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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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9:02 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
शाह अब्बुल अलीम ‘आसी’ गाज़ीपुरी लख़नवी स्कूल वाले शायद सूफियाना कलाम को शायरी मानने से ही इंकार कर दे। जैसे उन्होंने ‘नज़ीर’ अकबराबादी साहब के साथ किया। लेकिन देहली वालों के बीच सूफियाना कलाम भी शायरी में माना जाता था। अगर कोई शायर अपने ऐसे कलाम के लिये याद किया जाता हैं तो वे हैं जनाब हजरत शाह अब्बुल अली ‘आसी’ गाज़ीपुरी। आप नासिख की लख़नवी स्कूल के शागिर्द होकर भी सूफियाना कलाम कहते थे। अब सूफियाना कलाम कहाँ और खारजी रंग कहाँ? पर गाज़ीपुरी साहब ने इस मुश्किल काम को भी कर दिखाया। उन्होंने माशूक को खुदा का दर्जा देते हुए उसे हश्र में इंसाफ करते बताया है इस शेर में- हश्र में मुँह फेरकर कहना किसी का हाय ! हाय !! ‘आसी-ए-गुस्ताख’ का हर जुर्म ना-बख़्शीदा1 है !! आपने खुदा से एक दिल माँगा और वो कैसा दिल माँगा? यह देखिये- ताबे-दीदार2 जो लाये मुझे वो दिल देना। मुँह कयामत में दिखा सकने के काबिल देना।। अस्ल फ़ित्ना3 है कयामत में बहारे-फ़िरदौस4। ज़ुज़5 तेरे कुछ भी न चाहे मुझे वह दिल देना।। और फिर जैसा दिल माँगा उसी के मुकाबिल दिलबर भी माँग लिया- रश्के-खुरशीदे-जहाँ6 ताब दिया दिल मुझको। कोई दिलबर भी इसी दिल के मुकाबिल देना।। अपने इश्क के बारे में ‘आसी’ साहब का फरमाना है कि- आशिकी में है महवियत दरकार। राहते-वस्ल7 ओ रेज़े-फ़ुरकत8 क्या ?? 1. ना बख़्शीदा-माफ न करने लायक; 2. ताबे दीदार- देखने की क्षमता रखने वाला; 3. फ़ित्ना- हंगामा, फ़साद; 4. बहारे फिरदौस- स्वर्ग की वाटिका की बहार; 5. ज़ुज़- सिवा, अलावा; 6. रश्के खुरशीदे जहाँ- सूर्य भी जिससे ईर्ष्या करे; 7. राहते वस्ल- मिलने का सुख; 8. रेज़े फुरकत- जुदाई का गम, दर्द। न गिरे उस निगाह से कोई। और उफ़्ताद1 क्या, मुसीबत क्या?? जिनमें चर्चा न कुछ तुम्हारा हो। ऐसे अहबाब2 ऐसी सुहबत क्या ?? जाते हो जाओ हम भी रूख़सत3 हैं। हिज्र में जिंदगी की मुद्दत क्या ?? तो यह तो पाक इश्किया कलाम हुआ खारज़ी शायरी नहीं। जो माशूक के दीदार को कयामत समझे या फिर ख़्वाब माने उस आशिक का इश्क तो हकीकी इश्क जैसा ही पाक हो गया। मेरी आँखें और दीदार आपका ? या कयामत आ गई या ख़्वाब है। इश्क़ में आशिक के दिल की हालत का बयान देखिये- जो रही और कोई दम यही हालत दिल की। आज है पहलुए-ग़मनाक से रूख़सत दिल की।। घर छुटा, शहर छुटा, कूचये-दिलदार छुटा। कोहो-सहरा4 में लिए फिरती है वहशत दिल की।। और माशूक के हुस्न का जलवा देखिए- इश्क ने फरहाद परदे में पाया इंतक़ाम। एक मुद्दत से हमारा खून दामनगीर था।। वोह मुसव्वर5 था कोई या आपका हुस्ने-शबाब। जिसने सूरत देख ली, इक पैकरे-तस्वीर6 था।। तुम्हीं सच-सच बतादो कोैन था शीरी की सूरत में। कि मुश्ते-ख़ाक7 की हसरत में कोई कोहकन क्यों हो।। इश्क के जूनून का मंजर देखिये- कभी न जोशे-जुनूँ में, पाँव में ताक़त। कोई नहीं जो उठा लाये घर में सहरा को।। गुबार हो के ‘आसी’ फिरोगे आवारा। ज़ूनूने-इश्क से मुमकिन नहीं है छुटकारा।। 