पंडित लभ्भूराम ‘जोश’ मलसियानी पंडित लभ्भूराम उर्फ ‘जोश’ मलसियानी का जन्म सन् 1882 में कस्बा मलसियाँ जिला जालंधर में हुआ। कच्ची उम्र ही में पिता का साया सर से उठ जाने के कारण जिंदगी ज़द्दोज़हद में गुज़री पर फ़ारसी की तालीम हासिल कर अध्यापक जरूर बन गये। अपने बल पर शायरी में कमाल हासिल करना इनकी बड़ी सफलता रही। बाद में इस्लाह लेकर मिर्जा दाग़ के शार्गिद भी रहने का गौरव हासिल किया। शतरंज के माहिर खिलाड़ी थे और अपने आप को शतरंज के प्यादे जैसा वापस न पलटने वाला सिपाही बताते थे। मुझसे जाँबाज को गुरबत है, बिसाते-शतरंज। जो न पल्टे कभी वापस वह पियादा हूँ मैं।। इश्क़ में हुई रूसवाई को भी शतरंज की ‘शह’ और ‘मात’ से तौलते हुए फरमाया कि- शिकस्त अंजाम1 कैसो-कौहकन ही को नहीं देखा। बिसाते-इश्को-उल्फ़त2 पर तो हर शातिर3 को मातें हैं।। इंसान उठता है विश्व-विजय के लिये पर जरा सी गफ़लत में पड़ा कि गिरा औंधे मुँह। यही सिकंदर के साथ हुआ, नेपोलियन के साथ हुआ और हिटलर के साथ हुआ। इनमें हर एक अपने फन में माहिर था और शातिर उस्ताद था। समय की चाल की भी वह ख़बर रखता था लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि वे बाजी हार गये। इस दुनिया रूपी शतरंज की बिसात में कोई भी बाजी जीत नहीं सकता। इस बात को क्या खूब कहा है इस शेर में- समझते खूब थे हम, शतिरे-गर्दू 4 की चालों को। मगर नक्शा पड़ा ऐसा कि बाजी हार बैठे हम।। मलसियानी साहब सरल, संतोषी मगर खुद्दार इंसान थे। ढोंग का एक भी दाग उनके दामन पे न था। बड़े अदब वाले और जहीन इंसान थे। अपने बारे में उन्होंने फर्माया कि- 1. शिकस्त अंजाम- हारा हुआ, असफल; 2. बिसाते इश्को उल्फत- प्यार एवं मोहब्बत की बाज़ी; 3. शातिर-दाव लगाने वाला, जुआरी, शतरंज का खिलाड़ी; 4. शातिरे गर्दू- समय रूपी शातिर। ख़ाकसारी ने मुझे पाक बनाया ऐ ‘जोश’ ! एक भी दाग़े-रऊनत1 मेरे दामन में नहीं।। आप क्या पूछते हैं किस्मते-खुद्दारि-ए-दिल2। सारी दुनिया की भी दौलत मुझे मंजूर नहीं।। अपनी शख़्सियत पर जितने सटीक शेर जोश साहब ने कहे और किसी भी शायर ने न कहे होंगे। अपनी स्पष्ट वादिता पर उन्होंने फर्माया कि- जमाना साजियों 3 से बन्दा परवर ! हमको नफ़रत है। भरी महफ़िल में मुंह पर साफ़ कह देने की आदत है।। आपकी शायरी में कहीं इकबाल का रंग झलकता है तो कभी गालिब का तंज। इकबाल की तर्ज़ पर शहीदों की अमरता के बारे में आपने फर्माया कि- हयाते-जाविदाँ 4 आई है, जाँ-बाजों के हिस्से में। हमेशा जीने वाले हैं, यह जितने मरने वाले हैं।। इकबाल की नज़्म ‘खुदी को कर बुलंद इतना’ ही की तर्ज़ पर आपने कहा कि- कहूँ शरहे-बयाँ 5 क्यों कर खिरद मन्दों 6 की महफ़िल में। ये वो नुक़्ते हैं जिनको अहले-दानिश 7 कम समझते हैं।। हुए जो खूगरे-गम, ऐश का उन पर असर क्या हो। खुशी को वह खुशी समझें जो ग़म को