उर्दू शायरी का सफरनामा-II अब अगर उर्दू शायरी में काम आने वाले कुछ शब्दों (हर्फों) की जानकारी प्राप्त कर लें तो क्या बेहतर नहीं होगा? तो आइए यही काम करें- फर्द : कई शेरों के आधार पर गज़ल बनती है और इसके लिये उन शेरों को एक ही रदीफ़ काफ़िये और बह् में बाँधना पड़ता है। अब यदि कोई शाइर एक ही शेर कह दे तथा उसके बाद और शेर ऐसे न बन पाये कि उनकी गज़ल बन्दी हो सके तो उस शेर को फर्द कहा जाता है। मिसरए-तरह : तरही-मुशायरों में शाइरों को शेर तथा गज़ल लिखने के लिए एक मिसरा पहले से दे दिया जाता है और उसका रदीफ़ तथा काफ़िया भी बता दिया जाता है। इस मिसरे को, जो फिर मुशायरे की बुनियाद बनता है ‘तरही मिसरा’ या ‘मिसर-ए-तरह’ कहते हैं। मिसरए-सानी : अगर मिसरए-तरह किसी शेर का पहला मिसरा है तो उसके दूसरे मिसरे को ‘मिसरए-सानी’ कहा जाता है। गिरह बन्दी : मिसरों को जोड़ कर अच्छा शेर बनाने की कला को ‘गिरह बंदी’ कहते हैं। कई बार इस गिरह बंदी में हुनर मंद शाइर मिसरए-तरह को मिसरए-सानी की जगह रख कर पहला मिसरा अपनी तरफ से लगा देते हैं। मतला : गज़ल या कसीदे के शुरुआती एक या कुछ शेरों को जिनके दोनों मिसरों में रदीफ़ और काफ़िये एक से होते हैं को ‘मतला’ कहा जाता है। मतले के दूसरे शेर को हुस्ने मतला कहा जाता है। किसी भी गज़ल में मिसरों तथा शेरों की संख्या की कोई पाबंदी नहीं होती लेकिन मतलों की संख्या गज़ल में शामिल शेरों की संख्या की चौथाई से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। बिना मतलों के भी गज़ल बनती है लेकिन कभी-कभी। मक़्ता : गज़ल के आखिरी शेर जिसमें शाइर अपना तख़ल्लुस1 भी डाल देते हैं को ‘मक़्ता’ कहा जाता है। मक़्ते के साथ गज़ल ख़त्म हो जाती है। 1. तखल्लुस-उपनाम। तख़ल्लुस :- शाइर का प्रचलित उपनाम जो कभी उसके असली नाम ही का हिस्सा होता है या फिर कोई दूसरा शब्द होता है जिससे शाइर की पहचान बनती है उस को ‘तख़ल्लुस’ कहा जाता है। सामान्यत दो मिसरों के एक बन्द को शेर कहते हैं। लेकिन उर्दू शायरी की गिरह बन्दी, तीन, चार, पाँच, छह और आठ मिसरों की भी हो सकती है। और मिसरों की संख्या के हिसाब से इस प्रकार की गिरह बन्दी के अलग-अलग नाम हैं जो इस प्रकार हैं- मुसल्लस : ‘मुसल्लस’ ऐसी नज़्म का नाम है जिसमें तीन-तीन मिसरों के बन्द होते हैं। मुसल्लस के भी कई प्रकार होते हैं। कभी एक बन्द के तीनों मिसरे एक ही रदीफ़-काफ़िये में होते हैं तो कभी पहले दो मिसरे एक रदीफ़-काफ़िये में होते हैं तो तीसरा मिसरा अलग रदीफ़-काफ़िये में। कभी हर-एक बंद में अलग-अलग रदीफ़-काफ़िये होते हैं तो कभी सारे बंदों के तीसरे मिसरे एक ही रदीफ़ काफ़िये में होते हैं। मुख़म्मस या खम्सा : इसमें पाँच-पाँच मिसरों के बंद होते हैं। इनमें चार मिसरे तो एक ही रदीफ़-काफ़िये में होते हैं लेकिन पाँचवां मिसरा अलग और फिर सभी बन्दों के पाँचवें मिसरों के रदीफ़-काफ़िये मिला दिये जाते हैं। कभी हर बंद का पाँचवाँ मिसरा एक ही होता है। मुसद्दस :- छः छः मिसरों के बंदों वाली नज़्म को ‘मुसद्दस’ कहा जाता है। इसमें एक बंद के पहले चार मिसरे तो एक ही रदीफ़-काफ़िये में होते हैं और बाद के दो मिसरे अलग रदीफ़ काफ़िये में। मुसम्मन : आठ-आठ मिसरों के बन्दों वाली नज़्म को ‘मुसम्मन’ कहते हैं। इसमें हर बंद के पहले छह मिसरे एक रदीफ़-काफ़िये में होते हैं और अन्तिम दो मिसरे दूसरे एक समान रदीफ़-काफ़िये में। कभी-कभी पहले बन्द के अन्तिम दो मिसरे हर बन्द के आखिरी दो मिसरे बन कर बार-बार भी आते हैं। तरकीब-बन्द : ऐसी नज़्म जिसके बन्दों में मिसरों की संख्या आठ से अधिक हो तथा सम संख्यक हो को ‘तरकीब-बंद’ कहते हैं। हर बन्द में मिसरों की संख्या उतनी ही होनी आवश्यक है। हर बंद में अन्तिम दो मिसरों को छोड़ कर बाकी सभी मिसरे या तो एक रदीफ़-काफ़िये में होते हैं या फिर पहला-दूसरा चौथा-छठा, आठवाँ-दसवाँ, बारहवाँ-चौदहवाँ (यानी सभी सम संख्या वाले मिसरे) एक ही रदीफ़-काफ़िये में होते हैं। अन्तिम दो मिसरे किसी दूसरे लेकिन आपस में एक से रदीफ़-काफ़िये में बंधे होते हैं। कभी-कभी नज़्म के सभी बंदों के अन्तिम दो मिसरे एक ही रदीफ़-काफ़िये में बँधे होते हैं। तरजी-बन्द : यह नज़्म भी तरकीब-बन्द नज़्म की तर्ज पर ही बनती है। फर्क केवल इतना होता है कि पहले बन्द के अन्तिम दो मिसरे ही बार-बार हर बंद के आखिरी दो मिसरों की जगह आते हैं। मुस्तजाद : इस रचना में गज़ल के हर मिसरे के अन्त में तर्जबंदी तथा गिरहबंदी की पाबंदियों के साथ एक टुकड़ा जोड़ दिया जाता है। जोड़े हुए ये टुकड़े वजन के हिसाब से बराबर होते हैं और इनमें रदीफ़-काफ़ियों की पाबंदी भी होती है। कभी इन जोड़े हुए टुकड़ों के रदीफ़-काफ़िये गज़ल के ही रदीफ़-काफ़िये होते हैं और कभी दूसरे। उर्दू की शायरी में गज़ल, नज़्म, कसीदा, हिजो, मसनवी, रूबाई, सेहरा, मर्सिया, आदि कई प्रकार की रचनाएं होती है जिनके बारे में आप समय-समय पर जानकारी प्राप्त करेंगे। कुछ प्रकार की रचनाओं के बारे में जानना यहाँ उचित रहेगा जिन्हें नीचे बताया जा रहा है- वासोख्त : यह ऐसी गज़ल होती है जिसमें आशिक माशूक से शिकवा1 करता है कि वह बड़ा बेदर्द है और धमकी देता है कि अगर माशूक की बेरुखी2 जारी रही तो वह इश्क़ करना छोड़ देगा। शहर-आशोब : किसी शहर के उजड़ जाने या बर्बाद हो जाने के बाद उसके पुराने वैभव को दुःख के साथ और मार्मिक तरीके से याद करते हुए लिखी गज़ल या नज़्म को ‘शहर-आशोब’3 कहते हैं। तारीख : अरबी भाषा में हर हर्फ का एक आंकिक मूल्य भी होता है। किसी हादसे4 की याद में शाइर मिसरे इस प्रकार बनाते हैं कि उसके सारे हर्फों के आंकिक मूल्य का योग उस घटना की तारीख