मुहम्मद दाउद खान ‘अख़्तर’-शीरानी ऐ इश्क़ तूने अक्सर कौमों को खा के छोड़ा। जिस घर से सर उठाया, उसको बिठा के छोड़ा।। जो जद पै तेरी आया उसको गिरा के छोड़ा। अल्ताफ ‘हाली’ ने इश्क़ के बाबत जो ये बात कही वो अगर किसी शख्स पर पूरी तरह से खरी उतरती है तो वो था अख़्तर शीरानी। हिंदोस्ताँ का सबसे बड़ा रूमानी शायर जिसकी शायरी की तुलना कोई यदि ‘कीट्स’ से करता है तो कोई ‘वर्डज़वर्थ’ से। वर्डजवर्थ की ‘लूसी’ और कीट्स की ‘फैनी’ की ही तरह अख़्तर की शायरी में ‘सलमा’ का जिक्र आता है। बहारे-हुस्न का तू गुंचा-ए-शादाब है सलमा ! यदि सलमा अख़्तर शीरानी साहब की वास्तविक नायिका रही होगी, जिससे उनको इश्क़ रहा होगा तो फिर ‘रेहाना’ कौन थी? ‘अज़रा’ कौन थी? ‘शीरी’ कौन थी? और ‘नाहिद’ कौन थी! रेहाना के बाबत वे लिखते हैं कि- उसे फूलों ने मेरी याद में बेताब देखा है। सितारों की नज़र ने रात भर बेख़्वाब देखा है।। और ‘अज़रा’ के बारे में उन्होंने लिखा कि- बहारो-ख्वाब की तनवीरे-मरमरी1 ‘अज़रा’ ! शराबो-शेर की तफ़सीरे-दिलनशीं2 ‘अज़रा’ !! ‘अख़्तर’ साहब के करीबी मित्रों का कहना है कि सलमा उनके जीवन की हक़ीक़त थी। दोनों एक दूसरे से बेपनाह मुहब्बत करते थे। उन्होंने सलमा के लिये कसम खायी थी कि- अगर मुझे न मिली तुम, तुम्हारे सर की कसम। मैं अपनी सारी जवानी तबाह कर लूंगा।। 1. तनवीरे मरमरी- दूधिया रोशनी; 2. तफ़सीरे दिलनशीं - दिल को भा जाने वाला किस्सा। सलमा ने भी उन्हें चाहा पर वे उसे पा न सके और उसके बिछोह से उबरने की कोशिश में उन्होंने खुद को शराब में डुबो दिया। सलमा उनकी शायरी का कलेवर थी और इसी कारण से अख़्तर की रूमानी शायरी में वह हर जगह दिखाई देती है। खुदाये-सुखन मीर तकी मीर, शहंशाहे-सुखन ‘दाग’ देहलवी साहब, ‘शाद’ अजीमाबादी साहब सभी ने पाक इश्क़िया शायरी पर अपने-अपने रंगों में रंगे कलाम लिखे। ‘अख़्तर’ ने अपने इन अग्रजों ही की तरह रूमानी शायरी की परम्परा को आगे बढ़ाया। एक बात जो अख़्तर के माशूक में रही वो यह थी कि वह पूरी तरह से जनाना था। उसके लिये उन्होंने सभी तुलनाएं स्त्री-लिंग में ही की। उनके इश्क में इतनी हिम्मत भी थी कि माशूक के नाम को खुल कर कह गए। अन्यथा उर्दू शायर माशूक का नाम लेने से हमेशा बचते ही रहे हैं। अख़्तर ने केवल रूमानी शायरी की। खूबसूरत रंगों, हसीन सपनों और कुदरती भावनाओं की शायरी। सामाजिक वर्जनाओं से सर्वथा दूर, प्रताड़ना से सर्वथा अन्जान एक ऐसी शायरी जो मेहबूब के रंगो-जमाल पर दिलोजान से फिदा है। अख़्तर शीरानी का जन्म सन् 1905 में टौंक-रियासत, राजस्थान में हुआ। शायरी और फ़ारसी की शुरूआती तालीम आपने टौंक ही में हासिल