मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी ‘सौदा’ अब हम जनाब मुहम्मद रफ़ी सौदा का जिक्र करते हैं। यह बादशाह शाह आलम के उस्ताद रहे पर उनसे अनबन होने पर लखनऊ चले गये और नवाब आसफुद्दौला के यहाँ मुलाज़िम रहे। ये गज़ल गोई में तो ज्यादा सफल नहीं रहे लेकिन इनके कसीदे अपना कोई सानी नहीं रखते। और ‘हिजो’ तो इन्हीं की ईजाद है। ‘सौदा’ बड़े ग़ुस्सैल थे। जरा किसी से नाराज हुए कि कह दी एक हिजो। अपने नौकर गुंचा को कलम दवात हाथ में पकड़ा के रखते और जब किसी पर हुए नाराज कि बेहयाई से हिजो लगे कहने। किसी की इज़्ज़त इनके हाथ से न बची। इस कदर पीछे पड़ते थे कि इंसान जान से बेज़ार हो जाये। एक बार क़यामुद्दीन ‘उम्मीदवार’ सौदा के पास शागिर्दी के लिए आए। उनका उपनाम सुना तो मुस्कुराये और हिज़ो कही कि ‒ है फैज से किसी के शज़र1 उनका बारदार2। इस वास्ते किया है तऱवल्लुस उम्मीदवार।। (औरत जब उम्मीद से होती है तो उसे उम्मीदवार कहते हैं। क़ायम ने हिजो सुनकर अपना तरव़ल्लुस ही बदल लिया।) परन्तु फिदवी शायर ने सौदा की शान में जो हिजो कही वह अपना सानी नहीं रखती- कुछ कट गई पेटी, कुछ कट गया है डोरा। दुम दाब सामने से, वह उड़ चला लटूरा3।। भडुआ है, मसखरा है, सौदा4 उसे हुआ है।। एक बार एक पठान की शान में सौदा साहब ने हिज़ो कह दी तो उसने इनकी वो खबर ली कि ख़ुदा ख़ुदा करने लगे। तब इनको अहसास हुआ कि दूसरे पर तंज़ करने का नतीजा क्या है। ‘मीर’ के कलाम में यदि दर्द की तेज 1. शज़र- तनेदार पेड़; 2. बारदार- माल ढोने वाला; 3. लटूरा- ओछा; 4. सौदा- पागलपन। लहरें उठती दिखती हैं तो ‘सौदा’ के कलाम में सूफियों जैसी उदासीनता या फिर विनोद की मानसिकता। वे क़सीदों और तंज (हिजो) के उस्ताद के रूप में मशहूर थे। वे दुनिया को एक ‘ग़मकदा’ मानते थे और अपने तजुर्बात1 से बताते थे कि-‘‘वलियों के भी नुत्फ़े2 से शैतान निकलते हैं।’’ दुनिया के ताम-झाम की तुलना वे एक ‘मालज़ादी’ औरत से करते थे और फरमाते थे कि- ये रूत्बा जाहे-दुनिया3 का नहीं कम मालज़ादी से। कि इस पर रोज़ो-शब4 में सैंकड़ों चढ़ते-उतरते हैं।। सौदा ने क़सीदे कहे और बहुत सारे क़सीदे कहे और उनमें बहुत सारे उम्दा रहे परन्तु सौदा के कलाम की अस्ल जमीं हिजो (तंज) रही है। सौदा की तबीयत में एक खिलंदड़पन रहा जो उनकी पूरी शायरी में नज़र आता है। शह्र-आशोब5 की विधा में आपकी तबअ-आज़माई6 क़ाबिले-तारीफ़ रही। उनकी एक नज़्म थी ‘वीरानि-ए-शाहजहांनाबाद’ जो दिल्ली की तबाही के मंजर पर लिखी गई है। दिल्ली में निकम्मों की एक पूरी