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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:48 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
सैयद इंशा अल्लाह खां ‘इंशा’ सैयद इंशा अल्ला खां ‘इंशा’ वैसे तो बला के जहीन थे पर गज़ल गोई में उनको इतना कमाल हासिल नहीं था। शेर तो वो एक से एक बेहतरीन कह सकते थे और ऐसी कोई चीज या बात नहीं जिस पर वे शेर न कह सकें। वे पहले दिल्ली में शाह आलम के दरबार में और उसके मुफ़लिस1 होने पर लखनऊ में सफलेमान शिकोह के दरबार में अपने रंगीलेपन के कारण सब पर छा गये। इन्होंने ‘मुसहफ़ी’ को बहुत परेशान किया। इंशा की तबीयत में मसख़रापन था। वे दरबार में जाते या मुशायरे में जाते तो तरह तरह के स्वांग भरकर। कभी दाढ़ी आधी मुंडी तो कभी भवें साफ। जलसे में इंशा का आना किसी भाँड के आने जैसा ही होता था। इसलिए मुसहफ़ी ने उनके लिए कहा कि‒ वल्लाह कि शायर नहीं तूँ भाँड है भड़वे। इंशा और मुसहफ़ी की चुहलबाजियाँ आप पहले ही देख चुके हैं। पर इंशा की सीरत2 में वह फितूर3 नहीं था जो उनकी तबीयत में था। इसलिए उन्होंने फरमाया कि‒ ख़्याल कीजिये क्या काम आज मैंने किया। जब उसने दी मुझे गाली, सलाम मैंने किया।। लेकिन वे ख़रिजी रंग में रंगे थे। दाख़िली शायरी से उनका कम वास्ता रहता था। उनकी ख़ारजी शायरी के चंद अशआर पेश हैं। है ज़ोरे-हुस्न से वोह निहायत घमंड पर। नामे-ख़ुदा निगाह पड़े क्यूं न डंड पर।। वह जो महन्त बैठे हैं राधा के कुंड पर। औतार बन के गिरते हैं परियों के झुंड पर ।। गर नाज़नीं4 कहने से बुरा मानते हो आप। मेरी तरफ़ से देखिए, मैं नाज़नीं सही।। ज़िगर की आग बुझे जिससे, जल्द वो शय ला। लगा के बर्फ में साकी, सुराहिये-मय5 ला।। 1. मुफलिस- गरीब; 2. सीरत- मानसिकता; 3. फितूर- नुक्स, विकार; 4. नाजनी- सुंदरी, कोमलांगी; 5. सुराहिये मय- मय की सुराही। गर यार मय पिलाये तो फिर क्यों न पीजिए। जाहिद नहीं, मैं शेख नहीं, कुछ वली नहीं।। अजीब लुत्फ़ कुछ आपस की छेड़छाड़ में है। कहाँ मिलाप में वह बात जो बिगाड़ में है।। कोई दुनिया से भला क्या माँगे। वह तो बेचारी आप तंगी है।। महशर1 की तिश्नगी2 से क्या खौफ़ सैयद इंशा। कौसर3 का जाम देगा मुझको इमाम मेरा।। ले के मैं ओढूं, बिछाऊँ या लपेटूँ क्या करूँ। रूखी, फीकी, सूखी, साखी मेहरबानी आपकी।। ऐसा भी नहीं कि कभी इंशा को गर्दिर्शों ने न घेरा हो। सआदत अली खाँ के दरबार में इनको नवाब की नाराज़गी से भी वाक़फियत4 हुई और इनका इंतक़ाल गर्दिशी हालात में ही हुआ। उस समय इन्होंने दर्द पर गज़ल गोई भी की जिसकी रोशन मिसाल है ये गज़ल- कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं। बहुत आगे गये बाकी जो हैं तैयार बैठे हैं।। न छेड़ ए निकहते-बादे-बहारी5, राह अलग अपनी। तुझे अठखेलियाँ सूझी हैं, हम बेज़ार बैठे हैं।। तसव्वुर अर्श पर है और सर है पाये साक़ी पर। गरज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मयख़्वार बैठे हैं।। बसाने-नक़्श पाये-रहरवां कूए-तमन्ना6 में। नहीं उठने की ताकत क्या करें ? लाचार बैठे हैं ।। यह अपनी चाल है उफ़्तादगी7 से अब कि पहरों तक। नज़र आये जहाँ पर साय-ए-दीवार8, बैठे हैं।। कहाँ सब्रो-तहम्मुल9 ? आह ! नंगोनाम क्या शै है ? मियाँ रो-पीटकर इन सबको हम यकबार10 बैठे हैं।। 1. महशर- कयामत के दिन; 2. तिश्नगी- तृष्णा, लालसा; 3. कौसर- जन्नत की एक नहर; 4. वाकफियत- जान पहचान; 5. निकहते बादे बहारी- फूलों से सुगन्धित बहार की हवा; 6. बसाने नक्श पाये रहरवां कूए तमन्ना- रहनुमा के पाँव के निशानों के पास मंजिल की तमन्ना करते हुए; 7. उफ़्तादगी- दीनता, गरीबी; 8. साय ए दीवार- दीवार की परछाई; 9. सब्रो तहम्मुल- सब्र और सहनशीलता; 10. यकबार- एक बार। नजीबों1 का अजब कुछ हाल है इस दौर में यारों। जहाँ पूछो यही कहते हैं ‘‘हम बेकार बैठे हैं।’’ भला गर्दिश फ़लक2 की चैन देती है किसे इंशा। गनीमत है कि हम सूरत यहाँ दो चार बैठे हैं। इस गज़ल में जो पीड़ा है वह इंशा को यादगार बनाने के लिए काफ़ी है। उनके दो और शेर पेश करके अपने सफ़र को आगे बढ़ाता हूँ‒ सजगर्म, जबीं गर्म, निगाह गर्म, अदा गर्म। वो तरसे हैं तो नाखूनेपा, नामे खुदा गर्म।। परतोव3 से चाँदनी के, है सहने-बाग़4 ठंडा। फूलों की सेज पर आ, कर दे चिराग़ ठंडा।। * 1. नजीब- खानदानी लोग; 2. फलक- आस्मान; 3. परतोव- अक्स, परछाई; 4. सहने बाग- बाग का वातावरण।
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