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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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9:04 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
वली मुहम्मद ‘नज़ीर’ अकबराबादी देहलवी स्कूल के शायरों जनाब ज़ौक, गालिब, मोमिन आदि का जिक्र करने से पहले मैं नज़ीर अकबराबादी का जिक्र करना जरूरी समझता हूं । नज़ीर साहब राह चलते चलते शायरी कहा करते थे। एक बार चन्द औरतों ने रोक लिया और तकाज़ा किया कि हमारे लिये कुछ कह दो। उन्होंने टालने की कोशिश की परन्तु वे कहां मानती। मज़बूरन नज़ीर ने उनके नाम पूछे। एक ने बताया जमुना और दूसरी ने गंगा, तो नज़ीर बोले- यारब मेरी दुआ को जल्दी कुबूल कीज़ै। जमुना में लगा बल्ली गंगा के पार कीजै।। अब भला वे वहाँ कैसे ठहरती! कनारी बज़ार जाते वक़्त कोठे पर से एक वेश्या ने कहा कि मियाँ हमको भी अपना कलाम सुनाओ तो नज़ीर फौरन बोले- लिखें हम ऐश की तख़्ती पै किस तरह ऐ जाँ। क़लम जमीन के ऊपर दवात कोठे पर।। वे झेंपकर चुप हो रही। ये उदाहरण नज़ीर की शख्सियत का सिर्फ एक ही पहलू उज़ागर1 करते हैं। वास्तव में नज़ीर की शायरी फ़क़ीराना हुआ करती थी अतः जनसाधारण के दिलों के क़रीब थी। उनकी गज़लें तथा नज्में सड़कों, खेतों तथा गलियों में गाई जाती थीं। इंसानियत से उनको गहरी हमदर्दी थी और वह हर चीज़ में खूबी देखा करते थे। इन्सान की शख्सियत पर लिखी एक नज़्म के कुछ अशआर पेश हैं‒ ... दुनिया में पादशाह है सो है वह भी आदमी और मुफ़लिस-ओ-गदा2 है सो है वो भी आदमी ज़रदार-बेनवा3 है सो है वो भी आदमी निअमत4 जो खा रहा है सो है वो भी आदमी टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी... 1. उज़ागर- प्रकट; 2. मुफ़लिस ओ गदा- गरीब भिखारी; 3. जरदार बेनवा- दौलत वाला कंगाल; 4. निअमत- अच्छी-अच्छी चीजें। ...यां आदमी ही नार है और आदमी ही नूर यां आदमी ही पास है और आदमी ही दूर कुल आदमी का हुस्न-ओ-क़बाह1 में है यां ज़हूर2 शैतां भी आदमी है जो करता है मक्र-ओ-ज़ोर3 और हादी रहनुमा4 है सो है वो भी आदमी... ... यां आदमी पै जान को वारे है आदमी और आदमी पै तेग़5 को मारे है आदमी पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी और सुनके दौड़ता है सो है वो भी आदमी... ... यां आदमी ही शादी है और आदमी ही ब्याह क़ाज़ी वकील आदमी और आदमी गवाह ताशे बजाते आदमी चलते हैं ख़्वामख़ाह दौड़े है आदमी ही तो मिशअल जला के राह और ब्याहने चढ़ा है सो है वो भी आदमी... ... तबले मजीरे दायरे सारंगियाँ बजा गाते हैं आदमी ही हर इक तरह जाबजा6 रंडी भी आदमी ही नचाते हैं गत लगा और आदमी ही नाचे है और देख फिर मज़ा जो नाच देखता है सो है वो भी आदमी... अशराफ़7 और कमीने से ले शाह-ता-वज़ीर ये आदमी ही करते हैं सब कारे-दिलपज़ीर8 यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर अच्छा भी आदमी ही कहाता है ए नज़ीर और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी।। दूध पीते बच्चों और उनके बचपन पर उन्होंने लिखा कि - ...