उसकी तरफ अश्लील निगाह से कोई देख भी न पाये- मेरी निगाहे-शौक का शिकवा नहीं जाता। सोते में भी पास से देखा नहीं जाता।। उनकी इश्क़ की पाकीजग़ी के सामने फिरदौस भी कुछ नहीं - वल्लाह ! तुझे छोड़ के ए कूचए-जानाँ। ‘हसरत’ से तो फिरदौस3 में जाया नहीं जाता।। उनकी इश्क़ की आरज़ू और माशूक की तमन्ना दोनों ही पाकीज़ा है। दोनों को ही एक दूसरे से निस्बत4 के सिवा कुछ नहीं। खुद उनको मेरी अर्जे तमन्ना का शौक़ है। क्यूं वरना यूँ सुने है कि गोया सुना नहीं।। हम क्या करें अगर न तेरी आरजू करें। दुनिया में और भी कोई तेरे सिवा है क्या ? दोनों (आशिक और माशूक) सदा एक दूसरे की याद में खोये रहना चाहते हैं। शब वही शब है, दिन वही दिन है जो तेरी याद में गुज़र जाये।। उनके इश्क़ में माशूक़ को अपने हुस्न का पता नहीं और आशिक़ को अपने इश्क़ का और जो मज़े ऐसे इश्क़ में है वो फिर कहाँ से हों। हुस्न से अपने वोह गाफ़िल5 था, मैं अपने इश्क़ से। अब कहाँ से लाऊँ वोह नावाक़फियत6 के मज़े। थोड़ा फ़लसफ़ा और थोड़ा तसव्वुफ भी पाया जाता है उनके शेरों में, बानगी देखिये- वस्ल की बनती हैं इन बातों से तद्बीरें कहीं। आरजूओं से फिरा करती हैं, तकदीरें कहीं।। कुछ भी हासिल ना हुआ, जोहद7 से नखूवत8 के सिवा। शग्ल सब बेकार है, उसकी मोहब्बत के सिवा।। 1. तर्जे लख़नऊ- शायरी का लखनवी अंदाज; 2. पैरो- हिमायती; 3. फिरदौस- स्वर्ग; 4. निस्बत- जुड़ाव, अपनापन; 5. गाफिल- अंजान; 6. नावाकफियत- अपरिचित्ता; 7. जोहद- धार्मिक उन्माद; 7. नखूवत- घमंड, नफ़रत। शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी। दिन हो या रात हमें जिक्र उन्हीं का करना।। वहीं इक्का दुक्का बाज़ारू इश्क़िया शेर भी मिल जाते हैं, जैसे- तुझमें कुछ बात है ऐसी जो किसी में भी नहीं। यूं तो औरों से भी दिल हमने लगा रखा है।। अब ‘हसरत’ मोहानी साहब के कुछ यादगार अशअर पेशे-ख़िदमत हैं - सताईये न मुझे यूँ ही दिल-फ़िगार1 हूँ मैं। रूलाइये न मुझे खुद ही बेकरार हूँ मैं।। ये तेरा रंग है कि बेसबब2 खफ़ा मुझसे। मेरा यह हाल कि बेवजह बेकऱार हूँ मैं।। वो जो देख के बेचैन हुई हालत मेरी। हो गई और परेशान तबीयत मेरी।। मानूस हो चला था तसल्ली से हाले-दिल। फिर तूने याद आ के बदस्तूर कर दिया।। अब तो उठ सकता नहीं आँखों से बारे-इन्तज़ार। किस तरह काटे कोई लैलो-निहारे इंतजार।। उनकी उल्फ़त का यकीं हो, उनके आने की उम्मीद। हों ये दोनों सूरतें, तब है बहारे-इंतज़ार।। उनके खत की आरजू है उनकी आमद का ख़याल। किस कदर फैला हुआ है, कारोबारे-इन्तज़ार3।। निगाहे यार जिसे आश्नाये-राज़4 करे। वो अपनी खूबिये-किस्मत5 पे क्यूं न नाज़ करे।। और तो पास मेरे हिज्र में क्या रक़्खा है। इक तेरे दर्द को पहलू में छिपा रक्खा है।। आह वह याद कि उस याद से हो कर मज़बूर। दिले-मायूस6 ने मुद्दत से भुला रक़्खा है।। जाह़िर मलाले-रश्को-रक़ाबत7 न कीजिए। बेहतर यही है उनसे शिकायत न कीजिए।। 