असरारुल खान ‘मज़रूह’ सुल्तानपुरी ‘मज़रूह’ सुल्तानपुरी एक नये युग के ऐसे गज़लगो शायर थे जिन्होंने न केवल गज़ल के परम्परागत रूप को नवाजा बल्कि उसकी काया कल्प में भी मदद की। उन्होंने गज़ल के माध्यम से वो कुछ कहा जो तरक्की पसंद शायर नज़्म के रूप में कहते। एक तरह से उन्होंने गज़ल की पुरानी बोतल में नई शराब भर दी। गज़ल के पुराने रूपकों जैसे साक़ी, महफ़िल, मैख़ाना, मय, मयख़्वार, पैमाना, गुलो-बुलबुल, गुलिस्तां, गुलचीं, सैयाद, खिज़ा, बहार आदि का तो बहुत कौशल के साथ गज़लों में उपयोग किया ही, आवश्यकतानुसार अपने खुद के नये रूपकों का भी उपयोग किया। जमीन, हल, जौ, कारखाना, बैंक आदि शब्द जिन्हें कोई भी गज़लगो शायर रूपक बनाने की सोच भी नहीं सकता, को भी मजरूह ने गज़ल तथा शायरी में प्रयुक्त किया। इस बात के उदाहरण स्वरूप एक बहुत ही सुन्दर रचना के चंद अशआर पेश हैं- अब जमीं गायेगी हल के साज पर नग़्मे। वादियों1 में नाचेंगे हर तरफ तराने-से।। अहले-दिल2 उगाएंगे ख़ाक से माहो-अंजुम3। अब गुहर4 सुबक होगा जौ के एक दाने से।। मनचले बुनेंगे अब रंगो-बू5 के पैराहन6। अब संवर के निकलेगा हुस्न कारख़ाने से।। समाजवाद के बोल-बाले के युग में और पूँजीवाद के प्रति तिरस्कार स्वरूप मजरूह ने बैंक को बड़ी खूबसूरती से रूपक बनाया- जबीं पर ताज़े-ज़र7, पहलू में ज़िन्दां8, बैंक छाती पर। उठेगा बेकफ़न कब ये जनाज़ा हम भी देखेंगे।। मज़रूह को आधुनिक गज़लगोई का क्रांतिकारी शायर कहा जाता है। लेकिन व्यक्तिगत जीवन में वह सुन्दरता के पुज़ारी थे। उसका रहन सहन तथा शायरी दोनों उच्च स्तर की थी। उनके कलाम में कहीं अभद्रता नहीं पाई जाती और व्यवहार विचार से भी वह भद्र पुरुष थे। उनका जन्म सन् 1919 में एक पुलिस कांस्टेबल के साधारण से घर में उ. प्र. के जिला 1. वादियों- पहाड़ियों; 2. अहले दिल- दिलवाले; 3. माहो अंजुम- चाँद तारे; 4. गुहर- मोती; 5. रंगो बू-रंग और सुगंध; 6. पैराहन-पोशाक; 7. ताज़े ज़र-धन का ताज; 8. ज़िन्दां-कैदखाना। आज़मगढ़ के एक कस्बे निज़ामाबाद में हुआ। अपनी शुरूआती उर्दू, फ़ारसी तथा अरबी भाषा की तालीम भी आपने वहीं हासिल की। सन् 1930 में वे आज़मगढ़ से कस्बा टाँडा जिला फ़ैज़ाबाद (उ.प्र.) आ गये और वहाँ अरबी दर्स निज़ामिया की तालीम लेनी चाही पर ऐसा हो न सका। फिर इलाहाबाद विश्व विद्यालय से अरबी भाषा का इम्तिहान ‘आलिम’ पास कर लिया। उसके बाद आपने अरबी जुबां में तिब्ब1 की तालीम हासिल की और हकीम बनना चाहा। इसके वास्ते लखनऊ आये और 1938 में वहीं पर चन्द माह के लिये तबीब बन गये और मतब में बैठने लगे। कस्बा सुल्तानपुर में रहते हुए आपको शेरो-सुखन-का चस्का