की। आपके वालिद हाफ़िज महमूद खाँ शीरानी जब इंग्लैंड से वापस आये तो अख़्तर को पहलवान बनाने में जुट गये। लेकिन 5-6 साल के शगल के बाद अख़्तर अपने वालिद के साथ लाहौर आ गये। जहाँ थोड़ी बहुत पढ़ाई-लिखाई से भी वाकफियत हुई। लेकिन तालीम तो बस मुन्शी ‘फ़ाजिल’ से ज्यादा हासिल न हो सकी। आपकी लिखी नज़्मों की सफलता के चलते घर भर के विरोध के बावजूद आप शेरो-सुखन के मैदान में अखाड़ा जमा बैठे। आपका असली नाम मोहम्मद दाउद ख़ान था। कुछ समय तक आपने उर्दू की मशहूर पत्रिका ‘हुमायूँ’ के सम्पादन का कार्य किया। ‘इन्तिखाब’ और ‘शाहकार’ का सम्पादन भी किया लेकिन बेतहाशा शराब नोशी के चलते किसी भी काम में मन न लगा पाये। लाहौर में आवारागर्दी और शराब नोशी करते-करते 40 वर्ष के हो गये। फिर वालिद साहब टौंक वापस ले गये और वहाँ पर तीन-चार वर्ष गुमनामी में गुजारे। विभाजन के बाद जब अख़्तर वापस लाहौर आये तो शराब उन्हें पूरी तरह से बर्बाद कर चुकी थी और सन् 1948 में सितम्बर माह में लाहौर के एक अस्पताल में मात्र 44 वर्ष की आयु में आपने दम तोड़ दिया। ऐ इश्क कहीं ले चल की तान छेड़ने वाला शायर इस तरह से दुनिया छोड़ चला। उनकी इसी नज़्म के चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं। बेरहम जमाने को अब छोड़ रहें हैं हम, बे-दर्द अज़ीजों से मुँह मोड़ रहे हैं हम, जो आस थी वोह भी अब तोड़ रहे हैं हम, बस ताब नहीं ले चल, ऐ इश्क़ कहीं ले चल!... आपस में छल और धोखे संसार की रीतें हैं, इस पाप की नगरी में उजड़ी सी परीते हैं, याँ न्याय की हारें हैं अन्याय की जीतें हैं, सुख चैन नहीं, ले चल, ऐ इश्क़ कहीं ले चल!... ये दर्द भरी दुनिया बस्ती है गुनाहों की, दिल चाक उमीदों की, सफ़ाक1 निगाहों की, जुल्मों की, जफ़ाओं की, आहों की, कराहों की, हैं ग़म से हज़ी2, ले चल, ऐ इश्क कहीं ले चल!... आँखों में समाई है इक ख्वाबनुमा दुनियाँ, तारों की तरह रोशन मेहताबनुमा3 दुनियाँ, जन्नत की तरह रंगी, शादाबनुमा4 दुनियाँ, लिल्लाह5! वहीं ले चल, ऐ इश्क़ कहीं ले चल!... उन चाँद सितारों के बिखरे हुए शहरों में, उन नूर की किरनों में ठहरी हुई लहरों में, ठहरी हुई लहरों में, सोई हुई नहरों में, ऐ ख़िज़रे-हसीं6 ले चल, ऐ इश्क़ कहीं ले चल!... इक ऐसी बहिश्त-आई7 वादी में पहुँच जायें, जिसमें कभी दुनियाँ के ग़म दिल को न तड़पायें, और जिसकी बहारों में जीने के मजे आयें, ले चल तूं कहीं ले चल, ऐ इश्क़ वहीं ले चल !... 