पंडित दयाशंकर ‘नसीम’ पंडित दयाशंकर ‘नसीम’ यों तो कश्मीरी पंडित थे पर देखने में काले और कद के छोटे थे। लखनऊ में रहते थे और जनाब ‘आतिश’ के शागिर्द थे। नसीम ने ‘गुल बकावली’ की कहानी को नज़्म में ढाला और उसका नाम ‘गुलाज़ारे-नसीम’ रखा। वे मसनवियाँ लिखने में मीर हसन की बराबरी रखते थे। एक बार एक मुशायरे में शेख नासिख ने हिन्दू धर्म पर चोट करते हुए एक मिसरा कहा‒ शेख ने मस्जिद बना मिसमार1 बुतखाना किया। और पंडित जी से जवाब देने को कहा। इनका बहुत ही उम्दा ये जवाब था कि- तब तो इक सूरत भी थी, अब साफ़ वीराना किया।। इस मिसरे को बहुत दाद मिली। नसीम ने अपने उस्ताद आतिश के कई शेरों पर तीन मिसरे लगाकर ‘तजमीनें’ लिखीं। इनका एक नमूना पेशे-खिदमत है। आतिश का शेर था- न ख़ूनी कफ़न है न घायल हुए हैं। न जख़्मी बदन है न बिस्मिल2 हुए हैं।। और नसीम की तज़मीन थी- लहू मल के कुश्ती में दाख़िल हुए हैं, तुम्हारे शहीदों में शामिल हुए हैं। गुल-ओ-लाल-ए-अगर वाँ3 कैसे-कैसैे।। रिंद और नसीम की बनती न थी। रिंद ने एक शेर कहा था कि - रास्ता रोक के कह लूंगा जो कहना है मुझे । क्या मिलोगे न कभी राह में आते-जाते ।। नसीम ने एक मुशायरे में इसे पढ़ते वक्त मिलोगे की जगह मिलोगी पढ़ दिया, तो लोगबाग बहुत हंसे। और फिर यह शेर इसी सूरत में पढ़ा जाने लगा। रिन्द के शेरों के मिसरे नसीम अक्सर बदल देते थे । एक मुशायरे में रिन्द की महशूर गज़ल जिसका मक़्ता था कि- 1. मिसमार- भुला देना, तोड़ देना; 2. बिस्मिल- घायल ; 3. गुल ओ लाल ए अगरवाँ- फूल और लाल रत्न (जैसे व्यक्ति)। वस्ल इंसान को परीजादों का हो, है दुश्वार। फायदा कुछ नहीं, तुम मुुफ्त में क्यूं होते हो ख़्वार1 ।। नसीम ने इस पर एक ख़मसा पढ़ा जिसके शुरू के तीन मिसरे थे कि- कहते कहते तो हुए तुमको ‘नसीम’ अब लाचार, इश्क़ को तर्क करो या न करो, हो मुख़्तार2। नेको-बद3 हम हैं रिंद तुमको सुझाते जाते।। इस पर रिंद ने सरे-मुशायरा तलवार खींच ली। बात ये थी कि रिंद एक रंगीन मिज़ाज़ शायर थे लेकिन क़िस्मत से उनका इश्क़ मंजिल तक पहुंचने में कामयाब न रहा इसलिए वे मायूस थे । ख़मसे में नसीम ने उनकी इसी रूसवाई पर चोट की थी। खैर मामला बीच बचाव से निपट गया। नसीम की शायरी अपने उस्ताद आतिश की तरह ही वज़नदार थी। चंद नमूने पेशे-खिदमत हैं। जो दिन को निकलो तो खुर्शीद4 गर्दे-सर5 घूमे। चलो जो शब को तो कदमों पे माहताब गिरे।। इश्क़ के रूतबे के आगे आसमां भी पस्त है। सर झुकाया है फरिश्तों ने बशर6 के आगे।। आन में फर्क न आने दीजिए । जान गर जाये तो जाने दीजिए।। कूचये-जाना की मिलती थी न राह। बंद आँखें की तो रस्ता खुल गया।। आँख नर्गिस7 से जो उसकी लड़ गई। सुबह दम क्या ओस गुल पर पड़ गई।। जिस कदर वस्ले-बुतां8 का तुम्हें रहता है ख़्याल। ऐ नसीम ! इतनी कभी यादे-ख़ुदा आती भी है। अहदे-पीरी9 में रवाना हुए यों होशो-हवास। सुब्ह को जैसे मुसाफ़िर से हो मंजिल ख़ाली।। अब नसीम की एक बेमिसाल गज़ल पेश है जो नवाब अमज़द अली साहब को भी बहुत पसन्द थी- 1. ख़्वार- परेशान; 2. मुख़्तार- आज़ाद, मर्ज़ी के मालिक; 3. नेको बद- अच्छा तथा बुरा; 4. खुर्शीद- सूर्य; 5. गर्दे सर- सिर के आस पास; 6. बशर- इंसान; 7. नर्गिस- फूल का नाम; 8. वस्ले बुताँ- हसीनों से मिलन; अहदे-पीरी- बुढ़ापे का समय। जब न जीते जी मेरे काम आयेगी, क्या ये दुनिया आक़बत1 बख़्शायेगी। जब मिले दो दिल मुख़िल2 फिर कौन है, बैठ जाओ खुद हया उठ जायेगी।। ख़ाकसारों3 से रखेगा जो ग़ुबार4, ओ फ़लक5 बदली तेरी हो जायेगी। गर यही है इस गुलिस्तां की हवा, शाख़े-गुल एक रोज झौंका खायेगी।। जब करेगा गर्मियाँ वो शोलारूख़6, शम्मे-महिफ़ल देखकर जल जायेगी। जाँ निकल जायेगी जब तन से नसीम, गुल को बूये-गुल7 हवा बतलायेगी।। और चन्द ख़ूबसूरत अशआर पेश हैं इस से क़ब्ल कि हम आगे बढे़ं : सब्र रूख़्सत हो तो जाने दीजिए, बेक़रारी आए तो ठहराइए। दिल ही मैं दिखलाइये तासीरे-इश्क़8, ठंडी सांसों से उन्हें गरमाइये।। अब्रे-रहमत9 सुनते हैं नाम आपका, ख़ाकसारों पर करम10 फरमाइये। सर्द आहें भरते हैं हम जब नसीम। कहते हैं वो ठंडे ठंडे जाइये। * 1. आक़बत- यमलोक में पापों के दण्ड से मुक्ति दिलायेगी; 2. मुखिल- बाधा डालने वाला; 3. ख़ाकसार- विनीत; 4. गुबार- मलिनता, रंजिश; 5. फ़लक- आकाश; 6. शोलारूख- दमदमाता हुआ चेहरा; 7. बूये गुल- फूल की खुशबू; 8. तासीरे इश्क- प्रेम का असर; 9. अब्रे रहमत- दया का बादल; 10. करम- मेहरबानी।