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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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7:41 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
उर्दू शायरी का सफरनामा-I आमतौर पर उर्दू को फ़ारसी से उपजी माना जाता है लेकिन हक़ीक़त में उर्दू नागरी भाषा से ही बनी भाषा है। शुरूआत में इसमें अरबी और फ़ारसी भाषा के शब्दों की अधिकता रही क्योंकि मुगल शासक अरबी और फ़ारसी भाषा बोलते और लिखते थे तथा फ़ारसी राज-काज की भाषा थी। इनके साथ जो भी चीजें भारत आईं वे भारत के लिये नई थीं अतः उनके भारतीय नाम नहीं थे। इन वस्तुओं के नाम ज्यों के त्यों उर्दू में शामिल कर लिये गये। उर्दू भाषा के शुरूआती शायर भी फ़ारसी में शायरी करते थे अतः रेख्ता शायरी में भी फ़ारसी का प्रयोग आम बात होती थी। उनको भारतीय शब्दों, उपमाओं और अलंकारों का ज्ञान भी कम था इस कारण ‘उर्दू’ भारत में पैदा तथा यहाँ के परिवेश में पली बढ़ी होकर भी रंग में अरबी-फ़ारसी के ज्यादा नजदीक हो गई। वह भारतीय मूल की होते हुए भी अरबी-फ़ारसी को गोद चली गई। इसने संस्कार वश फ़ारसी की सारी बुराईयाँ अख़्तियार1 कर ली। फ़ारसी शायरी में विलासिता की भरमार थी और उस समय के भारतीय शासक भी विलासी थे अतः रेख़्ता शायरी में अरमद-परस्ती2 और बाज़ारू-इश्क़ की भरमार हो गई। ख़ुशामदाना कसीदे ही नहीं लिखे गये अपितु एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिये ‘हिजो’ इत्यादि भी लिखे जाने लगे। बात यहीं पर खत्म नहीं हुई, कुछ रंगीन मिज़ाज शायरों ने ‘हज़ल’ का भी आविष्कार कर डाला जिसमें मैथुन तथा स्त्री-पुरुषों के गुप्तागों का विस्तार से तथा अश्लील से अश्लील शब्दों में वर्णन होता था। इन हज़लात में बहुत गंद उछाली गई जिससे उर्दू शायरी की बहुत हानि हुई। लेकिन फिर भी उर्दू भाषा पद्य की भाषा रही अतः इसमें शब्दों की आभा गद्य में उपयुक्त होने से कहीं अधिक हो गई, इसमें मुहावरों के समावेश से इसकी सज और बढ़ गई। इस भाषा में यदि बात बात में गुलकारियाँ3 है, नाज़ुक ख़याली है, विरह की व्यथा है तो मिलन का सौन्दर्य, शोखी, अदा, बांकपन, सज-धज, कल्पना और ज़माल भी है। सोज़ो-गुदाज4 तो इतना है कि दिल बाग-बाग हो जाता है और बात का वज़न सौ गुना बढ़ जाता है। इसमें कई भाषाओं के शब्दों का समावेश है। लगभग 33,000 शब्दों में अरबी के लगभग 6500, फ़ारसी के 5500, हिन्दी के 9000, 1. अख़्तियार-हासिल; 2. अरमदपरस्ती-लौंडेबाजी; 3. गुलकारियाँ-बेल-बूटे, सजावट; 4. सोजोगुदाज-दिल को छूने