मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ ‘ग़ालिब’ मिर्ज़ा असदुल्लाखाँ ‘ग़ालिब’ का नाम लेना ही शायरी की कला को सलाम करने जैसा है। उनके ख़ुद ही के शेर को उनकी शोहरत के लिए काम में लाना चाहूँगा। हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे। कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़े-बयाँ और।। उस्तादे-शहंशाह न बन पाने की टीस जो उनके मन में रही और जौक़ की बराबरी करने व अपने को उनसे बेहतर सिद्ध करने की होड़ के कारण से गालिब ने फ़ारसी छोड़ कर उर्दू में जो कलाम लिखा वह रोज़ दर रोज़ फ़लक़े-शायरी1 में उनको बुलंदी की और ले जाता रहा। हाल में जो प्रतिष्ठा तथा अहमियत ग़ालिब को मिली है वो किसी भी शायर, यहाँ तक कि आबरू-ए-सुखन ‘मीर-तकी-मीर’ को भी नहीं मिली। यह सही कहा गया है कि- ये मसाइले- तसव्वुफ2, ये तेरा बयान ग़ालिब। तुझे हम ‘वली’ समझते जो ना बादाख़्वार3 होता।। गालिब आगरे में पैदा हुए तथा पले बढ़े। शायरी भी उन्होंने वहीं पर शुरू की। वे फ़ारसी में आला दर्जे की शायरी करते थे और उर्दू में शायरी करना हेटी समझते थे। अगर कभी कुछ उर्दू में कह भी दिया तो वह इतना फ़ारसी से भरा होता था कि अच्छे से अच्छा सुख़न-फहम भी बग़लें झाँकने लगता था। उनकी न समझी जा सकने वाली शायरी के कारण ही किसी ने यह कह दिया कि‒ कलामे-मीर समझे और ज़बाने-मीरज़ा समझे। मगर इनका कहा यह आप समझे या खुदा समझे।। 1. फलके शायरी-आसमाने शायरी; 2. मसाइले तसव्वुफ- इश्वरीय ज्ञान, दर्शन का ज़िक्र; 3. बादाख़्वार- शराबी। एक बार क़ादिर अली ‘रामपुरी’ साहब ने इनके कलाम का मज़ाक उड़ाते हुए एक मनगढंत शेर पढ़ा और उसका मायना बताने के लिए इनको कहा। वह शेर था‒ पहले तो रोग़ने-गुल1 भैंस के अण्डे से निकाल। फिर दवा जितनी है कुल भैंस के अण्डे से निकाल।। शेर बिल्कुल बेमायनी था और गालिब समझ गये कि उनके कलाम का मज़ाक उड़ाने के लिए कहा गया था परन्तु जवाब में उनका फर्माना था कि - गर ख़ामुशी से फ़ायदा अख़फ़ाए-हाल2 है। खुश हूँ कि मेरी बात समझनी मुहाल3 है।। न सताइश4 की तमन्ना न सिले5 की परवा। न सही गर मेरे अशआर में मानी न सही।। आसान कहने की करते हैं फ़रमाइश। गोयम6 मुश्किल वगर नगोयम7 मुश्किल।। ग़ालिब दरअसल उस समय शायरी करते रहे जब लखनऊ ‘नासिख’ के ख़ारजी रंग में सरोबार था तो देहली शाह नसीर की शायरी का दम भरती थी। गालिब की शायरी में न तो खारजी रंग था और न ही वह आसान होती थी। उसमें फ़लसफा होता था और फ़ारसी होती थी। ‘गालिब’ को बहुत बाद में और पुरज़ोर तरीके से नवाज़ा गया। उनके दीवान में से छपते समय उन्होंने ख़ुद ने दो तिहाई मुश्किल और गूढ़ शेर निकाल दिये इसलिए उनका उर्दू का कलाम बहुत छोटा है। लेकिन इतने में भी जो बुलन्द अशआर उन्होंने लिखे हैं उनकी गिनती कम नहीं। गालिब के पिता मिर्ज़ा अब्दुल्लाबेग़ ने अवध में आसिफुद्दौला की और हैदराबाद में निज़ाम की मुलाज़िमत की और फिर अलवर में राजा बख़्तावर सिंह की फौज में रहे। उनके चचा आगरे में मराठों के सूबेदार रहे। मिर्ज़ा ग़ालिब उन्हीं के पास पले और बढ़े। जब आगरे पर अँग्रेज़ क़ाबिज8 हुए तो ग़ालिब के चचा को लाख रुपये की ज़ागीर और एक हज़ार रुपये मासिक वेतन दिया गया। परन्तु उनकी मौत पर जागीर और वेतन दोनों वापस ले लिये गये और मिर्ज़ा को केवल पेन्शन मिलने लगी। उस समय मिर्ज़ा की उम्र सिर्फ आठ बरस की थी। थोड़े वर्ष आगरे में बिताए पर फिर वहाँ रहना उनको नागवार लगा अतः दिल्ली आकर बस गये। आगरे से कूच करते वक्त अपनी मनोदशा तथा आगरे के माहौल के बारे में उन्होंने फर्माया था कि- 1. रोगने गुल- फूलों का तेल; 2. अख़फाए हाल- स्थिति छिपाना; 3. मुहाल- मुश्किल; 4. सताइश- सराहना; 5. सिला- बदला; 6. गोयम- बोले तो; 7. नगोयम- न बोले तो; 8. काबिज-कब्जा करना। आगरे के शोलारूख़1 हैं आग रे। भाग रे ग़ालिब यहाँ से भाग रे।। मिर्ज़ा बड़े खुशमिज़ाज इन्सान थे और किसी भी विषय पर शायरी कर सकते थे। एक महिफ़ल में उन्होंने सुपारी पर 13 शेर की एक नज़्म फिलबदी2 पढ़ दी थी। जौक़ की शायरी की दिल्ली में बहुत प्रतिष्ठा थी। लोग यह मानते थे कि वे शायरों के सरताज थे और इसीलिए शहंशाह बहादुरशाह ’जफ़र’ जो खुद भी एक शायर थे ने उन्हें अपना उस्ताद बनाया है। ग़ालिब को हमेशा उनसे रश्क़ रहा और इस बात का अफ़सोस कि वे शहंशाह के उस्ताद न बन सके। शहंशाह के हरम में उनकी बेगम ज़ीनतमहल ग़ालिब की तरफ़दार थीं। उन्होंने अपने बेटे ‘जवांबख़्त’ की शादी का सेहरा गालिब से लिखवाया तो गालिब ने अपने नायाब सेहरे के अन्त में एक मक़्ता लिखा कि- हम सुख़न फ़हम हैं, ग़ालिब के तरफ़दार नहीं। देखें इस सेहरे से कह दे कोई बेहतर सेहरा।। ये सेहरा जब बादशाह के सामने पेश हुआ तो वह इस मक़्ते में की गई चोट को समझ गये और जौक़ को भी सेहरा लिखने को कहा। जौक़ ने फिलबदी सेहरा लिखा और दोनों सेहरे मजलिस3 में पढ़े गये। जौक़ बादशाह के चहेते थे और सेहरा भी ग़ालिब के मुकाबिले कहा गया था इसलिए उनके सेहरे को ख़ूब दाद मिली। अब गालिब बड़े परेशान हुए और बादशाह की नाराज़गी से डरे भी। इसलिए उन्होंने जल्दी से एक ‘क़िता’ माफी माँगते हुए लिखा जिसमें यह अशआर थे कि‒ आज़ादरौ4 हूँ और मेरा मसलक5 है सुलहकुल6। हरगिज़ कभी किसी से अदावत7 नहीं मुझे।। उस्तादेशह से हो मुझे पुरख़ाश8 का ख़याल। यह ताब, यह मज़ाल, यह ताकत नहीं मुझे।। ग़ालिब जैसा शायर यह सब कहने को मजबूर हुआ क्योंकि उनको जो पेंशन मिलती थी वह नाकाफ़ी थी और बादशाह के रहमो-करम पर बहुत कुछ निर्भर करता था। बादशाह के यहाँ से थोड़ा बहुत सीग़ा बन्धा था और वह भी समय पर नहीं मिलता था। इसलिए बादशाह से गुज़ारिश करनी पड़ती थी कि- 1. शोलारूख- दमकते चेहरे वाला; 2. फ़िलबदी- तत्काल; 