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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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6:25 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश। : श्लोक ४७ : भगवान को समर्पित योगी का श्री भगवान को”युक्ततम : “ कहना। : योगिनाम् अपि सर्वेषाम् मद्गतेन अन्तरात्मना । श्रद्धावान् भजते य : माम् स : मे युक्ततम : मत : ॥४७॥ ॐ तत् सत् इति श्रीमद्भागवदगीता स उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम् योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगोनाम षश्टो अध्याय : ॥६॥ हरिॐतत्सत् हरिॐतत्सत् हरिॐतत्सत् अधिक सब योगियों से ध्यान जिसका लगा मुझमे अन्तरात्मा से । ऐसा श्रद्धाभाव से समन्वित योगी मान्य है मुझे परमश्रेष्ठ ॥४७॥ इस प्रकार श्री भगवान के कहे हुए उपनिषद में ब्रह्मविद्यान्तर्गत योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में आत्मसंयम (ध्यान ) योग नामक छठा अध्याय समाप्त हुआ ॥ हरिॐ तत्सत् हरिॐ तत्सत् हरिॐतत्सत् युक्ततम : मत : कौन? इस आत्मसंयम योग नामक अध्याय में विभिन्न स्थानों पर “योग, योगी, योगयुक्तात्मा “ शब्दों का प्रयोग हुआ है लेकिन इस सैंतालीसवें श्लोक में विषय का उपसंहार करते हुए श्री भगवान ने सभी योगियों में सर्वोत्तम अन्तरात्मा से मुझमे लगे हुए और श्रद्धावान योगी को “युक्ततम” अर्थात परम श्रेष्ठ योगी कहा है । इसको कर्म के विभिन्न वर्गों को समझनेवाले चौथे अध्याय के श्लोक के संदर्भ में देखें: कर्मण : हि अपि बोद्धव्यम् बोद्धव्यम् च विकर्षण : ॥१७॥ के विकर्म अर्थात विशेष कर्म के समान समझिए । जब आपका कर्म, कर्मयोग श्रद्धा और अन्तरात्मा से सन्निहित होकर होता है तो वह योग युक्ततम अर्थात परमश्रेष्ठ होकर परमात्मा से मिलाने वाला होजाता है । 'Paavan Teerth'(collected by)
8:36 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
ग़ज़ल ********* लम्हा-लम्हा तेरी यादों का सज़ा रक्खा है। दर्द-ए-ग़म अब भी इस सीने से लगा रक्खा है।।१ जब से छूटा है तेरा साथ मेरी जान-ए-जाँ। दिल के सहरा में भी ग़म माल-ओ-मता रक्खा है।।२ करवटें ले ले के गुज़रती है मेरी हर रातें। किसने बिस्तर पे मेरे काँटा बिछा रक्खा है।।३ क्यों नीं ग़लती है मेरी दाल मुहब्बत वाली। बरसों से हमने तो अदहन भी चढ़ा रक्खा है।।४ दिल के इस हुजरे में करती है बसर ख़ामोशी। मौज़-ए-नशात पर तो पहरा भी लगा रक्खा है।।५ 'Maahir'दिल-ए-दश्त में मूरत है एक नुरानी सी। हमने उस महबूब का तो नाम-ए-ख़ुदा रक्खा है।।६ लम्हा/-लम्हा/ तेरी/ यादों/ का सज़ा/ रक्खा/ है। दर्द-ए-/ग़म अब/ भी इस/ सीने/ से लगा/ रक्खा है।।१ जब से/ छूटा/ है ते/रा साथ/ मेरी/ जान-ए-/जाँ। दिल के/ सहरा/ में भी/ ग़म मा/ल-ओ-मता/ रक्खा/ है।।२ करवटें ले ले/ के गुज़र/ती है/ मेरी/ हर रा/तें। किसने/ बिस्तर/ पे मे/रे काँ/टा बिछा/ रक्खा/ है।।३ क्यों नीं/ ग़लती/ है मे/री दा/ल मुहब्/बत वा/ली। बरसों/ से हम/ने तो/ अदहन/ भी चढ़ा/ रक्खा/ है।।४ दिल के/ इस हुज/रे में/ करती/ है बसर/ ख़ामो/शी। मौज़-ए/नशात/ पर तो पहरा/ भी लगा/ रक्खा/ है।।५ 'Maahir'दि/ल-ए-दश्/त में मू/रत है/ एक नु/रानी/ सी। हमने/ उस मह/बूब का/ तो ना/म-ए-ख़ुदा/ रक्खा/ है।।६ 'Maahir'
7:11 PM
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ज़िन्दगी का अजब फ़साना है, रोते रोते भी मुस्कुराना है। इश्क़ में जानते है जान गई, फिर भी कहते है आज़माना है। कैसी मुश्किल है कोई क्या जाने, आग को आग से बुझाना है। दिल लगाया था पर न थी ये खबर, मौत का ये भी एक बहाना है। 'Maahir'
7:05 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ४६ : योगी भव अर्जुन : तपस्विभ्य : अधिक : योगी ज्ञानिभ्य : अपि मत : अधिक: । कर्मिभ्य : च अधिक : योगी तस्मात् योगी भव अर्जुन ॥४६॥ मेरे मत में योगी तपस्वियों, ज्ञानियों । और सकाम- कर्मियों से भी अधिक श्रेष्ठ है कहीं इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी हो ॥४६॥ क्यों कहा”तू योगी हो जा” तपस्वी , ज्ञानी और सकाम-कर्मी सभी स्व- केन्द्रित और केवल अपना स्वार्थ साधने वाले हैं, जबकि निष्काम कर्म योगी अपनी आत्मा को सबमे देखता है और बाह्य दृष्टि से केवल लोक- संग्रह के लिए कर्म करता है । योगी की पहचान के लिए देखिए इसी अध्याय के श्लोक २९, ३० और ३१ । सर्वभूतस्थम् आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि । ईक्षते येगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन : ॥२९ ॥ आदि श्लोक । अध्याय का अन्तिम श्लोक फिर इसी विचार की पुष्टि करता है । Paavan Teerth.
