रघुपतिसहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी रघुपतिसहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी साहब का जन्म 1896 ई. में गोरखपुर (उ. प्र.) में हुआ। शायरी आपको घुट्टी में नहीं मिली। यद्यपि आपके वालिद भी नामी शायर थे परन्तु उनकी शायरी से वे 25-26 वर्ष की उम्र में ही मुखातिब हुए। आपके पिता मुंशी गोरख प्रसाद ‘इबरत’ वकालत तथा शायरी दोनों करते थे। उन्होंने ‘हुस्ने-फितरत’ नामक मसनवी तथा ‘नखोनुमा-ए-हिन्द’ नामक मुसद्दस तथा अनेक नज़्में लिखीं। अपने वालिद की गज़लें और नज़्में शायरी के शौक को भड़काने के काम में लेने के बाद आपने प्रोफेसर ‘नासिरी’ जैसे फ़नकार की सोहबत में अपने सुखन-फहमी के फन को निखारा। उन्होंने न केवल आपकी गज़लों को इस्लाह दी बल्कि सुखन-फहमी के नियम, कायदे, कानून भी आपको सिखाये। सेण्ट्रल-कॉलेज, इलाहबाद से बी. ए. करने के बाद आप डिप्टी-कलैक्टर बन बैठे। लेकिन नौकरी रास न आने पर उसे छोड़ कर काँग्रेस पार्टी में शामिल हो गये और तुरंत जेल यात्रा कर ली। जेल में कई नामाचीन शायरों की संगत-सोहबत से आपके कलाम में निखार आया। 1927 में जेल से छूटे तो दो चार कॉलेजों में प्रोफेसर रहे। अँग्रेजी में एम. ए. करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त हुए तथा रिटायरमेंट तक यहीं रहे। साथ-साथ शायरी का शौक भी पलता रहा और काफी नाम कमाया। आपने कई गज़लें, नज़्में, रूबाइयात, कतऐ आदि लिखे। समालोचनाएं भी लिखीं। लेकिन लोग आपको उन शेरों के कारण से याद रखेंगे जो ‘क्लासिक’ कहे जा सकते हैं। आपकी अधिकतर शायरी इश्किया-शायरी है लेकिन यह प्राचीन इश्किया-शायरी से अलग हटकर है। इसकी प्रेयसी, कोठे की तवाइफ न होकर आम औरत है। वह बेवफा और हरजाई भी नहीं। आपकी शायरी का आशिक भी हमेशा गिले, शिकवे, आहोज़ारी और रोने-बिसूरने में नहीं लगा रहता। इसीलिए आपको आधुनिक उर्दू कलाम का सबसे बड़ा गज़ल-गो शायर कहा जाता है। ‘असर’ लख़नवी और कई अन्य प्राचीन इश्किया-शायरी से तआल्लुक रखने वाले शायरों को आपके शेर काने, लूले और लंगड़े नज़र आते थे। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि आप एक बुलंद शायर न थे। यूं तो ‘गालिब’ और ‘इकबाल’ के भी प्रतिद्वंदी उन्हें शायर तक मानने से इंकार कर देते थे। आपका काव्य संग्रह ‘गुलेनग्म़ा’ न केवल साहित्य-अकादमी से बल्कि भारतीय ज्ञानपीठ से भी पुरस्कृत हो चुका है। आप सन् 1982 में दिवंगत हुए। बातों के रसिया ‘फिराक’ अपनी अनेकों बातों की यादें हमें दे गए। कई किस्से अपने बारे में छोड़ गये। लोग ऐसे भी हैं जो उनकी बातों को ‘बकवास’ कहते हैं पर वे बातें ही उनकी हक़ीक़त का बयां करती हैं। इन्हीं बातों में उनकी जिंदगी का फ़लसफ़ा है। जब उन्होंने ये शेर कहा कि- मौत इक गीत रात गाती थी। जिन्दगी झूम-झूम जाती थी।। तो सरदार ‘ज़ाफरी’ साहब ने इसे ‘बकवास’ बता दिया। उसके बाद फ़िराक साहब की जुबान से जिन्दगी और मौत का वो फ़लसफ़ा बयां हुआ कि सब पनाह