क्या वक्त था वो हम थे जब दूध के चटोरे हर आन आँचलों के मामूर से कटोरे पावों में काले टीके हाथों में नीले डोरे या चाँदसी हो सूरत, या साँवरे व गोरे क्या सैर देखते हैं ये तिफ़्ल शीरख़ोरे9... 1. हुस्न ओ क़बाह- अच्छे तथा बुरे; 2. जुहूर- जाहिर, दिखावा; 3. मक्र ओ जोर- खिलाफत, विद्रोह, पथभ्रष्ट करने का प्रयत्न; 4. रहनुमा- पथ प्रदर्शक; 5. तेग-तलवार; 6.जाबजा-जहाँ तहाँ; 7.अशराफ-भले मानस, सज्जन; 8.कारे दिलपज़ीर-दिल को पंसद आने वाला काम; 9. तिफ़्ल शीरखोरे-दूध पीते बालक। ...गुल की तरह से हरदम सीने पै फूलते थे पी-पीके दूध माँ का खुश होके फूलते थे माँ-बाप उनकी ख़िदमत सर पर क़बूलते थे हाथों में खेलते थे झूलों में झूलते थे क्या सैर देखते हैं ये तिफ़्ल शीरख़ोरे... जवानी पर उन्होंने लिखा कि - क्या ऐश की रखती है सब आहंग1 जवानी करती है बहारों के तईं दंग जवानी हर आन पिलाती है मय और बंग2 जवानी करती है कहीं सुल्ह कहीं जंग जवानी इस ढ़बके मजे रखती है और ढंग जवानी आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी... ...अल्लाह ने जवानी का वो आलम है बनाया जौहर कहीं, आशिक कहीं, रूसवा कहीं शैदा फन्दे में कहीं जी है कहीं दिल है तड़पता मरते हैं, सिसकते है, बिलखते हैं अहाहा इस ढ़बके मज़े रखती है और ढ़ंग जवानी आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी और बुढ़ापे पर उन्होंने फ़रमाया था कि - ...क्या क़हर है कि यारों जिसे आ जाय बुढ़ापा और ऐसे जवानी के तईं खाय बुढ़ापा इशरत3 को मिला ख़ाक में गम लाए बुढ़ापा हर काम को हर बात को तरसाये बुढ़ापा सब चीज़ को होता है बुरा हाय बुढ़ापा आशिक़ को तो अल्लाह न दिखलाये बुढ़ापा... मियाँ नज़ीर 1735 ईस्वी में आगरे अथवा दिल्ली में जन्मे परन्तु 1757 में अहमदशाह अब्दाली की दिल्ली पर चढ़ाई के बाद आगरे आ गये। उनकी जवानी रंगरेलियों में कटी। मोती नाम की एक औरत को दिल दे बैठे। जब जाटों ने आगरे को लूटा तो इनका भी माल असबाब लुट गया। तब लाला विलासराय खत्री की मुलाज़मत में रहे। नवाब वाज़िद अली शाह ने इन्हें बहुत सा रुपया भेज कर लखनऊ बुलाया पर इनकी तबीयत फ़क़ीराना थी। रुपयों के कारण रात सो न पाये सो रुपया वापस कर दिया और लखनऊ नहीं गये। लेकिन पैसे का महत्व बहुत अच्छी तरह से समझते थे इसलिए तो लिखा कि- 1. आहंग- इरादे, विचार; 2. बंग- भंग (भांग); 3. इशरत- ऐशो आराम। ...पैसे ही का अमीर के दिल में ख़याल है पैसे ही का फ़कीर भी करता सवाल है पैसा ही फ़ौज पैसा ही जाह-ओ-जलाल1 है पैसे ही का तमाम ये दंग-ओ-दजाल2 है पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है... ...पैसे के ढेर होने से सब सेठ साठ हैं पैसे के ज़ोर-ओ-शोर हैं पैसे के ठाठ हैं पैसे के कोठे कोठियाँ छह-सात-आठ हैं पैसा न हो तो पैसे के फिर साठ साठ हैं पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है... ...पैसा न हो तो बाग़ कुएँ फिर कहाँ से हों खाने को पूरी और पूवे फिर कहाँ से हों ऐश-ओ-तरब3 के नक्की दावे4 फिर कहाँ से हों हलवा कचौरी मालपूवे फिर कहाँ से हों पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चरखे की माल है... ...