की क्षमता। अंग्रेजी के 2300 उर्दू के 2500 तुर्की इरानी के 125 तथा 7000 के करीब मुहावरे शामिल है। दक्कन में उर्दू का जन्म दक्कनी भाषा के रूप में हुआ। पहले गंगू बहमन के बहमनी वंश और उसके बाद बीजापुर, अहमद नगर तथा गोलकुंडा के सुल्तानों के यहाँ तथा हैदराबाद की निजामत में इसका खूब विकास हुआ। दक़्क़नी उर्दू में अरबी, फ़ारसी शब्दों की भरमार नहीं है क्योंकि वहाँ के शासकों ने मराठी, तामिल, तेलगु और कन्नड़ भाषाओं को बखूबी अपनाया। लेकिन रेख़्ता शायरी की दक़्क़न में शुरूआत करने वाले ‘वली’ ने इसे भी आगे चलकर अरबी फ़ारसी का परिधान पहना कर दिल्ली के शासकों को गोद दे दिया। अरबी-फ़ारसी के कद्रदान इन दिल्ली शासकों ने फिर भी इसका नाम रेख़्ता दिया जिसका अर्थ है गिरी पड़ी भाषा। रेख़्ता का स्तर जब और गिरा तो वह रेख़्ती हो गई। तब वह और भी ज्यादा शोख हो गई। जब वह फ़ौजी लश्करों1 में जा जा कर फ़ौजियों से आँख मिचौली खेलने लगी तो इसे सब बाज़ारी, लश्करी या उर्दू कहने लगे। इसी उर्दू में की गई शायरी का अब हम विस्तार से जिक्र करेंगे। उर्दू शायरी को आमतौर पर दो हिस्सों में बाँटा गया है। ‘हक़ीक़ी’ शायरी और ‘मज़ाज़ी’ शायरी । हक़ीक़ी2 शायरी में शायर खुदा का जलवा माशूक के रूप में देखता है और मज़ाजी3 शायरी दुनियावी इश्क़ की शायरी है। हक़ीक़ी शायरी सूफियाना शायरी होती है परन्तु इसमें भी खुदा से अपने लगाव के इजहार के लिए वही उपमायें काम में ली जाती हैं जो दुनियावी-इश्क़ की शायरी में काम में आती है। हक़ीक़ी शायरी के सबसे बड़े उस्ताद जनाब ‘आसी’ गाज़ीपुरी हुए हैं। इनके दो शेर पेशे-खिदमत हैं‒ बे-हिज़ाबी यह कि हर जर्रे में जलवा आशकार। इसपै घूँघट यह कि सूरत आज तक नादीदा है।। इस शेर में घूँघट शब्द का काम में लेना किसी पर्दानशीं हसीना का तसव्वुर कराता है। परन्तु हक़ीक़त में यह खुदा के न दिखने के लिये काम में आया है। इस शेर के मायने है कि खुदा की बेपर्दगी का आलम ये है कि वह हर ज़र्रे में नज़र आता है। और उसके पर्दे का आलम ये है कि आज तक कोई उसकी सूरत नहीं देख सका है। दूसरा शेर इस तरह है‒ हश्र में मुँह फेरकर कहना किसी का हाय हाय। ‘‘आसी-ए-गुस्ताख़ का हर जुर्म ना-बख़्शीदा4 है’’।। इस शेर में मुँह फेरकर शब्दों से फिर किसी हया वाली औरत का तसव्वुर5 होता है। लेकिन हकीकत में इस शेर के मायने है कि जब कयामत के दिन आसी गाज़ीपुरी खुदा के सामने लाये गये तो मारे हया के उन्होंने मुँह फेर लिया और कहा कि यह तो मेरा गुस्ताख़6 आशिक़ आसी है जिसकी कार गुजरियाँ माफ़ करने लायक नहीं। 