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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:51 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
शेख क़लन्दर अलीबख़्श ‘जुरअत’, सआदत यार खाँ ‘रंगीं’ शेख क़लन्दर अलीबख़्श ‘जुरअत’ फैज़ाबाद में पले बढ़े। उनकी बड़ी खुशमिज़ाज़ तबीयत थी। मसख़रे पन की उनकी आदत हद से गुजरी हुई थी। खूब नक़लें करते थे और चुटकुले सुनाते थे। इस कारण से ज़नान खानों तथा हरम की बेगमों तक भी पहुँच रहती थी, परदे चिलमन1 भी नहीं रहते थे। घरेलू से सम्बन्ध बन जाते थे। इसलिए हुस्न के दीदार से आंखें सेंकने की आदत सी पड़ गई थी। एक बार अंधे होने का नाटक करके अपनी करनी दिखाने लगे। एक बाँदी यह बात ताड़ गई, उसने तरकीब से इनका भेद खोल दिया। काफी बदगुमानी2 हुई। फिर ये सचमुच में अन्धे हो गये। इनको सितार बजाना भी अच्छा आता था। शुरू में मुहब्बत खाँ के यहाँ मुलाज़िम हुए और बाद में सुलेमान शिकोह के दरबार में मुलाज़मत की। ख़ुद को मीर के बराबर मानते थे और मीर की गज़लों पर गज़लें भी कहीं, पर बात बन न पाई। एक रोज जुरअत ने मुशायरे में एक गज़ल पढ़ी जिसकी काफी तारीफ हुई। मुशायरे में मीर साहब भी मौजूद थे। वाह वाही से जोश में आकर ये मीर साहब के पास जाकर उनसे पूछने लगे कि उनको वह गज़ल कैसी लगी। मीर साहब हाँ हूँ करके टाल गये। ये तक़रार करने लगे तो मीर ने कहा कि ‘‘तुम शेर तो कहना नहीं जानते हो, अपनी चूमा चाटी कह लिया करो।’’ जुरअत की शोखी छिछोरेपन की हद तक बढ़ी हुई थी, भाण्डों से भी उलझ पड़ते थे। करेला भाण्ड जो अपने हुनर में माहिर था को नवाब शुजाउद्दौला दिल्ली से लखनऊ ले आये थे। एक रोज उसने दरबार में ही जुरअत को नीचा दिखाया। वह अन्धे का रूप धरकर एक हाथ में लकड़ी लेकर दूसरे हाथ से टटोलता हुआ यहाँ वहाँ फिरने लगा और ये शेर पढ़ने लगा‒ सनम सुनते हैं तेरी भी कमर है। कहाँ है? किस तरफ़ को है? किधर है।। 1. चिलमन- पर्दा; 2. बदगुमानी- बदनामी। इस नकल से चिढ़कर जुरअत ने करेला भाण्ड के लिए हिजो कही जिसका एक मिसरा है कि- अगला झूले, बगला झूले, सावन मास करेला फूले। करेला भाण्ड ने जब हिजो सुनी तो उसने अपने साथी को ज़च्चा बनाया और उस पर भूत का असर बताकर झाड़-फूँक करते हुए कहने लगा - ‘‘जुरअत है तो बाहर निकल’’। उस समय के दरबारों में ऐसी चुहलबाजियाँ बड़ी आम थी और खुद नवाब, और बादशाह तक उनके मजे लिया करते थे। इंशा तथा जुरअत भी आपस में ऐसी चुहलबाजी कर लेते थे। एक बार जुरअत एक मिसरा गुनगुना रहे थे। उस जुल्फ़पै फ़ब्ती शबे-दैज़़ूर1 की सूझी। दूसरा मिसरा लगता न था! इतने में इंशा आ गये और उन्होंने मिसरा सुना तो तुरंत कहा कि - अन्धे को अन्धेरे में बड़ी दूर की सूझी। जुरअत बिगड़ते भी