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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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9:33 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
मिर्जा अबुज़फर, बहादुरशाह ‘ज़फर’ बहादुरशाह ज़फर न केवल हिन्दोस्ताँ के आखिरी बादशाह थे बल्कि वे बादशाहों और नवाबों में सबसे बेहतर और आखिरी शायर भी थे। वे बड़े नेक इन्सान थे और हिन्दू मुसलमां को एक नजर देखते थे। पैदा तो दिल्ली में हुए परन्तु शायरी में खारजी रंग जियादह था। वे ‘नासिख’, ‘इंशा’ और ‘जुरअत’ के लख़नवी तथा खारजी रंग के शौकीन थे परन्तु उन्हें खारजी रंग का कोई अच्छा उस्ताद न मिला। अतः उनकी शायरी में न तो देहलवी शायरी का सोज़ोगुदाज़1 आ पाया और ना ही लख़नवी शायरी की रूमानियत2। काफी समय तक शाह नसीर से इस्लाह लेते रहे और बाद में ज़ौक़ की शागिर्दी भी की। ज़ौक़ और ज़फर दोनों ही एक समय शाह ‘नसीर’ के शागिर्द थे अतः ज़ौक़ ज़फर के मन को अच्छी तरह से समझते थे। अक्सर तो ज़फर के लिये ज़ौक़ खुद ही गज़लें लिख दिया करते थे। ज़फर को अपनी शायरी पर खूब नाज था और वे कहते थे कि‒ ज़र्फे-सुखन3 का अपने ‘ज़फर’ बादशाह है। उसके सुखन से याँ न किसी का सुखन लगा।। परन्तु वास्तव में शाह नसीर की शर्गिदी के कारण उनकी शायरी ज्यादातर अटपटे काफियों में बंधी होती थी। मिसाल के तौर पर चंद शेर पेश हैं‒ कहूं क्या रंग उस गुल का अहा-हाहा, अहा-हाहा। हुआ रंगी चमन सारा अहा-हाहा, अहा-हाहा।। तूँ आ इस दम कि ऐ वक्ते-सहर गुलबदन ! ठंडा। ज़मीं ठंडी, हवा ठंडी, मकाँ ठंडा, चमन ठंडा।। दाग कब दिल को ऐ निगार4 ! लगा। इश्क़ के घर पै इश्तहार लगा।। 1. सोजो गुदाज- दर्द और पीड़ा का अहसास; 2. रूमानियत- इश्क मोहब्बत का अन्दाज; 3. जर्फे सुखन- शेरो शायरी की काबिलियत; 4. निगार- बुत, माशूका, सुन्दरी। फ़लक ने तेरे सर का अम्मामा1 मजनूं। जुनूं को लगाकर उछाला बिगाड़ा।। खुदा ने जब ज़माले-बुताँ2 बनाया था। नज़र को तीर भवों को कमां बनाया था। एक दो साग़र से क्या होता है, हम तो खुम3 के खुम। बैठकर साक़ी के सब ज़ानू-ब-ज़ानू4 पी गये।। यूं है तबीयत अपनी हविस पर लगी हुई। मकड़ी की जैसे ताक मगस5 पर लगी हुई।। आज़ाद कब करे सैयाद हमें देखिये। रहती है आँख बाबे-कफ़स6 पर लगी हुई।। ज़फर की शायरी का माशूक न केवल बाज़ारी है बल्कि बादाख़्वार भी है। उनके कलाम में खारजी रंग के सभी दोष पाये जाते हैं। पर उसके गुण ज्यादातर दिखाई नहीं देते। इसमें वस्ल के गिले-शिकवे, हिज्र के सदमे, बोसे-बाजी आदि की भरमार है। इसमें मुआमलात बंदी और अमरद परस्ती के अशआर की भी भरमार है। लेकिन बाज शेरों में तसव्वुफ और फ़लसफ़ा भी जल्वा अफरोज़ है। नमूने के चंद शेर पेशे-खिदमत हैं। गर फिक्र में हो, रहे-राह7 के तोशे8 की करो फिक्र। ऐ गाफिलों ! नजदीक है रोज़े-सफ़र9 आया।। न देखा वह कहीं जलना जो देखा खानये-दिल में। बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत सा ढूँढ़ा बुतखाना।। उम्रे-दराज माँग कर लाए थे चार दिन। दो आरजू में कट गये दो इन्तजार में।। इतना था बदनसीब ज़फर दफ़्न के लिए। दो गज जमीं भी ना मिली कूए-यार10 में।। न थी हाल की जब हमें अपनी खबर। रहे देखते औरों के एबो-हुनर।। पड़ी अपनी बुराईयों पर जो नज़र। तो निगाह में कोई बुरा न रहा।। 