जमात खड़ी हो गई थी। मुगलिया ख़ानदान की वीरता और मर्दानगी को ज़ंग लग गया था। किसी भी शाही ख़ानदान के मर्द में गैरत नहीं रही थी। शायर के पास देहली के नाम पर रोने-बिसूरने के अलावा कोई काम नहीं रह गया था। ऐसे मंजर पर उन्होंने फर्माया कि- जहानाबाद ! तू कब इस सितम के काबिल था। मगर कभू किसी आशिक का ये नगर दिल था।। मगर कभू किसी आशिक का ये नगर दिल था।। कि यूं मिटा दिया गोया कि नक़्शे-बातिल7 था। अजब तरह का ये बह्रे-जहाँ8 पे साहिल था।। चरमराते मुग़ल साम्राज्य का प्रतीक एक मरियल घोड़े को बनाकर आपने एक नज़्म लिखी ‘तज़हीके-रोज़गार’ (जमाने का उपहास)। यह नज़्म वास्तव में दिल्ली की मुगलिया सल्तनत की व्यवस्था पर एक करारा तंज थी मगर सौदा ने इसे एक ‘कसीदा’ बताया। मुगल सल्तनत की कमजोरी का प्रतीक यह मरियल घोड़ा, घोड़ी को देखकर बार-बार हवा छोड़ता है और जंग में जाने पर चलना छोड़ देता है। यह घोड़ा भूख और खारिश9 के मारे बदहाल है और अब मरूं तब मरूं के से हालात है। इसका मालिक भी ख़स्ता-हाल है। इंतिहा10 ये है कि इस घोड़े को एक दुल्हा अपनी बारात के लिए उधाार ले गया तो वह बारात लेकर दुल्हन के घर तब पहुँचा जब उम्र पचास के पार हो गई ! कोई इसे बकरा समझता है तो कोई गधा और घोबी तो कई बार इसे कान पकड़ कर खींचने लग जाते हैं। इस नज़्म के कुछ अशआर पेश हैं- 1. तजुर्बात- अनुभव; 2. नुत्फा-बीज, अंडकोष; 3. जाहे दुनिया- दुनिया में पद, दुनिया में कद्र; 4. रोज़ो शब- दिन रात; 5. शह्र आशोब- शहर की बर्बादी पर तंज; 6. तबअ आजमाई- जोर अजमाई; 7. नक्शे बातिल- झूठ का निशान; 8. बह्रे जहाँ- संसार का सागर; 9. खारिश- खुजली; 10. इंतिहा - अन्त। ...घोड़ा रखे हैं एक, सो इतना खराबो-ख़्वार,1 नै दाना औ न क़ाह,2 न तीमार नै सईस, रखता हो जैसे अस्पे-गिली3 तिफ़्ले-शीर-ख़्वार4।। नाताकती की उसकी कहाँ तक करूं बयाँ, फ़ाकों का उसके अब में कहाँ तक करूँ शुमार।। मानिंदे-नक़्शे-नाल5 ज़मीं से बज़ुज-फ़ना6 हरगिज़ न उठ सके वो अगर बैठे एक बार।। इस मर्तबे को भूक से पहुँचा है उसका हाल, करता है राकिब7 उसका जो बाज़ार में गुज़ार।। कस्साब8 पूछता है मुझे कब करोगे याद। उम्मीदवार हम भी हैं, कहते हैं यूं चमार।। ...तिनका अगर पड़ा कहीं देखे है घास का। चौके को आँखें मूंद के देता है वो पसार।। ...इक दिन गया था माँगे ये घोड़ा बरात में, दुल्हा जो ब्याहने को चला इसपे हो सवार, सब्जे9 से ख़त सियाह,10 सियह से हुआ सफ़ेद, था सरोसा11 जो क़द वो हुआ शाखे-बारदार12।। ...