जाँनिसार ‘अख़्तर’ साहिर लुधियानवी और जाँनिसार अख़्तर की आपस में दाँत कटी रोटी थी। अस्ल में साहिर को तन्हा रहना भाता न था और जाँनिसार अख़्तर साहब उनकी तन्हाई को कम करते थे। यह एक तरह से उनकी नौकरी थी जिसके लिए उन्हें बाकयदा तनख़्वाह मिलती थी। यह वह ज़माना था जब जाँनिसार ‘बहू-बेगम’ नामक फिल्म बनाकर असफल निर्माता सिद्ध हो चुके थे। इस फिल्म में गीत साहिर ने लिखे थे या फिर उनके नाम का गीतों को बेचने के लिए इस्तेमाल किया गया था। इस बात ने फिल्मी दुनिया में उनकी शान को बट्टा ही लगाया। जाँनिसार आशु कवि थे और फिलबदी शायरी कर सकते थे। वे सन् 1936 के एम.ए.गोल्ड मेडेलिस्ट थे। सन् 1947 के देश विभाजन से पहले ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में उर्दू के प्रोफेसर थे। ग्वालियर से वे भोपाल आये तो वहाँ सैफ़िया कॉलेज में उर्दू विभाग के अध्यक्ष का पद मिल गया। लेकिन कांग्रेस सरकार से मुखालफ़त के चलते वहाँ से सब छोड़ कर मुम्बई आना पड़ा। मुम्बई में गीत लिखने और फिल्म बनाने की कोशिशें नाकाम हुईं तो मजबूरन वह करना पड़ा जो नहीं चाहते थे। जाँनिसार, साहिर लुधियानवी का साया बनकर रह गये। हर समय साहिर का साथ और साहिर की हर बात पर ‘हाँ’ कहना जाँनिसार साहब की मजबूरी बन गई। जाँनिसार की शख्सियत की मौलिकता इस बोझ से लुप्त-प्राय हो गई। वे साहिर के चपर-कनाती बन कर रह गये। अपनी इस मजबूरी को उन्होंने ये कह कर व्यक्त किया कि- शायरी तुझको गँवाया है बहुत दिन हमने। जाँनिसार की उम्र का ये दौर उनकी सुखन-फ़हमी की खामोशी का दौर है। फिर एक बार दिल्ली की इम्पीरियल होटल में साहिर और जाँनिसार के बीच तूँ-तूँ मैं-मैं हुई। जाँनिसार साहब को साहिर ने गालियों से नवाजा और जाँनिसार बड़े बे-आबरू हो कर साहिर के कूचे से निकल आये। अपनी जाती जिन्दगी में भी जाँनिसार ने काफी उठा-पटक देखी। उनकी पहली पत्नी सफिया अख़्तर की मौत ने उन्हें गमगीन किया तो उन्होंने ‘ख़ामोश-आवाज़’ और ‘ख़ाके-दिल’ जैसी खूबसूरत नज़्में लिखीं। फिर जब उनकी दूसरी शादी हुई तो वे फिर अख़्तर शीरानी साहब जैसी रूमानियत का शिकार हो गए और भावुक हो कर ‘आज की रात तो मंसूब तेरे नाम से है’ जैसी शायरी करने लगे। लेकिन साहिर से जुदाई ने उनको संजीदगी के साथ वापस शायरी की तरफ मोड़ दिया। फिर अगले नौ-दस सालों में जाँनिसार ने वो लिखा जिसमें बहुत वज़न और गहराई थी। उनकी गज़लों का दीवान ‘पिछला पहर’ और रूबाईयात का संग्रह ‘घर-आँगन’ इसी दौर की रचनाएँ हैं। सबसे पहले हम उनके रूबाईयात के संकलन ‘घर-आँगन’ से चंद रूबाईयात पर गौर फर्मायेंगे- इस संकलन में ज़्यादातर रूबाईयात में घरों में रहने वाली औरतों के संस्कारों और उनके मन की भावनाओं का ज़िक्र किया गया है। मन से अपने पति को समर्पित ये गृहणियाँ क्या-क्या सोचती हैं, क्या-क्या करती हैं इसकी बड़ी जीवन्त तस्वीर उभारी गई है इन रूबाईयात में। साजन के घर आने का समय हुआ तो गोरी तन-मन की सुध-बुध भूलकर घर सजाने लगी- वो आयेंगे चादर तो बिछा दूँ कोरी पर्दों की जरा और भी कस दूँ डोरी अपने को सँवारने की सुध-बुध भूले घर-बार सजाने में लगी है गोरी साजन जब आ-गये तो उनके कदमों की आहट सुनते ही हरेक बात की सुध भूल गई गोरी- आहट उनके क़दमों की जो सुन पाई है इक बिजली सी तन बदन में लहराई है