औरंगजेब खान ‘कतील’ शिफ़ाई कतील ‘शिफ़ाई’ का जन्म 24 दिसम्बर 1919 में तहसील हरीपुर जिला हज़ारा (पाकिस्तान) में हुआ। आप न केवल शायर हैं बल्कि पहुँचे हुए गीतकार तथा गायक भी हैं। आपने शुरूआती तालीम इस्लामिया मिडिल स्कूल, रावलपिंडी से हासिल की लेकिन पारिवारिक मज़बूरियों के चलते आपको पढ़ाई छोड़ कर अनेक प्रकार के व्यवसाय तथा नौकरियाँ करनी पड़ीं। पहले आपने कहानियाँ लिखने पर ध्यान दिया लेकिन बाद में नज्में लिखने लगे। शुरू में हज़रत मुहम्मद की शान में एक नाअत लिखी जिसे प्रशंसा हासिल हुई। इससे नज़्म लिखने का सिलसिला शुरू हुआ परन्तु वालिद और ताऊ के असमय देहान्त होने से इस काम को झटका लगा। जब तक हरीपुर में रहे जी बहलाने के लिए शायरी करते रहे और फिर रावलपिंडी आ गये। यहाँ पर अहमद नदीम कासमी साहब से आपने खतो-किताबात के जरिये इस्लाह लेनी शुरू की और उनकी सलाह के अनुसार उर्दू शायरी की प्रगतिशील और आधुनिक शैली में प्रयोगात्मक शायरी व नज़्म-गोई करने लगे। रावलपिंडी से लाहौर आने पर आपने मशहूर मासिक पत्रिका, ‘अदबे-लतीफ़’ के सम्पादन का काम किया। यहीं पर आप बतौर शायर कामयाब हुये। शिफ़ाई साहब पठान थे और अपनी गर्दिशों के दिनों में आपने खेल के सामान से लेकर लुंगियाँ और कुल्ले बेचने तक का व्यापार किया तथा बस कम्पनियों में बुकिंग क्लर्क से लेकर चुंगी खाने में मुुहर्रिरी तक का काम किया। आप की शख्सियत ठेठ पंजाबी किस्म की थी लेकिन पहनावा अंग्रेजदां था। इन सबके साथ आपकी शायरी का कोई मेल नज़र नहीं आता था। इनके शायरी के मूड में आने का शगल भी जोरदार था। आप सुबह चार बजे उठ कर पहले लंगर लंगोट कस कर तेल मालिश करते और फिर डंड पेलते, फिर लिखने हेतु मेज पर बैठते। लेकिन उनकी शायरी में फूलों की तरह महक, किसी हसीना की कमर की तरह लोच तथा झरनों की कल-कल सा संगीत नज़र आता है। आप पहले तो अपनी शायरी में वो बात न ला पाये जो बात एक अनुभवी इश्क़िया शायर में अमूमन पाई जाती है लेकिन ‘चन्द्रकान्ता’ नामक एक फिल्मी नायिका के साथ प्रेम में असफ़ल रहने के बाद आपकी शायरी में निखार आ गया। पहले तो वे परम्परागत गज़लें लिखा करते थे परन्तु बाद में उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह हक़ीक़त के बहुत निकट था। आपने अपना तख़ल्लुस ‘शिफा’ कानपुरी नाम के एक शायर पर रखा जिनसे आपने बाकायदा इस्लाह हासिल की थी। चन्द्रकान्ता के साथ आपका प्रेम केवल डेढ़ वर्ष ही चल सका और उसका अन्त बड़ा नाटकीय और आपके लिये दुखदाई रहा लेकिन वह आपकी शायरी के लिए वरदान बन गया। असल में चन्द्रकान्ता के प्रकरण ने आपको पूरा-शायर बना दिया। चन्द्रकान्ता जैसी नायिकायें अनेक मजबूरियों के चलते अपने