पैसा जो हो तो देव की गरदन को बाँध लाए पैसा न हो तो मकड़ी के जाले से ख़ौफ़ खाए पैसे से लाला भइय्याजी और चौधरी कहाए बिन पैसे साहूकार भी इक चोर सा दिखाए पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है... ...रौनक़ बहार होती है पैसे से सब हसूल5 और जो न होवे चेहरे पै उड़ती है ख़ाक-धूल 1. जाह ओ जलाल-शानो शौकत, दबदबा; 2. दंग ओ दजाल-झगड़ा और बवाल; 3. ऐश ओ तरब- आराम और खुशियाँ; 4. नक्की दावे- दावा चुकता; 5. हसूल-हासिल, प्राप्त। पैसा ही सारी चीज़ है पैसा ही मर्द मूल बे पैसे आदमी है जहाँ बीच ना क़बूल पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है... ...पैसा ही जस1 दिखाता है इन्सां की बात को पैसा ही ज़ेब2 देता है ब्याह और बरात को भाई सगा भी आन के पूछे न बात को बिन पैसे यार दूल्हा बने आधी रात को पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है... पैसे ने जिस मकान में बिछाया है अपना जाल फँसते हैं उस मकाँ में फरिश्तों के पर-ओ-बाल पैसे के आगे क्या हैं ये महबूब खुश-ज़माल3 पैसा परी को लाय परिस्तान से निकाल पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है... ...तेग़-ओ-सिपर4 उठाते हैं पैसे के वास्ते तीर-ओ-सनां5 लगाते हैं पैसे के वास्ते मैदां में ज़ख़्म खाते हैं पैसे के वास्ते यां तक कि सर कटाते हैं पैसे के वास्ते पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है... ...आलम में ख़ैर6 करते हैं पैसे के ज़ोर से बुनियादे-दैर7 करते हैं पैसे के ज़ोर से दोज़ख़8 में फेर करते हैं पैसे के ज़ोर से ज़न्नत9 की सैर करते हैं पैसे के ज़ोर से पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है... 1. जस- यश; 2. ज़ेब- शोभा; 3. महबूब खुश ज़माल- सुन्दर प्रेयसी; 4. तेग़ ओ सिपर- तलवार और ढाल; 5. तीर ओ सनां- तीर और भाला; 6. खैर- खैरात, दान; 7. बुनियादे देर- मंदिर की नींव; 8. दोज़ख- नर्क; 9. ज़न्नत- स्वर्ग। ...दुनिया में दीनदार1 कहाना भी नाम है पैसा जहाँ के बीच वो क़ायम मुक़ाम है पैसा ही जिस्म-ओ-जान है, पैसा ही काम है पैसे ही का ‘नज़ीर’ ये आदम गुलाम है पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है... लेकिन तबीयत पाई थी फ़क़ीराना सो दौलत इकट्ठी करने से डरते थे और दौलत को मिल बाँट कर खा लेने में यक़ीन रखते थे। इसलिए उन्होंने लिखा कि‒ ...ज़र की जो मुहब्बत तुझे पड़ जाएगी बाबा दुःख इसमें तेरी रूह बहुत पायेगी बाबा हर खाने को हर पीने को तरसायेगी बाबा दौलत जो तेरे यां है, न काम आयेगी बाबा फिर क्या तुझे अल्लाह से मिलवायेगी बाबा... ...दौलत जो तेरे पास है रख याद तू ये बात खा तू भी और अल्लाह की कर राह में खै़रात देने ही से इसके तेरा ऊँचा रहेगा हात और यां भी तेरी गुज़रेगी सौ ऐश से औक़ात और वां भी तुझे सैर ये दिखलायेगी बाबा... ...दाता की तो मुशकिल कोई अटकी नहीं रहती चढ़ती है पहाड़ों के ऊपर नाव सख़ी की और तूने बख़ीली2 से अगर जमा उसे की तो याद ये रख बात कि जब आवेगी सख़्ती ख़ुश्की में तेरी नाव ये डुबवाएगी बाबा... ...