7:11 PM
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मिसरा-ए-तरह का हासिल औज़ान 2122 2122 212 अरकान :- फाइलातुन– फाइलातुन– फाइलुन ************************** कट रहा तन्हा सफ़र है क्या करूँ लगता तन्हाई से डर है क्या करूँ//1 ज़ेहन पर ग़म का असर है क्या करू लगता अपनों से भी डर है क्या करूं//2 राह अपनी पुर-ख़तर है क्या करूँ रहज़नो का मुझकों डर है क्या करूँ//3 क्यूँ न हो तुझको मयस्सर ठोकरें अजनबी जो रहगुज़र है क्या करूँ//4 उसकी फ़ितरत है ख़ता करना मगर . अपनी आदत दरगुज़र है क्या करूँ//5 . साथ ज़ालिम के खड़ा देखा जिसे, . कहना उसको दाद-गर है क्या करूं//6 . आग नफ़रत की बुझे कैसे भला . ये सियासत का हुनर है क्या करूँ//7 . मैं दवा दू या दुआ दू अब तुझे . ये मोहब्बत का असर है क्या करूँ//8 . टूटा दिल जोड़े तो मानू मैं उसे . कहने को वो शीशा गर है क्या करूँ//9 . जीना मुश्किल और मरने का ख्याल . दिल में ये उलझन अगर है क्या करूं//10. मर ही जाऊंगा यकीनन मै #रज़ा ,, . उसकी अब तिरछी नज़र है क्या करू//11 'Maahir' Taqtee. कट रहा तन्/हा सफ़र है/ क्या करूँ लगता तन्हा/ई से डर है/ क्या करूँ//1 ज़ेहन पर ग़म/ का असर है/ क्या करू लगता अपनों/ से भी डर है/ क्या करूं//2 राह अपनी /पुर-ख़तर है/ क्या करूँ रहज़नो का/ मुझकों डर है /क्या करूँ//3 क्यूँ न हो मुझ/को मयस्सर/ ठोकरें अजनबी जो /रहगुज़र है/ क्या करूँ//4 उसकी फ़ितरत /है ख़ता कर/ना मगर अपनी आदत/ दरगुज़र है/ क्या करूँ//5 साथ ज़ालिम/ के खड़ा दखा जिसे, कहना उसको/ दाद-गर है /क्या करूं//6 आग नफ़रत/ की बुझे कै/से भला ये सियासत/ का हुनर है /क्या करूँ//7 मैं दवा दू/ या दुआ दू /अब तुझे ये मोहब्बत/ का असर है /क्या करूँ//8 टूटा दिल जो/ड़े तो मानू /मैं उसे कहने को वो/ शीशा गर है/ क्या करूँ//9 जीना मुश्किल/ और मरने/ का ख्याल दिल में ये उल/झन अगर है /क्या करूं//10 मर ही जाऊं/गा यकीनन/ मै 'maahir', उसकी अब तिर/छी नज़र है/ क्या करू//11 मुश्किल शब्द दरगुज़र ( माफ़ करना - ग़लती को अनदेखा कर ना) मयस्सर ( मिलना हासिल होना) रहगुज़र ( रास्ता, पथ, मार्ग ) मुफ़लिशो ( मुफ़लिश का बहू - ग़रीब) दाद-गर ( न्याय करने वाला, मुंसिफ़ ) 'Maahir'
6:57 PM
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पत्थरों के शहर में कच्चे मकान कौन रखता है! आजकल हवा के लिए रोशनदान कौन रखता है!! अपने घर की कलह से फुरसत मिले तो सुने! आजकल पराई दीवार पर कान कौन रखता है!! खुद ही पंख लगाकर उड़ा देते हैं चिड़ियों को! आज कल परिंदों मे जान कौन रखता है!! हर चीज मुहैया है मेरे शहर में किश्तों पर! आज कल हसरतों पर लगाम कौन रखता है!! बहलाकर छोड़ आते हैं वृद्धाश्रम में मां-बाप को! आज कल घर में पुराना सामान कौन रखता है!! सबको दिखता है दूसरों में इक बेईमान इंसान! खुद के भीतर मगर अब ईमान कौन रखता है!! फिजूल बातों पे सभी करते हैं वाह-वाह! अच्छी बातों के लिये अब जुबान कौन रखता है!! 'Maahir'
6:54 PM
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भगवद्गीता में कई विद्याओं का उल्लेख आया है, िनमें चार प्रमुख हैं :- अभय विद्या, साम्य विद्या, ईश्वर विद्या और ब्रह्म विद्या। अभय विद्या- मृत्यु के भय को दूर करती है। साम्य विद्या- राग-द्वेष से छुटकारा दिलाकर जीव में समत्व भाव पैदा करती है। ईश्वर विद्या- के प्रभाव से साधक अहं और गर्व के विकार से बचता है। ब्रह्म विद्या- से अंतरात्मा में ब्रह्मा भाव को जागता है। Paavan Teerth