बता देता है। ऐसे तवारीखी मिसरों को ‘तारीख’ कहा जाता है। हम्द :- खुदा की इनायत5 हासिल करने हेतु लिखी गई गज़लों तथा नज़्मों को ‘हम्द’ कहा जाता है। इसमें खुदा की शान, बड़ाई, अज़मत और कारसाजी6 का वर्णन होता है। मुनाज़ात : खुदा की शान में उसके बंदों और मुरीदों द्वारा व्यक्त दिल के भावों पर लिखी गज़ल या नज़्म को ‘मुनाज़ात’ कहा जाता है। नअत : हजरत मुहम्मद की प्रशंसा में लिखी गई नज़्म को ‘नअत’ कहते हैं। सलाम : पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहब की शान में अथवा उनकी आल औलाद की शान में या औलिया-ए-किराम की शान में लिखी गई नज़्म को ‘सलाम’ कहते हैं। सेहरा : किसी शादी के मौके पर दूल्हा दुल्हन के लिए खुशी व्यक्त करने के लिए लिखी गई नज़्म को सेहरा कहते हैं। मर्सिया और नौहा : पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब के नवासो यानी हजरत इमाम हसन और हज़रत इमाम हुसैन की शहादत पर शोक/गम दिखाने हेतु कही गई छोटी गज़लों और नज़्मों को ‘मर्सिया’ या ‘नौहा’ कहा जाता है। नौहा असल में मर्सियों से मिलता जुलता होता है लेकिन मर्सियों के सभी गुण इनमें नहीं आ पाते। मोहर्रम का त्यौहार हज़रत इमाम हसन और हज़रत इमाम हुसैन की शहादत यानी बलिदान की यादगार के रूप में मनाया जाता और नौहे तथा मरसिये तब ही शायरों के ज़रिये ज़्यादा पढ़े जाते है। 1. शिकवा-शिकायत; 2. बेरूखी-उपेक्षा, विमुखता; 3. आशोब-उपद्रव, इन्कलाब; 4. हादसा-दुर्घटना; 5. इनायत-रहम, कृपा; 6. कारसाजी-बिगड़ा काम बनाने का करिश्मा। हज़ल : गज़ल को यदि मज़ाकिया लहजे का बना दिया जाये तो वह ‘हज़ल’ कहलाती है। अब हम यह देखेंगे कि उम्दा शायरी के गुण क्या-क्या होते हैं और उसमें कौन-कौन से दोषों के आ जाने से उसका स्तर गिर जाता है। इन गुण और दोषों को जाने बिना हम शायरी का वजन नहीं जान सकते उसकी कीमत नहीं आँक सकते। फ़साहत : दोष रहित शेर को फसीह शेर कहा जाता है। गज़ल या नज़्म तब फसीह होती है जब उसमें शायरी के कानूनों के हिसाब से कोई दोष नहीं हो। किसी भी अप्रमाणित शब्द के अथवा क्लिष्ट शब्दों के काम में लेने से भी शेर, गज़ल या नज़्म की फसाहत खत्म हो जाती है। सलासत : इसका मतलब है सरलता। यहाँ सरलता से तात्पर्य शब्दों की सरलता से है। वह शायरी सलीस है जिसमें ऐसे शब्दों को काम में नहीं लिया गया हो जो कठिन हो या भारी भरकम हो। पहले शब्दों की क्लिष्टता को दोष के बजाय कई शायर अपनी शान मानते थे लेकिन ‘दाग’ देहलवी और ‘अमीर’ मीनाई साहब के कलाम भाषाई सरलता के मापदंड बन गये और फसाहत की नज़र से भी सराहे गये। तब से भाषाई सरलता को गुण माना जाने लगा है। मुसावत : कलाम में शब्दों की उपयुक्तता को ‘मुसावत’ कहा जाता है। कलाम में उतने ही शब्द आने चाहिये जितने उसके मतलब को समझने के लिये जरूरी हो। न तो कोई गैर ज़रूरी शब्द शामिल किया जाये ओर न कोई ज़रूरी शब्द छोड़ा जाये तो कलाम में मुसावत आ जाती है। लगातार लिखने से कलाम में यह अनुशासन आ जाता है। सादगी : कलाम में भावों की सरलता को सादगी कहते हैं। इस तरह से सादगी, सलासत से जुदा गुण माना जाता है। कई बार शेर में सलासत (शाब्दिक सरलता) तो होती है लेकिन उसका भाव समझना दुरूह1 होता है तब यह कहा जाता है कि शेर सलीस तो है लेकिन सादा नहीं। कलाम तभी असरदार होता है जब उसमें सलासत और सादगी दोनों मौजूद हों। बलाग़त : कलाम में बलागत तब आती है जब बोलने, रवानी और मायने के हिसाब से उसमें काम में लिया गया हर शब्द इतना सही हो कि उसी के मायने का यदि कोई दूसरा शब्द उसकी जगह रख दिया जाये तो कलाम के रस में साफ कमी आ जाये। ऐसे कलाम का हर एक शब्द अपनी जगह पर महत्वपूर्ण या अहम होता है। 1. दुरूह-मुश्किल, कठिन। रवानियत : जब किसी शेर में शब्दों को इस तरह काम में लिया जाता है कि पूरा शेर अपने आप जबान पर फिसलता चला जाये तो इस गुण को रवानगी या प्रवाह कहा जाता है। कलाम में यह गुण जन्मजात प्रतिभा से या फिर जागरुकता और कोशिश करते रहने से आता है। शेर अथवा कलाम में अगर रवानियत नहीं है तो बाकी गुणों के होते हुए भी हो सकता है कि वह महफिलों में सराहा न जाये। अतः रवानगी का होना अच्छे कलाम की एक अहम खासियत है। मौसीकियत : मौसीकी1 के मायने है गीत लिखने का हुनर, गीतों में एक विशेष तरन्नुम या लय होनी जरूरी है वरना वह ठीक से गाये ही नहीं जा सकते। इसीलिये गीतों में शब्दों को इस तरीके से चुना जाता है तथा बिठाया जाता है कि शेर को यदि अदा किया जाये तो तरन्नुम और झंकार पैदा हो। यह गुण अच्छी गजल में भी होना जरूरी है। इसके बिना आम आदमी किसी भी कलाम को नहीं सराहेगा। सही मौसीकी वाले गीत या गज़ल को आम आदमी भी गा सकता है और यदि गा नहीं सकता तो गुनगुना तो सकता ही है। तेवर : यह सादगी से उल्टा गुण है। शेर में शब्दों को इस तरीके से बिठाया जाता है कि जब उसकी अदायगी2 हो तो उसमें अभिनय के तेवर आ जाये। थोड़ी बहुत नाटकीयत आ जाये। ऐसे शेर अदा के साथ पढ़ें जाते हैं और तभी असरदार नज़र आते हैं। इस गुण का सभी शेरों में होना जरूरी नहीं। शोखी : शोखी भी सादगी से उल्टा गुण है। शेर में अगर किसी बात को मजाकिया या तंजिया3 लहजे में कहा जाये तो उसकी अदायगी में एक प्रकार की शोखी आ जाती है। उर्दू कलाम में वाईज, जाहिद और शेखजी पर अक्सर तंज कसे जाते हैं और उनका मज़ाक उड़ाया जाता है। इस तरह की शायरी में शोखी (परवाह न करने की अदा) देखी जा सकती है। लेकिन शोखी की सीमाएं होती हैं जिनके बाहर जाने पर यह गुण नहीं रहती और कलाम में हल्कापन आ जाता है। तख़य्युल या बलन्दी :- कहा गया है कि ‘जहाँ पहुँचे न रवि वहाँ पहुँचे कवि’। यानी कवि की कल्पना वहाँ तक चली जाती है