गर नेक कहाना है कर इस जाय कुछ एहसान हिन्दू को खिला पूरी मुसलमां को खिला नान खा तू भी इसे शौक़ से और ऐश पै रख ध्यान तू इसको न खावेगा तो ये बात यक़ीं जान इक रोज़ ये ख़न्दी तुझे खा जाएगी बाबा... ...उससे यही बेहतर है तू ही अब इसे खा जा बेटों को रफ़ीक़ों3 को अज़ीज़ों4 को खिला जा 1. दीनदार- धर्मात्मा; 2. बख़ीली- कंजूसी; 3. रफीकों- दुश्मनों; 4. अज़ीज़ों- मित्रों। सब रूबरू1 अपने मए-इशरत2 में उड़ा जा फिर शौक़ से हँसता हुआ जन्नत को चला जा वरना तुझे हर दुःख में ये फँसवायेगी बाबा... ...ये तो न किसी पास रही है न रहेगी जो और से करती रही वो तुझसे करेगी कुछ शक नहीं इसमें जो बढ़ी है सो घटेगी जब तक तू जियेगा तुझे ये चैन न देगी और मरते हुए पर ये ग़ज़ब लायेगी बाबा... ...तू लाख अगर माल के सन्दूक़ भरेगा है ये तो यक़ीं आख़िरश3 इक दिन तू मरेगा फिर बाद तेरे इस पै जो कोई हाथ धरेगा वह नाच मज़ा देखेगा और ऐश करेगा और रूह तेरी क़ब्र में चिल्लाएगी बाबा... ...तू भूत हो छाती पै अगर आन चढ़ेगा तो वां भी तेरे वास्ते आमिल कोई बुलवा शीशे में उतरवा के तुझे देवेगा गड़वा या ख़ूब-सा सुलगा के कोई हाय फ़लीता4 धूनी भी तेरी नाक में दिलवायेगी बाबा... उनके मन में सदा एक लड़ाई चलती थी। कभी सांसारिक विषयों पर लिखते थे जैसे समधिन, चपाती, ककड़ी, दिवाली, होली, तैराकी, बचपन, जवानी, बुढ़ापा, बहार, चाँदनी, बरसात, बरतन आदि तो कभी परलोक यात्रा की तैयारी, दुनिया के तमाशे, आदमी, हज़रत अली, नानकशाह पर लिखते थे। परलोक यात्रा (सफ़रे-आख़िरात) की तैयारी में इन्होंने कहा कि- ...अब जीने को तुम रूख़सत5 दो और मरने को मेहमान करो ख़ैरात करो एहसान करो या पुन्न करो या दान करो या पूरी लड्डू बनवाओ या ख़ासा हलवा नान करो कुछ लुत्फ़ नहीं अब जीने का अब चलने का सामान करो तन सूखा कुबड़ी पीठ हुई घोड़े पर ज़ीन धारो बाबा अब मौत नक़ारा बाज चुका चलने की फ़िक्र करो बाबा... 1. रूबरू- सामने; 2. मए इशरत- राहत या ऐश की मदिरा; 3. आखिरश- आखिर में; 4. फ़लीता- आग का पलीता; 5. रूख़सत- विदाई। ...गर अच्छी करनी नेक अमल1 तुम दुनिया से ले जावोगे तो घर अच्छा सा पावोगे और बैठे के सुख से खाओगे और ऐसी दौलत छोड़के तुम जो खाली हाथों जाओगे फिर कुछ भी नहीं बन आवेगा घबराओगे पछताओगे तन सूखा कुबड़ी पीठ हुई घोड़े पर ज़ीन धारो बाबा अब मौत नक़ारा बाज चुका चलने की फ़िक्र करो बाबा... ...घर-बार रूपै और पैसे में मत तुम दिल को ख़ुरसन्द2 करो या गोर3 बनाओ जंगल में या जमुना पर आनन्द करो मौत आन लताड़ेगी आख़िर कुछ मक्र करो या फन्द करो बस ख़ूब तमाशा देख चुके अब आँखें अपनी बन्द करो तन सूखा कुबड़ी पीठ हुई घोड़े पर ज़ीन धारो बाबा अब मौत नक़ारा बाज चुका चलने की फ़िक्र करो बाबा... इनकी ‘‘बनज़ारा नामा’’ गज़ल बहुत प्रसिद्ध है। उसके कुछ छन्द पेशे-ख़िदमत हैं। ...टुक हिर्स-ओ-हविस को छोड़ मियाँ मत देस-बिदेस फिरे मारा क़ज़्ज़ाक़4 अज़ल5 का लूटे है दिन-रात बजाकर नक़्क़ारा क्या बघिया भैंसा बैल शुतुर क्या गोने-पल्ला6 सर भारा क्या गेहूँ चावल मोठ मटर क्या आग धुवाँ और अंगारा सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा... ...