लगा और आप मुशायरों में जाने लगे। सन् 1941 में किसी मुशायरे में ‘ज़िगर’ मुरादाबादी साहब ने आपको सुना तो फिर वे आपको अपने साथ मुशायरों में ले जाने लगे। लेकिन बाकायदा इस्लाह आपने किसी से भी नहीं ली। शुरूआती दो गज़लों पर जनाब ‘आसी’ साहब ने इस्लाह दी लेकिन वे गज़लें कागज़ पर नहीं उतर सकीं और याददाश्त में भी महफूज़ न रह सकीं। शुरूआत में मज़रूह का यही मानना था कि कला तथा साहित्य में सामाजिक उद्देश्यों का समावेश गलत है। परन्तु अजन्ता तथा एलोरा की गुफ़ाओं में गौतम बुद्ध के संदेशों का चित्रण देख कर उन्हें इस सोच की गलती का अहसास हुआ। फिर वह मानने लगे कि सामाजिक उद्देश्य के बिना कोई कला महान हो ही नहीं सकती। उनकी ये बदली हुई मानसिकता इस शेर से प्रकट होती है- नया है जाविदां2 ‘मज़रूह’ जिसमें रूहे-साअत3 हो। कहा किसने मेरा नग्मा ज़माने के चलन तक है।। 1945 में वह एक मुशायरे के सिलसिले में बम्बई आये और फिर बम्बई के ही हो कर रह गये। फिर वे पूरी तरह से फिल्मी गीतकार बन कर रह गये। उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक और इश्क़िया शायरी की तथा पैसा कमाने के लिए गीत लिखे। वे काफी अर्से तक प्रगतिशील लेखक संघ के साथ कार्यरत रहे व उर्दू शायरी तथा गज़ल गोई की आबरू बढ़ाते रहे। आपने पचास सालों तक फिल्मी गीत लिखे। 1994 में आपको दादा-साहब फ़ालके पुरस्कार से नवाजा गया। इसके पहले 1980 में गालिब-पुरस्कार और 1992 में इकबाल पुरस्कार से भी आपको नवाजा गया। जीवन के अन्त तक फिल्म जगत से जुड़े रहे। सन् 2000 के जून माह में आप परलोक सिधारे। आइये सबसे पहले ये देखें कि मज़रूह ने अपने मरने के बाद के मंजर के लिए क्या सोचा था- 1. तिब्ब- हिकमत (हकीम बनना); 2. जाविदां- शाश्वत; 3. रूहे साअत- समय की आत्मा। हमारे बाद अब महफिल में अफ़साने बयाँ होंगे। बहारें हम को ढूँढ़ेंगी न जाने हम कहाँ होंगे।। इसी अंदाज में झूमेगा मौसम गाएगी दुनिया। मुहब्बत फिर हंसी होगी नज़ारे फिर जवां होंगे।। न हम होंगे न तुम होगे न दिल होगा फिर भी। हजारों मंजिलें होंगी, हजारों कारवाँ होंगे।। ‘मज़रूह’ का मतलब है घायल लेकिन उनकी शायरी ऐसी कि जो पढ़े वह हो जाये घायल। चंद कत्आत पेशे-खिदमत हैं। तेरी चश्मे-शौक1 को क्या हुआ, नहीं होती आज हरीफे-दिल2। मेरे जोमे-इश्क3 की खैर हो, ये किसे नज़र से गिरा दिया।। शबे-इंतजार की कश्मकश4 में, न पूछ कैसे सहर5 हुई। कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया।। किस-किस को हाए तेरे तगाफुल6 का दूँ जवाब। अक्सर तो रह गया हूँ झुका कर नज़र को मैं।। अल्लाह रे वो आलमे-रूख़सत7 कि देर तक। तकता रहा हूँ यूं ही तेरी