6:49 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ४५ : योगी को परमात्म प्राप्ति : प्रयत्नात् यतमान : तु योगी संशुद्धिकिल्विष : । अनेकजन्मसंसिद्ध : तत : याति पराम् गतिम् ॥४५॥ पिछले अनेक जन्मों का संस्कारी संपूर्ण पापों से रहित योगी । प्रयत्न और अभ्यास में रह निरत तत्काल पा लेता परम गति ॥४५॥ “याति पराम् गति “ के पा लेने पर योगी को न इस शरीर और न इस संसार से कुछ लेना-देना रहता है । देखिए रामचरितमानस में ऐसा भक्त स्वयं परमात्मा से क्या कहता है: बाली : प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोर ॥९/ किष्किन्धा कांड सुनत राम अति कोमल बानी । बालि सीस परसेउ निज पानी॥ अचल करौं तनु राखहु प्राना । बालि कहा सुनु कृपानिधाना ॥ जन्म जन्ममुनि जतन कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं ॥ मम लोचन गोचर सोइ आवा । बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ॥ ———————— मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही ॥ श्रीमद्भगवद्गीता भी इस परमगति के बारे में कहती है: बहूनाम् जन्मनाम् अन्ते ज्ञानवान माम् प्रपद्यते । वासुदेव : सर्वम् इति स : महात्मा सुदुर्लभ : ॥१९/ अध्याय ७॥ Paavan Teerth.
6:45 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग। : क्रमश : श्लोक ४३-४४। : योगमार्गी की पुनर्जन्म उपलब्धि : तत्र तम् बुद्धिसंयोगम् लभते पौर्वदेहिकम् । यतते च तत: भूय : संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥४३॥ मुख्य बात है परमात्मा को पाने के लिए आवश्यकता है निरन्तर “अभ्यासेन च वैराग्येन्” की तो परमात्मा की कृपा से सफलता निश्चित है । पूर्व-जन्म के प्रयास की प्राप्ति से इस जन्म में समत्वबुद्धि योग को । पहले से अधिक प्रयत्न कर प्राप्त कर लेता परमात्म - सिद्धि को ॥४३॥ पूर्वाभ्यासेन तेन एव ह्रियते हि अवश : अपि स : । जिज्ञासु : अपि योगस्य शब्दब्रह्म अतिवर्तते ॥४४॥ जब योग का जिज्ञासु तक वेदों में कहे सकाम कर्मों से हो जाता विमुख । तब पूर्वजन्म का अभ्यासरत योगी तो अवश सा खिंचा चला जाता समत्वयोग में ॥४४॥ “शब्दब्रह्म अतिवर्तते”का स्पष्टीकरण : ब्रह्म का वर्णन : १.”आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगमअसगावा॥ बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना कर बिनु करम करइ बिधि नाना आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ तन बिनु परस नयन बिनु देखा ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥ असि सब भाँति अलौकिक करनी । महिमा जासु जाइनहिं बरनी॥ जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥११८/बालकांड/ रामचरितमानस यह है एक झाँकी उस ब्रह्म की जिसका वर्णन निगम/ वेद , करते हैं । इसी के लिए श्री गीता ने कहा “शब्दब्रह्म “ और इसी को योगी “अतिवर्तते” : पार करके ब्रह्म सेएकात्म स्थापित कर लेता है । ब्रह्मलीन हो जाता है । २.द्वैत को मिटाने के लिए भक्त योगी : (क) स्थूल रूप में मूर्ति की आराधना (ख) कुछ और कम स्थूल: यज्ञ के हवनकुंड में प्रज्ज्वलित अग्नि (ग) नाद-ब्रह्म : जो योग और वेद- वाक्य ,जिसके लिए श्रुति शब्द का प्रयोग किया जाता है (घ) सामवेद की शाखा मैत्रेयुपनिषद् में ब्रह्म के विषय में चर्चा करते हुए कहा है: सर्वदा समरूपो ऽस्मि शान्तोऽस्मि पुरुषोत्तम : । एवं स्वानुभवो यस्य सोऽहमस्मि न संशय : ॥२४/ अध्याय ३॥ (मैं)सर्वदा समरूप एवं शान्त परमात्मा हूँ ।जिसका इस प्रकार से स्वानुभव है, वह ब्रह्म निश्चित ही मैं हूँ ।इसमें किसी भी तरह का संशय नहीं है । Paavan Teerth.