3. मजलिस- महफिल; 4. आजादरौ- आजाद ख़्याल; 5. मसलक- तरीका; 6. सुलहकुल- सबसे मेल रखना; 7. अदावत- दुश्मनी; 8. पुरख़ाश- जलन, ईर्ष्या। क्यों न दरकार हो मुझे पोशिश1। जिस्म रखता हूँ है अगरचे नाज़ार2।। कुछ खरीदा नहीं है अबके साल। कुछ बनाया नहीं है अबकी बार।। रात को आग और दिन को धूप। भाड़ में जाएं ऐसे लैलोनहार3।। आग तापे कहाँ तलक इंसान। धूप खाये कहाँ तलक जाँदार।। आप का बन्दा और फिरूं नंगा। आपका नौकर, खाँऊ उधार। तुम सलामत रहो हज़ार बरस। हर बरस के हों दिन पचास हज़ार।। लेकिन इसी मुफ़लिसी ने ग़ालिब की शायरी में फ़लसफ़ा और दर्द दोनों भर दिये। कबीर के दोहों ही के सामन गालिब के शेरों के मायने भी गूढ़ होते थे, बानगी देखिये- ढाँपा कफ़न ने दाग़े-अयूबे-बरहनगी4। मैं वरना हर लिबास में नंगे वजूद था।। (मेरे अवगुणों की नग्नता को मौत ने ढक दिया वर्ना मैं तो पूरा बदनाम हो चुका था।) इश्क़ से तबीयत ने ज़ीस्त का मजा पाया। दर्द की दवा पाई, दर्द बेदवा पाया।। (प्रेम से ही ज़िन्दगी में मजा है। बग़ैर प्रेम के ये जिंदगी दुश्कर है। इश्क़ इस जिंदगी के दर्द की दवा है मगर इश्क़ खुद एक लाइलाज बीमारी है।) मेरी तामीर5 में मुज़मिर6 है इक सूरत ख़राबी की। हैवला7 बर्क़े-ख़िरमन8 का है ख़ूने-गर्म दहकाँ9 का।। (मेरे अस्तित्व निर्माण में खराबी है, शरीर बिजली सा चमकदार है और खून मेहनत कश किसान की तरह गर्म है।) बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना। आदमी को भी मयस्सर10 नहीं इन्साँ होना।। 1. पोशिश- पहनावा, पोशाक; 2. नाज़ार- दुर्बल, कमजोर; 3. लैलो नहार- रात और दिन; 4. दाग़े अयूबे बरहनगी- ऐब के दाग तथा नंगा पन; 5. तामीर- निर्माण; 6. मुज़मिर- शरीक, शामिल; 7. हैवला- शरीर 8. बर्के खिरमन- खलिहान की आग; 9. खूने गर्म दहकाँ- किसान के गर्म खून; 10. मयस्सर- उपलब्ध। (इस दुनिया में कोई भी काम आसान नहीं। हर आदमी इंसान है पर इंसानियत हर एक को मयस्सर नहीं।) दोस्त ग़मख़्वारी1 में मेरी सई2 फरमाएँगे क्या ? जख़्म के भरने तलक नाखून न बढ़ आएंगे क्या ? ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह3। कोई चारा-साज़4 होता, कोई ग़मगुसार5 होता।। (दोस्त भी उपदेश देने वाले बन गये हैं उनमें से कोई भी दुख का इलाज नहीं करता और ग़म को दूर नहीं करता।) हविस को है निशातेकार6 क्या क्या ? न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या ? (तृष्णाओं के कारण मनुष्य को काम करने की उमंग और जल्दी मची रहती है। इस जल्दी का मुख्य कारण मौत की अनिश्चितता है। मौत अगर नहीं होती तो हर चाह और उमंग जाती रहती।) फ़रोगे7 शोला-ए-ख़स8 यक-नफ़स9 है। हविस को पासे-नामूसे10 वफ़ा क्या।। (कामुक इंसान के इश्क़ में गहराई नहीं होती। घास की आग का भड़कना सिर्फ कुछ समय के लिये होता है। हवस को इज्जत का खयाल नहीं होता।) सीने का