मिर्ज़ा वाजिद हुसैन ‘यगाना’ चंगेजी ‘शाद’ के शागिर्द मिर्ज़ा वाजिद हुसैन ‘यगाना’ चंगेजी खानदान के थे इसलिये ये यगाना चंगेजी के तख़ल्लुस से जाने जाते हैं। इन्होंने ‘यास’ तख़ल्लुस से भी शायरी की। आपका जन्म अज़ीमाबाद, बिहार में हुआ (सन् 1884) लेकिन ज्यादातर आप लखनऊ में ही रहे। लखनऊ के शायरों का आपकी शायरी से हमेशा 36 का आँकड़ा रहा इसलिये उनकी दुश्मनी आपको हमेशा झेलनी पड़ी। ज़नाब अपनी राह हमेशा बाकियों से अलग रखते थे। जब सभी मिर्ज़ा गालिब के अंदाज को सराहने लगे तब ये उनके रकीब बन बैठे और यहाँ तक कि खुद को गालिब-शिकन कहने लगे। गालिब के लिए इनका फर्माना था कि- भोण्डापन है मज़ाके-गालिब में रचा। मिर्ज़ा का कलाम अपनी न नजरों में जँचा।। अपने विरोध के चलते एक बार तो आप लखनऊ छोड़ कर लाहौर चले गये लेकिन वहाँ भी इनको पंजाबियों का रवैया पसन्द नहीं आया और वापस लखनऊ आना पड़ा। लखनऊ में एक बार अपने एक मुसलमान दोस्त को इस्लाम के खिलाफ़ कुछ लिख कर भेज दिया तो जुनूनी विरोधियों ने आपका मुहँ काला करके जूतों की माला पहना के गधों से जुते रिक्शा में बैठाकर पूरे लखनऊ के बाजारों में घुमा दिया। इतना कुछ सहन करके भी अपनी राह पर डटे रहे। सर्व-धर्म सम्भाव में विश्वास रखते थे और कहते थे कि- कृशन का हूँ मैं पुजारी अली का बंदा हूँ। ‘यगाना’ शाने-खुदा1 देखकर रहा न गया।। दिखावा और पूजा पाठ का ढोंग आपको पसन्द न था और समझते थे कि दिल से खुदा को याद करना ही उनकी अस्ल इबादत होती है। कलमा पढूँ तो क्यूँ पढूँ, सबकी नजर पै क्यूं चढूँ। यादे-खुदा तो दिल से है, दिल से जुबाँ तक आये क्यूँ।। 1. शाने खुदा- खुदा की शान। मजहबी जुनून को इन्सानियत का दुश्मन मानते थे और उसमें अन्धे दीन-परस्तों को जानवर बताते थे। दुनिया के साथ दीन की बेगार ! अलअमाँ1। इन्सान आदमी न हुआ जानवर हुआ।। यहाँ तक कि खुदा को भी ललकार देते थे- आई को टाल दे जभी जानें। दम-ब-खुद2 है तो फिर खुदा क्या है।। हिन्दू-मुसलमानों की एकता के हिमायती थे और इस बात से डरते थे कि उसमें कहीं मजहब बीच में न आ जाये- सुलह ठहरी तो है बिरहमन से। कहीं मज़हब अड़ा न दे कोई टाँग।। खुदा को मन ही में छिपा मानते थे और उसे मन से बाहर ढूँढ़ने वालों को कहते थे कि- आपसे बाहर चले हो ढूँढ़ने। आह पहला ही कदम झूठा पड़ा।। दुनिया के फ़रेब देखकर आपका मानना था कि उसको बनाने वाला भी अपने को अपराधी समझने लगा होगा- तख़लीके-कायनात3 के दिलचस्प जुर्म पर। हँसता तो होगा आप भी यज्दाँ4 कभी कभी।। आपके कहे चन्द यादगार अशआर पेशे-खिदमत है- पहले अपनी तो जात पहचाने। राजे-कुदरत बखानने वाला।। जानकर और हो गया अनजान। हो तो ऐसा हो जानने वाला।। पेट के हलके लाख बड़मारे5। कोई खुलता है जानने वाला।। खाक़ में मिल के पाक हो जाता। छानता क्या है छानने वाला।। दिन को दिन समझे और रात को रात। वक़्त की कद्र जानने वाला।। 