जहाँ तक सूर्य की रोशनी भी नहीं जा पाती। शाइर की कल्पना की ऊँची उड़ान को ही ‘तख़य्युल’ या 1. मौसीकी-गीत बनाना या लिखना; 2. अदायगी-पेश करना; 3. तंज-व्यंग, मजाक। ‘बलन्दी’ कहा जाता है। शाइर की नज़र उसी चीज पर पड़ती है जिस पर आम आदमी गौर नहीं करता। वह जानी पहचानी चीजों को भी एक अगल नजरिये से पेश करता है जो आमतौर पर लोगों की निगाह या जेहन में नहीं आता। यह जरूरी नहीं कि शाइर का नज़रिया दुनिया के हिसाब से या दुनियादारी के हिसाब से सही हो लेकिन वह इतना अलग हो सकता है कि उसे जानकर पढ़ने वाला या सुनने वाला सोचने पर मजबूर हो जाये। तख़य्युल फ़लसफ़ा1 नहीं होता क्यों कि फ़लसफ़े में कल्पना से ज्यादा ज्ञान तथा जानकारी और समझ होती है। तख़य्युल शाइर की परवाज2 का नाम है और इसे बुलन्दी का नाम देना ही सही है। अभी ऊपर हमने कलाम की खूबियों के बारे में जानकारी हासिल की। अब हमें उसकी कमियों पर भी गौर करना होगा। खूबियों का यदि होना जरूरी है तो कमियों का न होना जरूरी है। और कलाम की बलंदी को समझने के लिये इन कमियों को जानना जरूरी है। तो फिर नेकी और पूछ-पूछ- तवालीए-इज़ाफत : यह कमी तब पैदा होती है जब एक ही मिसरे में चार बार या उससे भी ज्यादा बार इजाफत संधि को काम में ले लिया जाये। नीचे दिये शेर के दूसरे मिसरे में फारसी भाषा की अलामते-इजाफत3 को चार बार लगातार काम में लिया गया है जो ठीक नहीं‒ मिस्सी आलूदा सर-अंगुश्ते-हसीना लिखिए। दागे-तरफे-जिगरे-आशिके-शैदा कहिए।। फ़क़्के इज़ाफ़त : जहाँ फ़ारसी भाषा के कायदे से इजाफत जरूरी हो लेकिन शेर के वजन के ख़याल से किसी फ़ारसी शब्द की अलामते-इजाफत ख़त्म कर दी जाए तो यह कमी आ जाती है। इससे बचना जरूरी है नहीं तो लगता है कि शाइर भाषा का जानकार नहीं। शुतुर गुरबा : किसी शेर के एक मिसरे में बहुवचन से संबंधित सर्वनाम जैसे ‘आप’ को काम में लिया गया हो लेकिन दूसरे मिसरे में एकवचन से संबंधित सर्वनाम जैसे ‘तुम’ या ‘तू’ काम में लिया गया हो तो यह कमी आ जाती है। यह कमी भी भाषा की जानकारी न होना बताती है। गराबत :- जहीन4 तथा आलिम5 लोग जो शब्द अपनी जुबान में काम में नहीं लाते वह यदि शायरी में काम ले लिया गया है अथवा किसी शब्द को ऐसे अर्थ में शेर में काम ले लिया गया हो जो सामान्यतः उस शब्द का अर्थ नहीं होता, तो यह कमी पैदा हो जाती है। 1. फ़लसफ़ा-दर्शन; 2. परवाज-उड़ान; 3. अलामते इजाफत-वृद्धि संधि; 4. ज़हीन-सलीका रखने वाला; 5. आलिम-पढ़े लिखे। पहलू-ए-ज़म : जब किसी ऐसे शब्द को शेर में काम में ले लिया जाता है जिसके दो मायने होते हों और दूसरा मायना जहीन न हो या गलत फहमी पैदा करता हो तो ये कमी पैदा हो जाती है। जैसे ‘अकबर’ इलाहाबादी साहब के इस शेर में हुआ है। (पाज़ामा उतारा शब्द के प्रयोग से गफ़लत पैदा होती है।) पतलून में वह तन गया यह साये में फैली। पाज़ामा ग़रज़ यह कि दोनों ने उतारा।। हश्वो-जवायद : यदि किसी शेर में ऐसा शब्द काम में ले लिया जाता है जिसे अगर निकाल भी दिया जाये तो शेर के मायने या वजन में कोई फर्क नहीं पड़ता हो तो यह दोष पैदा होता है। अतः संज्ञा, क्रिया, सर्वनाम, विशेषण आदि का अनर्गल प्रयोग नहीं करना चाहिए। इब्तजल : जब किसी शेर में ऐसे शब्दों या मुहावरों को काम में ले लिया जाता है जो बाजारू तथा छिछले होते हैं तो यह कमी पैदा हो जाती है। इसके अलावा यदि शेर में काम लिये गये शब्दों से कोई अश्लील मायना निकलता है तो भी यह दोष पैदा हो जाता है। ऐसे शेरों को ‘मुब्तजल’ कहा जाता है। ताकीदे-लफ्जी/ताकीदे मानीः जब किसी मिसरे में शब्द अपने असली स्थान से कहीं दूर जा कर काम में लिए जाते हैं तो ताकीद का दोष पैदा हो जाता है। शब्दों की बेवजह उलट पलट को ‘ताकीदे-लफ़्जी’ कहा जाता है। और शब्दों के मायनों में फैलाए गये उलझाव को ‘ताकीदे-मानी’ कहा जाता है। नामौजूनियत : कोई शेर या मिसरा दो तरह से ना मौजू होता है। एक तो तब जब वह अपने तय शुदा छंद (बन्ह) से अलग हो जाये। इसे ‘सकता’ भी कहते हैं। दूसरे वह तब नामौजू होता है जब उसे बिला जरूरत दबाकर या गिरा कर पढ़ा जाये क्योंकि अरबी और फारसी में अमूमन1 मिसरों को दबा कर या गिरा कर पढ़ने की इज़ाज़त नहीं मिलती। बंदिश की सुस्ती : यदि सिर्फ शेर का वजन बराबर करने के लिए शब्द भर दिये जायें जो वगरना बेकार हो तो यह कमी पैदा हो जाती है। इनसे शेर की बंदिश में वह चुस्ती नहीं रहती जो होनी चाहिए। ईताए-जाली : जब दो काफ़िये ऐसे मिलाए जाएँ कि उनके आखिरी स्वर एक से न हों तो काफ़िया बन्दी में ‘ईताए-जाली’ की कमी आ जाती है। जैसे ‘हाजतमन्द’ और ‘दौलतमन्द’ का काफ़िया मिलाना तो ठीक है लेकिन ‘दर्दमन्द’ और ‘दौलतमन्द’ का काफ़िया नहीं मिलता। कारण कि ‘हाजत’ और ‘दौलत’ तो सम-स्वर है लेकिन ‘दर्द’ 1. अमूमन-साधारणतया। और ‘दौलत’ शब्द सम स्वर नहीं है। किन्तु ‘दर्द मन्द’ और ‘दिल पसन्द’ काफ़ियों को मिलाने में यह कमी नहीं आती क्योंकि ‘दर्द’ और ‘दिल’ शब्दों में स्वर-विरोध नहीं और ‘मन्द’ तथा ‘पसन्द’ शब्द तो सम स्वर हैं ही। इताए-जाली को उर्दू शायरी में बड़ी कमी माना जाता है। अब कमियों को जान लेने के बाद और खूबियों को पहचान लेने के बाद हम बखूबी1 अपना सफर आगे बढ़ा सकते हैं। परन्तु अभी एक और काम करना है। उर्दू शायरी में गाहे-ब-गाहे2 काम में आने वाले कुछ और शब्दों के बारे में जानकारी हासिल करनी है। उर्दू शायरी के कई पुराने तथा नये रूपक हैं जैसे ‘आशिकी’ (इश्क) का रूपक या फिर ‘जाम-ओ-मीना’ का रूपक, और इन रूपकों के कई पात्र हैं जैसे आशिकी रूपक के पात्र है आशिक, माशूक, इश्क, आहोजारी आदि और जामोमीना रूपक के पात्र हैं, जाम, मैखाना, मैकश, साकी, पैमाना, जाहिद, शेखजी आदि। ऐसे