रहगुज़र8 को मैं।। हर इक सांस को अज़ाब पाया मैंने। इशरत9 की तमन्ना से हाथ उठाया मैंने।। जो सीना हुआ खरोशे-दिल10 से मज़रूह। तो बोतल को कलेजे से लगाया मैंने।। चमन में आतिशे-गुल11 फिर से भड़काने भी आएंगे। खिजां12 आई तो अब सहरा13 के दीवाने भी आएंगे।। अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी मुझ पर। अगर है तिश्नगी कामिल14 तो पैमाने भी आएंगे।। आदमी को अपनी ऊंचाई का अहसास मज़रूह ने दिलाया कुछ इस तरह- हम ही काबा, हम ही बुतखाना, हमीं हैं कायनात। हो सके तो ख़ुद को भी एक बार सिज़दा कीजिये।। 1. चश्मे शौक- चाहत भरी दृष्टि; 2. हरीफ़े दिल- दिल का दुश्मन; 3. जोमे इश्क़- इश्क का घमण्ड; 4. कश्मकश- असमंजस; 5. सहर- भोर; 6. तगाफुल- उपेक्षा; 7. आलमे रूखसत- विदाई के क्षण; 8. रहगुज़र- गुज़रने का रास्ता; 9. इशरत- राहत, खुशी; 10. खरोशे दिल- दिल के घाव; 11. आतिशे गुल- फूलों की आग; 12. खिजां- पतझड़; 13. सहरा- रेगिस्तान; 14. तिश्नगी कामिल - सच्ची प्यास। अब पेश करता हूँ मज़रूह साहब की कुछ चुनिंदा गज़लें- हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार1 की तरह। उठती है हर निगाह खरीददार की तरह।। इस कू-ए-तश्नगी2 में बहुत है कि एक ज़ाम। हाथ आ गया है दौलते-बेदार3 की तरह।। वो तो कहीं है और, मगर दिल के आस पास। फिरती है कोई शै निगाहे-यार की तरह।। सीधी है राहे-शौक, पे यूं ही कहीं-कहीं। ख़म4 हो गई है गेसु-ए-दिलदार5 की तरह।। अब जा के कुछ खुला, हुनरे-नाखूने-जुनूं6। जख़्मे-जिगर7 हुए लबो-रूख़सार8 की तरह।। ‘मज़रूह’ लिख रहे हैं वो अहले-वफ़ा का नाम। हम भी खड़े हुए हैं, गुनहगार की तरह।। अब एक प्रयोगवादी गज़ल जिसमें वतन-परस्ती का ज़ज्बा है और सरफरोशी की तमन्ना है। दुश्मन की दोस्ती है अब अहले-वतन के साथ। है अब खिज़ां चमन में नये पैरहन के साथ। सर पर हवा-ए-जुल्म चले सौ जतन के साथ। अपनी कुलाह-कज9 है, उसी बाँकपन के साथ।। बह कर जमीं पर है अभी गर्दिश में खूं मेरा। कतरे वो खून बनते हैं ख़ाके-वतन के साथ।। किसने कहा कि टूट गया खंजर-ए-फरंग10। सीने पे जख़्मे-नौ11 भी है दाग़े-कुहन12 के साथ।। झौंके जो लग रहे हैं नसीमे-बहार के। जुंबिश में है क़फस13 भी असीरे-चमन14 के साथ।। ‘मज़रूह’ क़ाफ़िले की मेरे दास्तां है ये। रहबर ने मिल के लूट लिया राहज़न15 के साथ।। 