1. उफ़्ताद - मुसीबत, परेशानी; 2. अहबाब- मित्र, दोस्त; 3. रूख़सत- विदा; 4. कोहो सहरा- पहाड़ों और बयाबाँ; 5. मुसव्वर- चित्रकार; 6. पैकरे तस्वीर- तस्वीर सी सूरत; 7. मुश्ते ख़ाक- मुट्ठी भर मिट्टी (से बना पुतला)। नहीं होता कि बढ़कर हाथ रख दे। तड़पता देखते हैं, दिल हमारा।। अगर काबू न था दिल पर, बुरा था। वहाँ जाना सरे-महफ़िल हमारा।। माशूक को कभी खुदा का दरजा देते हैं तो कभी खुदा के बाद का- तूने दावाऐ-खुदाई1 न किया खूब किया। ऐ सनम ! हम तेरे दीदार को तरसा करते।। वहाँ पहुँच के यह कहना सबा ! सलाम के बाद। कि तेरे नाम की रट है खुदा के नाम के बाद।। और खुदा से यह पूछते हैं कि- तुम कोई नहीं तो सबमें नज़र आते क्यों हो ? सब तुम ही तुम हो तो फिर मुँह को छुपाते क्यों हो ?? उनका माशूक भी दीदार से इंकार करता है तो उनका खुदा भी इसे टालता रहता है। वहाँ भी वादये-दीदार इस तरह टाला। कि खास लोग तलब होंगे बारे-आम के बाद।। जब तबीयत सूफियाना हो तो फिर खुदा ही माशूक बन जाता है। आप बुत परस्तों को मुसलमानों से ज्यादा खुदा के पुुजारी मानते हैं क्योंकि - इतने बुतखानों में सज़दे एक काबे की एवज़। कुफ्र तो इस्लाम से बढ़कर तेरा गरवीदा2 है।। उनके फ़लसफे की बात करें तो जैसे गागर में सागर। बानगी देखिये- वस्ल है, पर दिल में अब तक ज़ाैके-ग़म पेचीदा है। बुलबुला है एन दरिया में मगर नम-दीदा3 है।। (मिलन तो हो गया पर दिल अभी तक गमज़दा है, जैसे पानी का बुलबुला पानी में होते हुए भी इसलिए रोता है कि उसकी हस्ती मात्र कुछ पल की होती है।) तसव्वुफ और इश्क के बीच में फँसे ‘आसी’ फरमाते हैं कि- इश्क कहता है कि आलम से जुदा हो जाओ। हुस्न कहता है कि जिधर जाओ नया आलम है।। 1. दावा ए खुदाई- खुदा होने का दावा; 2. गरवीदा- चाहने वाला; 3. नम दीदा- भीगी आँखों। अन्त में गाज़ीपुरी साहब के चंद और शेर पेश कर उनसे रूखसत लेता हूँ। न कभी बादापरस्त हम, न हमें कैफ़े-शराब1 है। लबे-यार चूमे है ख़्वाब में, वही जोशे-मस्तिये-ख़्वाब है।। उन्हें किब्रे-हुस्न2 की नखवतें3, मुझे फैज़े-इश्क4 की है हसरतें। न कलाम है, न पयाम है, न सवाल है, न जवाब है।। तेरे दीवाने का बेहाल ही रहना अच्छा। हाल देना हो अगर रहम के काबिल देना।। हाय रे हाय तेरी उक्दाकुशाई5 के मज़े। तू ही खोले जिसे वोह उक़्दये-मुश्किल6 देना।। बिन तेरे, जीने की किस जी से तमन्ना करते। मर न जाते शबे-हिज्र तो हम क्या करते।। दाग़े-दिल दिलबर नहीं, सीने से फिर लिपटा हूँ क्यों ? मैं दिले-दुश्मन नहीं, फिर यूं जला जाता हूँ क्यों ?? वोह कहते हैं ‘मैं जिंदगानी हूँ तेरी’। यह गर सच है तो फिर इसका भरोसा नहीं।। * 1. कैफै शराब- शराब का नशा; 2. किब्रे हुस्न - हुस्न का घमंड; 3. नखवतें- नाज; 4. फैज़े इश्क- इश्क के लाभ; 5. उक्दाकुशाई- भेद खोलना; 6. उक्दये मुश्किल- मुश्किल भेद (समस्या)।
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