दाग है, वोह नाला कि लब तक न गया। ख़ाक-का-रिज़्क11 है वोह क़तरा कि दरिया न हुआ।। (जो नाला लबों से कहा न गया वो दिल का दाग बन गया, जो कतरा दरिया में न मिला वह मिट्टी में दफ़न हो गया और जो कोशिश पूरी न हुई वोह बेकार हो गई।) क़तरे में दजला12 दिखाई न दे और ज़ुज़13 में कुल। खेल बच्चों का हुआ, दीदए-बीना14 न हुआ।। (कतरे में दरिया न दिखे और अंश में कुल तो ये बचपना है या आँख का कुसूर है। अर्थात संसार के हर ज़र्रे में खुदा न दिखे तो ये देखने वाले की आँख का ही कुसूर है।) जमा करते हो क्यों रक़ीबों को, इक तमाशा हुआ गिला न हुआ। (मैं जब शिकायत करता हूँ तो दुश्मनों को क्यूं बुलाते हो। ये कोई तमाशा नहीं है कि सब इसे देखें और मज़ा लें।) 1. गमख़्वारी- हम दर्दी; 2. सई- मदद का प्रयास; 3. नासेह- नसीहत देने वाले; 4. चारा साज- ईलाज करने वाला, दर्द बाँटने वाला; 5. गमगुसार- गम को बाँटने वाला; 6. निशातेकार - काम करने की उमंगें; 7. फरोग- चमक, प्रकाश; 8. शोला ए ख़स- घास की आग; 9. यक नफ़स- एक सांस जितनी; 10. पासे नामूसे- इज़्ज़त का खयाल; 11. ख़ाक का रिज़्क- बेकार जाने वाला; 12. दज़ला- नदी; 13. जुज़ - टुकड़ा, अंश; 14. दीद ए बीना- देखने वाली आँख। न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता। डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।। (दुनिया में आने से पहले मैं खुदा का अंश था। यहाँ अगर न आता तो उसी का इक अंश रहता। मेरे इंसान के रूप में पैदा होने से ही मेरा पतन हुआ है।) इन सब अशआर से जाहिर है कि गालिब का फ़लसफा कितना गहरा था और यह बात एकदम साफ़ हो जाती है। जब गालिब की शायरी ने बुलंदी को छुआ तो लोग बाग उनके शेरों पर तज़मीने भी करने लगे। पर शेर का शिकार करना कोई आसान काम नहीं होता। तज़मीन में किसी के कहे गये शेर पर हम-वज़न तीन और मिसरे कहने पड़ते हैं। ऐसे ही एक अच्छे ख़मसे (तज़मीन) का एक नमूना पेश है। गालिब का शेर था कि :- गालिबे-ख़स्ता1 के बग़ैर कौन से काम बन्द हैं ? रोइये ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाय-हाय क्यों ? इस शेर पर सबा ‘अकबराबादी’ ने एक बहुत ही उम्दा तज़मीन की कि- बज़्मे-ख़वास2 बन्द हैं, बज़्मे-अवाम3 बन्द हैं ? किसके सलाम बन्द हैं, किसके पयाम बन्द हैं ?? मैकदे बन्द हैं न कुछ साग़रो-जाम4 बन्द हैं। ग़ालिबे ख़स्ता के बगैर कौन से काम बंद हैं ? और देखिये कि कैसे किसी की तज़मीन ने गालिब के एक दूसरे बेहतरीन शेर के पुर्ज़े उड़ा दिये। ग़ालिब का शेर है - वोह आएं घर में हमारे खुदा की कुदरत है। कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं।। (उनका हमारे घर पर आना इक फ़व की बात है पर मेरा घर उनके वज़ूद के सामने ख़ाक समान है।) इतने गहरे फ़लसफे वाले शेर की मज़ाकिया तज़मीन कुछ इस तरह की गई कि- सुना है जब से कि चोरी की उनको आदत है। हमें हिफ़ाज़ते-सामां5 की सख़्त दिक़्क़त है।। निगाह-दाश्त6 की हर वक्त किसको फुर्सत है। वोह आए घर पै हमारे खुदा की कुदरत है। 