6:52 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ४१-४२ : श्री भगवान का अर्जुन के: कच्चित् न उभयविभ्रष्ट : छिन्नाभ्रम इव नश्यति ।३८ का पूर्वार्द्ध का समाधान : प्राप्य पुण्यकृताम् लोकान् उषित्वा शाश्वती: समा : । शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्ट : अभिजायते ॥४१॥ प्राप्त कर पुण्यशीलों के लोकों को निवास कर बहुत बरसों तक वहाँ । योगभ्रष्ट- साधक जगत में जन्मता श्रीमान पुरुषों के यहाँ ॥४१॥ अथवा योगिनाम् एव कुले भवति धीमताम् । एतत् हि दुर्लभतरम् लोके जन्म यत् ईदृशम् ॥४२॥ अथवा जन्म लेता वह ज्ञानी योगी पुरुषों के कुल में । जन्म ऐसा प्राप्त होना जो कि अति दुर्लभ जगत में ॥४२॥ श्री भगवान का : न अमुत्र विनाश : तस्य विद्यते का स्पष्टीकरण : श्लोक इकतालीस और बयालीसवें में एक क्रमिक विकास दिखाई देता है । योग पथ से भटका हुआ योगी यदि अपनी साधना के चरम पर पहुँच कर यदि ब्रह्म-मग्न नहीं होता तो यदि उसकी मृत्यु साधना के प्रारंभ में ही हो जाती है तो वह जो लोक पुण्यशील लोगों को प्राप्त होते हैं, उन स्वर्ग आदि लोकों में जाकर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के कुल में जन्म लेकर अगले जन्म में अपनी साधना फिर प्रारम्भ कर देता है ।अथवा कह कर बयालीसवें श्लोक में चर्चा उन पहुँचे हुए योगियों की है जो लक्ष्य के अत्यन्त निकट थे और विचलित हो गए ।ऐसे योगी सीधे अगले जन्म में ज्ञानवान योगियों के कुल में जन्म लेकर ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं । इसके समर्थन में मुण्डक उपनिषद का यह वाक्य समीचीन है: “स यो ह वै तत्परमम् ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति ॥३/२/९ ॥ यह बिल्कुल सच्ची बात है कि जो कोई भी उस परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है ।उसके कुल में अर्थात उसकी संतानों में कोई भी व्यक्ति ब्रह्म को न जाननेवाला नहीं होता । आदि Paavan Teerth.