1. मता ए कूचा ओ बाज़ार- बाज़ार में बिकने वाली वस्तु; 2. कू ए तिश्नगी- प्यास के स्थान; 3. दौलते बेदार- कीमती धन; 4. ख़म- बल खाना; 5. गेसु ए दिलदार- प्रेमिका के केश; 6. हुनरे नाखूने जुनूं- दीवानगी के घावों का हुनर; 7. जख़्मे जिगर- जिगर के घाव; 8. लबो रूख़सार- अधर और कपोल; 9. कुलाह कज-तिरछी टोपी; 10. खंजर ए फरंग-यूरोप का खंजर; 11. ज़ख़्मे नौ-नये घाव; 12. दाग़े कुहन- पुराने दाग; 13. क़फ़स- कैद; 14. असीरे चमन- चमन के कैदी; 15. राहज़न- मार्ग में लूटने वाले। अगर नज़्म का रंग गज़ल में देखना हो तो मज़रूह से अच्छा गज़लगो शायर कोई नहीं। जैसे इकबाल की नज्में आग उगलती थी और मुद्दे उठाती थी वैसी कई गजलें ‘मज़रूह’ ने कह दी। सरमायेदारों के खिलाफ जंग का बिगुल बजाती, अंग्रेज हुकूमत की औकात को धता बताती एक गज़ल पेशे-खिदमत है। हैं, जो सारे दस्तो-पा1 हैं खूं में नहलाए हुए। हम भी हैं ऐ दिल ! बहाराँ की क़सम खाए हुए।। देख अब्रे-जंग2 के दामन को उलझाये हुए। पेच खाते हैं फ़िज़ा में हाथ झुंझलाये हुए।। ख़त है ऐ हमनशीं अक्ले-हरीफ़ाने-बहार3। है खिजां उनकी उन्हें आईना दिखलाए हुए।। क्या है जिक्रे-आतिशो-एटम4 कि ग़द्दाराने-गुल। मारते हैं हाथ अंगारों पे घबराये हुए।। कांपकर सर से जमीं पर गिर पड़ा खुसरो का ताज। बढ़ रहा है तेशाज़न5 कोहे-गिराँ ढाये हुए।। जिंदगी की कद्र सीखी शुक्रिया तेगे-सितम6। हाँ हमीं थे कल तलक जीने से उकताये हुए।। सैरे-साहिल कर चुके ऐ मौजे-साहिल सर न मार। तुझ से क्या बहलेंगे तूफानों के बहलाए हुए।। है यही इक कारबारे-नग्म़ा-ओ-मस्ती7 कि हम। या जमीं पर या सरे-अफ़लाक8 हैं छाये हुए।। साज उठाया जब तो गरमाते फिरे जर्रों के दिल। जाम हाथ आया तो मेहरो-माह9 के हम-साये10 हुए। दश्तो-ओ-दर बनने को है मज़रूह मैदाने-बहार। आ रही है फ़स्लेगुल11 परचम12 को लहराये हुए।। गज़ल में इश्क, आशिक, माशूक उसके हुस्न के चर्चे न हो तो परम्परानुसार वह गज़ल ही नहीं। इस पारम्परिक रंग की एक गज़ल पेशे-खिदमत है। मुझे सहल13 हो गई मंजिलें। वो हवा के रुख भी बदल गये।। 1. दस्तो पा-हाथ से पैर; 2.अब्रे जंग-युद्ध के बादल; 3. अक्ले हरीफाने बहार- बहार के दुशमनो की अक्ल; 4. ज़िक्रे आतिशो एटम- एटम बम की अग्नि का ज़िक्र; 5. तेशाज़न-कुल्हाड़ी वाला, फरहाद; 6. तेग़े सितम-ज़ुल्म की तलवार; 7. कारबारे नग्मा ओ मस्ती- मस्ती के गीतों में व्यस्त; 8. सरे अफ़लाक- आकाश पर; 9. मेहरो माह- चाँद तारे; 10. हम साये- पड़ोसी; 11. फस्लेगुल-फूूलों का मौसम; 12. परचम- पताका; 13. सहल- आसान। तेरा हाथ, हाथ में आ गया। कि चिराग राह में जल गये।। वो लजाये मेरे सवाल पर कि। उठा सके न झुका के सर।। उड़ी जुल्फ चेहरे पे इस तरह। कि शबों के राज़ मचल गये।। वही बात जो न वो कह सके। मेरे शेर-ओ-नग्मों में आ गई।। वही लब न मैं जिन्हें छू सका। क़दहे-शराब में ढल गये।। तुझे चश्मे-मस्त पता भी है। कि शबाब गर्मिये-बज्म़ है।। तुझे चश्मे-मस्त ख़बर भी है। कि सब आबगीने1 पिघल