जब चलते-चलते रस्ते में ये गोन7 तेरी रह जावेगी इक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरने आवेगी ये खेप जो तूने लादी है सब हिस्सों में बट जावेगी धी पूत जँवाई पोता क्या बंजारिन पास न आवेगी सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा... ...कुछ काम न आवेगा तेरे ये लाल ज़मर्रद8 सीम-ओ-ज़र9 जब पूँजी राह में बिखरेगी हर आन बनेगी जान ऊपर नौबत-नक़्क़ारे बान निशाँ दौलत हशमत फ़ौजें लश्कर क्या मसनद-तकिया मुल्क मकां क्या चौकी-कुर्सी तख़्त छतर सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा... 1. नेक अमल- सुकर्म; 2. खुरसन्द- प्रसन्न, खुश; 3. गोर- मज़ार, समाधि; 4. क़ज़्ज़ाक- लुटेरा; 5. अज़ल- मौत; 6. गोने पल्ला- शादी ब्याह; 7. गोन- शरीर, बदन; 8. जमर्रद- पन्ना; 9. सीम ओ ज़र- धन दौलत। ...मग़रूर1 न हो तलवारों पर मत फूल भरोसे ढालों के सब पत्ता तोड़ के भागेंगे मुँह देख अज़ल के भालों के क्या डिब्बे मोती-हीरों के क्या ढेर ख़ज़ाने-मालों के क्या बग़चे ताश मुशज्ज़र2 के क्या तख़्ते शाल-दोशालों के सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा... ...जब मर्ग3 फिराकर चाबुक को ये बैल बदन का हाँकेगा कोई ताज उतारेगा तेरा कोई गोन सिये और टाँकेगा हो ढेर अकेला जंगल में, तू ख़ाक लहद4 की फँाकेगा उस जंगल में फिर आह ‘नज़ीर’ इक तिनका आन न झाँकेगा सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा... अब उनकी एक और नज़्म ‘दुनिया धोके की टट्टी है’ के चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं। ...ये पैठ अजब है दुनिया की और क्या-क्या जिन्स इकट्ठी है यां माल किसी का मीठा है और चीज़ किसी की खट्टी है कुछ पकता है कुछ भुनता है पकवान मिठाई पट्ठी है जब देखा खूब तो आख़िर को ना चूल्हा भाड़ ना भट्ठी है गुल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मिट्टी है हम देख चुके इस दुनिया को ये धोके की-सी टट्टी है... ...कोई ताज ख़रीदे हँस-हँसकर कोई तख़्त खड़ा बनवाता है कोई कपड़े रंगे पहने है कोई गुदड़ी ओढ़े जाता है कोई भाई बाप चचा नाना कोई दादा-पोता कहाता है जब देखा खूब तो आख़िर को नै रिश्ता है न नाता है ग़ुल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मिट्टी है हम देख चुके इस दुनिया को ये धोके की-सी टट्टी है... ...कोई बनिया है कोई तेली है कोई बेचे पान तंबोली है कोई सर पर रखकर खींचे है कोई बाँधे फिरता झोली है कहीं गोन ढ़ली है नाजों की कहीं थैला-थैली खोली है जब देखा खूब तो आख़िर को इकदम की बोला ठोली है ग़ुल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मिट्टी है हम देख चुके इस दुनिया को ये धोके की-सी टट्टी है... 1. मगरूर- घमंडी; 2. मुशज्ज़र- फूलदार कपड़ा; 3. मर्ग- मृत्यु, मौत; 4. लहद- कब्र। ...