ग़म समझते हैं।। आपका शेर सितारों से आगे जहाँ और भी है भी इकबाल ही के रंग में ढ़ला है। अर्ज़ किया है- हरम8 से कुछ आगे बढ़े हम तो देखा। जिबीं 9 के लिए आस्ताँ और भी हैं।। सितारों के आगे जहाँ और भी हैं। अभी इश्क के इम्तिहाँ और भी हैं।। गालिबाना तर्ज़ के चंद उदाहरण भी पेशे-खिदमत हैं- कायल खुदा का यूं तो है, सारा जमाना जोश ! कितना है एहतरामे- खुदा10 कुछ न पूछिये।। (खुदा को यूं तो हर कोई मानता है लेकिन कितनों को उस पर भरोसा है ये पूछने की बात नहीं।) 1. दागे रऊनत- घमण्ड का दाग; 2. किस्मते खुद्दारि ए दिल- आत्म सम्मान से भरे दिल का भाग्य; 3. ज़माना साजियों-दुनियादारियों; 4. हयाते जाविदाँ-अमरता; 5. शरहे बयाँ- हालात, अनुभवों का ज़िक्र; 6. खिरदमन्दों- ज्ञानियों, अक्लमन्दों; 7. अहले दानिश- ज्ञानी, और समझदार; 8. हरम- मन्दिर; 9. जिबीं- ढोक देना, सज़्दा करना; 10. एहतरामेखुदा- ईश्वर पर विश्वास। हर नाअहल1 के क़दमों पर हम झुक कर सलाम करते हैं। इस कम्बख्त हविस की ख़ातिर जो न किया था करते हैं।। (इच्छा की पूर्ति के लिये अयोग्य आदमियों को भी सलाम करना पड़ना है। जरूरत के लिए गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।) शुक्रे-नेमत2 के लिये खुल्द3 में आना ही पड़ा। वर्ना इस गुलशने-बे-कैफ4 में रक्खा क्या है ? (जन्नत में मजा नहीं है क्यों कि वह भावना-हीन होती है लेकिन खुदा की पेश दस्ती का अहसान चुकाने को वहाँ आना ही पड़ता है।) ये अदा हुई कि जफ़ा हुई, ये करम हुआ कि सज़ा हुई। उसे शैके-दीद अता किया जो निगाह की ताब न ला सके।। (खुदा का इंसाफ भी बड़ा अजीब है, जो अंधा है उसे वह शौक की निगाह दे देता है।) अब अगर कोई दाग का शार्गिद हो और उस पर उनका असर न हो ये तो मुमकिन नहीं। इस बात की मिसाल में चन्द शेर पेश करता हूँ। अंजामे-वफ़ा तो जाहिर है, अंजामे-वफ़ा पर बहस न कर। हर साँस ख़बर देती है तुझे हस्ती के हवा हो जाने की।। मौत ही इन्सान की दुश्मन नहीं। जिन्दगी भी जान लेकर जायेगी।। दिन को तारे तो मुकद्दर ने दिखाये हैं मुझे। फिर भी आती हैं सदाएँ ‘अभी देखा क्या है।’ याद रखना तो आप भूल गये। भूल जाना मगर है अब तक याद।। अक्ल से क्या पूछता, आफ़त को सर पर देखकर। वह तो खुद चकरा गई, किस्मत का चक्कर देखकर।। ख़ारजी शायरी में जामो-मीना की बात, शेखो-वाइज़ की बात, हुस्नो-इश्क की बात का न होना मुमकिन नहीं। खुद ने भले मैं नहीं चक्खी पर फिर भी मैकशी का बयान देखिये। आता है जज़्बा-ए-दिल5 को, वह अन्दाजे-मैक़शी। रिन्दों में रिन्द भी रहें, दामन भी तर न हो।। 