‘सौदा’ ने तब कसीदा कहा सुन ये माज़रा13। है नाम इस क़सीदे का तज़हीके-रोज़गार।। लोग बाग शायरी के मैदान में सिर्फ इसलिए कूद पड़ते हैं कि आसानी से शुहरत मिल जायेगी। वे अपनी सतही शायरी के बल पर सुख़न-फहम कहलाने को अड़ जाते हैं। ऐसे ही शायरों के बारे में सौदा साहब का फ़र्माना है कि- 1. खराबो ख़्वार- बुरी हालत; 2. काह- घास; 3. अस्पे गिली- खिलौने का घोड़ा; 4. तिफ़्ले शीर ख़्वार- दूध पीता बच्चा; 5. मानिंदे नक़्शे नाल- खुर की नाल के निशान के जैसे ; 6. बजुज़ फ़ना- मौत के सिवा ; 7. राकिब- घुड़सवार; 8. कस्साब- कसाई; 9. सब्जे- हरा; 10. सियाह- काला; 11. सरोसा- लम्बा सरो के पेड़ जैसा; 12. शाखे बारदार- फल से लदी शाख; 13. माज़रा- दृश्य। बाज़ ऐसे भी नामाक़ूल है जिनका सुख़न। अपनी शोहरत होने की समझें हैं वो तदबीर जंग।। पोचगोई1 से नहीं हटते ब-मैदाने-सुख़न। करते हैं गोया वो जड़कर पाँव में जंज़ीर जंग।। ...मैं तो हैराँ हूँ अब इन ना-शायरों की वज़्अ2 पर। करते फिरते हैं जो पढ़-पढ़ शेरे-बेतासीर3 जंग।। सौदा साहब की पहेलियाँ भी काफी मशहूर हुई। कुछ पहेलियाँ पेशे-खिदमत हैं‒ एक नार भौंरे सी काली, कान नहीं वो पहने बाली। नाक नहीं वो सूंघे फूल, जितना अर्ज़4 उतना ही तूल5।। (ढोल) इक तरूवर का फल है तर,6 पहले नारी फिर है नर। वा फल के ये देखो हाल, बाहर खाल और भीतर बाल।। (आम) खर आगे और पीछे कान, जो बूझे सो चतुर सुजान। (खरगोश) नेज़ा-बाजों7 का एक है लश्क़र8, एक पटके9 से सब बाँधे है कमर। मुंह करें जिस तरफ़ बराएमुसाफ़,10 ‘घर’ के घर करदें इक पल में साफ़।। (झाडू) गागर तेरी जलभरी, सर पर लागी आग। बाजन लागी बाँसुरी, सौंकन11 लागे नाग।। (हुक़्क़ा) एक नार देखन को आवे, जो देखे सो आँख लगावे (ऐनक) एक नार नारों में प्यारी, आधी गोरी आधी कारी। देखो वा का उल्टा तौर, गूँगी आप बकावै और।। (ख़त) एक नार वो छैल-छबीली, लोगों से वो अड़ती है। ऊपर अपने मर्द चढ़ावे, मर्दों पे वो चढ़ती है।। (पालकी) पहेलियों के बाद ‘सौदा’ साहब के चन्द बेहतरीन फुटकर शेर तथा कतअ पेशे- ख़िदमत हैं। जो कि ज़ालिम है वो हरगिज़ फूलता फ़लता नहीं। सब्ज़ होते देखा है खेत कभू शमशीर12 का।। 1. पोचगोई- बकवास; 2. वज़्अ- हुलिया रंग ढंग; 3. शेरे बेतासीर- वो शेर जिसमें कोई तासीर न हो; 4. अर्ज- चौड़ाई; 5. तूल - लम्बाई; 6.तर- रस से भरा हुआ; 7.