7:33 PM
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गज़ल इश्क़ में सचमुच असर है क्या करूँ। चाँद मेरे ताक़ पर है क्या करूँ।।१ लिख दिया है इश्क़ पर जबसे कलाम। रक्स-ए-बिस्मिल सा क़मर है क्या करूँ।।२ हो गई बेकाबू दिल की धड़कनें। दिल जवाँ अब मुख़्तसर है क्या करूँ।।३ सुन लिया है दिल ने दिल की इल्तिज़ा। दिल तुम्हारा मुंतज़र है क्या करूँ।।४ इश्क़ में डूबा हूॅं सर से पांँव तक। डूबने का भी हुनर है क्या करूँ।।५ रहगुज़र वाक़िफ है मेरी चाल से। मंज़िलो पे बस नज़र है क्या करूँ।।६ 'दीप' दिल पर कब रहा है इख़्तियार। इश्क़ की मुश्किल डगर है क्या करूँ।।७ MAAHIR
6:28 PM
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ग़ज़ल- भाषणों से आपकी कोई बदलता है कहाँ, ख़ुद को बदलो तो बदल जाएगा ये सारा समां। मैं अगर हूँ दोस्त सबका दोस्त है दुनिया मेरी, फ़िक्र मेरी भी करेंगे ये ज़मीं-ओ-आसमां। यह ग़म-ए-दौरां से लड़कर जीतता अब तक रहा, हाँ ग़म-ए-दिल पर रुका है आज मेरा कारवाँ। जल भरे बर्तन के जैसे, जो हो जल में तैरता, आत्मा-परमात्मा के मध्य दिखता है जहां। जानते दुनिया को जिनसे, मौन वो रब के लिए, इंद्रियां सक्षम कहाँ, इस काम में "शेखर" यहाँ। 'Maahir'
6:26 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ३७-३८ अर्जुन उवाच : अयति : श्रद्धया उपेत : योगात् चलितमानस : । अप्राप्य योगसंसिद्धिम् काम् गतिम् कृष्ण गच्छति ॥३७॥ असंयमी होने से विचलित जिसका हुआ मन योग से पर फिर भी श्रद्धा है जिसकी योग में । योग में सिद्धि न पा हे कृष्ण ! क्या गति उसकी प्रभो ॥३७॥ कच्चित् न उभयविभ्रष्ट : छिन्नाभ्रम् इव नश्यति । अप्रतिष्ठ : महाबाहो विमूढ : ब्रह्मण : पथि : ॥३८॥ क्या ऐसे में भ्रष्ट दोनों ओर से भगवत् प्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ, आश्रय रहित साधक हो जाता नहीं छिन्न-भिन्न नीरद-खंड सा ॥३८॥ अर्जुन के भयाकुल मन की दशा: योग-सिद्धि के विषय में पूर्व में श्लोक तैंतीस-चौंतीस में मन की चंचलता के विषय में जो शंकायें व्यक्त की थीं वे श्री भगवान के ढाढ़स के बाद भी , उसको महाबाहो कहकर संबोधित करने के पश्चात भी पूरी तरह विनिष्ट नहीं हुई और वह प्रतिउत्तर में श्री भगवान को ही महाबाहो कहकर संबोधित करते हुए कहने लगा कि आपने जो कहा कि असंयत मन वाले के लिए यह योग- साधन दुष्प्राप्य है तो ऐसे में श्रद्धा रहते भी यदि मेरा मन भटक गया तो मेरा क्या होगा ? नीर-भरे बादल के विशाल मेघ-खंड से छूटा हुआ क्या मैं दोनों ओर से नष्ट हो जाऊँगा? न खुदा ही मिला न विसालेसनम, न यहाँ का रहा। न वहाँ का रहा । अथवा कवि तुलसीदास का यह कथन : तन सुचि, मन रुचि, मुख कहौं “जन हौं सिय-पी को” केहि अभाग जान्यो नहीं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको॥१॥२६५ पद: विनयपत्रिका 'Paavan Teerth '
8:39 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
एक ग़ज़ल- जब भी अलग दिखें कुछ,इमकान ज़िंदगी में। इंसां रहे न उनसे अनजान ज़िंदगी में। इमकान=संभावना, सामर्थ्य डाकू भी हैं पुजारी, साधू भी हैं पुजारी, हर खेल के हुए हैं मैदान ज़िन्दगी में। इंसानियत पे देखे, हमले जो हर तरफ़ से, तो आ गया है यारो तूफ़ान ज़िंदगी में। इंसानियत से दूरी जितनी बनाए थे जो, उतने हुए ज़ियादा हलकान ज़िन्दगी में। हलकान=परेशान, थके हुए, हैरान सुख-शान्ति के लिए तो,करनी पड़ेगी मेहनत, कुछ भी कहाँ है सोचो आसान, ज़िंदगी में। कुछ फ़र्ज़ पूरे कर दूँ ,बस इसलिए ही यारो, ज़िंदा हूँ आफ़तों के दौरान ज़िंदगी में। 'सच' को ही 'सच' कहा है,'Maahir'ने आज तक, इससे मिली है उनको, पहिचान ज़िन्दगी में। 'Maahir'