गये।। उन्हें कब के रास भी आ चुके। तेरी बज्मे-नाज़2 के हादिसे3।। अब उठे कि तेरी नज़र फिरे। जो गिरे थे गिर के संभल गये।। मेरे काम आ गई आखिरश। यही काविशें4 यही गर्दिशें।। बढ़ी इस कदर मेरी मंजिलें। कि क़दम के ख़ार निकल गये।। एक बहुत ही प्यारी सी गज़ल और पेश कर गजलों के इस सिलसिले को खत्म करना चाहूँगा, ताकि मज़रूह के गीतों की बात कर सकें। ये रुके-रुके से आँसू ये दबी-दबी सी आहें। यूँ ही कब तलक खुदाया, गमे-जिन्दगी निबाहें।। कहीं जुल्मतों5 में घिर कर है तलाशे-दस्ते-रहबर6। कहीं जगमगा उठी हैं मेरे नक्शे-पा से राहें।। तेरे ख़ानमां-खराबों7 का चमन कोई न सहरा8। ये जहाँ भी बैठ जायें, वहीं इनकी बारगाहें9।। 1. आबगीने- बुलबुले; 2. बज़्मे नाज़- महबूब की महफिल; 3. हादिसे- घटनायें; 4. काविशें- प्रयत्न; 5. जुल्मतों- अंधेरों 6. तलाशे दस्ते रहबर- मार्ग दर्शक के हाथ की तलाश; 7. खा़नमां खराबों-बरबाद किए हुए; 8. सहरा-रेगिस्तान, वीराना; 9. बारगाहें- दरबार। कभी जादा-ए-तलब1 से जो फिरा हूँ दिल-शिकस्ता2। तेरी आरजू ने हँसकर वहीं डाल दी है बाँहें।। मेरे अहद3 में नहीं है ये निशाने-सर-बुलंदी4। ये रंगे हुए अमामे5, ये झुकी-झुकी कुलाहें6।। मज़रूह के नग्मों को फिल्मी और गैर फिल्मी दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। उनका एक गैर फिल्मी गीत हम पहले पढ़ चुके हैं। अब फिल्मी गीतों की बारी है जिन पर गाने बने, दुगाने बने। सबसे पहले मशहूर फिल्मकार कारदार ने मज़रूह को फिल्म ‘शाहजहाँ’ के लिये नग़्मे लिखने का मौका दिया। इस फिल्म में के.एल. सहगल साहब द्वारा गाये गये उनके लिखे दो गीत बहुत प्रसिद्ध हुए। ये गीत थे ‘जब दिल ही टूट गया तो जी कर क्या करेंगे,’ तथा ‘गम दिए मुस्तकिल, कितना नाजुक है दिल ये न जाना’। नौशाद साहब के संगीत ने इन गीतों को अमर बना दिया। इनमें से एक गीत पेश है। गम दिये मुस्तकिल6। कितना नाजुक है दिल-ये न जाना।। हाए-हाए ये जालिम जमाना। दे उठे दाग जो। उनसे तू माहे-नौ7, कह सुनाना।। हाए-हाए ये जालिम जमाना। दिल के हाथों से दामन छुड़ाकर। ग़म की नजरों से नजरें बचाकर।। उठके वो चल दिये, कहते ही रह गये, हम फसाना, हाए-हाए ये जालिम ज़माना। कोई मेरी ये रूदाद9 देखे। ये मुहब्बत की बेदाद10 देखे।। फुंक रहा है ज़िगर-पड़ रहा है मगर-मुस्कुराना, हाए-हाए ये ज़ालिम ज़माना।। जिन फिल्मों के गाने मज़रूह ने लिखे उनमें नौ दो ग्यारह, पेइंग-गेस्ट, काला पानी, सी.आई.