नेज़ा बाज़ों- भाला बरदार या नेज़ा रखने वाला; 8. लश्कर- फौज; 9. पटका- पेट पर बाँधरने वाला पटटा या बेल्ट ; 10. बराएमुसाफ- सफर के लिए; 11. सौंकन- लहराना, डोलना; 12. शमशीर- तलवार। सीमोज़र1 के आगे ‘सौदा’ कुछ नहीं इंसाँ की कद्र। ख़ाक ही रहना भला था, बल्कि इस अकसीर2 का।। जब बज़्म में बुताँ की वो रश्के-मह3 गया था। आपस में हर परीरू4 मुँह देख रह गया था।। बुलबुल को क्या तड़पते देखा चमन से दूर। यारब, न कीजियो तू किसी को वतन से दूर।। समंदर कर दिया नाम इसका सबने कह कह कर। हुए थे जमा कुछ आँसू मिरी आँखों से बह बह कर।। किसे ताकत है शरहे-शौक़5 उस मज़लिस में करने की। उठा देने के डर से साँस वाँ लेते हैं रह-रह कर।। न अश्क आँखों से बहते हैं, न दिल से उठती हैं आहें। सबब क्या, कारवाने-दर्द6 की मसदूद7 हैं राहें।। न पहुँचा मंजिले-मक़सूद8 को मज़नूँ भी ए ‘सौदा’। समझ कर जाइयो, लुटती हैं मुल्के-इश्क़ की राहें।। सज़्दा किया सनम को दिल के कुनिश्त9 में। कह उस ख़ुदा से शेख जो है संगो-खिश्त10 में।। गुज़रा है आबे-चश्म11 मेरे सिर से बारहा। लेकिन न वो मिटा कि जो था सरनविश्त12 में।। कीजे न असीरी13 में अगर ज़ब्त नफ़स14 को। दे आग अभी शोल-ए-आवाज़ कफ़स15 को।। ए इश्क़ न फरहाद बचा तुझसे न परवेज़। बा-ख़ाक बराबर किया तू नाकसो-कस16 को।। मत दैरो-हरम17 के तू समझ सज़्दे में कुछ फ़र्क़। पत्थर ही का जब पूजना आया तो कहीं हो।। 1. सीमोज़र- चान्दी, सोना; 2.अकसीर- लाभकारी रसायन; 3. रश्के मह- चाँद जिससे ईर्ष्या करें; 4.परीरू- परी के जैसे सुन्दर चेहरे वाली; 5. शरहे शौक- भावना प्रकट करना; 6. कारवाने दर्द- दर्द के कारवां; 7. मसदूद- कठिन, मुश्किल, बंद; 8. मंजिले मकसूद- अंतिम लक्ष्य; 9. कुनिश्त- हवन कुंड; 10. संगो खिश्त- ईंट और पत्थर; 11. आबे चश्म- आंखों का पानी अर्थात आंसू; 12. सरनविश्त - तकदीर का लिखा; 13. असीरी- मुश्किलात, गुलामी; 14. ज़ब्ते- बरदाश्त रोकना; 15. कफ़स- पिंजरा, कैद खाना; 16. नाकसो कस- ऊँचा, नीचा; 17. दैरो हरम- मंदिर, मस्जिद। इस दिल को दे के लूँ दो जहाँ, ये कभू न हो। सौदा तो हिवे तब न कि जब इसमें तू न हो।। झगड़ा तो हुस्नो-इश्क़ का चुकता है पल के बीच। गर महकमे-काज़ी1 के तू रूबरू2 न हो।। आ पहुँच साक़ी कि फिर अय्याम3 कब आते हैं ये। फस्ले-गुल4 के कुछ कटे दिन, कुछ चले जाते हैं ये।। हमारे कुफ्र5 के पहलू से दीं6 की राह याद आवे। सनम रखते हैं जिसको देखकर अल्लाह याद आवे।। बरहमन आके गर देखे तिरे रू-ए-मुख़त्तत7 को। तो पोथी भूलकर उसको कलामुल्लाह याद आवे।। सावन के बादलों की तरह से भरे हुए। वे नैन हैं ये जिससे कि जंगल हरे हुए।। इंसाफ अपना सौंपिये किसको बज़ुज़8 खुदा। मुंसिफ जो बोलते हैं सो तुझसे डरे हुए।। ‘सौदा’ निकल न घर से कि अब तुझको ढूंढ़ते। लड़के फिरे हैं पत्थरों से