ही और भी कई रूपक हैं जैसे खतो-किताबात, बाहिश्त-ओ-दोज़ख आदि। इनके भी कई पात्र हैं। तो इन रूपकों और उनके पात्रों के नाम बार-बार उर्दू शायरी में आते हैं और इनका अर्थ जाने बिना उर्दू शायरी का मजा नहीं उठाया जा सकता। इसी प्रकार शायरी में कई ऐतिहासिक पात्रों का भी जिक्र आता है जैसे शीरीं-फरहाद, लैला-मजनूं, आदि। कई ऐसे किस्से कहानी हैं जिनका जिक्र आता है जैसे बुलबुल-ओ-सैयाद, मूसा-ओ-फिरऔन, इंसान-औ-शैतान आदि। इन सबकी जानकारी के बिना भी आप उर्दू शायरी का लुत्फ नहीं उठा सकते। यह सब उर्दू शायरी की पृष्ठभूमि है। इनमें ज्यादातर रूपक, उनके पात्र, कहानी-किस्से तथा उनके पात्र, सब अरबिस्तान तथा फारस से संबंधित है। अरब और इरान में जन्मी गज़ल तथा शायरी का उर्दू शायरी पर गहरा असर है अतः इन सब चीजों को समझे बिना गुजारा नहीं, तो आइए कोशिश करें इनको एक-एक कर समझने की। सबसे पहले हम इस्लाम के आदि ग्रन्थ कुरआन से संबंधित पात्रों तथा उनके साथ जुड़े किस्सों या दंत कथाओं की जानकारी हासिल करेंगे। अज़ल, रोजे-अज़ल, पैमाने-अज़ल, पैमाने-अलस्त, साकी-ए-अज़ल; कुरान के मुताबिक3 खुदा ने सबसे पहले रूहों को पैदा किया और उस दिन से कायनात4 की शुरूआत हुई। उस दिन को अज़ल या रोजे-अज़ल कहते हैं। रूहों को खुदा ने फिर यह तालीम5 दी कि खुदा ही उनका बनाने वाला है और मालिक भी है। इस तालीम को ही पैमाने-अजल या पैमाने-अलस्त कहा जाता है। और क्योंकि जामो-मीना रूपक में मैय से भरा पैमाना देने वाले को साकी कहा जाता है अतः खुदा को साकी-ए-अज़ल कहा गया। 1. बखूबी-अच्छी तरह से; 2. गाहे ब गाहे- कभी कभी; 3. मुताबिक-अनुसार; 4. कायनात- ब्रह्मांड, विश्व; 5. तालीम - शिक्षा, जानकारियाँ। हज़रत आदम, फरिश्ता, शैतान, बाहिश्त, हव्वा, अच्छे तथा बुरे के ज्ञान का फलः कुरान के मुताबिक कायनात, रूहें, फरिश्ते, जिन्नात आदि बनाने के बाद खुदा ने मिट्टी को पानी से सान कर अपने ही समान एक पुतला बनाया और अपने मुँह से हवा फूँक कर उसमें जान डाली इस प्रकार बनाये पुतले का नाम खुदा ने ‘आदम’ रखा। फिर आदम की एक बाँयी-पसली से खुदा ने औरत बनाई और उसका नाम ‘हव्वा (हेवा)’ रक्खा। फरिश्तों को खुदा ने आग से बनाया और रूहों को अपने मुख की हवा से। फरिश्तों को खुदा ने कहा कि वे आदम को सिज़्दा1 करें क्यों कि वो ‘हजरत आदम खुदा के ख़लीफा’ हैं, तो फरिश्तों ने आदम को मिट्टी गारे से बना हुआ बता कर और खुद को अग्नि से बना बता कर उसे सिज़्दा करने से मना किया। तब खुदा ने उन्हें समझाया कि वे खुदा का कहना न मानकर गलती कर रहें हैं क्योंकि खुदा वह भी जानता हैं जो फरिश्तों को भी पता नहीं। इस पर सब फरिश्तों ने हजरत आदम को सिज़्दा किया, लेकिन ‘इबलीस’ नामक फरिश्ते ने फिर भी सिज़्दा करने से मना कर दिया और कहा कि वह मिट्टी-गारे से बने इंसान को कभी रूहानी2 ऊँचाईयों पर जाने ही नहीं देगा और उसे प्रलोभनों में फंसाकर उसका पतन कर देगा। तब खुदा ने इबलीस को फरिश्ते के ओहदे3 से हटा कर उसके आचरण को कुफ्र4 घोषित कर दिया। यही फरिश्ता इबलीस फिर ‘शैतान’ के नाम से जाना जाने लगा। हजरत आदम को तथा हेवा को अदन के बागीचे में तथा बाहिश्त5 में रखा गया जहाँ हर खुशी थी। वहाँ पर लेकिन दो वृक्ष ऐसे थे जिनके फल खाने के लिये खुदा की मनाही थी। एक पेड़ था ‘अच्छे व बुरे के ज्ञान के फल’ का और दूसरा पेड़ था ‘अमरता के फल’ का पेड़। शैतान इबलीस को आदम और हेवा की रूहानी ऊँचाई और खुशी बर्दाश्त न थी। वह साँप बन कर वहाँ आया और हेवा को ये दोनों फल खाने हेतु फुसलाने लगा। उसके बहकाने में आकर हेवा ने खुदा से चोरी छुपे ‘अच्छे तथा बुरे के ज्ञान का फल’ तोड़ लिया और आदम के पास उसे लेकर गई और खाने को कहा। आदम और हेवा वह फल खा गये। फल को खाते ही उन दोनों को अहसास हुआ कि वे दोनों निर्वस्त्र हैं और दोनों की कामेच्छा भी जागृत हुई। इसके बाद खुदा के डर और शर्म के कारण दोनों छुप गये। जब खुदा ने इस बात को जाना तो वे नाराज हुए और उन्होंने आदम तथा हेवा को बाहिश्त से निकल जाने को कहा तथा उन्हें श्राप दिया कि वे अब धरती पर रहेंगे और ‘जन्म मरण के बंधन’ में तथा ‘कर्म-फल’ के बंधन में बँधे रहेंगे। आदम को मेहनत करके खाना कमाना पड़ेगा और हेवा को प्रसव की पीड़ा भोगनी होगी। इबलीस को साँप ही के रूप में धरती पर जाने की सजा दी और रेंग कर चलते रहने को कहा। आदम जात और साँप को बैर के रिश्ते में बाँध दिया। हज़रत आदम के बहुत मिन्नत करने पर उसे खुदा ने माफ कर दिया और शैतान के विरुद्ध जंग में मार्गदर्शन देने का आश्वासन दिया। और इसके साथ उन्हें धरती पर रहने और इंसान यानी आदमी की पैदावार बढ़ाने के लिए भेज दिया। 1. सिज़्दा- शीष नवाना; 2. रूहानी- आत्मा की; 3. ओहदा- पद; 4. कुफ्र- अधर्म। 4. बाहिश्त - स्वर्ग, जन्नत। क़यामत : कुरान के हिसाब से सारे मुर्दा लोग कयामत का दिन आने तक सोते रहते हैं। खुदा सारी रूहों का न्याय कयामत के दिन ही करेगा। कयामत आने के चालीस वर्ष पहले ‘इसराफील’ नाम का फरिश्ता ‘सूर’ बजायेगा। उसके सूर बजाने पर सभी लोग मर जायेंगे। फिर चालीस वर्षों के बाद इसराफील दुबारा सूर फूँकेगा। इस पर सारे मुर्दे कब्रों से उठकर मैदान में इकट्ठे होंगे। वहाँ पर उनके अच्छे और बुरे कार्मों का लेखा-जोखा होगा और खुदा उन्हें इस हिसाब से जन्नत या जहन्नुम1 बख़्शेगा। यही वास्तविक कयामत का दिन है। आशिक अपने माशूक का इंतजार कयामत तक करता है और यही कह कर आशिकी का दम भरता है। उर्दू शायरी में कयामत शब्द एक और अर्थ में भी काम में लिया जाता है। जब भारी उथल-पुथल हो और इंसान की बैचनी तथा घबराहट हद से ज्यादा बढ़ जाये तो इस मनःस्थिति को भी कयामत कहते