माँगने लगे। बातें करने के अपने जुनून में वे सब कुछ भूल जाते थे और किसी के भी साथ उलझ जाते थे। कई घंटों तक लगातार बातें कर सकते थे और ऐसे-ऐसे विषयों पर बातें कर सकते थे कि आप हैरान रह जायें। ढूँढ़-ढूँढ़ कर बोलने के विषय निकाल लेते थे और बिना थके बोलते रहते थे। फ़िराक साहब की एक गज़ल पेशे-खिदमत है - थरथरी सी है आस्मानों में। जोर कुछ तो है नातवानों में।। इन्हीं तिनकों में देख ऐ बुलबुल ! बिजलियाँ भी हैं आशियानों में।। कितना खामोश है जहाँ लेकिन। इक सदा आ रही है कानों में।। हम उसी जिन्दगी के दर पे हैं। मौत है जिसके पासबानों में।। कैदियों को पयामे-कत्ल मिला। जिन्दगी सी है कैद खानों में।। मंज़िलें दूर से चमकतीं थीं। खो गई आ के कारवानों1 में।। कोई सोचे तो फ़र्वफ़ कितना है। हुस्न और इश्क के फ़सानों में।। 1. कारवानों- काफिले। एक चर्का-सा वक्त का खा कर। बाँकपन आ गया जवानों में।। हमसे क्यों तूं है बदगुमां1 ए दोस्त। हम नहीं तेरे राज़दानों2 में।। मौत के भी उड़े हैं अक़्सर होश। जिंदगी के शराब खानों में।। जिनकी तामीर इश्क़ करता है। कौन रहता है उन मकानों में।। एक गज़ल से तो जी भरा नहीं, तो दूसरी गज़ल पेश करता हूँ- रूकी-रूकी सी शबे-मर्ग3 ख़त्म पर आई। वो पौ फटी, वो नई ज़िन्दगी नज़र आई।। ये मोड़ वो है कि परछाईयाँ भी देंगी न साथ। मुसाफिरों से कहो, उनकी रहगुज़र4 आई।। फ़ज़ा तबस्सुमे-सुबह-बहार5 थी लेकिन। पहुँच के मंज़िले-जाना पे आँख भर आई।। किसी की बज़्मे-तरब में हयात बँटती थी। उम्मीदवारों में कल मौत भी नज़र आई।। कहाँ हर एक से इन्सानियत का बार6 उठा। कि ये बला भी तेरे आशिकों के सर आई।। दिलों में आज तेरी याद मुद्दतों के बाद। ब चेहरा-ए-तबस्सुम7 व चश्मे-तर8 आई।। नया नहीं है मुझे मर्गे-नागहाँ9 का पयाम। हजार रंग से अपनी मुझे ख़बर आई।। फ़ज़ा को जैसे कोई राग चीरता जाये। तेरी निगाह दिलों में युँही उतर आई।। जरा विसाल के बाद आईना तो देख ऐ दोस्त ! तेरे जमाल की दोशीज़गी10 निखर आई।। अज़ब नहीं कि चमन दर चमन बने हर फूल। कली-कली की सबा जाके गोद भर आई।। शबे-फ़िराक़ उठे दिल में और भी कुछ दर्द। कहूँ मैं कैसे, तेरी याद रात भर आई।। 1. बदगुमां- नाराज़; 2. राज़दानों- भेद जानने वाले; 3. शबे मर्ग- मृत्यु की रात; 4. रहगुज़र- गुज़रने का रास्ता; 5. तबस्सुमे सुबह बहार- बहार की मुस्कुराती भोर; 6. बार- बोझ; 7. ब चेहरा ए तबस्सुम- हंसते चेहरे के साथ; 8. चश्मे तर- भीगी आँखे; 9. मर्गे नागहाँ- अचानक मौत; 10. जमाल की दोशीज़गी- हुस्न का बांकपन। इन गज़लों को पढ़ने के बाद तो कोई भी इस बात पर ऐतबार नहीं कर सकता कि फिराक़ की शायरी किसी भी नामाचीन शायर से कहीं कम है। एक तरफ कलाम में बला की नाजुकी और दूसरी तरफ जुबान में तल्खी, इन दोनों ने एक तरफ तो उन्हें ‘शायरे-जमाल’ का ओहदा दिया तो दूसरी तरफ ‘मुँहफट’ और ‘कलम-फट’ शायर होने की तोहमत। व्यक्तिगत जीवन में ‘फिराक़’ काफी दबंग सख़्श थे। कोई कितनी ही बड़ी हैसियत रखता