ख्वाजा मीर ‘दर्द’, ‘कायम’ चाँद पुरी, पीर मुहम्मद ‘असर’, अब्दुल हई ‘ताबां’, मीर गुलाम हसन ‘हसन’ ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ देहलवी शायर थे। उन्होंने न किसी के कभी कसीदे पढ़े और न कभी किसी पर हिजो कही। वह गूढ़ बातें भी बड़ी आसानी से कह लेते थे। एक बानगी1 देखिए‒ काम याँ जिसने जो कि ठहराया, जब तलक होवे आप ही काम आया। बेतरह कुछ उलझ गया था दिल, बेवफाई ने तेरे सुलझाया।। आँसू कब तक कोई पिये जावे, इस मुहब्बत ने जी बहुत खाया। दुश्मनी में सुना न होवेगा जो, हमें दोस्ती ने वो सिखलाया।। आदमी की ताबो-ताक़त के बारे में उन्होंने फ़रमाया कि - बावजूद के परो-बाल2 न थे आदम के। वाँ ये पहुँचा कि फ़रिश्ते का भी मक़दूर3 न था।। इश्क़ के बाबत एक गज़ल यों लिखी कि - अपना तो नहीं यार मैं कुछ, यार हूँ तेरा। तू जिसकी तरफ़ होवे, तरफ़दार हूँ तेरा।। कुढ़ने पै मेरे जी न कुढ़ा, तेरी बला से। अपना तो नहीं ग़म मुझे, ग़मख़्वार4 हूँ तेरा।। तू चाहे न चाहे मुझे, कुछ काम नहीं है। आजाद हूँ इससे भी, गिरफ़्तार हूँ तेरा।। तू होवे जहाँ मुझको भी, होना वहीं लाज़िम5। तू गुल है मेरी जाँ, तो मैं ख़ार6 हूँ तेरा।। है इश्क़ से मेरे ही, तेरे हुस्न का शुहरा7। मैं कुछ नहीं पर, गर्मिये-बाज़ार8 हूँ तेरा।। 1. बानगी- नमूना; 2. परो बाल- पर तथा बाल; 3. मक़दूर- सामर्थ्य, मजाल; 4. ग़मख़्वार- हमदर्द ; 5. लाज़िम- उपयुक्त; 6. ख़ार- काँटा; 7. शुहरा - प्रसिद्धि, ख्याति; 8. गर्मिये बाज़ार- बाजार की सरगर्मी, रौनक। ख़ुदा के बारे में उन्होंने कहा कि - तुक्त1 ही यहाँ जलवा-फ़रमा2 न देखा। बराबर है दुनिया को देखा न देखा।। और माशूक़ को इक हिदायत यूं दी कि - हंस कब्र पर मेरी खिलखिलाकर। यह फूल चढ़ा कभी तो आकर ।। एक और उम्दा शेर पेश करता हूँ उनका, और फिर दूसरी बातें, कभू रोना, कभू हँसना, कभू हैरान हो रहना। मुहब्बत क्या भले चंगे को दीवाना बनाती है।। ‘क़ायम’ चाँदपुरी साहब दिल्ली के शायर थे। इनकी तुलना मीर और दर्द से की जाती है। वे अधेड़ शायर होने के कारण थोड़े ज्यादह संजीदा थे और इस मायने में असर और ताबाँ से जुदा थे। जवानी को सभी शायर बुढ़ापे में याद करके सर्द आहें भरते हैं। इस मौजूँ पर क़ायम साहब का इक शेर पेश है- पियो शराब जवानों! कि मौसमे-गुल है। हमें भी याद वो अहदे-शबाब3 आता है।। इश्क़ में होने वाले दर्दे-दिल के बारे में वे फरमाते हैं कि - दर्दे-दिल कुछ कहा नहीं जाता, आह चुप भी रहा नहीं जाता। इश्क़ के बारे में उनका सोचना था कि‒ क़ायम क़दम सम्भाल के रख कू-ए-इश्क़4 में। ये राह बेतरह है, मिरी जान! देखना।। ख़ारजी शायरी का कुछ असर क़ायम साहब पर भी लगता है। इस शेर को देखिये‒ सीखे हो किससे सच कहो प्यारे ये चाल ढ़ाल। तुम इक तरफ़ चलो हो तो तलवार इक तरफ़।। किस बात पर तेरी करूं मैं एतबार5 हाय ! इकरार इक तरफ़ है तो इन्कार इक तरफ़।। इनके दो शेर और लिखने के बाद हम आगे सफ़र करते हैं। हम से मिले न आप तो हम भी न मर गये। कहने को रह गया ये सुख़न, दिन गुज़र गये। एक जगह पै नहीं मुझे आराम कहीं। है अजब हाल मेरा, सुबह कहीं शाम कहीं।। 