हैं। कोई हसीना यदि ऐसी बन-ठन कर आ जाये कि देखने वाले बैचेनी की इंतिहा पर पहुँच जाये तो उसे भी कहते हैं कि वह कयामत बरपा कर रहीं है। हज़रत मूसा, तूर का पहाड़, फिरऔन : हज़रत मूसा पैगम्बर है और यहूदी धर्म के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनको मिस्त्र के राजा (फिरऔन) की बाँझ पत्नी ने पाला था। इन पर खुदा की विशेष मेहरबानी थी। इन्हें तूर नाम के पर्वत पर ईश्वर ने बुला कर अपनी दिव्य ज्योति स्वरूप का दर्शन करवाया था। इसे देखकर ये खुद तो बेहोश होकर गिर पड़े और तूर पर्वत जल कर खाक हो गया। फिरऔन जालिम किस्म का बादशाह था और उसका जिक्र उर्दू शायरी में अभिमान के प्रतीक के रूप में आता है। मूसा की दिव्य शक्तियों से फिरऔन रश्क2 करता था। उसने स्वयं के खुदा होने का दावा किया तो मूसा ने उसे कई चमत्कार दिखाकर रास्ते पर लाने की कोशिश की। वह फिर भी नहीं माना और मूसा को देश निकाला दे दिया। मूसा मिस्त्र से अपने कबीले3 को लेकर निकल पड़े ‘इस्त्राइल’ की जमीन की खोज में जो खुदा ने उनके लिये नियत की थी। फिरऔन ने नील नदी से पहले इनको घेर कर मारने की कोशिश की। ईश्वर एक प्रकाश स्तंभ के रूप में मूसा के साथ चलता था और मूसा के पास एक जादुई डंडा था जिसे ‘असा’ कहते हैं। मूसा ने इस डंडे को पटक कर नील नदी को सुखा दिया और अपने कबीले के साथ नील नदी को पार कर गये। फिरऔन जब अपनी सेना के साथ नील नदी में घुसा तो पानी फिर भर गया और वह अपनी सेना के साथ नील नदी में डूब कर मर गया। 5. जहन्नुम - नर्क; 2. रश्क-ईर्ष्या; 3. कबीला-एक दादा की औलादें। हज़रत इब्राहिम, हज़रत इस्माइल : हज़रत इब्राहिम भी हज़रत मूसा ही के समान ईश्वर के दूत यानी पैगम्बर थे। उनकी भी ईश्वर से बातचीत होती थी। इनका लालन-पालन ‘आज़र’ नामक एक मूर्तिकार ने किया था। ईश्वर ने इन्हें आदेश दिया कि वे सारी मूर्तियाँ तोड़ दे। ईश्वर के आदेश पर इन्होंने अपने पिता की बनाई सारी मूर्तियाँ तोड़ दीं। हज़रत इब्राहिम के एक ही पुत्र था जिसका नाम था हज़रत इस्माइल और वह इनको बहुत प्यारा था। ईश्वर ने इनकी परीक्षा लेने के लिये इनसे अपने पुत्र की क़ुर्बानी यानी बलि माँगी। हज़रत इब्राहिम ने अपने पुत्र की बलि देना स्वीकार कर लिया। वे उसे लेकर एक पर्वत पर गये और बलिवेदी पर लिटा कर कुर्बान करने लगे। तभी आकाश वाणी हुई और खुदा ने कहा कि मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। बलिवेदी पर एक भेड़ का बच्चा आ गया और इब्राहिम के हाथ से उसकी कुर्बानी हो गई। इसी पवित्र कुर्बानी1 की याद में ‘ईद-उल-अज़हा’ (बकरीद) का त्यौंहार मनाया जाता है और इस रोज बकरे की कुर्बानी दी जाती है। इब्राहीम का नाम खुदा की इबादत की इंतिहा तथा इसके चलते अपना सबकुछ कुर्बान कर देने की भावना के प्रतीक रूप में शायरी में आता है। हज़रत ईसा, मसीह : हज़रत ईसा एक पैगम्बर थे और ईसाई धर्म के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं। इनके हाथों में गजब की शिफ़ा2 तथा चमत्कारिक शक्ति थी। वह बीमारों को केवल हाथ से छू कर और प्रार्थना मात्र से सही कर देते थे। यहाँ तक कहा जाता है कि ये मुर्दों को भी केवल ‘कुम बइज़्न-अल्लाह’ (ईश्वर के आदेश से उठ खड़े हो) कह कर जिन्दा कर देते थे। इनको ‘मसीह’ के नाम से भी जाना जाता है क्यों कि ये दुःखी और बीमार लोगों के मसीहा थे। इनको विरोधियों ने सूली (सलीब) पर लटका कर मार डाला। लेकिन सलीब पर लटके होने के बावजूद इन्होंने ईश्वर से यही प्रार्थना करी कि ‘हे प्रभु तुम इनको माफ कर देना क्योंकि यह नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।’ उनकी उपरोक्त शक्तियों के चलते शायरी में माशूक को ईसा-नफ़स (ईसा जैसी शक्ति वाला जो मरणासन्न और मृत समान आशिक को भी सही कर दे।) कहा जाता है। रकीबों को उनकी ज्यादतियों के बावजूद माफ कर देने की भावना के प्रतीक रूप में भी ‘मसीह’ का जिक्र शायरी में किया जाता है। 1. कुर्बानी - त्याग, बलि; 2. शिफ़ा - रोग ठीक करने की शक्ति। पैगम्बर हज़रत मुहम्मद, कुरान, शरियत, सूरा, आयत : पैगम्बर हज़रत मुहम्मद इस्लाम धर्म के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं। कुरान मुस्लिम-धर्म का पवित्र ग्रंथ है। कुरान की ऋचाओं को ‘आयत’ तथा उसके अध्यायों को ‘सूरा’ कहते हैं। कुरान की आयतों में खुदा का संदेश है जो उन्होंने ‘मक्का’ तथा ‘मदीना’ में रहते हुए मुहम्मद साहब को प्रेरणास्वरूप प्रदान किये। कुरान में 114 सूरा तथा 6666 आयतें हैं। कुरान का वह भाग जो मक्का में हजरत मुहम्मद को बताया गया वह ज़िन्दगी के फ़लसफ़े1 और इस्लाम धर्म के कायदों2 से संबंधित है तथा कुरान का वह भाग जो मदीना में बताया गया वो कानून तथा मुस्लिम समाज एवं व्यक्तियों के आचरण से संबंधित है। पैगम्बर हज़रत मुहम्मद को इस्लाम का ‘रसूल’ भी कहा जाता है और ‘नबी’ भी कहा जाता है। कुरान के इस्लामिक कानूनों से संबंधित हिस्से को ‘शरियत’ के नाम से भी जाना जाता है। हसन, हुसैन, यजीद, कर्बला, शिया, सुन्नी : पैगम्बर हज़रत मुहम्मद की वफात3 सन् 632 ई. मे मदीना शहर में हुई। उनके कोई पुत्र न था लेकिन एक पुत्री थी जिसका नाम ‘बेगम फातिमा’ था और उनकी शादी पैगम्बर के चचेरे भाई हज़रत ‘अली’ के साथ हुई थी। उनके बाद ख़लीफ़ा के उत्तराधिकार की लड़ाई छिड़ गई। एक तरफ उनके दामाद हज़रत अली का दावा था तो दूसरी तरफ हज़रत मुहम्मद साहब के नजदीकी मुरीदों4 का दावा था जो कहते थे कि ख़लीफ़ा का बहुमत से चुनाव होना चाहिए। बहुमत से चुनाव का सिद्धान्त मानने वाले ‘सुन्नी’ तथा वंशगत अधिकार मानने वाले ‘शिया’ मुस्लिम कहलाये। पैगम्बर के बाद पहले ख़लीफ़ा ‘हज़रत अबू बकर’ बहुमत से चुने गये। वह हज़रत मुहम्मद साहब की एक विधवा, ‘आएशा बेगम’ के पिता थे। उसके बाद ‘हज़रत उमर’ और ‘हज़रत उस्मान’ भी बहुमत से ख़लीफा चुने गये। हज़रत उस्मान की हत्या कर दी गई और उसके बाद पैगम्बर के दामाद ‘हज़रत अली’ ख़लीफ़ा बने। हज़रत अली की वफात के बाद हज़रत हसन (जो हज़रत अली के बेटे थे) ख़लीफ़ा बने। 