8:04 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ३७-३८ अर्जुन उवाच : अयति : श्रद्धया उपेत : योगात् चलितमानस : । अप्राप्य योगसंसिद्धिम् काम् गतिम् कृष्ण गच्छति ॥३७॥ असंयमी होने से विचलित जिसका हुआ मन योग से पर फिर भी श्रद्धा है जिसकी योग में । योग में सिद्धि न पा हे कृष्ण ! क्या गति उसकी प्रभो ॥३७॥ कच्चित् न उभयविभ्रष्ट : छिन्नाभ्रम् इव नश्यति । अप्रतिष्ठ : महाबाहो विमूढ : ब्रह्मण : पथि : ॥३८॥ क्या ऐसे में भ्रष्ट दोनों ओर से भगवत् प्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ, आश्रय रहित साधक हो जाता नहीं छिन्न-भिन्न नीरद-खंड सा ॥३८॥ अर्जुन के भयाकुल मन की दशा: योग-सिद्धि के विषय में पूर्व में श्लोक तैंतीस-चौंतीस में मन की चंचलता के विषय में जो शंकायें व्यक्त की थीं वे श्री भगवान के ढाढ़स के बाद भी , उसको महाबाहो कहकर संबोधित करने के पश्चात भी पूरी तरह विनिष्ट नहीं हुई और वह प्रतिउत्तर में श्री भगवान को ही महाबाहो कहकर संबोधित करते हुए कहने लगा कि आपने जो कहा कि असंयत मन वाले के लिए यह योग- साधन दुष्प्राप्य है तो ऐसे में श्रद्धा रहते भी यदि मेरा मन भटक गया तो मेरा क्या होगा ? नीर-भरे बादल के विशाल मेघ-खंड से छूटा हुआ क्या मैं दोनों ओर से नष्ट हो जाऊँगा? न खुदा ही मिला न विसालेसनम, न यहाँ का रहा। न वहाँ का रहा । अथवा कवि तुलसीदास का यह कथन : तन सुचि, मन रुचि, मुख कहौं “जन हौं सिय-पी को” केहि अभाग जान्यो नहीं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको॥१॥२६५ पद: विनयपत्रिका 'Paavan Teerth '
6:17 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ३५-३६ : श्री भगवान उवाच : असंशयम् महाबाहो मन : दुर्निग्रहम् चलम् । अभ्यास तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥३५॥ हे महाबाहो ! कुछ भी संशय नहीं कि अति मुश्किल है चंचल मन को निग्रह करना । पर हे कौन्तेय ! करकें नित अभ्यास, विरागी होकर संभव है वैसा कर पाना ॥३५॥ असंयतात्मना योग : दुष्प्राप : इति मे मति : । वश्यात्मना तु यतता शक्य : अवाप्तुम् उपायत : ॥३६॥ मन जिसका है नहीं स्ववश में मेरे मत में उसके लिए कठिन है योग प्राप्त कर पाना । पर जिसके वश में मन है, यत्नशील है साधन रत है, उसको सहज प्राप्त होता है ॥३६॥ अर्जुन की चंचल मन को निग्रह करने की असंभावना का उत्तर: समत्वयोग की चरम अवस्था की बात सुनकर अर्जुन को लगा कि मन के चंचल स्वभाव के कारण उसके लिए यह प्राप्त करना कठिन होगा । इसके उत्तर में अर्जुन को साहस देते हुए श्री भगवान कहते हैं कि निश्चय ही मन पर विजय पाना कठिन अवश्य है पर तुम तो महाबाहो हो और कौन्तेय हो । कुन्ती ने तो कितनी ही भयावह परिस्थितियों का सामना असीम धैर्य से किया है और कभी विचलित नहीं हुई, तुम उसके पुत्र कौन्तेय हो । इस मन को सहज ही अभ्यास और वैराग्य से काबू किया जा सकता है, जिसमें तुम निश्चय ही समर्थ हो । Paavan Teerth
6:15 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग क्रमश : श्लोक ३३-३४ : अर्जुन का समत्वयोग के साधन को कठिन कहना : अर्जुन उवाच : य : अयम् योग : त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन । एतस्य अहम् न पश्यामि चंचलत्वात् स्थितम् स्थिराम् ॥३३॥ समभाव का योग आपने कहा जो हे मधुसूदन ! तुमने है जो । उसको स्थिर करने का साधन नहीं देखता देखकर मन की नित्य चंचलता ॥३३॥ चंचलम् हि मन : कृष्ण प्रमाथि बलवत् दृढम् । तस्य अहम् निग्रहम् मन्ये वायो : इव सुदुष्करम् ॥३४॥ हे कृष्ण ! मन चंचल है ,विनाशकारी है बलशाली है, अत्यंत सुदृढ़ है । दुष्कर वायु रोकना जैसा उसको क़ाबू करना वैसा ॥३४॥ श्लोक तेंतीस का “योग : त्वया प्रोक्त : साम्येन” से साम्य से “साम्य-बुद्धि “से प्राप्त होने वाला कर्मयोग ही अपेक्षित है । क्योंकि दूसरे अध्याय में भगवान ने ही कहा है : सिद्धयसिद्धयो : सम : भूत्वा समत्वम् योग उच्यते ॥४८/ अध्याय २॥ “चंचलम् हि मन : कृष्ण “ श्री भगवान ने दूसरे अध्याय के चालीसवें श्लोक में कहा: इन्द्रियाणि मन : बुद्धि: अस्य अधिष्ठानम् उच्यते । एतै : विमोहयति एष : ज्ञानम् आवृत्य देहिनम् ॥४०/अध्याय २॥ वास्तव में काम(कामना) के रहने के पाँच स्थान बताये गये हैं : इन्द्रियों,मन , बुद्धि , विषय और स्वयं जीवात्मा । वास्तव में काम स्वयं में रहता है और इन्द्रियों, मन , बुद्धि तथा विषयों में उसकी प्रतीति मात्र होती है। इसीलिए स्वयं में काम रहने के कारण इन्द्रियाँ साधक के मन को व्यथित करती हैं । इसी कारण पिछले श्लोक में साधक को समत्व-योग में स्थित रहने के लिए कहा गया है । Paavan Teerth.
