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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:53 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
शेख इमाम बख़्श ‘नासिख़’ ‘देहलवी’ और ‘लखनवी’ शायरी में वही अंतर है जो ‘दाखिली’ और ‘ख़ारिजी’ शायरी में है। दाख़िली शायरी दिल की शायरी है और खारिजी शायरी दिमाग़ की शायरी है। आत्मा और शरीर में जो फ़र्क है वही फ़र्क इन दोनों में है। दाख़िली में शेर की आत्मा को साफ़ किया और सजाया संवारा जाता है तो ख़ारिजी शायरी में शेर के शरीर को। दाखिली शायरी का असर सुनने वाले के दिल पर पड़ता है तो खारिजी शायरी का असर सिर्फ उसके दिमाग पर। दाखिली शायरी आशिक के पाक इश्क़ पर की गई होती है तो ख़ारिजी शायरी माशूक़ के हुस्न, शोऱवी आदि पर की गई होती है। दाख़िली शायरी शायर के मन की पीड़ा पेश करती है तो ख़ारिजी शायरी भोग विलास की शायरी है। पहली को सुनकर अगर ‘आह’ निकलती है तो दूसरी को सुनकर ‘वाह’ निकलती है। ख़ारजी शायरी के कोई सरदार नहीं थे तो वह कमी शेख इमाम बख्श ‘नासिख’ ने पूरी कर दी। नासिख ने रेख़्ता जुबान का नाम बदल कर उर्दू रखा। वे मोटे तथा काले रंग के थे इसलिए उनके रक़ीब1 उन्हें ‘दुम कटा भैंसा’ कहा करते थे। स्वभाव से नासिख खुशमिज़ाज़ थे पर दूसरों की मज़ाक बनाना इनका शग़ल था। ऐसी कई घटनाएँ हैं जिनमें उन्होंने अपने मिलने आने वालों को शर्मिंदा किया। एक बार इनसे मिलने आये एक जनाब काफी देर तक टिके रहे और इशारा करने पर भी रूख़सत नहीं हुए, तो इन्होंने अपनी चिलम की चिंगारी से बंगले की टट्टी (टाटी) को आग लगा दी और खुद कुछ लिखने लगे। टट्टी जलने लगी तो वे शख़्स उठकर जाने लगे। तब शेख़साहब ने उनका हाथ पकड़ लिया और फरमाया कि ‘‘जाते कहाँ हो? अब तो हम दोनों ही को जलकर मरना है। तुमने मेरे मज़ामीन2 को खाक में मिलाया है, मेरे दिल को जलाकर राख़ किया है। अब क्या मैं तुम्हें जाने दूंगा।’’ इसी तरह एक और शख्स ने जब बैठकर इनको तंग किया तो शेख साहब ने नौकर बुलवाकर एक संदूक़ मँगवाया और उससे कहा कि- 1. रकीब - दुश्मन; 2. मजामीन - लेखों। ‘‘भाई मज़दूरों को बुलाओ और आसबाब1 उठा कर ले चलो। मकान पर तो इनका कब्ज़ा हो गया। ऐसा न हो कि आसबाब भी हाथ से जाता रहे।’’ नासिख अपना कलाम सहज में नहीं सुनाया करते थे। सुनने वाला अगर सोच में पड़ गया तो वे समझते थे कि यह सुख़न-फ़हम है और तब उसे अपना असली कलाम सुनाते थे। और यदि उसने बेमायनी शायरी की तारीफ़ कर दी तो उसे मूरख समझ कर दो चार और वैसे ही शेर सुना दिया करते थे। चन्द ऐसे ही बेमायनी शेर पेशे-खिदमत हैं। आदमी मख़मल में देखे, मोर्चे2 बादाम में। टूटी दरिया की कलाई, जुल्फ़ उलझी बाम3 में।। तूने नासिख़ वोह गज़ल आज लिखी है कि हुआ। सबको मुश्किल यादे-बेजां4 में, सुखन-दा होना।। लेकिन वे बहुत उम्दा शायरी करते थे। चंद अशआर पेशे-खिदमत हैं - लाया था वह साथ ग़ैर को मेरे जनाज़े पर। शोला सा इक जेबे-कफ़न से निकल गया।। अब की बहार में ये हुआ जोश-ए-जूनूँ। सारा लहू हमारा, बदन से निकल गया।। मिल गया खाक में