1. फ़लसफा- दर्शन, सोच; 2. कायदा- नियम; 3. वफ़ात- मृत्यु; 4. मुरीद - शिष्य,चेले। अन्य घटना क्रम के पश्चात हज़रत अली के सुपुत्र हज़रत इमाम हुसैन एवं हज़रत मुआविया के बेटे मज़ीद के बीच कर्बला के मैदान में लड़ाई हुई इसमें हज़रत इमाम हुसैन शहीद1 हो गये। ‘मुहर्रम’ का त्यौहार हज़रत इमाम हुसैन के बलिदान का शोक मनाने हेतु मनाया जाता है। इस रोज मर्सिये पढ़ने का रिवाज है। हज़रत इमाम हुसैन के प्रतीक के रूप में ताजिये निकाले जाते हैं। हज़रत यूसुफ़ और जुलेखा : हज़रत यूसूफ भी हज़रत मूसा के समकालीन पैगम्बर हैं और इनकी कार्यस्थली भी मिस्त्र की सरजमीं है। ये पैगम्बर हज़रत याकूब के पुत्र थे और देखने में बहुत खूबसूरत थे। इनके पिता भी इन्हें बहुत चाहते थे और इस कारण इनके बाकी भाई इनसे जलते थे। इसके चलते इनके भाईयों ने इन्हें अंधे कुएं में डाल दिया और इनके कपड़े खून में रंग कर वालिद2 के पास ले गये और कहा कि हज़रत यूसुफ को भेड़िया उठा कर ले गया। हज़रत याकूब अपने बेटे यूसुफ के वियोग में रो-रो कर अंधे हो गये। उधर यूसुफ को कुछ व्यापारियों, जिनका कारवाँ3 कुएं के पास से गुज़र रहा था ने कुएं से निकाल लिया और मिस्त्र के बाज़ार में जा कर गुलाम के तरीके से बेच दिया। हज़रत यूसुफ को जुलेखा नाम की एक खातून4 ने खरीदा जो मिस्त्र के एक राज्याधिकारी की पत्नी थी। वह यूसुफ को चाहने लगी और उनको भी संबंध बनाने के लिए मजबूर करने लगी। लेकिन यूसुफ ने उसकी चाहत कुबूल नहीं की। इस पर जुलेखा ने उन पर बलात्कार का झूठा आरोप लगा कर मामला मिस्त्र के बादशाह जिसे ‘अज़ीज ए मिस्त्र’ के नाम से जाना जाता है के सामने पेश कर दिया। बाद में उन पर वह आरोप साबित नहीं कर पाई और खुद बदनाम हो गई। अतः हज़रत यूसुफ को संयम तथा जुलेखा को बदनाम माशूक/आशिक के रूप में शायर देखते हैं। हज़रत यूसुफ खूबसूरती और पाकीज़गी5 के भी प्रतीक माने जाते हैं। बाद में मिस्त्र का बादशाह भी उन्हें बहुत मानने लगा क्योंकि अकाल की अवस्था आने से पहले की इनकी दूरंदेशी ने मिस़्त्र की जनता को भूखों मरने से बचा लिया था। हज़रत खिज्र और क़ारून : हज़रत खिज्र एक ऐसे पैगम्बर हैं जो अमर हैं लेकिन छिपे रहते हैं। यह भूले भटके लोगों को राह दिखाते हैं। कहते हैं कि सिकन्दरे-आज़म ने इन से अमृत के स्त्रोत की राह पूछी तो उन्होंने उसे आईना दिखा कर बहका दिया। क़ारून जो हज़रत मूसा का चचाज़ाद भाई था। वह बहुत धनाढ्य था लेकिन कंजूस था। आपने ‘क़ारून का खज़ाना मिला गया’ वाला मुहावरा सुना होगा। वह इसी क़ारून की बात कहता है। कंजूसी के कारण क़ारून दान नहीं देता था। इसलिये ईश्वर ने उस पर कोप किया और वह अपने खज़ाने के साथ ज़मीन में गहरा धँस गया। क़ारून लोभ और अमीरी के प्रतीक रूप में शायरी में याद किया जाता है। 1. शहीद - जान कुर्बान करने वाला; 2. वालिद - पिता; 3. कारवाँ - टोला, समूह; 4. खातून - स्त्री, महिला; 5. पाकीज़गी - पवित्रता। नमरूद : यह पैगम्बर हज़रत इब्राहिम के समय का एक घमंडी बादशाह था। उसने अपने खुदा होने का दावा किया। इब्राहिम ने उसकी पूजा करने से मना कर दिया। इस पर नमरूद ने उन्हें आग में डाल दिया लेकिन आग उनका कुछ न बिगाड़ सकी। नमरूद को भी घमंड तथा आडम्बर के प्रतीक के रूप में शायरी में काम में लिया जाता है। इसको नाक में घुसे एक मच्छर ने इतना परेशान किया कि वह खुदाई1 का दावा भूल गया। हज़रत नूह : एक नबी थे और हज़रत आदम के बाद हुए है इसलिए इनको ‘आदम-ए-सानी’ भी कहा जाता है। इनकी कहानी मनु की कहानी से बहुत मिलती है। सैलाब2 से दुनिया का डूब जाना। नाव में सब प्राणियों का एक-एक जोड़ा और वनस्पतियों के बीज रखना और पर्वत पर जा कर जान बचाना सभी बातें मिलती जुलती हैं। ‘तूफाने-नूह’ चालीस दिन तक चला फिर सृष्टि को हज़रत नूह ने वापस चालू किया। अब हम शायरी में ज़िक्र होने वाले कुछ अन्य ऐतिहासिक पात्रों का ज़िक्र करेंगे। जम, जमशेद, जामे-जम : जमशेद एक ईरानी बादशाह था जिसकी ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि स्पष्ट नहीं है। कहते हैं कि इसके पास एक ऐसा पैमाना3 था जिससे उसे संसार की सब बातें मालूम हो जाती थीं। इस पैमाने को ‘जामे-जम’ या ‘जामे-जहाँनुमा’ कहा जाता है। यह जाम सांसारिक ज्ञान के जाम के प्रतीक के रूप में काम में लिया जाता है। नौशेरवां :- ये भी ईरान ही का एक बादशाह था, जो अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध था। इसका नाम न्याय के प्रतीक के रूप में उपयुक्त होता है। मंसूरहल्लाज, दारो-रसन : मंसूरहल्लाज एक सूफी संत थे जिसने तसव्वुफ4 की इंतिहा हासिल5 कर ली और तब ‘अनल-हक’ का नारा दे दिया। इसे कट्टरवादियों ने खुदाई का दावा समझा और उसे रस्सी से बाँध कर फाँसी दे दी गई। दारो-रसन शब्द जिनका मतलब है फाँसी और रस्सी, इसी घटना के प्रतीक हैं। मंसूर की फाँसी, जान पर खेल कर भी सत्य को जाहिर करने की कुव्वत6 के प्रतीक रूप में चर्चित है। 