1. लश्कर-फौज़; 2. हक़ीक़ी-असली,वास्तविक; 3. मज़ाजी-भौतिक, दुनियावी; 4. नाबख्शीदा-न माफ करने योग्य; 5. तसव्वुर-ख़याल; 6. ग़ुस्ताख-बेअदब, शरारती। हम बन्द किये आँख तसव्वुर में पड़े हों। ऐसे में कहीं छम से वोह आ जाए तो क्या हो।। इस शेर में भी ‘छम’ शब्द से किसी ख़ूबसूरत हसीना के पायज़ेबों की आवाज़ का आभास होता है परन्तु हक़ीक़त में ये शेर खुदा के अचानक हुए ज़हूर1 की बात करता है। मशहूर शायर इकबाल के इस शेर में भी ऐसी ही कुछ बात झलकती है? कभी-ए-हक़ीक़ते-मुन्तज़िर2! नज़र आ लिबासे-मजाज़ में। कि हज़ारों सजदे तड़प रहे हैं, मेरी जबीने-नियाज़ में।। इस शेर के अस्ल मायने हैं कि ऐ मेरे खुदा तू कभी तो अपनी अस्ल सूरत में नज़र आ मेरे मस्तक के हजारों सजदे तेरे दीद के लिए बेचैन हैं। ऐसा ही एक शेर और पेश है, क्योंकि मैं भी मज़ाजी शायरी पर आने से पहले खुदा को याद करना और उसे देखना चाहता हूँ ‒ ये सही कि खिलवते-दिल3 में है, तू हजार रंग से जलवागर। ज़रा आ के सामने बैठ जा कि नज़र को खू-ए-मजाज़ है।। इस शेर के मायने हैं कि वैसे तो दिल में ए खुदा तू हज़ार रूप में मौज़ूद है पर कभी तू नज़र के सामने भी तो आ कि मुझे सामने देखने की आदत है और उसके बिना कुछ समझ नहीं आता। खुदा को सामने देखने की यही हसरत इन्सान को दरवेश4 और फ़कीर बनाती है, दर-दर भटकने पर मजबूर करती है और उनके कूचों की खाक छनवाती है। हक़ीक़ी शायरी के और भी कई शायर हुए होंगे और उन्होंने अनगिनत शेर लिखे होंगे लेकिन उनका कोई अन्त नहीं और मेरे दिमाग में उन सबको समझ लेने की ताबो-ताकत नहीं इसलिए अब मज़ाजी शायरी पर आता हूँ। किसी ने बहुत खूब कहा है कि‒ कल और आएंगे नग्मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले। मुझ से बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले।। तो मज़ाजी शायरी का भी यही आलम है। यहाँ भी हजारों शायर हुए हैं और उनने अनगिनत शेर, गज़लें और नज़्में लिखीं हैं। मैं केवल चुनिंदा शायरों के कलाम के चुनिन्दा शेरों और नज्मों, गजलों आदि का जिक्र ही यहाँ कर पाऊँगा और मेरी कोशिश यह रहेगी कि उनको पढ़ कर आप भी सुखन-फ़हम5 बनने को बेताब हो जायें और शेरो-शायरी के अदब6 तथा कानून से वाकिफ़7 हो जायें। यह सब केवल मज़ाज़ी शायरी से ही संभव है। जो तहज़ीब8 और तौर-तरीके मज़ाज़ी शायरी में है, वो हक़ीक़ी शायरी में नहीं। हक़ीक़ी शायरी में फ़कीर और दरवेश की सदाएं होती हैं 1. ज़हूर-प्रकटन। 