1. नाअहल- अयोग्य, नालायक; 2. शुक्रे नेमत- खुदा की बख्शीश का शुक्रिया; 3. खुल्द- स्वर्ग; 4. गुलशने बे कैफ़- वह बगीचा जो खुशगवार न हो; 5. जज़्बा-ए-दिल- दिल के जज़्बात। और तौबा कैसी ? दाद के काबिल हैं उसकी मसलेहत-अन्देशियाँ। जिसने तौबा तोड़ डाली हो घटा को देखकर।। शेखजी के बारे में आपका सोचना है कि- ऐ शेख ! किस जगह को तेरा मुकाम समझें ? तूँ कुछ जमीन पर है, कुछ आस्मान पर है।। और जब खाली बैठें हो तो ‘वाइज’ के साथ से भी परहेज नहीं रखते क्यों कि दिल तो लगेगा- कुछ फायदा ऩ सही, दिल्लगी तो है। बे-कैफ़ियों1 में सुहबते-वाइज़2 बुरी नहीं।। जाहिद क्यूँ शराब से परहेज रखता है ? इस का बयान देखिये- जाहिद के क़स्रे-जुह्द3 की बुनियाद यही है। मस्ज़िद बहुत करीब थी, मैखाना दूर था।। आपका क़लाम कभी सूफियाना, कभी मुतफर्रिक तो कभी जिन्दा दिल होता था। अलग-अलग अन्दाजों के नमूनात पेशे-खिदमत हैं। अदा-ए-नाज ही के मुख़्तलिफ़4 यह दो करिश्मे हैं। तेरा दिल में उतर जाना, मेरा दिल से उतर जाना।। न जाना और कुछ ऐ जोश ! हमने शेर कह-कह कर।। यही जाना कि अपने एब को भी इक हुनर जाना।। इसी अंदाज की एक गज़ल पेश है- हूर-ओ-गिल्माँ 5 से मुहब्बत मुझे मंज़ूर नहीं। तेरा कूचा हो तो जन्नत मुझे मंजूर नहीं।। क्यों मेरे जज्बा-ए-मासूम6 को देता है फ़रेब। साफ़ कह दे कि मुहब्बत मुझे मंजूर नहीं।। पारसाई 7 पै अगर ज्रिक्रे खुदा है मौक़ूफ़8। ऐसी बे-कैफ़ इबादत मुझे मंजूर नहीं।। कोहे-ग़म9 सर पे उठाना तो है मंजूर मगर। आपका बारे-अमानत10 मुझे मंजूर नहीं।। 1. बे कैफ़ियों- बे मज़े का समय; 2. सुहबतें वाइज़- वाइज़ की संगत; 3. क़स्रे जुहद- अधिकपरहेज़गारी; 4. मुख़्तलिफ- विभिन्न; 5. हूर ओ गिल्माँ- जन्नत की परियाँ और खूबसूरत बच्चे; 6. जज़्बा ए मासूम- भोलेपन के विचार/भाव; 7. पारसाई- परहेज़गारी; 8. मौकूफ- अधीन; 9. कोहे ग़म-गम का पहाड़; 10. बारे अमानत- अमानत का बोझ। तर्के-दुनिया भी करूँ तर्के-तमन्ना भी करूँ। तौबा, तौबा यह मुसीबत मुझे मंजूर नहीं।। बेचने के लिए होती है अगर ताअते-हक1। शेख-साहब ! ये तिज़ारत मुझे मंजूर नहीं।। अब सूफियाना कलाम पर एक गज़ल के चन्द अशआर पेश हैं- नज़र-नज़र में तमाशे दिखा दिए ऐसे। मुझे भी इक तमाशा बना गया कोई।। दिखा के शौक-निगाही का जलव-ए-बेताब। मेरी नज़र को तड़पना सिखा गया कोई।। दिया वोह दर्द कि थी जिसमें इक लज़्ज़ते-ख़ास। सितम में शाने-करम भी दिखा गया कोई।। यह मोअजिज़ा2 है कि जिन्दा हैं अब मेरे अरमाँ। मरे हुओं को भी जीना सिखा गया कोई।। नक़ाब रुख से उठा दी मगर कमाल ये है। मेरी नज़र का भी पर्दा उठा गया कोई।। वतन परस्ती के जुनून से भरी ये नज़्म भी आपको पेश है- हरइक शम्अ है, अंजुमन के लिये। सब अहले-वतन है, वतन के लिये।। न रख पास कौड़ी, कफ़न के लिये। खज़ाने लुटा दे वतन के लिये।। वही नब्ज़ है, जिन्दगी का निशाँ। तड़पती रहे वतन के लिये।। वतन की गरीबी पै नालाँ न हो। ख़जाना है तूँ खुद वतन के लिये।। ढल आये हैं, आँखों से कुछ अश्क़े-ग़म। ये मोती तोहफ़ा है वतन के लिये।। मुसीबत है तेरा यह ख़्वाबेगराँ 3। न हो बारे-खातिर4 वतन के लिये।। इसी मौत में हैं मसीहाइयाँ। मुबारक है मरना वतन के लिये।। 