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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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9:12 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
शेख मुहम्मद इब्राहीम ‘ज़ौक़’ अब देहलवी शायरों का जिक्र करेंगे जिनमें ज़ौक़, गालिब, मोमिन और दाग़ जैसे चमकते सितारों का नाम शामिल हैं। ‘ज़ौक़’ आस्माने-शायरी पर चाँद के जैसे चमके। कसीदे और फ़िलबदी गजलें लिखने में इनका कोई सानी नहीं था। यह हिन्दुस्ताँ के आखिरी बादशाह, बहादुर शाह जफ़र के उस्ताद थे और ‘मलिकुश्शुअरा’ तथा ‘खाकानिये-हिन्द’ जैसी पदवियाँ इन्हें अता की गई। अपने जीवन में जो शोहरत इनको मिली वह बिरले ही शायरों को नसीब होती है। उस समय इनकी जो क़द्र थी वो न ग़ालिब की थी और न मोमिन की। ग़ालिब फारसी में लिखते थे और इस वजह से उनके कलाम को बेमायनी समझा जाता था। परन्तु ज़ौक़ से खुन्नस1 होने के कारण उन्होंने भी अपना तर्जे-कलाम बदला और फ़ारसी से ज़्यादा उर्दू को काम में लिया। और उनका यही कलाम आज तक गालिब को अमर बनाये हुए है। ज़ौक़ शुरुआत में शाह नसीर के शार्गिद थे जो पुराने ढर्रे के शायर थे। साथ ही साथ नसीर ज़ौक़ से ईर्ष्या रखते थे और उनको इस्लाह न देते थे। वे अपने बेटे ‘मुनीर’ को ज़ौक़ के ऊपर तरज़ीह2 देते थे। अतः ज़ौक़ ने अपने उस्ताद को सलाम कह अपनी गजलें खुद बनाना शुरू किया। उस समय दिल्ली में अकबर (द्वितीय) बादशाह थे ओर उनके बेटे बहादुर शाह को शेरो-शायरी का शौक़ था। वे खुद भी ‘ज़फ़र’ तख़ल्लुस से शायरी करते थे। वे पहले शाह नसीर से इस्लाह लेते रहे पर उनके हैदराबाद चले जाने पर पहले ‘काज़िम-अली’ तथा बाद में ‘ज़ौक़’ से इस्लाह लेने लगे। और इस तरह शाह की उस्तादी ‘ज़ौक़’ के गले में पड़ गई। ‘जफ़र’ ‘जुरअत’ के अन्दाज को पसन्द करते थे और उनके तथा ‘इंशा’ के अशआर भी दिल्ली मँगाते रहते थे। ‘ज़ौक़,’ ‘जफ़र’ की गजलें इन्हीं लोगों के अन्दाज़ में बनाते थे। उनको अस्ल में कसीदे कहने और गज़लें बनाने के काम पर ही रखा गया था और पगार भी अधिक नहीं थी। वे बादशाह के उस्ताद कम और दरबारी नक़ीब3 ज्यादा थे। शाह नसीर की शागिर्दी और शंहशाह की उस्तादी ने ज़ौक़ की सारी प्रतिभा का गला घोंट दिया। 1. खुन्नस- नाराजगी; 2. तरज़ीह- अहमियत; 3. नकीब- चारण, भाट। फिर भी ज़ौक़ ने कसीदे1 लिखने में वो महारत हासिल की जो किसी के पास नहीं। ज़ौक़ के कलाम का ज़्यादातर हिस्सा खारज़ी शायरी का है और उन्होंने इस में जो सजावट पैदा की है वो क़ाबिले तारीफ है। उनकी शायरी के चन्द ख़ूबसूरत अशआर पेशे-ख़िदमत हैं‒ गुहर2 को जौहरी सर्राफ़ ज़र को देखते हैं। बशर3 को देखने वाले बशर को देखते हैं।। बना के आईना हैं देखते जो आईनागार। हुनरवर4 अपने भी एबोहुनर को देखते हैं।। बेयार रोजे-ईद शबेगम़ से कम नहीं। जामे-शराब दीदये-पुरनम5 से कम नहीं।। उस हूर वश का घर मुझे जन्नत से है सिवा। लेकिन ऱकीब7 हो तो जहन्नुम से कम नहीं।। तेरे कूचे को वोह बीमारे-गम़ दारूश्शफ़ा8 समझे। अजल9 को जो तबीब10 और मर्ग11 को अपनी दवा समझे।। रूक़्का है चोरी का और भेजा है अनजान के हाथ। या इलाही कहीं पड़जाय न दरबान के हाथ।। अबस तुम अपनी रूकावट पे मुहँ बनाते हो। वो आई लबपै हँसी, देखो, मुस्कुराते हो।। हाथ सीने पे मेरे रख के किधर देखते हो। इक नजर दिल से इधर देख लो गर देखते हो।। समझ है और तुम्हारी, कहूँ मैं तुमसे क्या ? तुम अपने दिल में खुदा जाने सुनके क्या समझो। दिल में थे चन्द क़तराए खूं, सो मानिन्दे12 अनार। न रहे वोह भी जब उल्फ़त ने निचोड़ा हमको।। ख़ानक़ाह13 में भी वही है जो ख़राबात14 में है। फ़र्क पर यह है, यहाँ मुहँ पे है वाँ दिल में है।। तेरे आफ़त ज़दा जिन दश्तों15 में अड़ जाते हैं। सब्रोताक़त के वहाँ पाँव उखड़ जाते हैं।। 