1. खुदाई - खुदा होने; 2. सैलाब - बाढ़; 3. पैमाना - शराब ढालने का पात्र; 4. तसव्वुफ- आध्यात्म; 5. हासिल - प्राप्त; 6. कुव्वत - ताकत, शक्ति। रूस्तम : यह ईरान का ऐतिहासिक वीर-पुरुष है। ये खानदानी योद्धा था तथा इसका नाम वीरता और बहादुरी के प्रतीक रूप में काम आता है। इसने बचपन ही में एक मदमस्त हाथी को मार कर ख्याति अर्जित करी। बड़े होकर यह कई दैत्यों को मारने तथा योद्धाओं के हराने के लिये और प्रसिद्ध हुआ। हातिम : यह अरबिस्तान के ‘तै’ कबीले का एक वीर और दानी सरदार था, जो ‘किस्स-ए-हातिमताई’ के नायक के रूप में मशहूर है। यह दूसरों की भलाई के लिए जान भी कुर्बान करने को तैयार रहता था। आलिफ़-लैला के भी कई किस्सों में इसकी वीरता और दरियादिली1 का ज़िक्र आता है। हातिम एक ऐतिहासिक और हकीकी2 पात्र है जिस पर किस्से बने। हातिम की वीरता व दरियादिली पर कसीदे भी पढ़े गये हैं। सिकंदर : कहा जाता है सिकंदर मकदूनिया (मेसीडोनिया) यूनान का बादशाह था जिसको किस्मत और वीरता दोनों हासिल हुई। इन दोनों के बल पर वह दुनिया का पहला और तत्कालीन विश्व विजेता बना। जिसका मुकद्दर तेज हो उसे ‘मुकद्दर का सिकंदर’ कहा जाता है। इसने जंगली जातियों से निजात3 पाने हेतु एक विशाल दीवार बनाई जिसे ‘दीवारे-कहकहा’ के नाम से जाना जाता है क्योंकि जो भी इस दीवार पर चढ़ता था, हँसते-हँसते मर जाता था। इस दीवार के पार क्या था उसे कोई बता ही नहीं पाता था। सिकंदर कच्ची उम्र में ही फोत हो गया और उसकी हिदायत4 के अनुसार उसके खाली हाथ दुनिया को दिखाने हेतु ताबूत5 के बाहर रखे गये ताकि सबको यह पता चले कि इस दुनिया से सिकंदर जैसी किस्मत वाला आदमी भी खाली-हाथ ही जाता है। शद्दाद : यह भी ईरान का एक अमीर बादशाह था जिसने बाहिश्त का ज़िक्र सुनकर जमीं पर ही एक अदन का बागीचा (बागीचा-ए-बाहिश्त) बना लिया। उस बाग में अन्दर जाने के लिए वह घोड़े पर बैठ कर आया लेकिन घोड़े से उतरने के पहले ही मर गया। असंभव को हासिल करने की जिद के प्रतीक रूप में कभी कभी शायरी में इस पात्र का जिक्र आता है। बहजाद और मानी : ये दोनों प्रसिद्ध ईरानी चित्रकार थे। मानी तो खुद की चित्रकारी से ही इतना अभिभूत हो गया कि उसे चमत्कार मान कर पैगम्बरी का दावा कर बैठा। उसका घंमड टूटा और उस समय के इरानी बादशाह बहराम ने उसे मरवा दिया। शायरी में कई पक्षियों का भी ज़िक्र है और ये भी प्रतीकात्मक रूप में काम में आते हैं। आइए इनके बारे में भी जानकारी हासिल करें। 1. दरियादिली - दातारगी, दानशीलता; 2. हक़ीक़ी - वास्तविक; 3. निजात - छुटकारा; 4. हिदायत - निर्देश; 5. ताबूत - शव को बन्द करने का बक्सा। हुमा : ये एक काल्पनिक पक्षी है जिसके बारे में कहा जाता है कि जिस आदमी के सिर पर इस पक्षी की छाया पड़ जाती है वह बादशाह हो जाता है। इसको अच्छे मुकद्दर का प्रतीक माना जाता है। हुमा हड्डियाँ खाता है। अतः शायरी में आशिकों को यह भी माँगते देखा जाता है कि वह उनकी ही हड्डियाँ खाये। उनक़ा : उनक़ा नाम के पक्षी का जिक्र किस्से कहानियों में अलग-अलग प्रकार से आता है। यह भी सिर्फ काल्पनिक पक्षी है। बाद में यह बात साफ तरीके से मान ली गई कि उनका नाम से कोई पक्षी है ही नहीं। इसलिए ‘उनका’ शब्द का प्रयोग ऐसी चीज़ों के लिए होने लगा जो कोरी कल्पना हो। बुलबुल, सैय्याद, कफ़स : बुलबुल नाम के पक्षी की तुलना मासूम और निरीह माशूक से की जाती है जिसे किसी जुल्मी शिकारी (सैयाद) ने कैद कर लिया है। पहले बुलबुल और तोतों को तथा कबूतरों को पिंजरे में कैद करके रखने का चलन था। इससे इन पक्षियों की आजादी खत्म हो जाती थी और उनको मन मसोस1 कर इस पिंजरे (कफ़स) में रहना पड़ता था। बुलबुल, खूबसूरत माशूका के प्रतीक के रूप में भी शायरी में दिखाई देती है। मैना और बुलबुल दोनों को एक ही रूप से देखा जाता है। कबूतर : कबूतर का जिक्र शायरी में कासिद (पत्रवाहक) के रूप में किया जाता है। आशिक-माशूक का इश्क़ खतो-किताबात के द्वारा ही परवान2 चढ़ता है और खतों के इस लेन-देन में कबूतर डाकिये का काम करता है। किसी समय कबूतर खतों के इस आदान प्रदान को बखूबी3 अंजाम4 दिया करते थे। वे कासिद से भी ज्यादा भरोसे मन्द होते थे और अपने-अपने मालिकों के प्रति इतने समर्पित होते थे कि जान दे कर भी खत सही स्थान पर पहुँचा देते थे। तोता-मैना : इन पक्षियों का जिक्र शायरी में आशिक-माशूक के प्रतीक के रूप में होता है। किस्सा तोता-मैना में ऐसी ही प्रतीकात्मक इश्क़ की दास्तानें5 है। तोते भी संदेश वाहक (कासिद) के रूप में काम में लिये जाते थे और कभी-कभी तो ये प्रेम संदेशों को बोलकर भी बताया करते थे। एक मुहावरा है कि ‘तोता मिर्ची खा गया’ जिसका मतलब है कि व्यक्ति लालच में फँस गया। अब इश्क़ की चंद दास्तानों की जानकारी हासिल करेंगे जिनका ज़िक्र शायरी में अक्सर आया करता है। 1. मन मसोसना - मन मारना; 2. परवान - ऊँचाई पर; 3. बखूबी - भली प्रकार से; 4. अंजाम - अंत; 5. दास्तानें - कहानियाँ। क़ैस, या मजनूं और लैला, सहरा, बयाबाँ, वीराना : कैस अरबिस्तान के ‘बनी-आमिर’ कबीले का एक युवक था जो अपने साथ पढ़ने वाली एक लड़की लैला से इश्क़ कर बैठा। लैला भी उसे चाहती थी लेकिन लैला के कबीले और घर वालों को उनका निकाह1 कबूल नहीं था। कैस को इश्क़ में वहशत2 सी हो गई तथा वह दीवानों की तरह सहरा3 में भटकने लगा। उसे हर बगूला4 में लैला का महमिल (ऊँट का हौदा) दिखाई देता था। इश्क़ में जुनून के प्रतीक रूप में कैस को ‘मजनूं’ के नाम से जाना जाता है। लैला भी मजनूं की जुदाई में घुट-घुट कर मर गई और मजनूं भी उन्मत्त अवस्था में भटकते भटकते मर गया। लेकिन दोनों का इश्क़ अमर हो गया तथा आशिक-माशूक की चाहत की शिद्दत5 का प्रतीक बन गया। शीरी, कोहकन, फरहाद : फरहाद ईरान का एक युवक था जो उस समय के ईरानी बादशाह परवेज़ की रानी शीरीं पर आसक्त हो गया। परवेज़ को जब ये बात पता लगी तो उसने मज़ा लेने के लिये फरहाद से कहा कि अगर वह बेसतूँ के पहाड़ को काटकर शीरीं के लिये नहर बना सके तो शीरीं उसकी हो सकती