2. हकीकते मुन्तज़िर-प्रतीक्षित सत्य; 3. खिलवते दिल-दिल की तन्हाई; 4. दरवेश-फकीर; 5. सुखन फ़हम-शायरी को समझने वाला; 6. अदब-तमीज, तहज़ीब; 7. वाकिफ-जानकार; 8. तहजीब-तमीज। लेकिन वो मज़ा, वो तड़प और वो बात नहीं होती जो मज़ाज़ी शायरी में है। मज़ाज़ी शायरी भी आम तौर पर इश्क़िया-शायरी ही होती है तथा इश्क़े-मज़ाज़ी (दुनियावी इश्क) से तआल्लुक1 रखती है। मज़ाज़ी शायरी में भी दो किस्मों की शायरी मिलती है। एक अस्ल में हुए अहसासात को बयान करती है और दूसरी रवायती2 किस्म के बयान करती है। अस्ल की इश्क़िया शायरी उर्दू में बहुत कम लोगों ने कही है। परन्तु उर्दू का सारा साहित्य रवायती इश्क़िया शायरी से भरा पड़ा है। इश्क़िया शायरी चाहे वह अस्ल की हो या कि रवायत की, भी दो हिस्सों में बाँटी जा सकती है। ‘पाक इश्क़िया शायरी’ और ‘बाज़ारी इश्क़िया शायरी’। पाक इश्क़ वह है जिसमें इंसान किसी एक का होकर रह जाता है, भले सामने वाला उसका हो या न हो। इसमें इश्क़ को खुदा का दर्जा मिलता है। (‘मुहब्बत खुदा है और खुदा ही मुहब्बत है।’) यह इश्क़ आदमी को इंसान तथा इंसान को खुदा के मर्तबे तक पहुँचाता है। जबकि ‘बाज़ारी इश्क़िया’ शायरी हिर्सो-हविस3 की शायरी है। इसमें वह सब गन्दगियाँ मौजूद हैं जो आदमी के वजूद4 से जुड़ी होती हैं। अस्ल में यही ‘बाज़ारी इश्क़िया’ शायरी है जिससे उर्दू शायरी की ज्यादातर किताबात भरी पड़ी हैं। मेरा मौज़ू भी यही शायरी है। लेकिन पहले मैं पाक-इश्क़ को अपना सलाम कह दूं। इस क़िस्म की शायरी का तसव्वुर हमें मीर-तकी-मीर की शायरी में मिलता है। दो शेर पेशे-खिदमत हैं‒ फूल, गुल, शम्स-ओ-कमर सारे ही थे। पर हमें उनमें तुम्हीं भाये बहुत।। (दुनिया में फूल सी कोमल और चाँद से मुखड़े वाली कई हसीनाएँ हैं। मगर हमें तो बस तुम्हीं प्यारे लगे। तुम्हारे सिवा सब बेकार हैं।) चाहें तो तुमको चाहें, देखें तो तुमको देखें। ख़्वाहिश दिलों की तुम हो, आँखों की आरजू तुम।। (अगर किसी को हम चाहें तो वह तुम हो, तुम्हीं को हम देखना चाहते हैं। तुम्हीं मेरी चाहत हो और मुझे तुम्हारी ही आरजू है।) ‘पाक इश्किया शायरी’ का माशूक़ भी पाकीज़ा होता है। बकौल ज़ौक़ साहब‒ मैं ऐसे साहिबे-अस्मत परी-पैकर पे आश़िक हूँ। नमाजें पढ़ती हैं हूरें, हमेशा जिस के दामन पर।। (मैं ऐसी पाक़ीजा5 खूबसूरत (परी जैसी) हसीना का आशिक हूँ जिसके पाक दामन पर अप्सराएं (जन्नत की हूरें) भी नमाज़ पढ़ने को बेताब रहती हैं।) 