सैयद रियाज़ अहमद ‘रियाज’ खैराबादी सैयद रियाज़ अहमद ‘रियाज’ खैराबाद जिला सीतापुर उ.प्र. में पैदा हुए और लख़नवी स्कूल के नामाचीन शायर थे। आपने पहले ‘असीर’ से और बाद में ‘अमीर मीनाई’ साहब से इस्लाह हासिल की। खैराबाद छोड़कर आप गोरखपुर आ गये और वहाँ पर 1907 तक आबाद रहे। गोरख़पुर आपके जी को इतना भा गया था कि वहाँ से लखनऊ जाते वक्त आपके मुँह से बे-साख्ता ये शेर निकल पड़ा- जवानी जिनमें खोई है वोह गलियाँ याद आती है। बड़ी हसरत से लब पर जिक्रे-गोरखपुर आता है।। ‘रियाज’ साहब गज़लगो शायर थे और अक्सर शबाब की बातें किया करते थे। कोई ऐसी जमीं नहीं जिस पर वे गज़ल न कह सकें। अपनी तबीयत की रंगीनी के बारे में वे खुद कहते थे कि - वाह क्या रंग है, क्या खूब तबीयत है रियाज। हो जमीं कोई तुम्हें फूलते-फलते देखा।। और जिस अंजुमन में बैठ गया रौनक आ गई। कुछ आदमी ‘रियाज़’ अज़ब दिल्लगी का था।। शराब और मैखाने पर रियाज ने खूब लिखा लेकिन खुद कभी शराब न पी। बकौल ‘जलील’‒ मस्ते-मय कर दिया जहाँ भर को। खुद लगाया न मुँह से सागर को।। और जब किसी ने पूछा कि आप पीते हैं कि नहीं ? तो फ़र्माया - शेरे-तर मेरे छलकते हुए सागर है रियाज़। फिर भी सब पूछते हैं-आपने पी है कि नहीं ? रियाज के दीवान का नाम है, ‘रियाज़े-रिज़वाँ’ इसमें तकरबीन 7000 अशआर है जिनमें से तकरीबन 1350 अशआर सागरो-मीना से छलकते हैं और 600 गजलों में से एक भी गज़ल ऐसी नहीं जिसमें सागरो-मीना न हों। इस तरह के कुछ शेर पेशे खिदमत है - रहने देगा न दमे-नजअ1 कोई हल़क को खुश्क़। मैकदे में हमें इतना तो सहारा होगा। आबे-ज़मज़म2 के सिवा कुछ नहीं काबे में ‘रियाज़’। मैकदा तुम जिसे समझे हो मदीना होगा। बज़्मे-महशर3 गर बने साक़ी की बज़्म। मैं न उठूंगा गर पी के गिरा।। नमाजे-ईद हुई मैकदे में धूम से आज। रियाज़ बादाकशों ने आज हमें इमाम किया।। दुनिया से अलग हमने मैख़ाने का दर देखा। मैख़ाने का दर देखा, अल्लाह का घर देखा।। दोनों के मजे लूटे, दोनों का असर देखा। अल्लाह का घर देखा, मैख़ाने का दर देखा।। काबे में नजर आये जो सुबह अजाँ देते। मैख़ाने में रातों को उनका भी गुज़र देखा।। कुछ काम नहीं मय से गो इश्क़ है इस शय से। है रिन्द ‘रियाज़’ ऐसे दामन भी न तर देखा।। यह अपनी व़ज़अ और यह दुश्नामे-मय-फरोश4। सुनकर जो पी गये यह मजा मुफ़लिसी का था।। जा जा के बज़्मे-वाज में सौ बार हमने पी। चोरी किसी की थी न हमें डर किसी का था।। अहले-हरम5 भी आके हुए थे शरीके-दौर। कुछ रंग आज और मेरी मैकशी का था।। राह से काबे के हमने रेजये-मीना6 चुने। क्या अजब इसके सबब हम को मिले हज का सबाब।। ईद के दिन मैकदे में है कोई ऐसा ‘रियाज़’। एक चूल्लू दे के जो ले तीस रोजों का सबाब।। 