हो उसकी अनुचित बात को वे कभी सहन नहीं करते थे। भरी सभा में मन्त्री महोदय के हाथ से माइक झपटने का किस्सा इस बात का खुलासा करता है। लेकिन खुद विचारों से क्रांतिकारी होते हुए भी वे प्राचीन-साहित्य की रक्षा करना उचित समझते थे क्यूंकि इन दोनों के बीच में तारतम्य के बिना साहित्य, डोर से कटी पतंग के समान भटक जायेगा। उनकी शख्सियत को वाकिफ़ कराते चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं। गैर क्या जानिये, क्यों मुझको बुरा कहते हैं। आप कहते हैं ऐसा, तो बजा1 कहते हैं ।। वाकई तेरे इस अंदाज़ को, क्या कहते हैं? न वफ़ा कहते हैं जिसको, न जफ़ा कहते हैं।। जिन्हें शक हो वो करें और खुदाओं की तलाश। हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं।। तेरी रूदादे-सितम2 का है बयाँ नामुमकिन। फायदा क्या है, मगर यूं ही जरा कहते हैं।। लोग जो कुछ भी कहें, तेरी सितमकशी3 को। हम तो इन बातों को अच्छा, न बुरा कहते हैं। फिराक़ साहब ने व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति से ऊपर उठ कर व्यक्ति-समूहों की भावनाओं को उज़ागर करती शायरी करी। वे गज़ल-गोई को हुस्नो-इश्क के सीमित दायरे से बाहर लेकर आये। भाषा में भी उन्होंने उर्दू और हिन्दी के पिंगल अपनाने का प्रयोग किया जिससे उनकी गजलों में गीतों जैसी सरलता आ गई। इस भाषा शैली के उदाहरण स्वरूप एक गज़ल पेश है- हमको तुमको फेर समय का, ले आई ये हयात कहाँ? हम भी वहीं हैं तुम भी वहीं हो, लेकिन अब वो बात कहाँ?? ये संजोग-वियोग की दुनिया, कल हम को बिछुड़ा देगी। देख लूं तुमको आँखें भरके, आयेगी अब ये रात कहाँ ?? मोती के दो थाल सजाए, आज हमारी आँखों ने। 1. बजा- सही; 2. रूदादे सितम- ज़ुल्म की दास्ताँ; 3. सितमकशी- ज़ुल्म करना। तुम जाने किस देश सिधारे भेजें ये सौगात कहाँ?? ऐ दिल कैसी चोट लगी, जो आँखों से तारे टूटे। कहाँ टपाटप गिरते आँसू, और मर्द की जात कहाँ?? झिलमिल-झिलमिल तारों ने भी, पायल की झंकार सुनी थी। चली गई कल छम छम करती, पिया मिलन की रात कहाँ?? आपके अशआरों में फ़लसफ़ा भी कम नहीं पाया जाता। इसके उदाहरण के लिए उनकी एक गज़ल के चन्द अशआर पेशे-खिदमत हैं‒ अरे ख़्वाबे-मुहब्बत की भी क्या ताबीर1 होती है। खुले आँखें तो दुनिया दर्द की तस्वीर होती है।। उम्मीदें टूट जायें और फिर जीता रहे कोई। न पूछ ए दोस्त ! क्या फूटी हुई तकदीर होती है।। सरापा दर्द हो कर जो रहा जीता ज़माने में। उसी की ख़ाक़ यारों गैरते-अक्सीर2 होती है।। आपने बहुत-सी अच्छी-अच्छी नज़्में कहीं, जिनमें ‘आधी रात को’, ‘धुँदलका’ ‘शामे-अयादत’ आदि नज़्में काफ़ी मशहूर हुई। उनकी नज़्म ‘धुँदलका’ से ढलती हुई आधी रात का वर्णन पेशे-खिदमत है- ये कैफो-रंगे-नज़ारा3, ये बिजलियों की लपक, कि जैसे कृष्ण से राधा की आँख इशारा करे। वो शोख इशारे कि रब्बानियत4 भी जाये झपक।। जमाल सर से कदम तक तमाम शोला है, सुकूनो-जुम्बिशो-रम5 तक तमाम शोला है। मगर वो शोला कि आँखों में डाल दे ठंडक।। इसी