1. सफ़ाक- ज़ालिम; 2. ग़म से हज़ी- दुखों से भरी हुई; 3. मेहताबनुमा- चाँद सी; 4. शादाबनुमा-हरी भरी सी; 5. लिल्लाह-अल्लाह के वास्ते; 6. ख़िज़रे हसीं- हसीन रहबर (राह दिखाने वाला); 7. बाहिश्त-आईं - स्वर्ग जैसी वादी। उनकी एक और नज़्म ‘बस्ती की लड़कियों में’ के चन्द अशआर पेश करता हूँ। सलमा के साथ उनकी मुहब्बत से जो रूसवाई उनकी तथा सलमा की, बस्ती की लड़कियों के बीच हुई उसका क्या खूब जिक्र हुआ है इनमें- उस हूरवश1 के ग़म में दुनियाँ व दीं2 गवाँकर, होशो-हवास खोकर, सब्रो-सुकूँ लुटा-कर, बैठे-बिठाये दिल में, ग़म की ख़लिश बसाकर, हर चीज़ को भुलाकर सल्मा से दिल लगा कर, बस्ती की लड़कियों में बदनाम हो रहा हूँ।... कहती हैं सब ये किसकी तड़पा गई है सूरत, सल्मा की शायद इसके मन भा गई है सूरत, और उसके ग़म में इसकी मुर्झा गई है सूरत, मुर्झा गई है सूरत कुम्हला गई है सूरत, संवला गई है सूरत, सल्मा से दिल लगाकर, बस्ती की लड़कियों में, बदनाम हो रहा हूँ।... रातों को गीत गाने जब मिल के आती हैं सब, तालाब के किनारे धूमें मचाती हैं सब, जंगल की चाँदनी में मंगल मनाती हैं सब, तो मेरे और सल्मा के गीत गाती हैं सब, और हँसती जाती हैं सब, सल्मा से दिल लगाकर, बस्ती की लड़कियों में बदनाम हो रहा हूँ।... खेतों से लौटती हैं जब दिन छुपे मकाँ 3 को, तब रास्ते में बाहम2 वो मेरी दास्ताँ को, दोहरा के छेड़ती है सल्मा को मेरी जाँ को, और वो हया की मारी सी लेती है ज़बाँ को, क्या छेड़ें इस बयां को सल्मा से दिल लगा कर, बस्ती की लड़कियों में बदनाम हो रहा हूँ।... मुल्क परस्ती और अपने वतन से जुड़े जज्बात पर उन्होंने एक नज़्म लिखी थी जिसका नाम था ‘ओ देस से आने वाले बता’! यह इतनी असरदार बन पड़ी है कि आप अख़्तर की शायरी को मान जायें। इस नज़्म के चन्द बहुत ही खुशगवार अशआर पेश करता हूँ‒ 1. हूरवश- अप्सरा सी सुन्दरी; 2. दुनियाँ व दीं- दुनिया व धर्म; 3. मकाँ- घर; 4. बाहम- आपस में। ओ देस से आने वाले बता! क्या अब भी वहाँ के बागों में मस्ताना हवायें आती हैं? क्या अब भी वहाँ परवत पर घनघोर घटायें छाती हैं? क्या अब भी वहाँ की बरखायें वैसे ही दिल को भाती हैं? ओ देस से आने वाले बता! क्या अब भी वतन में वैसे ही सरमस्त1 नज़ारे होते हैं? क्या अब भी सुहानी रातों को वो चाँद सितारे होते हैं? हम खेल जो खेला करते थे अब भी वो सारे होते हैं? ओ देस से आने वाले बता ! क्या अब भी वहाँ के पनघट पर पनहारियाँ पानी भरती हैं? अंगड़ाई का नक्शा बन-बन कर सब माथे पर गागर धरती हैं ? और अपने घरों को जाते हुए हँसती हुई चुहलें करती हैं? ओ देस से आने वाले बता! क्या अब भी किसी के सीने में बाक़ी है हमारी चाह? बता, क्या याद हमें भी करता है अब यारों में कोई? आह बता, ओ देस से आने वाले बता, लिल्लाह बता, लिल्लाह बता, ओ देस से आने वाले बता! आखिर में ये हसरत है कि बता वो