1. तआल्लुक-रिश्ता, संबंध; 2. रवायती-पारम्परिक; 3. हिर्सोहविस-लोभ, वासना; 4. वजूद-अस्तित्व; 5. पाकीजा-पवित्र, पाक। ‘बाज़ारी इश्क़िया’ शायरी पर जाने से पहले एक शेर और पेश करके पाक इश्क़ को आदाब1 कहना मुनासिब रहेगा, ज़नाब ‘आतिश’ का फ़रमाना है कि - चश्मे-नामहरम को बर्के हुस्न कर देती थी बन्द। दामने अस्मत तेरा आलूदगी से पाक था।। (तू इतनी पाक दामन थी कि तेरे हुस्नो-जमाल की बिजली हसद2 और हविस की नज़र को बन्द कर देती थी।) वास्तव में उर्दू शायरी का जन्म सूफी संतो से नहीं हुआ। उसका जन्म मुगलिया सल्तनत की रंगो-रवायात, तमाशबीनी और मैनोशी के साये में हुआ। अतः इसमें बाज़ारी इश्क़िया शायरी ही अधिक पायी जाती है। उर्दू के पुराने शायरों में ‘वली’ (शम्सुद्दीन) का नाम सबसे पहले लिया जाता है। अमीर खुसरो ने जिस ‘हिन्दावी’ भाषा को जन्म दिया था उसी को इन्होंने अरबी फ़ारसी से मिलाकर एक अलग भाषा बना ली और ‘रेख्ता’ का नाम दिया। उनके बनाये ‘कलामे-रेख़्ता’ की दिल्ली में मुहम्मदशाह (अट्ठारहवीं ईस्वी) के समय बहुत शुहरत थी। ‘वली’ की उर्दू (रेख़्ता) शायरी के चन्द शेर पेशे-खिदमत हैं। दिल को छोड़ के यार क्यों जावे ? जख़्मी है शिकार क्यों जावे ? ख़ूबरू3 ख़ूब काम करते हैं। इक निगाह में गुलाम करते हैं।। याद करना हर घड़ी तुझ यार का। है वज़ीफा4 मुझ दिले-बीमार का।। वज़ीफा शब्द का अर्थ-ईनाम, पेंशन, के अलावा विशेष पूजा या किसी बात की रट लगाना भी है। यहाँ इस का इस्तेमाल रट लगाने के रूप में किया गया है। बेवफ़ाई न कर खुदा सूँ डर। जग हँसाई न कर खुदा सूँ डर।। ए ‘वली’ ! रहने को दुनिया में मुक़ामे-आशिक। कूचये-जुल्फ5 है या गोशये-तनहाई6 है।। 1. आदाब-सलाम,नमस्ते; 2. हसद-डाह, जलन; 3. खूबरू-हसीनाएं; 4. वजीफ़ा-ईनाम; 5. कूचएजुल्फ़-जुल्फों में; 6. गोशएतन्हाई-एकान्त कोना। वली के इस ‘रेख़्ता-कलाम’ को देखकर ही देहली में रेख़्ता में शायरी करने का चलन हुआ। परन्तु मोहम्मद शाह ‘रंगीला’ से पहले कोई खास शायर रेख्ता का नहीं हुआ। रंगीले की रंगीन तबीयत से रेख़्ता शायरी परवान चढ़ी। उस समय मुगलिया सल्तनत ज़वाल पर थी और वहाँ पर ऐय्याशी, काहिली और बुजदिली एक आम बात थी। बादशाह से लेकर रैयत तक सब ऐशो-आराम में मसरूफ़1 थे। अतः यही सब रेख़्ता शायरी के दामन से लिपट गये। उर्दू शायरी के शुरू में ही इश्क़ बाज़ारी किस्म का रहा। उसमें अरमद-परस्ती (लौंडेबाजी) भी थी। ऊपर ‘वली’ की शायरी में देखा जा सकता है कि माशूक़ बेवफ़ा किस्म का है और इश्क़ में भी हल्कापन है। सद्रूद्दीन मुहम्मद खाँ ‘फ़ाइज’ वली के समकालीन थे और बादशाह औरंगजेब के समय से फ़ारसी में शायरी करते थे। रंगीला के समय उन्होंने वली के ‘कलामे-रेख़्ता’ से प्रभावित हो रेख्ता शायरी कहनी शुरू की। या तो वली फ़ाइज की गज़ल पर ही गज़ल कहते रहे या फिर वली की गज़लें उनके दीवान के छपने से पहले दिल्ली पहुंचती