नज़्म से लिया गया ‘पिछला-पहर’ का वर्णन भी देखिए ! किसी ख़याल में है गर्क चाँदनी की चमक। हवाएँ नींद के खेतों से जैसे आती हों।। हयातो-मौत6 में सरगोशियाँ-सी7 होती हैं। करोड़ों साल के जागे सितारे नम-दीदा8।। सियाह गेसुओं के साँप नीम-ख़्व्वाबीदा9। ये पिछली रात, ये रग-रग में नर्म-नर्म कसक।। +++++++++++++++++++++++++ 1. ताबीर- नतीजा, परिणाम; 2. गैरते अक्सीर- शर्म की औषधी; 3. कैफो रंगे नज़ारा-नज़ारों का रंग व कैफियत; 4. रब्बानियत-इश्वरीय ज्ञान; 5. सुकूनो जुम्बिशो रम- ठहरना, हिलना, चलना; 6. हयातो मौत-जीवन मृत्यु; 7. सरगोशियाँ- काना फूसी; 8. नम दीदा- भीगे नयन; 9. नीम ख़्वाबीदा- अर्ध निद्रा में। फिराक़ साहब की रूबाईयात में उनकी भाषा-शैली जिसमें उर्दू-हिन्दी पिंगल का प्रयोग हुआ है साफ झलकती है। इस प्रयोग से इन रूबाईयात का मर्म समझ लेना बहुत आसान हो जाता है। बानगी देखिए- करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आये। जीतेजी जान से गुज़रना क्या आये।। रो-रो के मौत माँगने वालों को। जीना नहीं आ सका तो मरना क्या आये।। घर छोड़ों हुओं की कोई मंजिल न सही। होती नहीं सहल1 कोई मुश्किल न सही।। हस्ती की ये रात काट देने के लिये। वीराना सही, किसी की महफिल न सही।। खोते हैं अगर जान तो खो लेने दे। जो ऐसे में हो जाये वो हो लेने दे।। इक उम्र पड़ी है सब्र भी कर लेंगे। इस वक्त तो जी भर के रो लेने दे।। सोने वाले को क्या जगाती दुनिया। थे कौन फसाने जो सुनाती दुनिया।। दुनिया का भरम खुला न पूछो कब। आँख जब खुली तो देखी जाती दुनिया।। क्या कहते थे इसका तो किसे होश रहा। हाँ बज़्म में तकरीरों का इक जोश रहा।। देखा जो ये रंग होश वालों का फ़िराक़। ‘दीवाना’ कुछ सोच के खामोश रहा।। दुनिया जो सँवर जाये सँवर जाने दे। दुनिया जो निखर जाये निखर जाने दे।। ये फुर्सते-नज़्ज़ारा2 गनीमत3 है ‘फ़िराक़’। दिल पे जो गुज़र जाये गुजर जाने दे।। सहरा में ज़माँ, मकाँ के खो जाती हैं। सदियों बेदार4 रहके सो जाती हैं।। अक्सर सोचा किया हूँ खिल्वत5 में ‘फ़िराक़’। तहजीबें6 क्यूँ गुरूब7 हो जाती हैं।। 1. सहल- आसान; 2. फुर्सते नज़्ज़ारा- देखने की फुर्सत; 3. गनीमत- शुक्र है; 4. बेदार - जागकर; 5. खिल्वत- एकांत में; 6. तहज़ीबें- सभ्यताएं; 7. गुरूब-डूबना। पण्डितजी, शेख़जी महाजन क़ाजी। अब लड़-भिड़कर इस पर हुए हैं राज़ी।। जनता को लगी रट नई दुनिया की। मिलके नारा लगाओ माज़ी-माज़ी1।। बेहाल ‘फ़िराक़’ इतना न हो दिल तो टटोल। किस सोच में है सर तो उठा आँख तो खोल।। ये सोजे-हयात2 साज़े-ग़म की ये लौ। दहकी हुई आग है कि हीरा अनमोल।। ‘फ़िराक़’ साहब के शेर उनकी सबसे बेहतरीन रचनाएँ हैं। कई शेर इतने यादगार बन पड़े हैं कि फ़िराक़ सहब का नाम अमर हो गया है। इनमें से चन्द चुनींदा शेर पेशे-खिदमत हैं। तुझको तो ग़रज क्या मेरे इस हाल से ऐ दोस्त। शायद कि मेरा दर्द ज़माने के लिए है।। मुझे खबर नहीं ऐ हमदमों, सुना ये है। कि देर-देर तक अब मैं