दौड़ी है हरेक बात की सुध बिसराके रोटी जलते तवे पर छोड़ आई है साजन की चाह कि सजनी मिलन के वक्त सब कुछ भूल कर केवल उसकी हो जाये को भी सजनी का मन अच्छी तरह से जानता है- वो शाम को घर लौट के आएँगे तो फिर चाहेंगे कि सब भूलकर उनमें खो जाऊँ जब उन्हें जागना है मैं भी जागूं जब नींद उन्हें आये तो मैं भी सो जाऊँ मिलन के अंतरंग क्षणों में जब साजन सजनी के जूड़े में फूल लगा देते हैं तो सजनी की रूह तक महक उठती है- डाली की तरह चाल लचक उठती है खुश्बू से हर इक साँस छलक उठती है जूड़े में जो वो फूल लगा देते हैं अंदर से मेरी रूह महक उठती है सजनी की भूमिकाएँ निरंतर बदलती हैं। सुब्ह को वह गुंचा बनकर खिलती है और शाम को शम्अ बनकर जलती है और रात को चाँदनी की शीतलता में ढ़लती है। हर सुब्ह को गुंचे1 में बदल जाती है हर शाम को शम्अ बन के जल जाती है और रात को जब बंद हों कमरे के किवाड़ छिटकी हुई चाँदनी में ढल जाती है साजन जब जाने लगते हैं तो ज़ज़्बात घुट कर आँसू बन जाते हैं। इक बार गले से उनके लग कर रोले जाने को खड़े हैं उनसे क्या बोले ज़ज़्बात2 से घुट के रह गई है आवाज़ किस तरह से आँसुओं के फंदे खोले भारतीयता सजनी की शख्सियत में खूब कूट-कूट कर भरी हुई है इस बात का ज़िक्र देखिये- पानी कभी दे रही है फुलवारी में कपड़े कभी रख रही है अल्मारी में तू कितनी घरेलू सी नज़र आती है लिपटी हुई हाथ की धुली सारी में इतने गुणों की खान सजनी की तारीफ साजन कितने-कितने शब्दों में करता है। चुप रह के हर इक घर की परेशानी को किस तरह न जाने तू उठा लेती है फिर आये गये से मुस्कुरा के मिलना तू कैसे हर इक दर्द को छुपा लेती है जज़्बों की गिरह खोल रही हो जैसे अल्फ़ाज़ में रस घोल रही हो जैसे अब जो शेर लिखता हूँ तो यूँ लगता है तुम पास खड़ी बोल रही हो जैसे 1. गुंचे- कलियाँ; 2. जज़्बात- भावनाएं। अब तक वही बचने की सिमटने की अदा हर बार मनाता है मेरा प्यार तुझे समझा था तुझे जीत चुका हूँ लेकिन लगता है कि जीतना है हर बार तुझे साजन और सजनी का प्यार और उसके अलग अलग रंग के अहसासात यही तो घर आंगन की बहारें हैं भाई! सजनी इस बाबत फर्माती है कि- जब तुम नहीं होते तो जवानी मेरी सोते1 की तरह सूख के रह जाती है तुम आन के बाँहों में जो ले लेते हो यौवन की नदी में फिर से उबाल आता है वो बढ़के जो बाँहों में उठा लेते हैं हो जाता है मालूम नहीं क्या मुझको ऐसे में न जाने क्यों सखी लगता है खुद मेरा बदन फूल से हल्का मुझको अपनी अंतरंग सखी से बातें करते हुए सजनी कई ऐसी बातें बताती है जो वह साजन से भी शर्म के कारण नहीं कह पाती- आती है झिझक सी उनके आगे जाते वो देखते हैं कभी-कभी तो ऐसे घबरा के मैं बाँहों में सिमट जाती हूँ लगता है कि मैं कुछ नहीं पहने जैसे इक पल को निगाहों से तो ओझल2 हो जाऊँ इतनी भी कहाँ सखी इजाज़त है मुझे आवाज़ पे आवाज़ दिये जाएँगे साड़ी का बदलना भी मुसीबत है मुझे वो दूर सफ़र पे जब भी जाएँगे सखी साड़ी कोई कीमती सी ले आएँगे चाहूँगी उसे सैंत के रख लूँ लेकिन पहनूँ न उसी दिन तो बिगड़ जाएँगे मैं वो ही करूँ जो वो कहें वो चाहें मुझको भी तो इस बात में चैन आता है मनवा भी लूँ उनसे अपनी मर्ज़ी जो कभी हफ़्तों को मेरा सुकून मर जाता है। 