1. अलअमाँ- ईश्वर बचाये, खुदा की पनाह; 2. दम व खुद- चुपचाप; 3. तखलीके कायनात- संसार के निर्माण; 4. यज्दाँ- ईश्वर; 5. बड़मारे- डींगें मारना। किधर चला है ? इधर एक रात बसता जा। गरजने वाले गरजता है क्या, बरसता जा।। रूला-रूला के गरीबों को हँस चुका कल तक। मेरी तरफ से अब अपनी दशा पै हँसता जा।। बस एक नुक़्तये-फर्ज़ी1 का नाम है काबा। किसी को मऱकजे-तहकीक2 का पता न चला।। उमीदो-बीम3 ने मारा मुझे दो राहे पर। कहाँ के दैरो-हरम ? घर का रास्ता न मिला।। दिल बेहौसला4 है इक जरा सी ठेस का महमाँ। वह आँसू क्या पियेगा, जिसको ग़म खाना नहीं आता।। सरापा-राज हूँ मैं क्या बताऊँ कौन हूँ क्या हूँ। समझता हूँ मगर दुनिया को समझाना नहीं आता।। रोशन तमाम काबा-ओ-बुतखाना हो गया। घर-घर जमाले-यार का अफ़साना हो गया।। आप खुद अपने कलाम की बराबरी जनाब ‘आतिश’ से करते थे और अंदाज में ‘मीर’ समझते थे - जमाना फिर गया चलने लगी हवा उलटी। चमन को लगा के आग जो बागबाँ निकला।। कलामे-‘यास’ से दुनिया में फिर इक आग लगी। यह कौन हज़रते-आतिश का हम जबाँ निकला।। अंजाम की परवाह करना आपको भाता न था, कोई आगाह भी करे तो क्यों कर करे? दिले-आगाह5 ने बेकार मेरी राह खोटी की। बहुत अच्छा था अंजामे-सफ़र से बेख़बर होना।। ख़री ख़री कहते थे और चूकते न थे। जरा गौर फर्माइयेगा- आप क्या जाने मुझपै क्या गुज़री सुब्ह-दम देखकर गुलों का निखार। दूर से देखलो हसीनों को, न बनाना कभी गले का हार।। अपने साये ही से भड़कते हो, ऐसी वहशत पै क्यों न आये प्यार। तूं भी जी और मुझे भी जीने दे, जैसे आबाद गुल से पहलू-ए-खार6।। 1. नुक्ता ए फर्जी- काल्पनिक बिन्दु; 2. मरकजे तहकीक- घरती का केन्द्र बिन्दु; 3. उमीदो बीम- आशा तथा शंका; 4. बेहौसला- बिना साहस; 5. दिले आगाह- दिल की सावधानी; 6. पहलु ए खार- काँटे के पास। बंदगी का सबूत दूँ क्यों कर, इससे बेहतर है कीजिए इन्कार। ऐसे दो दिल भी कम मिले होंगे, न कशाकश हुई न जीत, न हार।। कलाम में जबर्दस्त असर रखते थे और दुश्मनों के दिल इसी से जलते थे, बानगी देखिये- जमीं करवट बदलती है बलाये-नागहाँ 1 होकर। अज़ब क्या सरपै आये पाँव की खाक आसमाँ होकर।। उठो ऐ सोने वालों ! सर पै धूप आई क़यामत की। कहीं ये दिन न ढल जाये नसीबे-दुश्मनाँ 2 होकर।। अरे ओ जलने वाले ! काश जलना ही तुझे आता। यह जलना कोई जलना है कि रह जायें धुँआ होकर।। पसीना तक नहीं आता तो ऐसी खुश्क तौबा क्या ? नदामत3 वो कि दुश्मन को तरस आ जाए दुश्मन पर। अब अगर लख़नवी शायर हो तो खारिज़ी रंग तो दिखाना ही होगा ना! चन्द नमूने इसके भी पेशे-खिदमत हैं - मज़ाल थी कोई देखे तुम्हें नज़र भरकर। यह क्या है आज पड़े हो मले-दले क्यों कर।। फिरते हैं भेस में हसीनों के। कैसे-कैसे डकैत थांग-की-थांग4।। कोई क्या जाने बाँकपन के यह ढंग। सुलह दुश्मन से और दोस्त से जंग।। क्या जमाना था कैसे दुश्मन थे। रातभर सुलह और दिनभर जंग।। बदल न जाये जमाने के साथ नीयत भी। सुना तो होगा जवानी का एतबार नहीं।। जो ग़म भी खायें तो पहले खिलायें दुश्मन को। अकेले खायेंगे ऐसे तो हम गँवार नहीं।। गले में बाँहे डाले चैन से सोना जवानी में। कहाँ मुमकिन फिर ऐसा ख्बाब देखूँ जिन्दगानी में।। 