उदास रहता हूँ।। आज आँखों में काट ले शबे-हिज्र3। जिन्दगानी पड़ी है सो लेना।। हम से क्या हो सका मोहब्बत में। खैर तुमने तो बेवफ़ाई की।। इश्क दुनिया से बेख़बर है मगर। पेट की बात जान लेता है।। कौन ये ले रहा है अँगड़ाई। आस्मानों को नींद आती है।। जिन्दगी हो कि आशिकी, दोनों। अपनी ज़िद में पनाह लेती हैं।। तुम मुखातिब4 भी हो करीब भी हो। तुम को देखूं कि तुम से बात करूं।। ख़्वाहिशों को तेरी मोहब्बत में। ख़्वाहिशों से बुलंद होना है।। 1. माज़ी- भूतकाल; 2. सोज़े हयात- जीवन का कष्ट; 3. शबे हिज्र- जुदाई की रात; 4. मुखातिब- बात करने वाला। मैं देर तक तुझे खुद ही न रोकता लेकिन। तू जिस अदा से उठा है, उसी का रोना है।। हज़ार बार जमाना इधर से गुज़रा है। नई-नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी।। गरज़ कि काट दिये जिन्दगी के दिन ए दोस्त। वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में।। मुहब्बत में मेरी तनहाइयों के हैं कई उनवाँ1। तेरा आना, तेरा मिलना, तेरा उठना, तेरा जाना।। न कोई वादा, न कोई यकीं, न कोई उम्मीद। मगर हमें तो तेरा इंतज़ार करना था।। आज उन्हें मेहरबान पा कर। खुश हुए और जी में डर भी गये।। कुछ नहीं कहतीं वो निगाहें मगर। बात पहुँचती है कहाँ-से-कहाँ।। आज रग-रग में जान दौड़ गई। मौत ने जिन्दगी को छेड़ दिया।। मौत का भी ईलाज हो शायद। जिन्दगी का कोई ईलाज नहीं।। कोई समझे तो एक बात कहूँ। इश्क तौफीक2 है गुनाह नहीं।। न समझने की बातें हैं न समझाने की। जिन्दगी उचटी हुई नींद है दीवाने की।। तू एक था मेरे अशआर में हज़ार हुआ। इस इक चिराग से कितने चिराग जल उठ्ठे।। निसार करने को तुझ पर कहाँ से लायें खुशी। यही है इश्क के कुछ ग़म बचाये हुए।। इक फुसूँ-सामाँ3 निगाहे-आशना4 की देर थी। इस भरी दुनियाँ में हम तनहा नज़र आने लगे।। 1. उनवाँ- शीर्षक, नाम; 2. तौफीक- हिदायत; 3. फुसूँ सामाँ- बहकाने का सामान; 4. निगाहे आशना- प्यार भरी निगाहें। आज तो दर्दे-हिज्र भी कम है। आज तो कोई आ गया होता।। फ़िराक़ एक से बढ़कर एक चारासाजे-दर्द1 है लेकिन। ये दुनियाँ है यहाँ हर दर्द का दरमाँ नहीं होता।। जिसे कहती है दुनियाँ कामयाबी वाय नादानी। इसे किन कीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं।। मुझे गुमराही2 का नहीं खौफ़। तेरे दर को हर रास्ता जाए है।। भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे। नये चिराग जला रात हो गई प्यारे।। अब फ़िराक़ साहब को उनकी शायरी को, उनकी बातों को अलविदा कहना होगा। बकौल फ़िराक़ साहब- अब तुमसे रूख़सत होता हूँ आओ सम्भालो साजे-गज़ल। लेकिन अलविदा से पहले सुनिये एक और शेर फ़िराक़ साहब की तरफ से- फने-गज़ल को अज़ल से तलाश थी जिनकी। तेरे सुकूत3 में पाई गईं वही बातें।। ये आरजू थी कि मिले और ऐसी कुछ रातें। तेरे सुकूत से कल रात-भर रहीं बातें।। * 1. चारासाज़े दर्द- दर्द का ईलाज करने वाले; 2. गुमराही- रास्ता भूलना; 3. सुकूत- चुप्पी, मौन, खामोशी।