1. तुक्त - तुझे ही; 2. जलवा फ़रमा - प्रत्यक्ष; 3. अहदे शबाब- शबाब का जमाना (जवानी); 4. कू ए इश्क़- इश्क की जगह; 5. एतबार- यकीन। ख़्वाज़ा पीर मुहम्मद ‘असर’ ‘दर्द’ के छोटे भाई थे। ख़यालों से वे फ़कीर थे और ख़्बाबो-ख़्याल मसनवी उनकी सबसे बेहतर कृति है। उनकी कुछ शेरो शायरी जो यादगार है पेशे-खिदमत है। आह सारा है यह जहान1 ग़लत, दोस्त का है यां गुमान2 ग़लत। जो किसी का कभू न यार हुआ, वही किस्मत से यार अपना है।। बेवफ़ाई वोह गो हज़ार करे, याँ क़ा ही शिआर3 अपना है।। कुछ न पूछो निपट ही मुश्किल है, और के हाथ में मेरा दिल है।। शमा परवाने को जलाती है, साथ पर उसके आप जलती है। जीते जी तक बहसरतो4 अफ़सोस, सर को धुनती है हाथ मलती है।। तुझ सिवा कोई जलवागार ही नहीं, पर हमें आह कुछ ख़बर ही नहीं। दर्दे-दिल छोड़ जाईये सो कहाँ ? अपने बाहर तो याँ गुज़र ही नहीं।। तेरी उम्मीद छुट नहीं सकती, तेरे दर के सिवा दर ही नहीं।। हाल मेरा न पूछिये मुझसे, बात मेरी तो मोतबर5 ही नहीं।। ये असर ही थे जिन्होंने कहा कि - क्या कहूँ दिल की मैं परेशानी, दिल कहीं मैं कहीं ध्यान कहीं। और यह भी कहा कि - पहले सौ बार इधर उधर देखा, तब तुझे डर के इक नज़र देखा। और यह भी फरमाया कि - राह पर उनको लगा लायें तो हैं बातों में। और खुल जायेंगे दो चार मुलाकातों में।। और फिर फरमाते हैं कि - जब भी तेरा ख़्याल लाता हूँ, सारी बातों को भूल जाता हूँ। असर की मसनवी ‘मिसरा-उल-अला’ के चन्द अशआर पेश हैं - हाल पूछा तो खै़र रोने लगे, उल्टे रफ़ीक6 होने लगे। बिन कहे आप ही आप बकता है, बात पूछो तो मुँह को तकता है। एक तो उसके जोर ने मारा, और यारों के गौर ने मारा। आहयारब ! किधर निकल जाऊँ, दोस्त दुश्मन को मुँह न दिखलाऊँ। नहीं आती है इंतजार से नींद, उड़ गई ख़याले-यार से नींद। मुन्तज़िर7 तेरा बस कि रहता हूँ, कौन है ? हर सदा पै कहता हूँ। असर के बाद अब अब्दुलहई ताबाँ की बात करते हैं। ये हज़रत इतने हसीन थे कि इन्हें लोग यूसुफ़ेसानी1 कहते थे। मीर, सौदा जैसे मशहूर शायर भी इन पर मरते थे। उस समय लौंडेबाजी लखनऊ और दिल्ली के जीवन में घर कर गई थी। इसका हाल यह था कि ख़ुद बादशाह ने मान-मर्यादा भूलकर अपना जुलूस ताबाँ के मकान के सामने से गुजारा और उसे जी भरकर देखने की गरज़ से हाथी को रुकवाया ओर पानी पी कर आगे बढ़े। ‘ताबाँ’ ख़ुद भी ‘सुलेमान’ नाम के एक छोकरे को दिल दे बैठे। उसके न मिलने के मलाल में ताबाँ ने लिखा है कि‒ सुलेमाँ ! क्या हुआ गर तू नज़र आता नहीं मुझको। मेरी आँखों की पुतली में तेरी तस्वीर फिरती है।। उनके कुछ शेर और एक गजल पेशे नज़र है‒ मैं दिल खोल (ताबाँ)! कहाँ जाके रोऊँ कि दोनों जहाँ में फराग़त2 नहीं है। बयां क्या करूँ नातवानी3 