1. सोते- झरने; 2. ओझल- अदृश्य। हर रस्मो-रिवायत को कुचल सकती हूँ जिस रंग में ढालें मुझे ढल सकती हूँ उकताने न दूँगी उनको अपने से कभी उनके लिए सौ रूप बदल सकती हूँ रहता है अजब हाल मेरा उनके साथ लड़ते हुए अपने से गुज़र जाती है रात कहती हूँ इतना न सताओ मुझको डरती हूँ कहीं मान न जायें मेरी बात अच्छी है कभी-कभी की दूरी भी सखी इस तरह मुहब्बत में तड़प आती है कुछ और भी वो चाहने लगते हैं मुझे कुछ और भी मेरी प्यास बढ़ जाती है और सखियाँ भी इतनी अंतरंग हैं कि कई बातें तो बिना सजनी के बताये ही समझ जाती हैं- क्यों हाथ जला लाख छुपाये गोरी सखियों ने तो खोल कर पहेली रख दी साजन ने जो पल्लू तेरा खेंचा, तू ने जलते हुए दीपक पे हथेली रख दी और नारी की पूर्णता उसके मातृवत् में मुखरित होती है- मन था भी तो लगता था पराया है सखी तन को समझाती थी कि छाया है सखी अब जो माँ बनी हूँ तो हुआ है महसूस मैंने कहीं आज खुद को पाया है सखी माँ बनने के बाद बच्चे का पालना हिलाती सजनी का मन झूम के बोल उठता है कि- इक नया रूप आप में पाती हूँ सखी अपने को बदलती नज़र आती हूँ सखी खुद मुझको मेरे हाथ हसीं लगते हैं बच्चे का जो पालना हिलाती हूँ सखी जाँनिसार अख़्तर साहब ने ओ. पी. नैय्यर और दूसरे कई संगीतकारों के साथ कई कामयाब फिल्मों के गीत लिखे। इनमें से कई गीत काफी प्रसिद्ध भी हुए। फिल्म ‘छूमन्तर’ का प्रसिद्ध नगमा ‘गरीब जान के हमको न तुम मिटा देना’ पेशे-खिदमत है। गरीब जान के हम को न तुम मिटा देना तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना लगी है चोट कलेजे पे उम्र भर के लिए तरस रहे हैं मुहब्बत में इक नज़र के लिए नज़र मिला के मुहब्बत से मुस्कुरा देना तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना.......... नज़र तुम्हारी मेरे दिल की बात कहती है तुम्हारी याद तो दिन रात साथ रहती है तुम्हारी याद को मुश्किल है अब भुला देना तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना.......... मिलेगा क्या जो ये दुनिया हमें सताएगी तुम्हारे बिन तो हमें मौत भी न आएगी किसी के प्यार को आसाँ नहीं मिटा देना तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना.......... गरीब जान के हम को न तुम मिटा देना तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना............ आपका लिखा एक और नग्मा जो फिल्म ‘सुशीला’ के लिए लिखा गया था पेश करता हूँ- बेमुरव्वत,1 बेवफ़ा, बेगाना-ए-दिल2 आप हैं आप मानें या न मानें मेरे कातिल3 आप हैं आपसे शिकवा है मुझको गैर से शिकवा4 नहीं जानती हूँ दिल में रख लेने के क़ाबिल आप हैं सांस लेती हूँ तो ये महसूस होता है मुझे जैसे मेरे दिल की हर धड़कन में शामिल आप हैं ग़म नहीं जो लाख तूफानों से टकराना पड़े मैं वो कश्ती हूँ कि जिस कश्ती का साहिल5 आप हैं। जाँनिसार अख़्तर साहब ने कई गज़लें लिखीं। ये गज़लें भी बहुत खूबसूरत है। एक छोटी लेकिन बेहद खूबसूरत गज़ल पेशे-खिदमत है- जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं देखना ये है कि अब आग किधर लगती है सारी दुनियाँ में गरीबों का लहू बहता है हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है 1. बेमुरव्वत-अशिष्ट (प्रेम से न मिलने वाला); 2. बेगाना ए दिल-पराया समझने वाले; 3. कातिल- हत्यारे; 4. शिकवा- शिकायत; 5. साहिल- किनारा। इससे अगर आपकी प्यास और बढ़ गई