रही और फाइज़ ने उन पर गजलें लिखी। दोनों की एक एक गज़ल का नमूना पेश है‒ वली‒ खूबरू खूब काम करते हैं, इक निगाह में गुलाम करते हैं। देख खूबाँ को वक्त मिलने के, किस अदा सूं सलाम करते हैं।। कम निगाही से देखते हैं वले, काम अपना तमाम करते हैं। दिल ले जाते हैं ए ‘वली’ मेरा ! सर्वेक़द2 जब ख़िराम3 करते हैं।। फ़ाइज‒ जब सजीले ख़िराम करते हैं, हर तरफ़ कत्ले-आम करते हैं। मुख दिखा, छब बना, लिबास संवार, आशिकों को ग़ुलाम करते हैं।। यह नहीं नेक तौर ख़ूबाँ के, आशनाई को आम करते हैं। खूबरू आश्ना हैं ‘फ़ाइज’ के, मिल सभी राम-राम करते हैं।। यह वही फ़ाइज हैं जिन्होंने फरमाया था कि - कुएँ के गिर्द इन्दर की सभा थी। हरेक पनहारिन वाँ इक अपछरा थी।। इस दौर के शायरों में ‘आरज़ू’ ‘मज़हर’ ‘हातिम’ ‘मज़मून’, ‘आबरू’ ‘नाज़ी’, ‘यकरंग’, और ‘फ़ुगाँ’ ही शोहरत पा सके। सभी के एक दो शेर पेशे-खिदमत हैं‒ उस तुन्दख़ू4 सनम से जब से लगा हूँ मिलने। हर कोई मानता है मेरी दिलावरी5 को।। (आरज़ू) 1. मसरूफ़-मशगूल, खोये हुए; 2. सर्वेकद-सरू के पेड़ जैसे लम्बे; 3. ख़िराम-चलना; 4. तुन्दखू-गुस्सैल; 5. दिलावरी-बहादुरी, साहस, हौसला।। चले अब गुल के हाथों लुटाकर कारवाँ अपना। न छोड़ा हाय बुलबुल ने चमन में कुछ निशाँ अपना।। यह हसरत रह गई किस-किस मज़े से ज़िन्दगी करते। अगर होता चमन अपना, गुल अपना, बागबाँ अपना।। (मज़हर) जब से तेरी नज़र पड़ी है झलक। तब से लगती नहीं पलक से पलक।। यार का मुझ को इस क़दर डर है। शोख-ज़ालिम है और सितमगर1 है।। (हातिम) हँसी तेरी पियारे फुलझड़ी है। यही गुंचे के दिल में गुल झड़ी है।। चला कश्ती में आगे से जो वह महबूब जाता है। कभी आँखें भर आती है कभी दिल डूब जाता है।। (मज़मून) क्या हुआ मर गया अगर फरहाद। रूह पत्थर से सर पटकती है।। क़ौल ‘आबरू’ का था न जाऊँगा उस गली। (आबरू) होकर बेक़रार देखो आज फिर गया।। जिसने देखे तेरे लबे-शीरीं2। नज़र उसकी नहीं शकर की तरफ़।। न सैरेबाग़3 न मिलना, न मीठी बातें हैं। यह दिन बहार के ए जान मुफ़्त जाते हैं।। (नाज़ी) न कहो यह कि यार जाता है। मेरा सब्रो-क़रार4 जाता है।। (यकरंग) बावर तुझे अगर नहीं आता तो देख ले । आँसू ढलक गये हैं कहीं, लख़्ते-जिगर5 कहीं।। दिलबस्तगी6 क़फ़स7 में यहाँ तक मुझे हुई। गोया चमन में कभी आशियाँ न था। (फ़ुगाँ) * 1. सितमगर-जुल्म ढाने वाला; 2. लबेशीरीं-सरस होंट; 3. सैरेबाग-बागीचे में सैर; 4. सब्रोकरार-धीरज, सुकून 5. लख़्तेज़िगर-कलेजे का टुकड़ा; 6. दिलबस्तगी-दिल की लगन; 7. कफ़स-कैद।
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