1. बलाये नागहाँ- अचानक आने वाली मुसीबत; 2. नसीबे दुश्मनाँ- दुश्मन नसीब; 3. नदामत- शार्मिन्दगी, पश्चाताप; 4. थांग की थांग- चोरी का माल छुपाये हुए। दीवाना बन के उनके गले से लिपट भी जाओ। काम कर लो ‘यास’ अपना बहाने-बहाने में।। तौबा भी भूल गये इश्क़ में वोह मार पड़ी। ऐसे औसान गये हैं कि खुदा याद नहीं।। खटका न लगा हो तो मज़ा क्या है गुनाह में। लज़्ज़त ही और होती है चोरी के माल में।। ताअत1 हो या गुनाह पसे-परदा2 खूब है। दोनों का मज़ा जब है कि तनहा करे कोई।। दीवाना वार दौड़ के कोई लिपट ना जाये। आँखों में आँखें डाल कर देखा ना कीजिये।। अल्लाह री बेताबियेदिल वस्ल की शब को। कुछ नींद भी आँखों में है कुछ मय का असर भी।। सलामत रहें दिल में घर करने वाले। इस उजड़े मकाँ में बसर करने वाले।। गले पै छुरी क्यों नहीं भौंक देते। असीरों3 को बेबालोपर1 करने वाले।। आपके कलाम में तसव्वुफ और फ़लसफे की तो इंतिहा ही नहीं है लेकिन चंद शेर बहुत ही बेहतरीन बन पाए हैं। अर्ज किया है कि- नतीजा कुछ भी हो लेकिन अपना काम करते हैं। सवेरे ही से दूरंदेश5 फिक्रे-शाम6 करते हैं।। पढ़के दो कलमे अगर कोई मुसलमाँ हो जाय। फिर तो हैवान भी दो रोज में इन्साँ हो जाय।। आग में हो जलना जिसे वोह हिन्दू हो जाय। ख़ाक में हो जिसे मिलना वोह मुसलमाँ हो जाय।। जैसे दोज़रव की हवा खा के अभी आया है। किस कदर वाइजे-मक्क़ार डराता है मुझे।। जलवये-दारोरसन7 अपने नसीबों में कहाँ ? कौन दुनिया की निगाहों में चढ़ाता है मुझे।। 1. ताअत- पूजा, उपासना; 2. पसे परदा- परदे के पीछे, अकेले में; 3. असीरों- कैदियों (पक्षी); 4. बेबालोपर- बिना बाल और परों के; 5. दूरंदेश- दूरदर्शी; 6. फिक्रे शाम- शाम की फिक्र; 7. जलवाये दारोरसन- धर्म के लिए शहादत का सुख। हासिले-फिक्रे-नारसा1 क्या है ? तूं खुदा बन गया बुरा क्या है।। कैसे-कैसे खुदा बना डाले। खेल बंदे का है खुदा क्या है।। नूर ही नूर है कहाँ का ज़हूर2। उठ गया परदा अब रहा क्या है।। रहने दे हुस्न का ढका परदा। वक्त बेवक्त झाँकता क्या है।। ऐसी आज़ाद रूह इस तन में। क्यों पराये मकान में आई।। बात अधूरी मगर असर दूना। अच्छी लुक़नत3 जबान में आई।। आँख नीची हुई अरे यह क्या। क्यों गरज़ दरमियान में आई।। मैं पयम्बर4 नहीं ‘यगाना’ सही। इसमें क्या असर शाम में आई।। ‘यगाना’ चंगेजी साहब का कलाम दो दीवानों में छपा है जिनके नाम हैं ‘गंजीना’ और ‘आयाते वज़दानी’। अंत में उन्हीं के कलाम से शेर पेश कर यगाना साहब को सलाम भेज कर रूखसत मांगता हूँ। खड़े हैं दुराहे पै दैरो-हरम के। तेरी ज़ुस्तजू में सफ़र करने वाले।। कुजा5 सहने-आलम6, कुजा कुंजे-मरक़द7। बसर कर रहे हैं बसर करने वाले।। * 1. हासिले फिक्रे नारसा -मंजिल तक न पहुँचने की फिक्र; 2. जहूर- प्रकट होना; 3. लुकनत- हकलापन; 4. पयम्बर- ईशदूत; 5. कुजा- कहाँ; 6. सहने आलम- खुला स्थान, आँगन; 7. कुंजे मरकद- कब्र की तंगी।