नारीत्व की गरिमा खो देती हैं और खोती रहती हैं। तो क्या उनको इस बात की टीस मन में नहीं रहती? क्या उनकी स्त्रियोचित भावनाएं मर जाती हैं? इस विषय पर आपने कई नज़्में लिखी जैसे ‘रास्ते का फूल’, ‘हरजाई’, ‘ऐक्ट्रेस’, ‘शमअ-ए-अंजुमन’, ‘एल्बम’ आदि। इनमें से ‘शम्अ-ए-अंजुमन’ नाम की नज़्म पेशे खिदमत है- मैं जिंदगी की हर-इक सांस को टटोल चुकी। मैं लाख बार मुहब्बत के भेद खोल चुकी।। मैं अपने आपको तनहाईयों में तोल चुकी। मैं जल्वतों1 में सितारों के बोल बोल चुकी।। -मगर कोई भी न माना। वफ़ा के दाम2 बिछाए गये करीने3 से। मगर किसी ने भी रोका न मुझको जीने से।। किसी ने जाम चुराए हैं मेरे सीने से। किसी ने इत्र निचोड़ा मेरे पसीने से।। -किसी को गैर न जाना। मेरी नज़र की गिरह खुल गई तो कुछ भी न था। जो बाजुओं में कहीं तुल गई तो कुछ भी न था।। मेरे लबों से शफ़क4 धुल गई तो कुछ भी न था। जवाँ रही, सो रही, घुल गई तो कुछ भी न था।। -कि लुट चुका था ख़ज़ाना। रही न साँस में ख़ुशबू तो भाग5 फूट गये। गया शबाब तो अपने पराए छूट गये।। कोई तो छोड़ गये कोई मुझको लूट गये। महल गिरे सो गिरे, झोंपड़े भी टूट गये।। -रहा न कोई ठिकाना। 1. जल्वतों- दिखाई देना; 2. दाम- जाल; 3. करीने - ढंग; 4. शफ़क़- बादलों के किनारों पर दिखने वाली लाली 5. भाग - भाग्य। इस विषय पर आपके द्वारा लिखी गई दूसरी नज़्म है ‘रास्ते का फूल’ जिसके चन्द अशआर पेश हैं- निचोड़ लो मेरे जवाँ लबों का रस निचोड़ लो। मेरे उदास उदास आरिज़ों1 के फूल तोड़ लो।। नफ़स-नफ़स2 में ख़ुशबुओं के जाल बुन रही हूँ मैं। नज़र-नज़र से जुगनुओं के गीत चुन रहीं हूँ मैं।। मेरी जबीं पे रक़्स कर रही हैं बे-हिजाबियाँ3। छलक रही हैं मेरी बात-बात में गुलाबियाँ4।। लपक रही हैं मस्तियाँ बदन की हर उठान से। लचक रहे हैं अबरूओं के ख़म 5 अजीब शान से।। ये वक़्त रायगाँ 6 नहीं हवस का नख़्ल7 सींच लो। मेरा गुदाज़ जिस्म अपने बाज़ुओं में भींच लो।। फ़रेब खा रही थी मैं, फ़रेब खा रही हूँ मैं। अभी तक अपनी हसरतों को आज़मा रही हूँ मैं।। मज़ाक़ सा बनी हुई हूँ क़ायनात के लिए। पुकारता है हर कोई बस एक रात के लिए।। मैं सोचती हूँ बेबसी का कुछ तो हक़ अदा करूं। ये रात भर की भीख आओ तुम को भी अता करूं।। निचोड़ लो मेरे जवाँ लबों का रस निचोड़ लो। मेरे उदास-उदास आरिज़ों के फूल तोड़ लो।। आपने कई और विषयों पर भी नज्में लिखीं जैसे ‘औरत’, ‘बाँझ’, ‘राख’, ‘लुढ़कता पत्थर’, ‘रहगुज़र’ इत्यादि। ‘औरत’ नाम की नज़्म काफी खूबसूरत बन पड़ी है। इसके चन्द अशआर पेश हैं। 1.