थोड़ा जल्दी थे। एक बार नवाब मुहब्बत खां के मुख़्तार ने जुरअत को जाड़े की पोशाक देने में देर कर दी। जुरअत ने तुरंत उस पर यह हिजो कह दी‒ मुख़्तारी2 पै आप कीजियेगा न घमण्ड। कहते हैं जिसे नौकरी है बेरे-बेअरण्ड3।। सरमाई4 दिलाइये हमारी वर्ना। तुम खाओगे गालियाँ जो हम खायेंगे ठण्ड।। जुरअत ने अपनी गज़लों और शेरों में हुस्नो-इश्क को बहुत शोखी और बेबाकी से पेश किया है और एक हद तक उन पर उरियानी का भी असर है। चंद नमूने पेशे-खिदमत हैं‒ लग जा गले से बात अब ऐ नाजनीं ! नहीं। है, है, खुदा के वास्ते मत कर नहीं नहीं।। क्या रूक के वोह कहे है जो टुक उससे लग चलूँ। बस बस परे हो, शौक यह अपने तई नहीं।। फुरसत5 जो पा के कहिये कभू दर्दे-दिल सो हाय। वह बदगुमाँ कहे है कि हमको यकीं नहीं।। आतिश सी फुँक रही है मेरे तन बदन में आह। जबसे रूबरू वो है रूखे-आतिशी6 नहीं।। 1. शबे दैजूर - काली अँधेरी रात; 2. मुख़्तारी- राज की नौकरी; 3. बेरे बेअरण्ड- बेकार, फिजूल; 4. सरमाई- जाड़े में पहनने के कपड़े; 5. फुरसत- खाली समय; 6. रूखे आतिशी- आग सा दमदमाता चेहरा। सुनता है कौन ? किससे कहूँ, दर्दे-बेकसी1। हमदम नहीं है कोई मेरा हमनशीं नहीं।। याद आता है तो क्या फिरता हूँ घबराया हुआ। चंपई2 रंग उसका और जोबन वह गदराया हुआ।। इस ढ़ब से किया कीजिये मुलाकात कहीं और। दिन को तो मिलो हमसे, रहो रात कहीं और।। खुदा जाने करेगा चाक किस किस के गरेबाँ को। अदा से उनका चलने में उठा लेना यह दामाँ को। चाह की चितवन3 मेरी, आँख उस की शरमाई हुई। ताड़ ली मज़लिस में सबने सख़्त रूसवाई हुई।। मुल्के-दिल मेरा सदा सुनसान ही रहता है आह। सब नगर बसते है यारब, इस नगर को क्या हुआ।। यारों कहो दरबार न कुछ कान में अपने। क्या जाने कि हम बैठे हैं किस ध्यान में अपने।। उर्दू में अन्दाज़, अदा और मुआमले की शायरी जुरअत से शुरू होती है। शेरों और गज़लों में अश्लीलता की शुरुआत भी जुरअत से ही हुई। जिन शेरों में हविस और वासना झलकती हो उन्हें ‘बुलहविस’ कहते हैं। जैसे नीचे लिखे आतिश, ख़लील और सबा के शेर - बोसे-बाज़ी से मेरी होती है ईजा4 उनको। मुँह छुपाते हैं जो होते हैं मुँहासे पैदा।। लबे-शीरी की तिरी चाशनी मुमकिन न हुई। रस से शक्कर हुई, शक्कर से बतासे पैदा।। (आतिश) वस्ल की शब पलंग के ऊपर। मिस्ल5 चीते के वोह मचलते हैं।। संदल सी वोह कलाइयाँ अपने गले में हों। हथफेरियाँ नसीब हो चन्दन सी रान पर ।। रूप पर है यार का बागे-जवानी देखिये। क्या शगूफा6 लाए सीने का उभार अब की बरस।। 