1. दमे नजअ- जाँकनी के वक्त, अन्तिम श्वास तक; 2. आबे ज़मज़म- काबे में सोते का पानी; 3. बज़्मे महशर- कयामत के दिन की महफिल; 4. दुश्नामे मय फरोश- मदिरा बेचने वाले की बदनामी; 5. अहले हरम - मस्जिद के मौलवी; 6. रेजये मीना- शराब रखने का पात्र (पैमाने) के टुकड़े। आबाद करे बादाकश अल्लाह का घर आज। दिन जुम्मे का है बन्द है मैख़ाने के दर आज।। मैख़ाना हमारा कोई मस्जिद तो नहीं है। तसबीह1 लिये कौन बुज़ुर्ग आये इधर आज।। मेरा यही खयाल है गो मैने पी नहीं। कोई हसीं पिलाये तो यह शय बुरी नहीं।। खुदा के हाथ है बिकना न बिकना मय का ऐ साक़ी। बराबर मसज़िदे-जामा2 के हमने अब दुकां रख दी।। बिना3 है एक ही दोनों की काबा हो कि बुतखाना। उठा कर खिश्ते-खुम4 हमने यहाँ रख दी वहाँ रख दी।। रियाज़ की मैकशी की शायरी में फ़लसफाना रंग है। एक शेर पेश है जो यह कहता है कि पीने वालों के मुँह पर तेज नहीं आता और उसका कारण बताता है कि केवल ईश्वर में लीन होने से चेहरे पर तेज नहीं आता इसके लिये नीयत का पाक साफ होना जरूरी है। पीकर भी झलक नूर की मुँह पर नहीं आती। हम रिन्दों में जो साहबे-ईमाँ नहीं होते।। काजल की कोठरी में न जाने में ही बेहतर है क्योंकि वहां जाने पर जो दाग लगेगा उसे छुड़ाना मुश्किल होता है। अगर दामन पर दाग लगा तो जग में रूसवाई हो ही जायेगी, भले दिल आपका कितना ही पाक क्यूं न हो। इस बात को क्या खूब कहा है - दिल पाक साफ़ लाख है दामन को क्या करूँ। जा जा के मैकदे में ये धब्बा लगा दिया।। कर्ज लेकर पीने वाले हमेशा यह सोचते रहते हैं कि मुफ़्त की पी रहे हैं लेकिन उधार चढ़ता जाता है और वह कंगाल हो जाता है। इस बात को कहता ये शेर देखें - जब तक मिलेगी कर्ज़ पिये जायेंगे जरूर। हम जानते हैं मुफ्त है सौदा उधार का।। मैकशी की सुखन-फहमी में, रस्म है कि वाइज और नासेह जो मैकेशी की खिलाफ़त करते हैं तथा जाहिद जो पीने से परहेज रखता है पर तंज कसे जायें। इसी रस्म को निभाते हुए ‘रियाज’ साहब ने भी शेर लिखे जिनका नमूना देखते हैं‒ 1. तसबीह- माला; 2. मस्जिदे जामा- बड़ी मस्जिद; 3. बिना- बुनियाद, कारण; 4. खिश्ते खुम- शराब रखने का पात्र। पी-पी के उसके सज़दे किये हैं तमाम रात। अल्लाह रे शगल जाहिदे-शब-जिन्दादार1 का।। किया जो मना मैकदे जाने से वाइज ने। तो रोज उठ के यही काम सुबह-ओ-शाम किया।। महफ़िले-वाज में वाइज न मेरे सर होता। एवज़े-शीशा2 अगर हाथ में पत्थर होता।। देखकर शोख़ हसीनों को बता ऐ नासेह। गुदगुदी दिल में कभी तेरे उठी है कि नहीं।। शेख ये कहता गया पीता गया। है बहुत ही बदमज़ा3 बू भी नागवार है।। जी न माना हज़रते-नासेह को देखकर। कुछ यूँ ही थोड़ी सी पी ली दिल्लगी के वास्ते।। जिस काम को तू मना करेगा हमें नासेह। हम छोड़ के सौ काम वही काम करेंगे।। ऐ शेख तू चुरा के पिये जब कभी पिये। तेरी तरह किसी की न नीयत खराब हो।। जनाबे-शेख ने जब पी तो मुँह बना के कहा। ‘‘मजा भी तल्ख़ है कुछ बू भी खुशगवार नहीं’’।। पाक-ओ-साफ़ इतनी जिसने पी फ़रिश्ता हो गया। जाहिदों यह हूर के दामन में है छानी हुई। यह तो हुई मैकशी की बात। अब रियाज़ के इश्क़, आशिक और माशूक की बात करते हैं। माशूक के हुस्न की तारीफ का अंदाज देखिये। तेरा यह रंग रूप, यह जोबन शबाब का। जैसे चमन बहार में फूला-फला हुआ।। थी दिल में गुदगुदी कि पूछूँ दमे-विसाल। यह तूँ हँसा कि फूल खिला तेरे हार का।। और - वोह तस्वीर आज तक महफ़ूज4 है चश्मे-तसव्वुर5 में। तेरे बचपन से जब अठखेलियाँ करता शबाब आया।। 