6:12 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे ::अध्याय ६ : आत्मसंयम। योग : क्रमश : श्लोक ३१-३२ : सर्वभूतस्थितम् य : माम् भजति एकत्वम् आस्थित : । सर्वथा वर्तमान : अपि स : योगी मयि वर्तते ॥३१॥ एकीभाव हुआ जो नर सब भूतों में मुझे जानकर करता मेरा भजन निरन्तर । सब प्रकार से सब कुछ करता योगी मुझ में सदा बरतता ॥३१॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र समम् पश्यति य :अर्जुन । सुखम् वा यदि वा दु:खम् स : योगी परम : मत : ॥३२॥ हे अर्जुन ! अपनी भाँति सभी को वह देखा करता है सबको । सुख में, दु:ख में, दोनों में ही जो रहता समान: परम श्रेष्ठ वह है योगी ॥३२॥ योगी की जन-कल्याणकारी सम दृष्टि: भक्त की इसी स्थिति का वर्णन करते हुए महाकवि तुलसीदास का स्पष्ट वक़्तव्य : सर्वभूतस्थितम्_______ सियाराम मय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी ॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र _____[ निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध ॥ प्राणिमात्र में एक ही आत्मा है, यह दृष्टि सांख्य और कर्मयोग,दोनों मार्गों में एक-सी है परंतु सांख्य और हठयोगी, दोनों को ही सब कर्मों का त्याग इष्ट है, इसलिए वे व्यवहार में उस साम्य-बुद्धि के उपयोग का मौक़ा ही नहीं आने देते । श्रीमद्भगवद्गीता का कर्मयोगी ऐसा न कर, अध्यात्मज्ञान से प्राप्त हुई इस साम्य बुद्धि का व्यवहार नित्य कर, जगत के सभी काम लोकसंग्रह के लिए किया करता है । इसी को अध्याय के अंत में उपसंहार करते हुए कहा है: तपस्विभ्य : अधिक: योगी ज्ञानिभ्य : अपि मत : अधिक : कर्मिभ्य : च अधिक : योगी तस्मात् योगी भव अर्जुन ॥४६॥ यह योगी है गीताका कर्मयोगी। 'Paavan Teerth.'
6:09 PM
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ग़ज़ल- भाषणों से आपकी कोई बदलता है कहाँ, ख़ुद को बदलो तो बदल जाएगा ये सारा समां। मैं अगर हूँ दोस्त सबका दोस्त है दुनिया मेरी, फ़िक्र मेरी भी करेंगे ये ज़मीं-ओ-आसमां। यह ग़म-ए-दौरां से लड़कर जीतता अब तक रहा, हाँ ग़म-ए-दिल पर रुका है आज मेरा कारवाँ। जल भरे बर्तन के जैसे, जो हो जल में तैरता, आत्मा-परमात्मा के मध्य दिखता है जहां। जानते दुनिया को जिनसे, मौन वो रब के लिए, इंद्रियां सक्षम कहाँ, इस काम में "शेखर" यहाँ। 'Maahir'
6:07 PM
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तू हवा है तो कर ले अपने हवाले मुझको, इससे पहले कि कोई और बहा ले मुझको। आईना बन के गुज़ारी है ज़िंदगी मैंने, टूट जाऊंगा बिखरने से बचा ले मुझको।। प्यास बुझ जाये तो शबनम ख़रीद सकता हूं, ज़ख़्म मिल जाये तो मरहम ख़रीद सकता हुँ। ये मानता हुँ मैं दौलत नहीं कमा पाया, मगर तुम्हारा हर एक ग़म ख़रीद सकता हुँ।। जब भी कहते हो आप हमसे कि अब चलते हैं, हमारी आंख से आंसू नहीं संभलते हैं। अब न कहना कि संग दिल कभी नहीं रोते, जितने दरिया हैं पहाड़ों से ही निकलते हैं।। तू जो ख़्वाबों में भी आ जाये तो मेला कर दे, ग़म के मरुथल में भी बरसात का रेला कर दे। याद वो है ही नहीं जो आये तन्हाई में, तेरी याद आये तो मेले में अकेला कर दे।। सोचता था मैं कि तुम गिर कर संभल जाओगे, रौशनी बन कर अंधेरों को निगल जाओगे। न मौसम था, न हालात, न तारीख़, न दिन, किसे पता था कि तुम ऐसे बदल जाओगे।। जो आज कर गयी घायल, वो हवा कौन सी है, जो दिल का दर्द करे सही वो दवा कौन सी है। तुमने इस दिल को गिरफ़्तार आज कर तो लिया, अब ज़रा ये तो बता दो दफ़ा कौन सी है।। 'Maahir'