हो तो एक और छोटी गज़ल पेश करता हूँ- मौज़े-गुल,1 मौजे-सबा,2 मौजे-सहर3 लगती है सर से पा तक4 वो समाँ5 है कि नज़र लगती है हमने हर गाम6 पर सजदों7 के जलाये हैं चिराग अब तेरी राहगुज़र8 राह गुज़र लगती है लम्हे-लम्हे में बसी है तेरी यादों की महक आज की रात तो ख़ुश्बू का सफ़र लगती है अब तो आपको मुक़र्रर कहने की तलब हो गई होगी। लेकिन इसी गज़ल को दो बार तो लिखा नहीं जा सकता इसलिए एक दूसरी इससे भी बेहतरीन गज़ल पेश है जिसका हर शेर एक चमकता मोती है। जब लगे ज़ख़्म तो कातिल को दुआ दी जाए है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए दिल का वो हाल हुआ है ग़मे-दौरां के तले जैसे इक लाश चटानों में दबा दी जाए हमने इन्सानों के दुख दर्द का हल ढूंढ लिया क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाए हमको गुजरी हुई सदियाँ तो न पहचानेंगी आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाए हम से पूछो कि गज़ल क्या है गज़ल का फ़न क्या चंद लफ़्ज़ों9 में कोई आग छुपा दी जाए कम नहीं नशे में जाड़ों की गुलाबी रातें और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाए आपने अनूप जलौटा साहब को ये गाते हुए सुना होगा कि .... ‘अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं.......’ जी हाँ ये अशआर जाँनिसार अख़्तर साहब ही की गज़ल के हैं, जो अब मैं आपको पेश कर रहा हूँ- अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं कुछ शेर फ़कत उनको सुनाने के लिए हैं अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं 1. मौज़े गुल- फूलों की मस्ती; 2. मौज़े सबा-पुरवाई की मस्ती; 3. मौज़े सहर-सुबह की मस्ती; 4. सर से पा तक- सर से पांव तक; 5. समाँ- मंजर; 6. गाम- कदम; 7. सजदों- शीष नवाना; 8. राहगुज़र- गुज़रने का रास्ता; 9. लफ़्ज़ो- शब्दों। सोचो तो बड़ी चीज है तहज़ीब1 बदन की वर्ना तो बदन आग बुझाने के लिए है सियासत को खिलौनों की दुकानदारी और शेरों को इज़्तराब ज़ाहिर करने का तरीका बताने वाले इस शायर की एक और गज़ल पेश करता हूँ- शेरो फ़न की सजी है नई अंजुमन2 हम भी बैठे हैं कुछ नौजवानों के बीच जिन्दगानी की क़द्रें बदलने लगीं लोग बटने लगे दो जमानों के बीच और क्या है सियासत के बाज़ार में कुछ खिलौने सजे हैं दुकानों के बीच एक शेर शायर से क्या माँगता है? एक ऐसी व्याकुलता जो ज़ाहिर तौर पर सुकून लगे इस एक शेर में जाँनिसार ने इस बात का बहुत बेहतरीन खुलासा किया है- जो इज़तराब3 बज़ाहिर4 सुकून लगता है हरेक शेर वही इज़तराब माँगे है आपकी लिखी नज़्मों की जितनी तारीफ की जाए कम होगी। अपनी पहली पत्नी सफ़िया के देहान्त पर आपने एक नज़्म लिखी जिसका उनुवान था ‘खाके-दिल’ इसमें अपनी प्रिय पत्नी को लखनऊ में सुपुर्दे-ख़ाक करते हुए कहा कि- लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन ज़ार वतन देख इस ख़ाक़ को आँखों में बसाकर रखना इस अमानत को कलेजे से लगा कर रखना सफ़िया बेगम शायर की लेखिका पत्नी थी और मज़ाज लख़नवी साहब की बहन थी। इनकी मौत के एक साल बाद आप इनकी मज़ार पर वापस आये तो उस चान्दनी रात के मंजर पर एक नज़्म लिखी जिसके चन्द अशआर पेश हैं। कितने दिन में आये हो साथी मेरे सोते भाग्य जगाने मुझसे अलग इस एक बरस में क्या क्या बीती तुम पे न जाने