कोई बाल बढ़ाये फिरता है कोई सर को घोंट मुंडाता है कोई कपड़े रँगे पहने है कोई नंगे मुंगे आता है कोई पूजा कथा बखाने है कोई छापा तिलक लगाता है जब देखा खूब तो आख़िर को सब छोड़ अकेला जाता है ग़ुल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मिट्टी है हम देख चुके इस दुनिया को ये धोके की-सी टट्टी है... अब किसका रंग बुरा कहिए और किसका रूप भला कहिए इक दम की पैठ लगी है ये अंबाहे1 मज़ा चर्चा कहिए ये सैर तमाशे देख ‘नज़ीर’ अब जा कहिए बेजा2 कहिए कुछ बात नहीं बन आती है चुपचाप पहेली क्या कहिए ग़ुल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मिट्टी है हम देख चुके इस दुनिया को ये धोके की-सी टट्टी है... उन्होंने जो भी कहा खूब कहा। डॉक्टर फेलन ने उन्हें ‘चॉसर’ और ‘शेक्सपीयर’ के बराबर दर्जा दिया। इस दुनिया की मोहमाया में फंसा आदमी कभी सुखी नहीं होता। अस्ल सुख मोहमाया के त्याग में ही प्राप्त होता है। संतोष का धन ही सबसे बड़ा धन है। फ़क़ीरों की इस सदा को नज़ीर साहब ने अपनी नज़्म ‘‘तवक्कुल’’ में कुछ इस तरह से नवाजा है। ...ले सब्र-ओ-क़नाअत3 साथ मियाँ सब छोड़ ये बातें लोभ भरी जो लोभ करे उस लोभी की नहीं खेती होती जान हरी सन्तोष तवक्कुल4 हिरनों ने जब हिर्स5 की खेती आन चरी फिर देख तमाशे क़ुदरत के और लूट बहारें हरी-भरी जब आशा तिशना दूर हुई और आई गत सन्तोख भरी सब चैन हुए आनन्द हुए बमशंकर बोलो हरी हरी... ...गर हिर्स-ओ-हविस-ओ-लालच की है दौलत तेरे पास धरी तू ख़ाक समझ इस दौलत को क्या सोना रूपा लाल ज़री हाथ आया जब सन्तोख-दरब6 तब सब दौलत पर धूल पड़ी कर ऐश मज़े सन्तोखी बन जय बोल मुरलियावाले की जब आशा तिशना दूर हुई और आई गत सन्तोख भरी सब चैन हुए आनन्द हुए बमशंकर बोलो हरी हरी... 1. अंबाहे- मजमा; 2. बेजा- अनुचित; 3. सब्रो कनाअत- सब्र और संतोष; 4. तवक्कुल- ईश्वर पर भरोसा; 5. हिर्स- लालच, लोभ; 6. संतोख दरब- संतोष का धन। ...ये शब्द बुरा है लालच का इस मीठे को मत खा प्यारे ये शहद नहीं ये ज़हर निरा इस ज़हर उपर मत जा प्यारे जो मक्खी इसमें आन फँसी फिर पंख रहे लिपटा प्यारे सर पटके रोये हाथ मले है लालच बुरी बला प्यारे जब आशा तिशना दूर हुई और आई गत सन्तोख भरी सब चैन हुए आनन्द हुए बमशंकर बोलो हरी हरी... ...गर हिर्स-ओ-हवा के फन्दे में तू अपनी उम्र गँवावेगा ना खाने का फल देखेगा नै पीने का सुख पावेगा इक-दो कपड़े के तार सिवा कुछ साथ न तेरे जावेगा ए लोभी बन्दे लोभ भरे तू मरकर भी पछतावेगा जब आसा तिशना दूर हुई और आई गत सन्तोख भरी... सब चैन हुए आनन्द हुए बमशंकर बोलो हरी हरी... ...है जब तक तुझमें लोभ भरा तू चोर उचक्का तगड़ा है है पेच पुरानी पगड़ी से जो सर पर तेरे पगड़ा है हर आन किसी से क़िस्सा है हर वक़्त किसी से झगड़ा है कुछ मीन नहीं कुछ मेख़ नहीं सब हिर्स-ओ-हविस का झगड़ा है जब आसा तिश्ना दूर हुई और आई गत सन्तोख भरी सब चैन हुए आनन्द हुए बमशंकर बोलो हरी हरी... नज़ीर की इन्हीं सदाओं ने उन्हें सुखन फ़हम से ज्यादा एक संत का रूतबा दिया। उनके मरने पर जनाजे की नमाज़ सुन्नियों ने भी पढ़ी और शियाओं ने भी। हजारों हिन्दू और मुसलमान जनाजे में शामिल हुए। उनके मकान को दरगाह बना कर वहीं मज़ार बनवाई गई जहाँ अब तक सालाना उर्स लगता है। *
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