है। इश्क़ के जुनून के चलते फरहाद ने पहाड़ को भी खोद दिया। इसलिये फरहाद को ‘कोहकन’ का नाम भी मिला। अब परवेज़ ने उसके साथ धोखा किया। उसने फरहाद के पास शीरीं के मर जाने की झूठी खबर पहुँचा दी। यह सुनते ही फरहाद ने अपने सर में तेशा (पत्थर काटने का औजार) मारकर आत्महत्या कर ली। इश्क़ में लगन और जान कुर्बान कर देने के प्रतीक के रूप में फरहाद या कोहकन का नाम शायरी में अमर है। अयाज़ :- यह महमूद गज़नवी का एक फर्माबरदार नौकर था। यह बहुत ही खूबसूरत और बुद्धिमान था अतः महमूद इसे बहुत मानता था। अयाज़ की घुंघराली जुल्फें बहुत हसीन लगती थीं और महमूद हकीकत में उसे चाहता था। फ़ारसी और उर्दू शायरी में महमूद और अयाज का जिक्र मालिक और नौकर की चाहत के रूप में आता है। जाम-ओ-मीना रूपक के कई पात्रों की जानकारी हासिल कर लेना भी यहाँ पर जरूरी है। मुहतसिब : यह शराब बन्दी के हाकिम6 का नाम है। इसका काम मैरवानों को बंद करवाने का तथा मै के मटकों को तोड़-फोड़ देने का होता था। मैकश इस मुहतसिब की बहुत शिकायत करते हैं। वाअज़, वाइज़, जाहिद, मै, मैकश, मैखाना, रिंद, नासेह : धर्म के उपदेश देने वाले को वाअज या वाइज कहा जाता है। मैं (शराब) से नफ़रत रखने और परहेज7 रखने वाले इंसान को जाहिद कहा जाता है। जाहिद उर्दू शायरी में इसलिये नफ़रत का पात्र है क्योंकि वह मैकशी (शराब पीना) का घोर विरोधी है। मैकश (शराबी) उसके इस आचरण को पाखंड बताते हैं और मय पीने के फायदे उसे बताते हैं। वाइज़ द्वारा दिये जाने वाले उपदेश या प्रवचन को वाअज़/वाज कहा जाता है। 1. निकाह - शादी, विवाह; 2. वहशत - पागलपन; 3. सहरा - रेगिस्तान; 4. बगूला - रेतीली हवा का झौका; 5. शिद्दत - अतिरेक; 6. हाकिम - अफ़सर; 7. परहेज - वापरने पर संयम। जाहिद की बातों पर मैकश कभी गौर नहीं करता और उनका मज़ाक उड़ाता है। वाइज़ के बखान और उपदेशों की भी मैकश मज़ाक उड़ाते हैं। वे उसे मूर्ख, अज्ञानी, पाखंडी और बकवादी समझते हैं और खुद को रिंद। ईर्ष्या वश वाइज पर छुप-छुप कर वही सब करने का इल्ज़ाम लगाया जाता है जिनकी पाबंदी1 का यह हिमायती2 होता है। जाहिद और वाइज के ज्ञान, बातें, पोशाक, चाल चलन दाढ़ी आदि सभी चीजों का मज़ाक उड़ाया जाता है। नासेह-(नसीहत देने वाला) एक सामान्य व्यक्ति जो बुरी बातों से बचने और अच्छे आचरण की सलाह देता है ऐसे पात्र को शायरी में ‘नासेह’ के नाम से जाना जाता है। साक़ी : उर्दू शायरी में शराब पिलाने वाले को ‘साक़ी’ कहा गया है। इसमें लिंग भेद नहीं है अपितु ईरान में तो साक़ी शब्द पुलिंग के रूप में काम आता है क्योंकि वहाँ इस काम पर सुन्दर छोकरों को रखा जाता था। अतः साकी को माशूक की जगह पर भी रखा जाता है। साक़ी शराब देते हुए कंजूसी बरतता है और मैकश इस बात पर उससे ख़फा रहता है। हूरें और परियाँ : परी एक ऐसी स्त्री है जो अत्यंत रूपवान होती है परन्तु जिसके पंख लगे होते हैं। ये काल्पनिक है या हकीकत में इसे पक्का कहा नहीं जा सकता। इनको कोहेक़ाफ (काकेसस पर्वत) की रहने वाली बताया जाता है। इनकी प्रकृति मुसीबतों में फँसे इंसान को बचाने की होती है। इनके पास एक जादुई छड़ी भी रहती है और यह गायब होना जानती हैं। हूरें (अपसराएं) जन्नत (स्वर्ग) में पाई जाने वाली सुन्दर स्त्रियों का नाम है जो मृत्यु के बाद उन्हीं लोगों को मिलती हैं जिन्हें अच्छे कर्म करने से बाहिश्त में जगह मिलती है। हूरें ताजीवन जवान रहती हैं और सुंदर भी रहती हैं। उर्दू शायरी मैं माशूक को परी-पैकर (परी से चेहरे वाली) और हूरों से भी बेहतर तथा पाकीज़ा बताया जाता है। गिल्माँ : बाहिश्त में जाने वालों (स्वर्ग वासियों) की सेवा के लिए कमसिन, खूबसूरत लड़के रखे जाने का ज़िक्र हैं जिन्हे गिल्माँ कहा जाता है। अब कुछ अन्य शब्दों का जिक्र करके आगे सफ़र पर बढ़ेंगे। 1. पाबंदी - मनाही; 2. हिमायती - तरफदार। बुत : इस शब्द का अर्थ वैसे तो मूर्ति होता है और मूर्ति-पूजक को बुत-परस्त कहा जाता है। लेकिन शायरी में हसीनाओं को ही बुत कहा जाता है क्योंकि वे मूर्तियों की तरह सुंदर होती हैं और जो इन हसीनाओं की कद्रो-कीमत को नवाज़ता है उसे बुत परस्त तथा हसीनों को काफ़िर1 कहा जाता है। उर्दू शायरी का माशूक बुतों ही के समान होता है और आशिक उसके पुजारी होते हैं। चारागर : इश्क़ के जुनून में आशिक और माशूक बीमार हो जाते हैं। उनके इलाज के लिए हकीम को बुलाया जाता है। इस हकीम ही को चारागर कहा जाता है। इश्क का मर्ज़2 वह है कि ज्यों-ज्यों दवा की वह बढ़ता जाता है और चारागर बेचारा नाकाम3 हो जाता है। अतः चारागर पर उर्दू-शायरी में तंज और फिकरे4 कसे जाते हैं। ज़मज़म (आबे ज़मज़म) : सऊदिया अरब के मक्का शहर में क़ाबा शरीफ के पास ज़मज़म एक मीठे और साफ पानी का सोता है। काबे के साथ-साथ आबे-ज़मज़म का ज़िक्र अक्सर किया जाता है। हज़रत इब्राहिम के बेटे हज़रत इस्माईल के पाँवों की ठोकर से ये पानी का सोता पैदा हुआ था और हज़रत इस्माईल की मां को पीने का पानी खोजने की तकलीफ न हो इसलिए खुदा ने इसे पैदा किया। पीने के पानी की खोज में हज़रत इस्माईल की मां उनके रहने के स्थान से इधर-उधर जितनी दूर जाती थी उसी मार्ग पर अब काबे की परिक्रमा दौड़ कर पूरी करने का रिवाज हैं। हर हाजी को ये परिक्रमा अवश्य करनी होती है तथा ज़मज़म सोते के पानी को पीना होता है। इस सोते के पानी का गंगाजल के समान ही महत्व है। गरेबान :- यह चोगे अंगरखे या कुर्ते का गले का हिस्सा है जिसे आशिक इश्क़ के जुनून में अक्सर चाक कर दिया करते हैं। (फाड़ दिया करते हैं) * 1. काफ़िर - खुदा को न मानने वाला या ज़ालिम के अर्थ में आता है; 2. मर्ज - रोग; 3. नाकाम - असफल; 4. फिक़रे - ताने।