डी., चलती का नाम गाड़ी, तुम सा नहीं देखा, दिल दे के देखो, आदि पुरानी फिल्में काफी प्रसिद्ध है। एक बहुत ही सुरीला गीत पेशे-खिदमत है- 1. जादा ए तलब- इच्छा पूर्ति का साधन; 2. दिल शिकस्ता- टूटा हुआ दिल; 3. अहद- युग, अधिकार; 4. निशाने सर बुलंदी- प्रतिष्ठा के चिन्ह; 5. अमामे- पगड़ियाँ; 6. कुलाहें- टोपियाँ; 7. मुस्तकिल- स्थाई; 8. माहे नौ- दूज का चाँद, नया चाँद; 9. रूदाद- जीवनी की दास्तां; 10. बेदाद- सितम। ये लो मैं हारी पिया, हुई तेरी जीत रे। काहे का झगड़ा बालम, नई-नई प्रीत रे। नये-नये दो नैन मिले हैं, नई मुलाकात है। मिलते ही तुम रूठ गये जी ये भी कोई बात है।। जाओ जी मुआफ़ किया, तू ही मेरा मीत रे। काहे का झगड़ा बालम, नई-नई प्रीत रे।। ये लो मैं हारी पिया, हुई तेरी जीत रे....। हुई तेरी मैं संग चलो जी बैयां मेरी थाम के। बँधी बलम किस्मत की डोरी संग तेरे नाम के।। लड़ते ही लड़ते मौसम, जाए नहीं बीत रे। काहे का झगड़ा बालम नई-नई प्रीत रे।। ये लो मैं हारी पिया, हुई तेरी जीत रे.....। अब एक ऐसा गीत जिसमें मज़रूह की शख्सियत का भी बयां हुआ है पेशे खिदमत है- हम हैं राही प्यार के हम से कुछ न बोलिये। जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिये।। दर्द भी हमें कुबूल, चैन भी हमें कुबूल। हमने हर तरह के फूल हार में पिरो लिये।। धूप थी नसीब में धूप में लिया है दम। चांदनी मिली तो हम चांदनी में सो लिए।। दिल पे आसरा किये हम तो बस यूँ ही जिये। इक कदम पे हँस लिये इक कदम पे रो लिये।। राह में पड़े हैं हम, कब से आपकी कसम। देखिये तो कम से कम बोलिये न बोलिये।। हम हैं राही प्यार के...............। दुनिया के तजुर्बात और हकीकत की कड़ुवाहट तथा आम इंसान की मजबूरी का बयां करता एक गीत पेश है- कहीं ताकत के पंजे में कलाई बदनसीबों की। कहीं दौलत की बाँहों में बहू-बेटी गरीबों की।। कोई जालिम है, कोई बेसहारा देखते जाओ। जहाँ वालों इसे कहते हैं, दुनिया देखते जाओ।। भरे हैं गम के आँसू आँख में, और बह नहीं सकते। तुम्हारे सामने लुटते हैं हम और कह नहीं सकते।। न देखा हो तो आओ ये तमाशा देखते जाओ। जहाँ वालों इसे कहते हैं दुनिया देखते जाओ।। मदद माँगी हमारी बेबसी ने धरती माता की। दुहाई दी हमारी बेकसी1 ने जग के दाता की।। मगर सोया हुआ है जग का दाता देखते जाओ। जहाँ वालों इसे कहते हैं दुनिया देखते जाओ।। सर्वहारा वर्ग की त्रासदी अगर ऊपर बयाँ है तो उसी के सपने नीचे प्रस्तुत इस गीत में रचे हैं। मेरी लाडली री बनी है तारों की तूं रागनी। नील गगन पर बादल डोले, डोले हर इक तारा, चाँद के अन्दर बुढ़िया डोले, ठुमक-ठुमक दर द्वारा। कमला गाए, विमला गाए, गाए कुनबा सारा, घूँघट काढ़ के गुड़िया गाये, झूले गुड्डा प्यारा। बटलर नाचे, बैरा नाचे, नाचे मोटी आया, काले साहब का टोपा नाचे, गोरी मेम का साया। मेरी लाडली री बनी है