सैय्यद मुहम्मद मीर ‘सोज’ इसी क्षेत्र के एक और शायर थे सैय्यद मुहम्मद मीर ‘सोज’। सोज़ के पढ़ने का अन्दाज निराला था। तरन्नुम में पढ़ते थे और मज़मून की सूरत बन जाते थे। एक बार उन्होंने एक क़ितआ पढ़ा जिसके लफ़्ज थे‒ गये घर से जो हम अपने सवेरे। सलाम अल्लाह खाँ साहब के डेरे। वहाँ देखे कई तिफ़्ले-परीरू1। अरे, रे-रे, अरे रे-रे अरे रे।। इसको पढ़ते-पढ़ते वे ऐसे गिरे मानो सचमुच परीजाद़ों को देखकर दिल पर चोट लगी हो। वे गजलें और रूबाईयाँ भी लिखते थे। उनकी लिखी एक गज़ल पेश है‒ मेरा जान जाता है यारों बचा लो। कलेजे में काँटा गड़ा है निकालो।। न भाई मुझे जिन्दगानी न भाई। मुझे मार डालो मुझे मार डालो।। खुदा के लिए ऐ मेरे हमनशीनों2। वह बाँका जो जाता है उसको बुला लो।। अगर वह न माने तुम्हारे कहे से। तो मिन्नत करो घेरे-घारे मना लो। कहो-एक बन्दा तुम्हारा मरे है। उसे जान-कन्दन3 से चल कर बचा लो।। जलों की बुरी आह होती है प्यारे ! तुम उस ‘सोज’ की अपने हक में दुआ लो।। उनका एक और उम्दा शेर पेश कर चन्द शोअरा हाजरात की तरफ़ चलते हैंं‒ गम है, इन्तज़ार है, क्या है ? दिल जो अब बेक़रार है क्या है ? 1. तिफ़्ले परीरू- खूबसूरत बच्चे; 2. हमनशीनों- मित्रों; 3. जान कन्दन- मरने से।