मैं अपनी, मुझे बात करने की ताकत नहीं है।। किससे फरियाद करूँ मैं कि वो हरज़ाई4 है। आह इस बात में मेरी भी तो रूसवाई है।। नहीं दोस्त अपना, यार अपना, मेहरबाँ अपना। सुनाऊँ किसको ग़म अपना, अलम अपना, बयाँ अपना।। और गज़ल है कि‒ रहता हूँ ख़ाको-खूँ5 में सदा लोटता हुआ। मेरे ग़रीब दिल को इलाही यह क्या हुआ।। मैंने अपने दिल को ग़ुंचये-तस्वीर6 की तरह। या रब ! कभी खुशी से न देखा खिला हुआ।। नासेह7 ! अबस8 नसीहतें बेहूदा तू न कर। मुमकिन नहीं कि छूट सके दिल लगा हुआ।। जफ़ा से अपनी पशेमाँ न हो, हुआ सो हुआ। तेरी बला से मेरे जी पै जो हुआ सो हुआ।। सबब जो मेरी शहादत9 का यार से पूछा। कहा कि-अब तो उसे गाड़ दो हुआ सो हुआ।। न पाई ख़ाक भी ‘ताबाँ’ की हमने फिर ज़ालिम। वोह एकदम ही तेरे रूबरू हुआ सो हुआ।। 1. युसूफेसानी- युसूफ सा हसीन; 2. फरागत- छुटकारा, मुक्ति; 3. नातवानी- कमजोरी, नाजुकी; 4. हरजाई- बेवफा; 5. खाको खूँ- मिट्टी तथा खून; 6. गुंचये तस्वीर- कली की तस्वीर; 7. नासेह- नसीहत देने वाला; 8. अबस- फिजूल, बेकार; 9. शहादत- बलिदान। 1. जहान- विश्व, दुनिया; 2. गुमान- भ्रम; 3. शिआर- चलन, तरीका; 4. बहसरतो- हसरत और; 5. मोतबर- विश्वास योग्य; 6. रफीक- दोस्त, हमराही; 7. मुन्तजिर - प्रतीक्षा में।मीर ग़ुलाम हसन ‘हसन’ दिल्ली के थे और नवाब आसिफ़ुद्दौला के समय लखनऊ आये। इन्होंने मसनवी लिखने में कमाल हासिल किया। उनकी ‘सहरूल बयान’ और ‘मीर हसन’ नाम की दो मसनवियाँ लाजवाब हैं। मसनवी में किसी कहानी का शेरो-शायरी में बयान होता है। हसन की मसनवी भाषा के हिसाब से सरल हुआ करती थी। एक शहज़ादे को एक परी ने क़ैद कर लिया। वह शहज़ादा एक शहज़ादी से इश्क़ करता था। उस शहज़ादी ने अपनी सहेली से यह सब बताया तो वह जोगन बन कर शहज़ादे की खोज में निकली। इस मंजर का नज़ारा पेशे-ख़िदमत है। न सुध-बुध की ली और न मंगल की ली। निकल शहर से राह जंगल की ली।। लिये बीन फिरती थी सहरानवर्द1। तन चाक-चाक और रूख ज़र्द-ज़र्द।। बिछा मिरग छाले को और लेकर के बीन। दुजानू2 संभल के वोह जुहराज़बीन3।। किदार बजाने लगी शौक़ में। लगी दस्तोपा4 मारने शौक में।। बँधा उस जगह इस तरह का समाँ। सबा भी लगी रक़्स करने वहाँ।। हसन हिज़ो भी अच्छी लिखते थे। नमूने के अशआर पेश हैं‒ हमने जब से लिया है याँ इक घर। दो रुपये के तईं किराये पर ।। पहले उस घर की खूबी यह पाई। आते ही घर में मुझको तप आई।। उनकी एक गज़ल के चन्द शेर भी पेश हैं - वह जब तक कि जुल्फें संवारा किया। खड़ा उसपै मैं जान वारा किया।। अभी दिल को लेकर गया मेरे आह। वोह चलता रहा मैं पुकारा किया।। ख़ुमारे-मुहब्बत5 से बाज़ी सदा। वोह जीता किया और मैं हारा किया।। किया कत्ल और जान बख़्शी भी की। हसन उसने अहसाँ दुबारा किया।। 1. सहरानवर्द- रेगिस्तान की खाक छानना; 2. दुजानू- घुटनों के बल; 3. जुहराज़बीन- चन्द्रमुखी; 4. दस्तोपा- हाथ/पाँव; 5. ख़र्मारे मोहब्बत- इश्क का नशा।