आरिज़ों- गालों, कपोलों; 2. नफ़स नफ़स- हर सांस; 3. बे हिजाबियाँ- बेपर्दगियाँ 4. गुलाबियाँ- फूलों की गंध; 5. अबरूओं के खम- भवों के बल; 6. वक्त रायगाँ-व्यर्थ समय, बेकार समय; 7. नख़्ल-पेड़। जब कभी चाँद घटाओं से घिरा होता है मैं तेरे काकुलो-रूखसार1 में खो जाता हूँ जब ख़यालों में उभरती है अबाबील2 कोई मैं तेरी याद में बैचेन सा हो जाता हूँ जब कभी आँच सितारों की सताती है मुझे तेरी यादों की खुनक3 सेज पे सो जाता हूँ जब कहीं दूर तसव्वुर में निकल जाना हो मैं तेरी ज़ुल्फ़ में कुछ अश्क़ पिरो जाता हूँ............... ......तूं कि ज़रकार4 झरोके में सजी बैठी है तुझको रूसवा सहरो-शाम5 किया जाएगा तेरे जल्वों की तमाजत6 में नहा लेने पर तेरे माहौल को बदनाम किया जायेगा खल्वते-ख़ास7 में होठों की सुबूही8 पीकर सुबह होते ही तुझे आम किया जायेगा ख़नख़नाती हुई जेबों के सुनाकर नग़्मे तेरे पिन्दार9 को नीलाम किया जायेगा यह एक बड़ी सशक्त लेकिन बहुत लम्बी नज़्म है और इसमें औरत की शख्सियत को शानदार तरीके से उकेरा गया है। आपकी ‘राख’ नाम की एक नज़्म पेशे-खिदमत है- वही खिरामे-नाज़10 है तो बाँकपन कहाँ गया? लबों पे जो महक रहा था, वो चमन कहाँ गया? -मुझे बना रही है तू ! वही हैं गेसुओं के ख़म तो ये गुबार किसलिए? बुझी-बुझी-सी ख़ुशबुओं में इन्तिशार11 किसलिए ? -फ़रेब खा रही है तू ! अगर वही है सादगी तो जिस्म क्यों निढ़ाल है ? रोआँ-रोआँ है मुज़्महिल12, उदास बाल-बाल है। -जिन्हें छुपा रही है तू ! अगर वही ग़रूर है तो ये झुकी निगाह क्यों ? लबों की जुंबिशों में ये रूकी-रूकी-सी आह क्यों ? -कहाँ से आ रही है तू ! 1. काकुलो रूखसार- बालों की लटें और कपोल; 2. अबाबील- पंछी; 3. खुनक- ठंडी; 4. ज़रकार- सोने से सजे; 5. सहरो शाम- सुबह शाम; 6. तमाजत- गर्मी; 7. खल्वते ख़ास- अत्यंत एकांत; 8. सुबूही- शराब; 9. पिन्दार- आत्मसम्मान; 10. खिरामे नाज़- इठला कर चलना; 11. इन्तिशार- बिखराव; 12. मुज़्महिल- कमज़ोर, दुखी। तेरा जमाले-जर-परस्त1 कुछ तो काम कर गया ! तेरा ग़रूर बिक गया, मेरा ख़ुलूस2 मर गया ! -किसे मना रही है तू ! नज़्मों, गज़लों के अलावा आपने ढेर सारे नग्मों की भी रचना की थी। पाकिस्तान की पहली फ़िल्म ‘तेरी-याद’ से आपने नग्म़ा-निगारी का सफ़र आरंभ किया और ढाई हज़ार से भी ज्यादा नग्मे लिख डाले। उनके इस प्रयास को नवाज़ा गया पाकिस्तान सरकार द्वारा ‘नेशनल फिल्म अवार्ड’ से। दूसरी संस्थाओं की तरफ़ से भी काफी इनाम इकराम और तमगे हासिल हुए। आपने कई खूबसूरत गजलें लिखीं जिनको हिन्दुस्तान के गायकों द्वारा गाया गया और उनके इन गजलों से सजे कई एल्बम बहुत सफल भी रहे। ऐसी ही चन्द गज़लें पेशे-खिदमत हैं जो आपने गाहे-बगाहे सुनी होंगी और आप ये सोचते भी होंगे कि ये गज़लें या तो जगजीत-चित्रा की है, पंकज उधास जी की हैं या