1. अम्मामा- टोपी; 2. ज़माले बुताँ- प्रेयसी का सौन्दर्य; 3. खुम- मदिरा रखने का पात्र; 4. ज़ानू ब ज़ानू- बराबर बैठकर; 5. मगस- शहद की मक्खी; 6. बाबे कफ़स- कैद का द्वार; 7. रहे राह- मौत का सफर; 8. तोशे- सफर का सामान; 9. रोजे सफ़र- मौत का दिन; 10. कूए यार- यार के कूचे (अपना वतन)। ज़फर आदमी उसको न जानियेगा। वोह हो कैसा ही साहबे-फ़हमो-ज़का1।। जिसे ऐश में यादे खुदा न रही। जिसे तैश में खौफ़े खुदा न रहे।। न हो जिसमें अदब, और हो किताबों से लदा फिरता। ज़फर उस आदमी को हम तसव्वुर2 बैल करते हैं।। ऊपर लिखे तसव्वुफ के चन्द शेर भी ज़फर को शायरी की बुलंदी पर ले जाने के लिए काफी हैं लेकिन खारजी अन्दाज के कुछ और शेर भी काबिले-तारीफ हैं। चन्द नमूने पेशे-खिदमत हैं‒ किसी ने उस को समझाया तो होता। कोई यां तक उसे लाया तो होता।। मजा रखता है जख़्मे-खंजरे-इश्क़3। कभी ए बुलहविस4 खाया तो होता।। न भेजा लिख के तूने एक परचा। हमारे दिल को परचाया5 तो होता।। जो कुछ होता सो होता तूने तकदीर। वहां तक मुझको पहुंचाया तो होता।। चारागर6 भर ना सके मेरे ज़िगर के नासूर। एक गर बन्द किया दूसरा रोज़न7 निकला।। सोजिशे-दागे-अमल8 से पहले भेजा जल गया। बाद उसके दिल जला और फिर कलेजा जल गया।। उफ् मेरे मजमूने-सोजे-दिल9 में भी क्या आग है। खत जो कासिद उसको मैंने लिखके भेजा जल गया।। मेरी आंख बंद थी जब तलक वोह नज़र में नूरे-जमाल था। खुली आंख तो न खबर रही कि वोह ख्वाब था कि ख़्याल था।। मेरे दिल में था कि कहूंगा मैं जो यह दिलपै रंजो-मलाल10 है। वोह जब आ गया मेरे सामने न तो रंज था न मलाल था।। 1. साहबे फ़हमो जका- समझदार और जहीन; 2. तसव्वुर- कल्पना, तुलना; 3. जख्मे खंजरे इश्क- प्रेम के खंजर का जख़्म; 4.बुलहविस- कामेच्छा रखने वाला; 5. परचाया- फुसलाया; 6. चारागर- हकीम, इलाज करने वाला; 7. रोजन- छेद; 8. सोजिशे दागे अमल- मानसिक कुढ़न के आचरण की खराबी; 9. मजमूने सोजे दिल- दिल की जलन से लिखा लेख; 10. रंजो-मलाल- दुःख और पछतावा। यह आस्मां गुलाम है किस महज़माल1 का। पहने फिरे है कान में बाला हिलाल2 का।। दे दिया दिल और नहीं याद यह किसको दिया। इश्क़ को खो दे खुदा जिसने जहां से खो दिया।। ख्वाह3 वह दागे-जुनूं हो ख़्वाह कोई अश्के-खूं4। हमने सर आँखों पर रखा, इश्क़ तूने जो दिया।। हमने कहके अपना हाले-दिल दिया सबको रूला। हर तरफ रूमाल पर रूमाल तर होने लगा।। कूचये-जाना में जाना ही पड़ेगा हो सो हो। क्या करूं बेताब दिल फिर ऐ ज़फर! होने लगा।। और अब इसी खारजी रंग में रंगी एक बेहतरीन गज़ल पेश है- बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी। जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी।। ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्रोकरार। बेकरारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी।। चश्मे-कातिल5 मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन। जैसी अब हो गई कातिल कभी ऐसी तो न थी।। उनकी आँखों ने खुदा जाने किया क्या जादू। कि तबीयत मेरी माइल6 कभी ऐसी तो न थी।। क्या सबब7 तू जो बिगड़ता है ज़फर से हरबार। खू8 तेरी हूरे-शिमाइल9 कभी ऐसी तो न थी।। ज़फर का सफ़र बीस वर्षों की नाम मात्र की बादशाही तथा सन् 1857 की गदर के बाद रंगून की कैद तक पहुंचा। जिस अंग्रेज ने उन्हें कैद किया वह भी सुखन फहम था। ज़फर की दुखती रग को छेड़ते हुए उसने एक शेर कहा‒ दमदमे10 में दम नहीं अब खैर मांगो जान की। ए ज़फर बस हो चुकी शमशीर11 हिन्दुस्तान की।। 1. महज़माल- चाँद सी सुन्दर; 2. हिलाल- चाँद; 3. ख्वाह - चाहे; 4. अश्के खूं- खून के आँसू; 5. चश्मे कातिल- कत्ल कर देने वाली आंखें; 6. माइल- ढीली, खराब; 7. सबब- कारण; 8. खू- आदत; 9. हूरे शिमाइल- अप्सरा जैसा; 10. दमदमा- युद्ध के समय बना मोरचा; 11. शमशीर- तलवार। इस शेर का ज़फर ने फिलबदी जवाब दिया और करारा जवाब दिया कि- हिन्दयों में बू रहेगी जब तलक ईमान की। तख्ते-लंदन पर चलेगी त़ेग1 हिन्दुस्तान की।। ज़फर का केवल यह शेर भी उनकी सुखन फहमी की बलंदी को सिद्ध करने के लिये काफी है। और उनकी इन्सानियत तो काबिले-तारीफ हमेशा से ही रही थी। इसीलिए तो उन्होंने फरमाया था कि‒ उसको इन्सां मत समझ हो सरकशी2 जिसमें ज़फर। ख़ाकसारी3 के लिए है, ख़ाक से इंसान बना।। * 1. तेग- कृपाण; 2. सरकशी- घमंड; 3. खाकसारी- आजिज़ी (नम्रता)।
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