1. कसीदे- प्रशस्तियाँ; 2. गुहर - रत्नों; 3. बशर- आदमी; 4. हुनरवर- हुनरवाले, कलाकार; 5. दीदये पुरनम- भीगी हुई आंखें; 6. रकीब- दुश्मन; 7. दारुश्शफ़ा-अस्पताल, शफ़ाखाना; 8. अजल-मौत; 9. तबीब-डाक्टर, हकीम; 10. मर्ग- मौत; 11. मानिन्दे- तरह; 12. खानकाह- दरवेशों के रहने की जगह; 13. ख़राबात- कुकर्म का स्थान; 14. दश्तों- मैदानों। मर गये फिर भी तग़ाफुल1 ही रहा आने में। बेवफ़ा पूछे है, क्या देर है ले जाने में।। वह दिन है कौनसा, कि सितम पर सितम नहीं। गर ये सितम है रोज़, तो इक रोज़ हम नहीं।। मुश्किल है मेरे अहदे-मुहब्बत2 का टूटना। ऐ बेवफ़ा ! यह तेरी ‘ख़ुदा की कसम’ नहीं।। हाथ आये जिस तरह से दिले गुमशुदा का खोज। है चोर वह कि जिसपै किसी का भरम नहीं।। वक़्ते-पीरी3 शबाब की बातें। ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें।। इल्म4 है जिसका इश्क़ और जिसका अमल वहशत नहीं। वो फ़लां तूं है तो अपने क़ाबिले-सुहबत नहीं।। वो सुबह को आये तो बातों में करूं दोपहर। और चाहूँ कि दिन थोड़ा सा ढ़ल जाये तो अच्छा।। ढ़ल जाए दिन भी तो करूँ उसी तरह शाम। और फिर कहूँ आज से कल जाए तो अच्छा।। अलक़िस्सा5 नहीं चाहता वोह जाये यहाँ से। दिल मेरी ही बातों में बहल जाये तो अच्छा।। लेकिन कभी कभी जौक ऐसे शेर भी कह लेते थे - उसने जब माल बहुत रद्दोबदल में मारा। हमने दिल अपना उठा अपनी बग़ल में मारा।। जौक़ को ख़ुदा हाफ़िज़ करने से पहले उनके चन्द और अशआर पेशे-ख़िदमत हैं- नाला6 मेरा इस शोर से क्यों दुहाई देता। ऐ फ़लक ! गर तुझे ऊँचा न सुनाई देता।। झूठ ही मानो कलाम उस रहज़ने-ईमान7 का। पहनकर जामा भी वोह आये अगर क़ुरआन का।। 1. तगाफुल- उपेक्षा, नज़रअंदाजी; 2. अहदे मुहब्बत- प्यार की कसम; 3. वक्ते पीरी- बुढ़ापे के समय; 4. इल्म- जानकारी; 5. अलकिस्सा- मतलब ये कि; 6. नाला- फरयाद; 7. रहज़ने ईमान- ईमान के लुटेरे। ऐ जौक़ गर होश है तो दुनिया से दूर भाग। इस मयकदे में काम नहीं होशे-यार का।। हम आप जल-बुझे मगर इस दिल की आग को। सीने में हमने जौक़ न पाया बुझा हुआ।। जुदा हों यार हम और न हो रकीब जुदा। है अपना अपना मुकद्दर जुदा, नसीब जुदा।। शुक्र है परदे ही में उस बुत को हया ने रखा। वर्ना ईमान गया ही था ख़ुदा ने रक्खा।। इश्क़ के ढ़ब पै न कोई बजुज़1 इंसान चढ़ा। इसके काबू पै चढ़ा तो यही नादान चढ़ा।। जिस जगह बैठे हैं बा-दीद-ए-नम2 उठ्ठे हैं। आज किस शख़्स का मुँह देख के हम उठ्ठे हैं।। रूख़सत जो हमसे होकर जाते वोह अपने घर हैं। घबरा के पहुँचते वाँ हम उनसे पेश्तर हैं।। सितम को हम करम समझे, जफ़ा को हम करम समझे। और इस पर भी न समझे वोह, तो उस बुत से खुदा समझे।। समझ ही में नहीं आती है कोई बात जौक़ उसकी। कोई जाने तो क्या जाने, कोई समझे तो क्या समझे।। क्या ग़रज लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले। उनका बन्दा हूँ, जो बन्दे हैं मुहब्बत वाले।। नाज़ है गुल को नज़ाकत पै चमन में ऐ जौक। इसने देखे ही नहीं नाज़ो-नज़ाकत वाले।। * 1. बजुज़- सिवाय; 2. बा-दीद-ए-नम- भीगी आँखों के साथ।
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