फिर गुलाम-अली साहब की। कितने आश्चर्य की बात है यह, लेकिन व्यावसायिकता का सही सच होता है। काम किसका और नाम किसका! दिल को ग़मे-हयात गवारा3 है इन दिनों। पहले जो दर्द था वही चारा4 है इन दिनों।। हर सैले अश्क़5 साहिले-तस्कीं6 है आजकल। दरिया की मौज-मौज किनारा है इन दिनों।। ये दिल, जरासा दिल तेरी यादों में खो गया। जर्रे को आँधियों का सहारा है इन दिनों।। तुम आ सको तो शब को बढ़ा दूं कुछ और भी। अपने कहे में सुबह का तारा है इन दिनों।। यह गज़ल चित्रा-सिंह-जगजीत सिंह की गाई गजलों के एक अल्बम में शामिल है। ऐसी ही एक और गज़ल पेश है- तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते। जो वाबस्ता7 हुए तुमसे वो अफ़साने कहाँ जाते।। निकल कर दैरो-काबा8 से अगर मिलता न मैख़ाना। तो ठुकराए हुए इन्साँ खुदा जाने कहाँ जाते।। तुम्हारी बेरूखी ने लाज रख ली बादा-ख़ाने9 की। तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते।। 1. जमाले जर परस्त-बिकाऊ सौन्दर्य; 2. खुलूस- प्यार; 3. गवारा- मनभाता; 4. चारा- इलाज; 5. सैले अश्क़- आंसुओं का बहाव; 6. साहिले तस्कीं- संतुष्टि का किनारा; 7. वाबस्ता- संबंधित; 8. दैरो काबा- मंदिर व काबा; 9. बादा ख़ाने- शराब खाने। चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी। वगर्ना हम जमाने भर को समझाने कहाँ जाते।। क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता। तो फिर अपने-पराये हमसे पहचाने कहाँ जाते।। यह गज़ल भी चित्रा सिंह के द्वारा गाई गई है और इसे काफी शुहरत प्राप्त हुई है। इसी प्रकार की एक और गज़ल है- अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात ज़ुदाई की। तुम क्या समझो, तुम क्या जानो बात मेरी तन्हाई की।। कौन सियाही1 घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में। मैंने आँख झुकी देखी है आज किसी हरज़ाई की।। टूट गये सय्याल नगीने 2, फूट बहे रूख़सारों 3 पर। देखो मेरा साथ न देना बात है ये रूसवाई की।। वस्ल की रात न जाने क्यों इसरार था उनको जाने पर। वक़्त से पहले डूब गये, तारों ने बड़ी दानाई 4 की।। आपके होते दुनिया वाले मेरे दिल पर राज करें। आप से मुझको शिकवा है ख़ुद आपने बेपरवाई की।। उड़ते-उड़ते आस का पंछी दूर उफ़क में डूब गया। रोते-रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की।। आपने कई फुटकर शेर तथा कतआत लिखे जो मशहूर हो कर लोगों की जुबां पर चढ़े। कुछ ऐसे ही अशआर पेश करता हूँ- भँवर से बच निकलना तो कोई मुश्क़िल नहीं लेकिन। सफ़ीने ऐन दरिया के किनारे डूब जाते हैं।। न जाने कौन सी मंजिल पे आ पहुँचा है प्यार अपना। न हमको एतबार अपना, न उनको एतबार अपना।। मैंने देखी है अभी प्यार की पहली मंजिल। मुझपे आँसू न बहाएँ दरो-दीवार अभी।। मैं नई चोट भी सह लूंगा ख़ुलूसे-दिल से। मेरा एहसास नहीं दर्द से बेज़ार 5 अभी।। जाम तोडूँ भी तो आँखों से पिलाना चाहे। फिर वो जालिम मुझे मैख़्वार 6 बनाना चाहे।। उसका वो प्यार कि बरसात की पहली बारिश। जिसमें इन्सान लगातार नहाना चाहे।। 