दामन भरे हुए।। कहे है शमा से परवाना वक्त जलने के। कि हक़्के-बंदगी9 इस तरह से अदा कीजे।। मतलब-तलब हुआ है दिल ऐ शेख़ो-बरहमन। सूरत हरम की कैसी है, क्या शक्ले-दैर10 है ? चाहा कि जूं हुबाब11 मैं देखूँ ये कायनात12। खोले नयन तो और ही आलम की सैर है।। बरहमन बुतकदे के, शैख़ बैतुल्लाह13 के सदक़े। कहें हैं जिसको ‘सौदा’ वो दिले-आगाह14 के सदके।। ‘सौदा’ हजार हैफ़15 कि आकर जहाँ में हम। क्या कर चले और आए थे किस काम के लिए।। 1. महकमे काज़ी- न्याय का दफ़्तर; 2. रूबरू- आमने-सामने; 3. अय्याम- मौके; 4. फ़स्ले गुल- फूलों की फ़सल, बहार; 5. कुफ्र- अधर्म; 6. दीं- धर्म; 7. रू ए मुख़त्तत- दाढ़ी वाला चेहरा, धारीदार; 8. बज़ुज़- अलावा; 9. हुक्के बंदगी- पूजा का हक; 10. शक्ले दैर- मंदिर रूपी, मन्दिर; 11. हुबाब- बुलबुला; 12. कायनात- दुनिया; 13. बैतुल्लाह- अल्लाह का घर, काबा; 14. दिले आगाह- बाखबरदिल, सचेत हृदय; 15. हैफ-अफसोस। दिल से पूछा ये मैं कि इश्क की राह किस तरफ़ मेह्रबान पड़ती है ? कहा उनने कि नै बहिन्दोस्तान न सू-ए-इस्फ़हान1 पड़ती है।। ये दोराहा जो कुफ्रो-दीं2 का है, दोनों के दरमियान3 पड़ती है।। सौदा साहब ने गज़लें भी खूब लिखीं। लोग उन्हें क़सीदे का महारथी समझते थे। ऐसे लोगों के लिए उन्होंने लिखा कि- जी मिरा मुझसे ये कहता है कि टल जाऊँगा। हाथ से दिल के तिरी अब मैं निकल जाऊँगा।। लुत्फ़ ऐ अश्क़, कि जूँ-शमा घुल जाता हूँ। रहम ऐ आहे-शररबार4, कि जल जाऊँगा।। चैन देने का नहीं जेरे-ज़मीं5 भी नाला6। सोतों की नींद में करने को ख़लल7 जाऊँगा।। क़तर-ए-अश्क़8 हूँ प्यारे तिरे नज़्जारे से। क्यों ख़फ़ा होते हो, दम मारते ढ़ल जाऊँगा।। छेड़ मत बादे-बहारी9 कि मैं जूँ-निकहते-गुल10। फाड़ कर कपड़े अभी घर से निकल जाऊँगा।। मेरी सूरत से तू बेज़ार है ऐसा ही तो देख। शक्ल इस ग़म से कोई दिन में बदल जाऊँगा।। कहते हैं वो जो है ‘सौदा’ का कसीदा ही खूब। उनकी ख़िदमत के लिए मैं ये गज़ल गाऊँगा।। इश्क़ बाज़ी के लिए सौदा साहब का फर्माना था कि- ‘सौदा’ क़िमारे-इश्क11 में शीरीं से कोहकन। बाज़ी अगरचे12 पा न सका, सर तो खो सका।। किस मुँह से फिर तू आपको कहता है इश्क़बाज। ऐ रूसियाह,13 तुझसे तो ये भी न हो सका।। और खुदा का नूर देखने हेतु उनका फ़र्माना था कि पैगम्बर मूसा की तरह तूर के पर्वत पर जाने की ज़रूरत नहीं, वो तो हर शै मौजूद होता है- हर संग में शरर14 है तेरे ज़हूर15 का। मूसा नहीं जो सैर करूँ कोहे-तूर16 का।। 