तारों की तूं रागनी। मज़रूह का एक गीत बहुत कर्णप्रिय और लोकप्रिय हुआ। इस गीत को विदाई गीत के तरीके से विवाहों में उसी प्रकार और उन्हीं अवसरों पर बजाते हैं जब ‘छोड़ बाबुल का घर’ नामक गाना बजाया जाता है। लेकिन इस गीत में दुल्हन के पिया से होने वाले मिलन के प्रति ज्यादा उत्साह दिखाया गया है अतः मानसिक सोच में यह गाना अधिक सकारात्मक है। चली गोरी पी के मिलन को चली। नैना बावरिया, मन में सांवरिया।। चली गोरी पी से मिलन को चली..........। डार के कजरा, लट बिखरा के। ढलते दिन को रात बना के।। कंगना खनकाती, बिन्दिया चमकाती। छम छम डोले, सजना की गली।। चली गोरी पी से मिलन को चली..........। कोमल तन है, सौ बल खाया। हो गई बैरन, अपनी ही काया ।। घूंघट खोले ना, मन से बोले ना। राह चलत संभली-संभली।। चली गोरी पी से मिलन को चली..........। यद्यपि अब जो गीत मैं पेश करूंगा वो ज्यादा प्रचलित नहीं रहा पर उसमें मज़रूह की गज़ल का माधुर्य और सोजो-गुदाज़ है। 1. बेकसी - असहायता, मजबूरी। उठा ले मुहब्बत की तुहमत1 उठा ले। जवानी के दामन को रंगी बना ले।। तेरे रूख पे आयेगी रंगत सहर की। हँसा देगी कलियों को शोखी नज़र की।। ये नजरें किसी से मिलाकर झुकाले। उठा ले मुहब्बत की तुहमत उठा ले।। ये बदमस्त रातों का गहवारा2 जुल्फें। ये जोशे-जवानी ये आवारा ज़ुल्फें।। इन आवारा जुल्फों की रातें बसा ले। उठा ले मुहब्बत की तुहमत उठा ले।। निकल कर उलझना, उलझकर निकलना। है इंसा की अज़मत3 तो, कांटों में चलना।। ये क्या है जो गुल से भी दामन बचाले। उठाले मुहब्बत की तुहमत उठा ले।। ये रातें तुझे गुदगुदायेंगी लेकिन। ये आंखें तेरी मुस्कुरायेगी लेकिन।। अगर ये खलिश अपने दिल में बसाले। उठा ले मुहब्बत की तुहमत उठा ले।। बयाबाँ4 भी है गुलिस्ताँ दिल के हाथों। ये दुनियाँ है दुनियाँ यहां दिल के हाथों।। बहुत है अगर दो घड़ी मुस्कुरा ले। उठा ले मुहब्बत की तुहमत उठा ले।। अब जाते-जाते मेरे ख़याल में मजरूह साहब से कुछ प्रेरणा ले लें देखिये वे क्या फरमाते हैं- ये माना दिल जिसे ढूँढे बड़ी मुश्किल से मिलता है। मगर जो ठोकरें खाये वही मंज़िल से मिलता है।। चलो बैठे हो क्या किस्मत के दोराहे पर। वही रस्ता है सीधा जो तुम्हारे दिल से मिलता है।। अगर दुश्मन कोई तफूां उठाये भी तो क्या परवा। सफ़ीना5 रौंदकर तूफ़ान, साहिल से मिलता है।। तो हमें भी तो अपना सफ़ीना इसी जज्बे, इसी मशवरे के साथ आगे बढ़ाना है और उसी रस्ते पर जाना है जो मज़रूह ने बताया। तो खुदा हाफिज़ कहें मज़रूह को, आगे बढ़ें। * 1. तुहमत- इल्ज़ाम, आरोप; 2. गहवारा- पालना; 3. अज़मत- महानता; 4. बयाबाँ- जंगल; 5. सफ़ीना- नाव, जहाज़।