1. दिल फ़िगार- घायल दिल वाला; 2. बेसबब- बिना कारण; 3. कारोबारे इन्तजार- इंतजार का व्यापार; 4. आश्नाये राज- किसी गुप्त बात से परिचित; 5. खूबिये किस्मत- अच्छी किस्मत; 6. दिले मायूस- निराश दिल; 7. मलाले रश्को रकाबत- ईर्ष्या और दुश्मनी का रंज। उज्रे-सितम जरूर न था आपके लिए। हसरत को शर्मसारे-नदामत1 न कीजिए।। शरफ़2 हासिल हो उस जाने-जहाँ से मुझको निस्बत का। ग़ुलामी का सही गर हो न सकता हो मुहब्बत का।। ऐ सहरे-हुस्ने-यार3 मैं अब तुझसे क्या कहूँ। दिल का जो हाल तेरी बदौलत है आजकल।। इक तरफा बेखुदी का है आलम कि इश्क़ में। तकलीफ़ आजकल है न राहत है आजकल।। खुदा जाने यह अपना हाल क्या है हिज्रेजानाँ में। न आहें लब तलक आतीं हैं, न अश्क़ आँखों से बहते हैं।। खामोशी की अज़ब यह गुफ़्तगू है वस्ल में बाहम। न कहते हैं वोह कुछ हमसे, न हम कुछ उनसे कहते हैं।। परदे से इक झलक जो वह दिखला के रह गये। मुश्ताके-दीद4 और भी ललचा के रह गये।। टोका जो बज़्मे-गैर से आते हुए उन्हें। कहते बना न कुछ तो कसम खा के रह गये।। किस्मते-शौक आज़मा न सके, उनसे हम आँख भी मिला न सके। हम तो क्या भूलते उन्हें ‘हसरत’ ! दिल से वोह भी हमें भुला न सके।। रौनके-दिल यूं बढ़ा ली जायेगी, ग़म की इक दुनिया बसाली जायेगी। दिल को न तोड़ो हसरते-नाकाम5 के, जुल्फ़ तो फिर भी बना ली जायेगी।। ‘हसरत’ मोहानी साहब गज़लगो शायर थे। आपने बहुत ही अच्छी अच्छी गजलें कही हैं। आपकी एक गज़ल है ‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है।’ यह गज़ल बहुत मशूहर है और नग्मे के रूप में फिल्माई भी गई है। इस फिल्म का नाम था ‘निकाह’। यह गज़ल पेशे-खिदमत है- चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है। हमको अब तक आशिकी का वो जमाना याद है।। खींच लेना वोह मेरा परदे का कोना दफ़्अतन6। और दुपटे से तेरा वोह मुँह छुपाना याद है।। 1. शर्मसारे नदामत- पश्चाताप से शर्मिन्दा; 2. शरफ़ - सम्मान, इज्जत; 3. सहरे हुस्ने यार- यार के हुस्न का जादू; 4. मुश्ताके दीद- देखने के अभिलाषी; 5. हसरते नाकाम- मायूस, जिसकी इच्छा पूरी न हुई हो; 6. दफ़्अतन- सहसा, अचानक। दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये। वोह तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है।। गैर की नजरों से बचकर सबकी मर्ज़ी से खिलाफ। वोह तेरा चोरी छुपे रातों को आना याद है।। तुझ से मिलते ही वो कुछ बेबाक1 हो जाना मेरा। और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है।। चोरी चोरी हम से तुम आकर मिले थे जिस जगह। मुद्दतें गुज़री पर अब तक वो ठिकाना याद है।। ‘हसरत’ मोहानी साहब ने 700 से ऊपर ग़जलें कहीं और उनमें से तकरीबन आधी नजरबंदी की हालत में कहीं। लेकिन उन्होंने अपनी जो पहली गज़ल कही वह 22 या 23 साल की उम्र में कही और खूब कही, पेशे खिदमत है - मैं तो समझा था कयामत आ गई। ख़ैर फिर साहब सलामत हो गई।। मस्जिदों में कौन जाये बायज़ा। अब तो इक बुत से इरादत2 हो गई।। जब मैं जानूँ दिल में भी आओ न याद। गरचे जाहिर में अदावत3 हो गई।। उनको कब मालूम था तर्जे-जफ़ा। गैर की सुहबत कयामत हो गई।। इश्क़ ने उसको सिखा दी शायरी। अब तो अच्छी फिक्रे-‘हसरत’ हो गई।। अब गज़लें इतनी और हविस ऐसी कि मिटाये न मिटे, बकौल मोहानी साहब, हविसे-दीद मिटी है न मिटेगी ‘हसरत’। बार-बार आप उन्हें शौक से देखा न करें।। बार-बार का देखना और बार बार का पढ़ना दोनों ही अपने बस की बातें तो है नहीं लेकिन आगे तो बढ़ना ही है और उसी में है ख़ैर अपनी, सो ‘हसरत’ साहब को अलविदा! * 1. बेबाक - गुस्ताख, निडर, बेहया; 2. इरादत- आस्था, श्रद्धा; 3. अदावत - दुश्मनी।