पिस-पिस के हसीनों पर मैं। क़ब्र पर बोएँ कोई चीज, हिना पैदा हो।। अश्क़ थम जाएं जो फ़ुरक़त5 में तो आहें निकलें। खुश्क़ हो जाए पानी तो, हवा पैदा हो।। क्यों कर कहूँ के आरिफे-खुदा6 हूँ। आगाह नहीं कि आप क्या हूँ।। आईनये दिल में है तेरा अक़्स7। दिन रात मैं तुझे देखता हूँ।। ज़िन्दगी जिंदा-दिली का नाम है। मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं। दिल अब महवेतर8 सा हुआ चाहता है। ये काबा कलीसा9 हुआ चाहता है।। दिल उस बुत पै शैदा10 हुआ चाहता है। खुदा जाने अब क्या हुआ चाहता है।। 1. असबाब- सामान; 2. मोर्चे- मल, मैल; 3. बाम- अटारी, छत; 4. यादे बैजां- बेतुकी यादें; 5. फुरकत- जुदाई; 6. आरिफे-खुदा - खुदा को पहचानने वाला; 7. अक्स- परछाई, छाया; 8. महवेतर- चाँदनी से सरोबार; 9. कलीसा - गिरजाघर; 10. शैदा - मुग्धा, मोहित। वो नहीं भूलता कहाँ जाऊँ। हाय मैं क्या करूं कहाँ जाऊँ।। है मेरा मकसूद1 हासिल हर जगह है। हर जगह अब मंजिले मकसूद है।। अब चंद अशआर खारजी रंग के भी पेशे-खिदमत हैं। आँसुओं से हिज्र में बरसात रखिए साल भर। हमको गर्मी चाहिए हर्गिज न जाड़ा चाहिए।। जल्द रंग ऐ दीदए-खूँ-बाज2 अब तारे-निगाह3। है मुहर्रम उस परी-पैकर4 को नाड़ा चाहिए।। लड़ते हैं परियों से कुश्ती, पहलवाने-इश्क़ हैं। हमको नासिख राजा इंदर का अखाड़ा चाहिए।। और इसी रंग में रंगी एक गज़ल पेश है - हुजूम5 रखते हैं जाँबाज यूँ तेरे आगे। जुआरियों का दिवाली पै जैसे जमघट हो।। लिपट के यार से सोता हूँ माँगता हूँ दुआ। तमाम6 उम्र बसर यारब! एक करवट हो।। नसीमे-आह7 के झौंके से खोल दूं दम में। भिड़ा हुआ तिरे दरवाजे का अगर पट हो।। जलाओ गैरों को मुझसे जो गरमियाँ करके। तुम्हारे कूचे में तैयार एक मरघट हो।। मैं जाँ-ब-लब8 हूँ गला काटो या गले से लगो। जो आपको इसमें से मंजूर हो, झटपट हो।। नासिख की शायरी क्यों बदनाम और रूसवा थी ? इन दो शेरों से यह बात साफ करने की कोशिश करता हूँ। पहला शेर है - दे दुपट्टा तू अपना मलमल का। नातवाँ9 हूँ कफ़न भी हो हलका।। (क्यूं कि आशिक नातवाँ है अतः मरने पर उसका कफ़न हलका होना चाहिए। सबसे हलका कपड़ा है मलमल अतः हलका काफ़िये के साथ मलमल को जोड़ा गया। लेकिन मलमल मँहगा होता है और आशिक के पास पैसा कहाँ! सो इस काम के लिये माशूक का दुपट्टा माँगा।) 1. मकसूद - इच्छा, ख्वाहिश; 2. दीदए खूँ बाज- रक्तिम निगाह; 3. तारे निगाह- निगाह की रश्मियाँ; 4. परी पैकर- परी से चेहरे वाली; 5. हुजूम- भीड़, मज्मा लगाना; 6. तमाम- पूरी; 7. नसीमे आह-आह की हवा; 8. जाँबलब - मरणासन्न; 9. नातवाँ- नाजुक। हूँ मैं आशिक़ अनारे-पिस्ताँ1 का। हो न तुरबत2 पै जुज़3 अनार दरख़्त।। (जीते जी माशूक के स्तन रूपी अनार छूने नसीब ना हुए और मरने पर भी तरसते रहना है। घर वाले शायद क़ब्र पर पेड़ लगा दें इसी ख़याल से नासिख चाहते हैं कि वह पेड़ अनार का हो ताकि यार के अनारे-पिस्ताँ का तसव्वुर बराबर बना रहे।) * 1. अनारे पिस्ताँ- स्तन, उरोज; 2. तुरबत- कब्र; 3. जुज- टुकड़ा, शाखा।
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