1. सियाही- कालापन, अंधकार; 2. सय्याल नगीने- तरल रत्न, आंसू; 3. रूखसारों- गालों; 4. दानाई- समझदारी; 5. बेज़ार- उकताया; 6. मैख़्वार- शराबी। आँखों में सवाल हो गई है, अब जीस्त1 बवाल हो गई है। वो चोट जो दिल से भी छुपाई, अब तेरा ख़याल हो गई है।। अपनी नज़र भी अब मुझे पहचानती नहीं। शायद तेरी निगाहे-करम2 खा गई मुझे।। हर चन्द गरीबे-शहर सही, इस शहर में भी लेकिन हमने। हर शाम सितारे चमकाये, हर गाम तबस्सुम पाया है।। मैं फूल समझकर चुन लूंगा, इन भीगे से अंगारों को। आँखों की इबादत का मैंने पहले भी यही फ़ल पाया है।। साया-ए-जुल्पेफ़-सियहफ़ाम3 कहाँ तक पहुँचे। जाने ये सिलसिला-ए-शाम कहाँ तक पहुँचे।। दूर उफ़क पार4 सही, पा तो लिया है तुझको। देख हम लेके तेरा नाम कहाँ तक पहुँचे।। जीत ले जाय मुझे कोई नसीबों वाला। जिन्दगी ने मुझे दाव पे लगा रखा है।। जाने दिल में कोई कब झाँकने आ जाये। इसलिए मैंने गरेबान खुला रखा है।। सिमट न सका कभी जिन्दगी का फैलाव। कहीं भी ख़त्म ग़मे-आशिकी नहीं होता।। निकल ही आती है कोई न कोई गुंजाइश। किसी का प्यार कभी आखिरी नहीं होता।। दिल था इक शोला, मगर बीत गये दिन वो ‘क़तिल’। अब कुरेदो न इसे, राख में क्या रक्खा है।। मज़हबी फितूर, दंगे और उनके कारण बर्बाद होते शहर देखकर कतील-साहब ने मायूस हो एक नसीहती नज़्म लिखी जिसका उनुवान है, ‘शह्र-आशोब’। यह खूबसूरत नज़्म पेशे-खिदमत है- रिश्त-ए-दीवारो दर तेरा भी है मेरा भी है। मत गिरा इसको, ये घर तेरा भी है मेरा भी है।। तेरे मेरे दम से ही क़ायम हैं इसकी रौनक़ें। मेरे भाई यह नगर तेरा भी है मेरा भी है।। क्यों लड़ें आपस में हम एक-एक संगे-मील पर। इस में नुकसाने-सफ़र तेरा भी है मेरा भी है।। 1. जीस्त- जीवन; 2. निगाहे करम- दया दृष्टि; 3. साया ए ज़ुल्फ़े सियहफ़ाम- काले केशों की परछाई; 4. उफ़क पार- आकाश के पार। शाख़-शाख़ उसकी हमेशा बाजु-ए-शफ़क़त1 बनी। साया-साया ये शज़र2 तेरा भी है मेरा भी है।। खा गई कल नागहाँ 3 जिनको फसादों की सलीब। उनमें इक नूरे-नज़र4 तेरा भी है मेरा भी है।। अपनी हालत पर नहीं तनहा कोई भी सोगवार। दामने दिल तरबतर तेरा भी है मेरा भी है।। कुछ तो हम अपने जमीरों 5 से भी कर ले मशविरा। गर्चे रहबर मोतबर6 तेरा भी है मेरा भी है।। गम तो ये है गिर गई दस्तारे-इज़्ज़त7 भी क़तील। वर्ना इन काँधों पे