1. जाहिदे शब जिन्दादार- रातों को जाग कर इबादत करने वाला; 2. एवजे शीशा- गिलास के बजाय; 3. बदमजा - खराब स्वाद वाली; 4. महफूज- सुरक्षित; 5. चश्मे तसव्वुर- कल्पना की नज़र। हुए हंगामा-ए-हश्र1 कितने गोशाये2-दिल में। वोह मेरे सामने कुछ इस अदा से बेनकाब आया।। और उसकी नजाकत का अंदाज देखिये - वोह सिन3 ही क्या है समझ हो जो ऐसी बातों की। वोह पूछते हैं कि-‘‘रोजे-विसाल क्या होगा ?’’ शर्माेहया का आलम देखिये- नशे से झुकी पड़ती थी यूं ही तेरी आँखें। छेड़ों से मेरी और बढ़ा बोझ हया का।। दिल छीनती हैं और झुकी जाती हैं आँखें। शोखी में भी जाता नहीं अन्दाज़ हया का।। कह उठे-‘‘चुप क्यों हो विसाल के बाद ?’’ खुद ही शरमा गये इस सवाल के बाद।। और शोखियों की तो बात ही क्या है‒ वक़्त ही ऐसा था रूख़सत हो गयी उनकी हया। बात ही ऐसी थी खुल खेले वो शरमाने के बाद।। माशूक का हरज़ाईपन और बेवफाई तो लख़नवी स्कूल की विशेषता है, तो फिर रियाज़ का हबीब क्यूँ कम हरज़ाई या बेवफ़ा होगा‒ गैर के घर से झिझकते हुए तुम निकले थे। रुकते देखा तुम्हें फिर छुपके निकलते देखा।। कभी कुछ रात गये या कभी कुछ रात रहे। हमने इन परदानशीनों को निकलते देखा।। और आशिक मियाँ फिर आवारा क्यूं न हो - बाज़ार में भी चलते हैं तो कोठों को देखते। सौदा खरीदते हैं तो बस ऊँची दुकान का।। लूटी है बहुत हमने हसीनो की जवानी। पीरी में भी अब तक है जवानी की वही बात।। हमको मिल जायें तो आ जाये मजा, अच्छे माशूक और सस्ते दाम के। जितने माशूक हैं मिल जायें हमें, हैं ये काफ़िर सब हमारे काम के।। 1. हंगामा ए हश्र- कयामत के दिन के हंगामे; 2. गोशये दिल - दिल के कोने में; 3. सिन- उम्र। जब माशूक और आशिक बाज़ारी है तो फिर इश्क़ कैसा होगा? ये भी देखिये- कहते हैं ‘‘जान पड़ गई आफ़त में वक्ते-वस्ल’’। ‘‘मल दल के रख दिया मुझे अच्छा ये प्यार है’’।। कहना किसी का सुबहे-शबे-वस्ल1 नाज़ से। ‘‘हसरत तुम्हारी जान हमारी निकल गई’’।। मैंने लिया जो हश्र में दामन बढ़ा के हाथ। बोले वोह, ‘‘आबरू है मेरी अब खुदा के हाथ’’।। बढ़ने लगे थे दस्ते-अदब2 बनके दस्ते-शौक3। ज़ालिम ने आज थाम लिये मुस्कुरा के हाथ।। लेकिन इक्का दुक्का शेर पाक-इश्क पर भी मिलता है कलामे-रियाज़ में, नमूना देखिये- ताअत4 का इन बुतों ने सलीका सिखा दिया। खुद क्या मिले कि मुझको खुदा से मिला दिया।। और तसव्वुफ तथा फ़लसफा तो पहले आप देख ही चुके हैं, फिर भी एक और नमूना देखिये- जिनके दिल में है दर्द दुनिया का। वही दुनिया में जिन्दा रहते हैं।। जो मिटाते हैं खुद को जीते जी। वही मरकर भी जिंदा रहते हैं।। और अंत में‒ ऐसे हर शख़्स को मेरा झुककर सलाम। खुलकर जो कहे हर बात को सरेआम।। * 1. सुब्हे शबे वस्ल- मिलन की रात्रि की सुबह; 2. दस्ते अदब- अदब से उठने वाले हाथ; 3. दस्ते शौक- मज़े लेने वाले हाथ; 4. ताअत - पूजा, उपासना।