चुप क्यों हो क्या सोच रहे हो आओ सब कुछ आज भुला दो आओ अपने प्यार से साथी फिर से मुझे इक बार जिला दो 1. तहज़ीब- सभ्यता; 2. अंजुमन- महफिल; 3. इज़तराब- बेचैनी; 4. बज़ाहिर- देखने में। तुम को मेरा ग़म है साथी कैसे अब इस ग़म को भुलाऊँ अपना खोया जीवन बोलो आज कहाँ से ढूँढ के लाऊँ ये न समझना मैंने तुमसे जान के यूँ मुँह मोड़ लिया है ये न समझना मैंने तुमसे दिल का नाता तोड़ लिया है दिल की धड़कन डूब भी जाये दिल की सदाएं1 थक न सकेंगी मिट भी जाऊँ फिर भी तुमसे मेरी वफ़ायें थक न सकेंगी बोलो साथी कुछ तो बोलो कुछ तो दिल की बात बताओ आज भी मुझसे दूर रहोगे आओ मेरे नज़दीक तो आओ.............. ......अच्छा साथी जाओ सिधारो अब के इतने दिन न लगाना प्यासी आँखें राह तकेंगी साजन जल्दी लौट के आना एक ऐसी ही और नज़्म जो जिन्दगी के नाजुक अहसासात पर लिखी गई है पेश करता हूँ। आदमी को अपने भूत काल की भूली-बिसरी यादें आकर तन्हाई में घेरती हैं। वह इन यादों से बेज़ार होता है लेकिन फिर भी इनसे उसकी ख़ास निस्बत होती है। इसी बात का इज़हार करती है ये नज़्म जिसका उनुवान है- ‘आखिरी-मुलाकात’ मत रोको इन्हें पास आने दो ये मुझ से मिलने आये हैं मैं खुद न जिन्हें पहचान सकूँ कुछ इतने धुँधले साये हैं दो पाँव बने हरियाली पर, इक तितली बैठी डाली पर कुछ जगमग जुगनूँ जंगल से, कुछ झूमते हाथी बादल से ये एक कहानी नींद भरी, इक तख़्त पे बैठी एक परी कुछ गुन-गुन करते पर्वाने, दो नन्हे-नन्हे दस्ताने 1. सदाएं- आवाज़े। कुछ उड़ते रंगीं गुब्बारे, बिब्बो के दुपट्टे के तारे ये चेहरा बन्नो बूढ़ी का, ये टुकड़ा माँ की चूड़ी का मत रोको इन्हें पास आने दो ये मुझसे मिलने आये हैं................ अल्साई हुई रूत सावन की, कुछ सौंधी खुशबू आँगन की इक टूटी रस्सी झूले की, इक चोट कसकती कूल्हे की सुलगी सी अंगीठी जाड़ों में इक चेहरा कितनी आड़ों में कुछ चाँदनी रातें गर्मी की इक लब पर बातें नर्मी की कुछ रूप हँसी का शानों का, कुछ रंग हरे मैदानों का कुछ हार महकती कलियों के, कुछ नाम वतन की गलियों के मत रोको इन्हें पास आने दो ये मुझसे मिलने आये हैं................. कुछ चाँद चमकते गालों के, कुछ भंवरे काले बालों के कुछ नाज़ुक शिकनें1 आँचल की, कुछ नर्म लकीरें काज़ल की इक खोई कड़ी अफ़सानों की, दो आँखें रौशनदानों की इक सुर्ख दुलाई गोट लगी, क्या जाने कब की चोट लगी इक छल्ला पीली रंगत का, इक लाकिट दिल की सूरत का रूमाल कई रेशम से कढ़े, वो खत जो कभी मैंने न पढ़े मत रोको इन्हें पास आने दो ये मुझसे मिलने आये हैं................. अब जाँनिसार अख़्तर साहब को अलविदा कहने का वक्त आ गया है और आगे सफ़र को भी जारी रखना है अतः अख़्तर साहब को सलाम कहने के लिये उन्हीं के शेर पेशे-खिदमत है। जीने की हर तरह से तमन्ना हसीन है हर शर2 के बावजूद ये दुनिया हसीन है दरिया की तुन्द बाढ़ भयानक सही मगर तूफ़ाँ से खेलता हुआ तिनका हसीन है दिल को हिलाए लाख घटाओं की घन गरज मिटी पे जो गिरा है वो क़तरा हसीन है रातों की तीरगी3 है जो पुरहौल ग़म नहीं सुब्हों को झांकता हुआ चेहरा हसीन है लाखों सऊबतों4 का अगर सामना भी हो हर जेहद5 हर अमल6 का तक़ाज़ा हसीन है * 1. शिकने- सलवटें; 2. शर- फसाद; 3. तीरगी- अंधकार; 4. सउबतों- कष्टों; 5. जेहद- परिश्रम; 6. अमल- कार्य।