1. सू ए इस्फ़हान- इरान का एक शहर; 2. कुफ्रों दीं- अधर्म, धर्म; 3. दरमियान- बीच में; 4. आहे शररबार- आग से भरी हुई आह; 5. जेरे ज़मीं- जमीं के नीचे; 6. नाला- शिकायत; 7. ख़लल- भंग, रुकावट; 8. क़तर ए अश्क़- आंसू का कतरा; 9. बादे बहारी- बहारों की हवा; 10. जूँ निकहते गुल- फूलों की खुशबू की तरह; 11. किमारे इश्क- प्रेम का जुआ; 12. अगरचे- यद्यपि; 13. रूसियाह- कलमुहाँ, काला मुँह; 14. शरर- चिंगारी; 15. ज़हूर- तेज; 16. कोहे तूर- तूर नाम का पहाड़। पढ़िये दरूद1 हुस्ने-सबीहो-मलीह2 देख। ज़ल्वा हरेक पर है मुहम्मद के नूर का।। अब सौदा साहब से रूख़्सत लेनी होगी और सफ़र जारी रखना होगा। लेकिन एक अन्तिम गज़ल के लिए वक्त सर्प़3 करना ही है क्योंकि यह है भी दिल अफ़रोज़- टूटे तेरी निगाह से, अगर दिल हुबाब का। पानी भी फिर पिएँ, तो मज़ा है शराब का।। कहता है आईना, कि समझ तरबियत4 की क़द्र। जिनने किया है, संग को हमरंग आब का।। दोज़ख5 मुझे कुबूल है, ऐ मुन्किरो-नकीर6। लेकिन नहीं दिमाग़, सवालो-ज़वाब का।। था किसके दिल को कश्मकशे-इश्क़ का दिमाग़। यारब, बुरा हो दीद-ए-खाना-खराब7 का ।। जाहिद8, सभी है नेमते-हक़9 जो है अक्लो-शर्ब10। लेकिन अजब मज़ा है शराबो-कबाब का।। गाफ़िल ग़जब से होके करम पर न रख नज़र। पुर है शरारे-बर्क़11 से दामन-सहाब12 का।। क़तरा गिरा था जो कि मिरे अश्क़े-गर्म से। दरिया में है हनोज13 फफ़ोला हुबाब का।। ऐ बर्क़14, किस तरह से मैं हैराँ हूँ तुझ कने। नक़्शा है ठीक दिल में मिरे इन्तिराब15 का।। ‘सौदा’ निगाहे-दीद-ए-तहक़ीक़16 के ज़ुहूर17। जल्वा हरेक ज़र्रे में है आफ़ताब18 का।। ज़ाहिर है अब आप ‘सौदा’ साहब को गज़ल का शायर न मानने की ग़लती नहीं कर सकते। उन्हें किसी भी मायने में कम करके आँकना सिर्फ नादानी कही जा सकती है। उनके खुद ही के अल्फाज़ में, ‘‘हालांकि मैं हिन्द के शायरों का पैग़म्बर नहीं हूँ पर शेर कहने की एजाज़19 मुझे ज़रूर हासिल है।’’ बजा फरमाया ‘सौदा’ साहब ने और उनके सुख़न-फ़हमी के चमत्कार को हम सभी का नमस्कार! 1. दरूद- पवित्र मन्त्र; 2. सबीहो मलीह- सांवला सलौना; 3. सर्फ- खर्च; 4. तरबियत- परवरिश; 5. दोज़ख- नरक; 6. मुन्किरो नकीर- फरिश्ते; 7. दीद-ए-खाना खराब- आवारा निगाहें; 8. जाहिद- विरक्त; 9. नेमते हक- ईश्वर का दिया ईनाम; 10. अक्लो शर्ब- खाना पीना; 11. शरारे बर्क़- बिजली का शोला; 12. दामन सहाब- बादलों का पल्लू; 13. हनोज- अभी भी। 14. बर्क- बिजली; 15. इजतिराब - बेचैनी; 16. निगाहे दीद; तहक़ीक़- मिलने हेतु जाँच पड़ताल, करती निगाह; 17. ज़ुहूर- जाहिर होना; 18. आफ़ताब- सूर्य; 19. एजाज़- चमत्कार,खूबी।