1. गालिबे खस्ता- गरीब गालिब; 2. बज़्मे ख़वास- खास लोगों की महफिलें; 3. बज़्मे अवाम- आम लोगों की महफिलें; 4. सागरो जाम-शराब और प्याले; 5. हिफाजते सामां- सामान की सुरक्षा; 6. निगाहदास्त-निगाह रखने। इस तज़मीन ने शेर की आत्मा को ही नेस्तानाबूद1 कर दिया है, फिर भी उसका एक नया मतलब निकालकर मज़ाक में लपेट दिया है। यह बात नहीं है कि ग़ालिब केवल फलसफाना शायरी ही करते थे। इश्क़िया शायरी का उनका कलाम भी उतना ही बुलंद है। पाक इश्क़ पर उनके कई अशआर क़ाबिले तारीफ़ हैं, चन्द अशआर पेश करता हूं- तुझसे बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला। इसमें कुछ शाइब-ए-ख़ूबिये-तक़दीर2 भी था।। (तुझसे मेरी बर्बादी का शिकवा करना ठीक नहीं, क्योंकि इसमें मेरी क़िस्मत का ही ज्यादा हाथ था।) आईना देखके अपना सा मुंह लेके रह गये । साहब को दिल न देने पै कितना ग़रूर था।। यानि माशूक इतना ख़ूबसूरत है कि आईने में अपनी सूरत देख खुद उस पर दिल दे बैठा, तो आशिक का क्या दोष? क़ासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिये । उसकी खता नहीं है, ये मेरा कुसूर था ।। पत्रवाहक को मारने से कोई लाभ नहीं, आप मुझे मारिये क्योंकि उसके साथ ख़त मैंने भेजा था। यानि कासिद को माशूक़ के हाथ से मार पड़े इस बात से भी आशिक़ को तकलीफ होती है, रश्क होता है। जाते हुऐ कहते हो, ‘कयामत को मिलेंगे’। क्या खूब, क़यामत है, गोया कोई दिन और।। माशूक़ जिस रोज़ आता है आशिक़ के लिये तो वही दिन क़यामत का दिन है, इसलिए अगर मिलना है तो उसी रोज़ मिलना हो सकता है। इसी सिलसिले में मिर्ज़ा साहब की एक गज़ल के तीन चार मिसरे पेशे-ख़िदमत हैं- वो फ़िराक और वो विसाल कहां ? वो शबो-रोज़ो-माहोसाल कहां।। फ़ुर्सते-कारोबारे-शौक़3 किसे ? ज़ौक़े-नज़्ज़ारा-ए-ज़माल4 कहां।। थी वो इक शख्स के तसव्वुर5 से । अब वो रानाई-ए-ख़याल6 कहां।। 1. नेस्तानाबूद- तहस नहस; 2. शाइब ए खूबिये तकदीर- तकदीर भी शामिल थी; 3. फुर्सते कारोबारे शौक- इश्क़ में व्यस्त रहने की फुर्सत; 4. ज़ौके-नज़्ज़ारा-ए-जमाल- हुस्न के नज़ारे को देखने की ताकत; 5. तसव्वुर-कल्पना; 6. रानाई-ए-ख़याल- खयालों की सुन्दरता। फिक्रे दुनिया में सर खपाता हूं। मैं कहां और ये बवाल कहां।। इन मिसरों में प्रेम का महत्व और संसार की प्रेम के बिना निस्सारता दोनों ही स्पष्ट है। गालिब एक और तख़ल्लुस ‘असद’ के नाम से शेर कहते थे। उनकी पाक इश्क़िया शायरी की एक और गज़ल के कुछ शेर पेश हैं। आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक। कौन जीता है तेरी जुल्फ़ के सर1 होने तक।। आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब। दिल का क्या रंग करूं ख़ूने-ज़िगर2 होने तक।। हमने माना कि तग़ाफ़ुल3 न करोगे लेकिन। ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक।। ग़मे-हस्ती का ‘असद’ किस से हो ज़ुज़-मर्ग4 इलाज़। शम्अ हर रंग में जलती है सहर5 होने तक।। यह बात करने का कोई ढंग नहीं कि हर बात पर मुझे नीचा दिखाया जाये। वह लहू लहू नहीं जो सिर्फ रगों में दौड़ता रहे, आँख से जो टपके वही असली लहू है। अर्थात वह मनुष्य नहीं जो दूसरे से बदतमीजी से पेश आये, मनुष्य तो वही है जो इंसानियत और अदब से पेश आये। हर एक बात पै कहते हो तुम कि तू क्या है ? तुम्हीं कहो कि ये अन्दाजे-गुफ़्तगू6 क्या है ? रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल7। जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है ? अब फिर से कुछ इश्क़ की शायरी के चुनिंदा शेर पेश करता हूं, दिल नहीं चाहता कि जनाब ग़ालिब से रूख़सत लूं। पर क्या करूं? और भी तो है सुख़नवर बहुत अच्छे। गैर लें महफ़िल में बोसे जाम के, हम रहे तिश्नालब8 पैग़ाम के। ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो, हम तो आशिक हैं तुम्हारे नाम के।। 1. सर- हासिल; 2. ख़ूने जिगर- दिल का खून; 3. तगाफ़ुल - बेरूखी, लापरवाही; 4. ज़ुज़ मर्ग- मृत्यु के बगैर; 5. सहर- सुबह; 6. अन्दाजे गुफ़्तगू- बात करने का ढ़ंग; 7. कायल- विश्वासु, आदी, फिदा; 8. तिश्नालब- प्यासे। नुक्ताचीं1 है ग़मे-दिल उसको सुनाये न बने। क्या बने बात जहां बात बनाये न बने।। ग़ैर फिरता है लिये यूं तेरे ख़त को कि अगर। कोई पूछे कि ये क्या है तो छुपाये न बने।। इश्क़ पर जोर नहीं है यह वोह आतिश गालिब। कि लगाये न लगे और बुझाये न बने।। रोने से इश्क़ में और बेबाक2 हो गये। धोये गये हम ऐसे कि बस पाक हो गये।। और ग़ालिब से अगर रूख़सत लेना हो तो इस शेर से अच्छा और शेर क्या हो सकता है, जो गालिब की शख्सियत और उनके क़लाम दोनों ही पर सटीक ठहरता है। मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ मरने और जीने का। उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।। कहां मयखाने का दरवाजा गालिब और कहां वाइज। पर इतना जानते हैं कल वोह जाता था कि हम निकले।। ग़ालिब ने इतना अच्छा कहा कि अच्छे से भी अच्छा कहा। ग़ालिब की शायरी का तसव्वुर एक खूबसूरत परीवश के तसव्वुर से भी खूबसूरत है, और मैं यह तसव्वुर बार-बार करना चाहता हूं। इसके लिए मैं सदैव फुर्सत के दिन रात ढूंढ़ता रहता हूं। बकौल ग़ालिब‒ जी ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन। बैठे रहें तसव्वुरे-जानाँ3 किए हुए।। अब अन्त में मेरा एक शेर ग़ालिब को सलाम कहने को- फ़कत मैं और तेरा दीवान हो ग़ालिब ! और कोई न हो मेरा शौक बंटाने के लिए।। * 1. नुक्ताचीं- छिद्रान्वेषी, नुक्श निकालने वाला; 2. बेबाक- निडर, बेअदब; 3. तसव्वुरे जानाँ- प्रेमिका का ख़याल।