गारते-ईमाँ2 कैसी है? बचपन में जो आफत ढाती थी वो आफते-दौरां3 कैसी है? हम दोनों जिसके परवाने थे वो शम्म-ए-शबिस्ताँ4 कैसी हैं? ओ देस से आने वाले बता ! अख़्तर साहब की रूमानी शायरी की एक और कल्पना का नाम उन्होंने रेहाना रक्खा था। इस रेहाना के चरित्र, रहन-सहन आदि को विस्तार से इतना बताया गया है उनकी एक नज़्म में जिसका टाइटल है, ‘‘जहाँ रेहाना रहती थी!’’ कि आपको रेहाना एक हक़ीक़त नजर आने लगेगी। चन्द अशआर इस नज़्म के भी पेशे-खिदमत हैं। यही वादी है वो हमदम जहाँ रेहाना रहती थी! वो इस वादी की शहजादी थी और शाहाना रहती थी, कंवल का फूल थी, संसार से बेगाना रहती थी, नज़र से दूर, मिस्ले-नकहते-मस्ताना5 रहती थी, यही वादी है वो हमदम, जहाँ रेहाना रहती थी! 1. सरमस्त- मस्त कर देने वाले; 2. गारते ईमाँ- ईमान को डुबोने वाली; 3. आफते दौरां- इस ज़माने की आफत; 4. शम्म ए शबिस्ताँ- रात की शमा; 5. मिस्ले नकहते मस्ताना- फूलों की मस्त सुगंध। ये फूलों की हसीन आबादियाँ, काशाना1 थी उसका, वो इक बुत थी ये सारी वादियाँ, बुतखाना थी उसका, वो इस फिर्दोसे-वज्दो-रक्स2 में, मस्ताना रहती थी, यही वादी है वो हमदम जहाँ रेहाना रहती थी! मेरे हमदम जुनूने-शौक का इज़हार करने दे, मुझे इस दश्त3 की इक-इक कली से प्यार करने दे, जहाँ इक दिन वो मिस्ले-गुन्चा-ए-मस्ताना4 रहती थी, यही वादी है वो हमदम जहाँ रेहाना रहती थी! उसे फूलों ने मेरी याद में बेताब देखा है, सितारों की नज़र ने रात भर बेख़्वाब देखा है, वो शम्म-ए-हुस्न थी, पर सूरते पर्वाना5 रहती थी, यही वादी है वो हमदम जहाँ रेहाना रहती थी! बेइन्तिहा पीने वाला अख़्तर शीरानी यदि मैकशी पर न लिखे, साकी पर न लिखे तो बात कैसे बनेगी। अख़्तर ने भी साकी पर एक नज़्म लिखी जो इस मौजूं पर लिखी गई सभी नज़्मों/गज़लों पर बेहतर है। चंद अशआर पेश करता हूँ- उठा सागर कि दुनियाँ दर-पै-आज़ार6 है साक़ी। ज़माना हो कि क़िस्मत बर-सरे-पैकार7 है साक़ी।। पिलादे आज तू जितनी मय-ए-गुलनार8 है साक़ी। कि फिर अब्रे-जवाँ रक्साँ9 सरे-कुहसार10 है साक़ी।। गज़ब है ये जवानी और हम इस तरह से काटें। कि इक-इक सांस इक चलती हुई तलवार है साक़ी।। जमाने की तरह रंगत बदलना किससे सीखा है। कभी इकरार है साक़ी, कभी इंकार है साक़ी।। घटायें हैं कि ख़ाकी-पोश11 परियां मुस्कुराती हैं। उठा सागर कि दुनियाँ हुस्न से सरशार12 है साक़ी।। जमाने के ग़मों ने ये सबक़ हमको सिखाया है। जो बेखुद है यहाँ साक़ी, वही हुशियार है साक़ी।। 