1. ताअते हक़- खुदा की इबादत; 2. मोअजिज़ा- चमत्कार, अचंभा; 3. ख्वाबे गराँ- बोझिल सपना; 4. बारे खातिर- हृदय पर बोझ। मुतफ़र्रिक रंग का भी मुलाहिजा फर्माइये इन शेरों से- सुनता हूँ रात भर वो रहे पेचो-ताब में। क्या जाने लिख दिया उन्हें क्या इज़्तिराब में।। एक तो ये नाज़ुकी और उसपै इतना बारे-हुस्न1। आप भी मेरी तरह शिकवा करें तकदीर का।। अब इस शिकवे से क्या हासिल कि ‘रहबर खुदगरज़ निकला।’ पराई आस जो तकते हैं अक्सर ख़्वार होते हैं।। और जिन्दादिली का कलाम देखिये- अहले-मग़रिब के फरेबाबाद में। सुलह का चर्चा पयामे-जंग2 है।। आप गोरे हैं तो हम काले सही। ऐब क्या है अपना-अपना रंग है।। साँस लेने में भी दुश्वारी हुई। किस क़दर तौके-गुलामी3 तंग है।। नाम लिख आये थे अपना बाग के हर फूल में। यूँ हुए ऐ बागबाँ ! उनके गले का हार हम।। नोट पर यह नोट कर दो जोश तुम। दौलत अब कागज़ का टुकड़ा रह गई।। ऐ काश ! उसको-मुझको बाहम4 गले मिला दे। दो आदमी यहाँ के दो आदमी वहाँ के।। हुस्न और मेहरबानी, इश्क और शादमानी5। ऐसा कभी न होगा, ऐसा कभी हुआ है ?? आपने ‘गरीबों की दुनिया’ नाम की एक नज़्म लिखी है जिसके चंद शेर पेश हैं।- गरीबों के घर में मसर्रत6 भी ग़म है। गरीबों के घर में खुशी भी अलम7 है।। गरीबों की गर्दन है, तेगे-सितम है। गरीबों की हस्ती अदम है, अदम8 है।। गरीबों की दुनिया में राहत न ढूढ़ो।। 1. बारे हुस्न- सुंदरता का बोझ; 2. पयामे जंग- युद्ध का संदेश; 3. तौके गुलामी- गुलामी का फंदा; 4. बाहम- आपस में, एक दूसरे से; 5. शादमानी- खुशी; 6. मसर्रत- खुशी, प्रसन्नता; 7. अलम - गम; 8. अदम- हीन। ख़ता हो किसी की, ख़तावार ये हैं। कुसूर और का हो, गुनहगार ये हैं।। शफ़ा1 जिनसे भागे, वे बीमार ये हैं। नहीं जिसका चारा वे लाचार ये हैं।। गरीबों की दुनिया में राहत न ढ़ूँढ़ो।। और अन्त में उनकी एक गज़ल पेश करते हुए उसने रूख़सत माँग आगे बढ़ूँगा। ख़्वाब समझो ख्याल राहत का। जिन्दगी नाम है मुसीबत का।। दुहाई-फ़रियाद, नाला-ओ-शेवन2। यही ईनाम है मुहब्बत का।। उन्स3 हमको नहीं गुनाहों से। इम्तिहाँ कर रहे हैं रहमत का।। खुदनुमाइ तो उसकी फ़ितरत है। हुस्न भूखा नहीं है शौहरत का।। राह नापैद4, रहनुमा नापैद। सामना है अज़ब मुसीबत का।। बारे-उल्फ़त5 वोह क्या उठाएँगे। उज्र6 है उसमें भी नज़ाकत का।। यही बरताव है तो जाता हूँ। शुक्रिया आप की इनायत का।। आप क्यों जाते हैं जनाब ‘जोश’ मलसियानी साहब! जाना तो हमें है। सफ़र किसका है? हमारा कि आपका? मुसाफ़िर कौन है? हम हैं न! तो फिर आप काबिज रहें आपकी शायरी के साथ और इज़ाजत दें हमें आगे बढ़ने की! * 1. शफ़ा- इलाज, राहत; 2. नालाओ शेवन- रोना, चिल्लाना; 3. उन्स-प्रेम; 4. नापैद- दुर्लभ; 5. बारे उल्फत- इश्क का भार; 6. उज्र- बहाना, झूठा कारण।