सिर तेरा भी है मेरा भी है।। इस नज़्म में बहुत ही अच्छी तरह से इंसानियत की बातें कही गई हैं। जिस शायर ने हजारों नग्मात रचे हों उसके एक दो नग्मों का भी अगर लुत्फ न लिया जाये तो क्या फायदा? उनका रचा ये नग़्मा कई गायकों ने गाया है और बहुत मशहूर हुआ है- मुझे आई न जग से लाज, मैं इतना जोर से नाची आज, कि घुंघरू टूट गये.......... कुछ मुझ पे नया जोबन भी था, कुछ प्यार का पागलपन भी था। कभी पलक-पलक मिरी तीर बनी, कभी जुल्फ़ मेरी ज़ंजीर बनी।। लिया दिल साज़न का जीत वह छेड़े पायलिया ने गीत, कि घुंघरू टूट गये............. मैं बसी थी जिनके सपनों में, वह गिनेगा अब मुझे अपनों में। कहती है मिरी हर अंगड़ाई, मैं पिया की नींद चुरा लाई।। मैं बन के गई थी चोर, मगर मिरी पायल थी कमजोर, कि घुंघरू टूट गये............. धरती पे न मेरे पैर लगें, बिन पिया मुझे सब गैर लगें। मुझे रंग मिले अरमानों के, मुझे पंख लगे परवानों के।। जब मिला पिया का गाँव तो ऐसा लचका मेरा पाँव, कि घुंघरू टूट गये............. 1. बाजू ए शफ़क़त- प्रेम की बाहें; 2. शज़र-वृक्ष, पेड़; 3. नागहाँ-अनायास; 4. नूरे नज़र- आँखो की रोशनी अर्थात पुत्र; 5. जमीरों- अंतः मन; 6. मोतबर- विश्वास पात्र; 7. दस्तारे इज़्ज़त- इज़्ज़त की पगड़ी। एक और नग्मा पेशे-खिदमत है जिसमें दुनिया और आदमी की फितरत पर तरह तरह के तंज कसे गये हैं और आदमियत के चेहरे पर से नकाब गिराये गये हैं। जब भी चाहें इक नई सूरत बना लेते हैं लोग। एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग।। मिल भी लेते हैं गले वह अपने मतलब के लिए। आ पड़े मुश्किल तो नज़रें भी चुरा लेते हैं लोग।। खुद-फ़रेबी1 की उन्हें आदत सी पड़ गई। हर नए रहज़न2 को सीने से लगा लेते हैं लोग।। है बज़ा उनकी शिकायत लेकिन इसका क्या इलाज़। बिजलियाँ खुद अपने गुलशन पर गिरा लेते हैं लोग।। हो खुशी उनको भी हासिल, ये जरूरी तो नहीं। ग़म छिपाने के लिए भी मुस्कुरा लेते हैं लोग।। इस क़दर नफ़रत है उनको तीरगी3 के नाम से। रोज़े-रौशन4 में भी अब शमएँ जला लेते हैं लोग।। ये भी देखा है कि जब आ जाए ग़ैरत का मुक़ाम। अपनी सूली अपने काँधे पर उठा लेते हैं लोग।। रौशनी है उनका ईमाँ, रोक मत उनको ‘क़तील’। दिल जलाते हैं ये अपना, तेरा क्या लेते हैं लोग।। देश और कौम की बर्बादी की हालत को देखकर कतील ने कहा कि- पत्ती-पत्ती, डाली-डाली कोस रही है मौसम को। लेकिन अपने बाग का माली इन बातों का आदी5 है।। इसी के साथ विदा लेते हैं, कतील शिफाई साहब से। और आगे बढ़ते हैं। * 1. खुद फरेबी- स्वयं को धोखा देना; 2. रहज़न- राह में लूटने वाला; 3. तीरगी- अंधकार; 4. रोज़े रौशन- दिन के उजाले; 5. आदी- अभ्यस्थ।