1. काशाना- रहवास; 2. फिर्दोसे वज्दो रक्स- खुशी से झूमते स्वर्ग; 3. दश्त- जंगल; 4. मिस्ले गुन्चा ए मस्ताना- मस्त कली की तरह; 5. सूरते पर्वाना- पर्वाने की तरह; 6. दर पै आज़ार- कष्ट देने को तैयार; 7. बर सरे पैकार- अपने काम में व्यस्त; 8. मय ए गुलनार- मस्त करने वाली शराब; 9. अब्रे जवाँ रक्सा- जवाँ बादल नाचते हैं; 10. सरे कुहसार- पहाड़ की चोटी; 11. ख़ाकी पोश- धूल का लिबास पहने; 12. सरशार- डूबी हुई। खरीदी जा नहीं सकती खुशी दुनियाँ-ए-ग़मगीं में। मगर तेरे करम से ये भी क्या दुश्वार है साक़ी।। दिले-ग़मग़ीं को बहलाने की खातिर दर पै आये हैं। मोहब्बत है कि जीते जी का इक आज़ार1 है साक़ी।। ग़मों के हाथ से मर मर के जीना क्या क़यामत है। खुशी का जाम ला दे, जिन्दगी दुश्वार है साक़ी।। मोहब्बत कर, ग़मे-दुनियाँ सताये तो मोहब्बत कर। मोहब्बत इस जहाँ में इक हसीं आज़ार है साक़ी।। मोहब्बत में मजे ले-ले के मरना तो मुक़द्दर है। मगर इसके लिये कुछ जिन्दगी दरकार है साक़ी।। अज़ब क्या है मरी की रात आँखों ही में कट जाये। इधर बेख्वाब है ‘अख़्तर’ उधर बेदार2 है साक़ी।। ‘अख़्तर’ साहब के कई फुटकर शेर भी सितारों की तरह शायरी के आस्मान में रोशन हैं। चन्द ऐसे ही शेर पेशे-खिदमत हैं- मोहब्बत इस तरह मालूम हो जाती है दुनियाँ को। कि ये मालूम होता है, नहीं मालूम होती है।। तुम अपना आस्ताँ,3 अच्छी तरह पहचान सकते हो। हमें तो ये हमारी ही जबीं4 मालूम होती है।। उनकी सोहबत5 का तसव्वुर6 और हम। जिन्दगी धोखा थी कुछ दिन के लिये।। उठते नहीं है अब तो दुआ के लिये भी हाथ। इस दर्ज़ा नाउम्मीद हैं परवरदिग़ार से।। मसर्रत7! आह तू बसती है जाने किन सितारों पर। जमीं पर उम्र हुई तेरी जुस्तजू करते-करते।। रोता है बात-बात पे यूं बार-बार क्यूं। ‘अख़्तर’ खबर नहीं दिले-नादाँ को क्या हुआ।। रूमानी शायर ने मोहब्बत को वो ऊँचा मर्तबा दिया कि मोहब्बत को भी शर्म आ जाये। मोहब्बत होने से पहले और मोहब्बत हो जाने के बाद की परिस्थिति का नज़ारा पेश करते हुए वे फरमाते हैं कि- 1. आज़ार- रोग; 2. बेदार- जागी हुई; 3. आस्ताँ- चौखट; 4. जबीं- पेशानी, ललाट, माथा; 5. सोहबत- मुलाकात; 6. तसव्वुर- कल्पना; 7. मसर्रत- खुशी। ये जमीं सादा थी, जन्नत न हुई थी पैदा। जिन्दगी में कोई लज़्ज़त न हुई थी पैदा।। ज़हन और फिक्र में अज़्मत1 न हुई थी पैदा। जब तलक दिल में मोहब्बत न हुई थी पैदा।।... बे असर थी मेरी नजरों में सितारों की बहार। कितनी अफ़सुर्दा2 थी कुदरत के नजारों की बहार।। किसी मंजर में लताफ़त3 न हुई थी पैदा। जब तलक दिल में मोहब्बत न हुई थी पैदा।।... हुस्न खंदा4 था न दीवाने नज़र आते थे। शम्अ रोशन थी न परवाने नज़र आते थे।। ये जुनूं और ये वहशत न हुई थी पैदा। जब तलक दिल में मोहब्बत न हुई थी पैदा।।... ये जहाँ सादा था, बेकैफ़5 था ग़म जदा था। एक-एक जर्रा परेशान था, मातम ज़दा6 था।। बागे-हस्ती में मसर्रत न हुई थी पैदा। जब तलक दिल में मोहब्बत न हुई थी पैदा।।... इसी मोहब्बत के लिये दूसरा पक्ष रखते हुए अख़्तर साहब ने एक और नज़्म लिखी जिसका नाम था ‘ए इश्क़ हमें बर्बाद न कर’। इस नज़्म के चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं। ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर, हम भूले हुओं को याद न कर, पहले ही बहुत नाशाद हैं हम, तू और हमें नाशाद न कर, किस्मत का सितम ही कम तो नहीं, ये ताज़ा सितम ईजाद न कर यूं ज़ुल्म न कर बेदाद7 न कर, ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर! जिस दिन से मिले हैं दोनों का सब चैन गया आराम गया, चेहरों से बहारे-सुब्ह गई आँखों से फ़रोगे-शाम8 गया, हाथों से खुशी का जाम छूटा होठों से हँसी का नाम गया, ग़मगीं न बना नाशाद न कर, ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर ! रातों को उठ-उठ कर रोते हैं, रो-रो के दुआयें करते हैं, आंखों में तसव्वुर, दिल में ख़लिश, सर धुनते आहें भरते हैं, ऐ इश्क़ ! ये कैसा रोग लगा, जीतें हैं न ज़ालिम मरते हैं, 1. अज़्मत- महानता; 2. अफ़सुर्दा- दुखी; 3. लताफ़त- श्रेष्ठता; 4. खंदा- खिला हुआ; 5. बेकैफ़- बेमज़ा; 6. मातमज़दा- सोगवार; 7. बेदाद- बेरहमी, निर्दयता; 8. फरोगे शाम- शाम की रोशनी। ये ज़ुल्म तू ए जल्लाद न कर, ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर! दुनियाँ का तमाशा देख लिया, ग़मगीन सी है बेताब सी है, उम्मीद यहाँ इक वहम सी है, तस्कीन1 यहाँ इक ख्वाब सी है, दुनियाँ में ख़ुशी का नाम नहीं, दुनियाँ में खुशी नायाब2 सी है, दुनियाँ में ख़ुशी को याद न कर, ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर ! तो देखा आपने जो शायर मोहब्बत की शायरी का खुदा है उसके खुद के मोहब्बत के प्रति कैसे विचार बन गये। क्या यह अपने खुद के इश्क़ के तर्जुबों की देन है? इश्क़ में सलमा-सलमा, रेहाना-रेहाना रटने वाला शायर दिल टूटने पर इश्क़ को बर्बादियों का कारण समझने लगा! सलमा नाम की माशूक पर दिलो-जान से फिदा इस रूमानी शायर ने यह कहा कि- हरीमे-हज़रते-सल्मा3 की सिम्त4 जाता हूँ। हुआ न ज़ब्त5 तो चुपके से आह कर लूंगा।। किसी हसीना के मासूम इश्क़ में ‘अख़्तर’। जवानी क्या मैं सब कुछ तबाह कर लूँगा।। और इसी सल्मा के न मिलने की सूरत में अपनी जिंदगी वास्तव में बर्बाद कर दी। उनके दिल में छिपे इश्क़ की इस नाकामी के दर्द को उनकी इस गज़ल में बखूबी देखा जा सकता है- फ़स्ले-गुल आई गई, ग़म कर चुके, ऐ मोहब्बत, तेरा मातम कर चुके। उनसे मिलने की ही अब तदबीर क्या, हम जो कर सकते थे हमदम कर चुके। दिल में बाक़ी है अभी तक इक ख़लिश, गरचे-तौबा इश्क़ से हम कर चुके। बाद-मर्दन6 क्यों हो रंज अहबाब को, जीते-जी हम अपना मातम कर चुके। अपने क़िस्सों ही से फुर्सत है किसे, चारा-ए-दिल मेरे हमदम कर चुके। क्यों सलामत है निजामे-दो-जहाँ7, अपनी जुल्फ़ों को वो बरहम कर चुके। 