1. दर्दे बेकसी- कष्ट का दुख, दर्द; 2. चंपई- चंपा के फूल सा; 3. चितवन- दृष्टि, नज़र; 4. ईजा- कष्ट; 5. मिस्ल- तरह, के समान; 6. शगूफा- नया अचरज दिखाना। पयामे-वस्ल1 पर वोह मेरी बोटियाँ उड़ाएँ। दाँतों से दे जवाब, जवाबे-सवाल का।। (सबा) जो शेर ज़लील और कमीन विचारों से ओतप्रोत होते हैं जैसे रिन्द के नीचे लिखे दो शेर वे ‘इब्तज़ाल’ कहलाते हैं। क्यों कर निभेगी हम से मुलाकात आपकी। वल्लाह क्या ज़लील2 है, औकात आपकी।। हरजाईपन की आपके कुछ इन्तिहा नहीं। कटता है दिन कहीं तो रात और कहीं।। (रिन्द) ‘मुआमलात बंदी’ के शेरों में आशिक और माशूक के गुप्त संबंधों का जाहिर बयान होता है। इस तरह के शेरों के नमूने हम ऊपर जुरअत की शायरी में देख चुके हैं। ‘ईहाम गोई’ में ऐसे शब्द शेरों में चुनकर रखे जाते हैं, जिनके दो अर्थ निकलते हों जैसे‒ दुख़्तरे-दर्जी3 का ‘सीना’ देखकर। जी में आता है कि ‘मलमल’ दीजिए।। ‘झुमके’ पहनो न साहब ‘झूमके’। ‘झुमके’ ले लेंगे बोसा ‘झूमके’।। इस तरह की शायरी लखनऊ में उस दौर में बहुत फल फूल रही थी और अय्याश4 नवाबों का इस को पूरा सहारा मिलता था। ऐसे ही एक और शायर हुए जिनका नाम था सआदत यार खाँ ‘रंगीं’। वे सुलेमान शिकोह के यहाँ मुलाज़िम थे और इंशा के दोस्त थे। अपने नाम ही के अनुसार बड़े रंगीन मिजाज़ थे। इन्होंने ‘ईजादेरंगीं’ नाम से एक हविस5 से भरी मसनवी लिखी थी और इनके शेर भी अश्लील होते थे। नमूने के लिये एक शेर पेश है- चली वो दामन उठाती हुई। कड़े को कड़े से बज़ाती हुई।। उन्होंने ‘रेख़्ती’ की इजाद की। इसमें आशिक तो पुरुष होता है पर माशूक बीस प्रतिशत औरत तथा अस्सी फीसदी छोकरा होता है। माशूक अक़्सर बाज़ारू किस्म का होता है और बेवफ़ा, हरज़ाई, शोख, बदज़बान, ज़ालिम और उद्दण्ड होता है। रंगीन ने रेख़्ती की पर अपना मुँह काला करके। इंशा ने भी रेख़्ती में एक दीवान लिखा था। परन्तु रंगीन इस मामले में उनसे आगे निकल गये। नमूने पेशे-खिदमत हैं। 1. पयामे वस्ल- मिलन का संदेश; 2. ज़लील- ओछी, ज़लालत से भरी; 3. दुख़्तरे दर्ज़ी- दर्ज़ी की लड़की; 4. अय्याश- व्यसनी; 5. हविस- वासना। या रब ! शबे-जुदाई1 तो हरगिज़ न हो नसीब । बन्दी को यूँ जो चाहे तो कोल्हू में पेल डाल।। बाज़ी न कर नसीहते-बेजां2 जले है दिल। है आग सी जो सीने में उसको कुड़ेल3 डाल ।। छुपके मिल मुझसे दुगाना4, तेरी वारी जाऊँ। मुफ़्त में ऐसा न हो मैं कहीं मारी जाऊँ।। ये मुनासिब नहीं ‘रंगी’ कि अपने घर तक। शहर में करती हुई नाला ओ-जारी5 जाऊँ।। जरा घर को ‘रंगी’ के तहक़ीक6 कर लो। हियाँ से है के पैसे डोली कहारों।। इलाही करे निकले तालू में गिलटी7। यह कैसी ज़बाँ तुमने खोली कहारों।। * 1. शबे जुदाई- जुदाई की रात; 2. नसीहते बेजा- अनुचित, बेतुकी सलाह; 3. कुड़ेल- निकाल देना; 4. दुगाना- दो जुड़े हुए फूलों की तरह; 5. नाला ओ जारी- रोते चिल्लाते बिसूरते हुए; 6. तहकीक- जानकारी; 7. गिलटी- गंदी गाँठ।
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