1. तस्कीन- संतोष; 2. नायाब- न मिलने वाली; 3. हरीमे हज़रते सल्मा- सलमा के घर; 4. सिम्त- तरफ, दिशा; 5. ज़ब्त- सहन, बर्दाश्त; 6. बाद मर्दन- मरने के बाद; 7. निजामे दो जहाँ- दोनों लोकों की व्यवस्था। उम्र भर ‘अख़्तर’ लुटाये मैकदे1, ज़िन्दा रस्मे-ख़ुसरवो-जम2 कर चुके।। उम्र भर मैकदों में भटकते हुए इस रूमानी शायर ने शराब के प्याले में दुनियाँ देखनी चालू कर दी। शराब को आदमी नहीं पीता, शराब ही उसे पी जाती है। इस बात को सही ठहराते हुए यह महबूब शायर 45 वर्ष से कम उम्र में ही फ़ना हो गया और जाते-जाते हम सब को यह कह गया कि- हसरतों से अपना दामन भर चले। हाय ! इस दुनियाँ से हम क्या कर चले।। कब तलक ये रंजो-ग़म, दर्दो-अलम। जिन्दगी ! ओ जिन्दगी ! हम मर चले।। मुख़्तसर सोहबत है साक़ी, जल्द-जल्द। जाम उठे, मीना बढ़े, सागर चले।। राहतें देखीं, जहाँ में, रंज भी। खारो-गुल3 से अपना दामन भर चले।। मुतरिबा4 ! नग़्मा कि दिल घबरा गया। साक़िया ! सागर !! कि ग़म से मर चले।। अब इस रूमानियत के शंहशाह से विदा लेने का वक्त आ गया है और यह बात सबसे बेहतर तरीके से कैसे की जा सकती है? मेरे विचार से उनकी एक और रूमानी गज़ल पेश करने से और कोई बेहतर तरीका हो नहीं सकता। तो यही करते हैं। एक बार फिर मोहब्बत के जज़्बे को सिज़दा करते हैं, ‘अख़्तर’ शीरानी साहब को सिज्दा करते हैं- मोहब्बत की दुनिया में मशहूर कर दूँ। मेरी सादा-दिल तुझको मग़रूर कर दूँ।। मुझे जिन्दगी दूर रखती है तुझ से। जो तू पास हो तो उसे दूर कर दूँ।। मोहब्बत के इक़रार से शर्म कब तक। कभी सामना हो तो मजबूर कर दूँ।। तू गर सामने हो तो मैं बेखुदी में। सितारों को सिज्दे पे मजबूर कर दूँ।। नहीं जिन्दगी को वफ़ा, वर्ना अख़्तर। मोहब्बत से दुनियाँ को मामूर5 कर दूँ।।... और अंत में जाते-जाते- वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें। मोहब्बत करें खुश रहें मुस्कुरा दें।। 1. मैकदे- शराब खाने; 2. रस्मे खुसरवो जम- जाम की शाहाना रस्म; 3. खारो गुल- काँटे और फूल; 4. मुतरिबा- गायक़ 5. मामूर- भरना। जवानी गर हो जाविदानी1 तो या रब। तेरी सादा दुनियाँ को जन्नत बना दें।।... तुम अफसाना-ए-कैस2 क्या पूछते हो। इधर आओ हम तुमको लैला बना दें।।... * 1. जाविदानी- सदा रहने वाली; 2. अफ़साना ए क़ैस- मजनूँ की दास्ताँ।