6:05 PM
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जो भी यारो ख़ुदी को भूल गया, वो तो फिर ज़िन्दगी को भूल गयाl ख़ुदी=आत्मसम्मान, स्व, निजत्व, self आमजन के सुने मसाइल तो, अपनी कम-फ़ुर्सती को भूल गया। मसाइल=समस्याएं; कम-फ़ुर्सती= व्यस्तता, फ़ुरसत का समय कम होना, ख़ाली समय कम होना: फेसबुक के हसीन झांसों में, आदमी, आदमी को भूल गया ख़ूब तर्कों को दे रहा था जो, बात क्या थी उसी को भूल गया जब किया नौकरी का फ़र्ज अदा, दोस्ती-दुश्मनी को भूल गया। काम में डूब के सुकूँ वो मिला, मैं ग़म-ए-ज़िंदगी को भूल गया। याद में यह मुकाम भी आया, एक दो पल उसी को भूल गया। 'maahir'
6:01 PM
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कह रहा था और कुछ वो, कर रहा है और कुछ, और इसके दरमियां ही हो गया है और कुछ। वक़्त पर करता नहीं है, वक़्त की परवाह जो, पेच उसका वक़्त भी कसता रहा है और कुछ। बिस्मिलों की बात कैसे हाकिमों तक जाएगी? जो बयां वो दे रहे हैं हलफ़िया, है और कुछ। दलबदल करके वो अबतक, राज-सुख पाते रहे, लोग बस कहते रहे, उनकी सजा है और कुछ। उनके दल के मुजरिमों को, पारसा समझा गया, क्या सियासत में बताने को बचा है और कुछ? वो ज़ियादा जोर देकर बात को समझा रहा, लग रहा मुझको इसी से, माज़रा है और कुछ। सीख दे- दे कर चुकी पैगम्बरों की इक क़तार, आदमी फिर भी यहाँ करता रहा है और कुछ। धर्मग्रंथों, रीतियों के नाम पर वो ठग रहे, ज़िन्दगी जीने का उनका फ़लसफ़ा है और कुछ। आमजन के हक़ की ख़ातिर जो निज़ामत से लड़ा, दोस्तो वो ज़िन्दगी को जी सका है और कुछ। शासकों पर अब चुनावों का असर होता कहाँ ? दोस्तो इनका तो हल अब शर्तिया है और कुछ। 'Maahir'
5:59 PM
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साथ लेकर चल रहे जो झूठ की ऊँँचाइयाँ, हर जगह वो पा रहे हैं, काम में, आसानियाँ। सत्य का सूरज चला जिस पल से पश्चिम की तरफ़, तब से लम्बी हो रही हैं घूरतीं परछाइयाँ। मैं अकेला एक पल को भी न रह पाया कभी, साथ मेरे रह रहीं हैं सैकड़ों तनहाइयाँ। हम प्रकृति के साथ करते ही रहे खिलवाड़ बस, हो रहीं इसकी वजह से हर तरफ़ बर्बादियाँ। राजनेता कुछ, कभी परिपक्व हो पाएंगे क्या? बचपने की छोड़ जो पाए न हैं अठखेलियाँ। जो भी मिलता और ही कुछ बन के मिलता दोस्तो, मुश्किलों में फँस गई हैं दोस्तो आसानियाँ। आमजन को पंथ की कुछ दी गई ऐसी अफीम, टूटती उनकी नहीं हैं देख लो मदहोशियाँ। गुल खिलाएंगी किसी दिन देखिएगा आप सब, हो रहीं जो नुक्कड़ों पर देर तक सरगोशियाँ। मुफ़लिसों की मुश्किलों को देखना हो देख लो, बढ़ रहीं शमशान में जो आजकल आबादियाँ। 'Maahir'
7:48 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे- रणक्षेत्रे :अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक २९-३० : ब्रह्मानन्द में अवस्थित योगी और भगवान का तादात्म्य:: सर्वभूतस्थ आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन : ॥२९॥ सभी भूत(प्राणी) मुझ में हैं रहते और सब भूतों में मैं हूँ रहता । योगी अनन्त-चेतन में संयुत सभी जगह समदर्शी रहता ॥२९॥ य : माम् पश्यति सर्वत्र सर्वम् च मयि पश्यति । तस्य अहम् न प्रणश्यामि स : च मे न प्रणश्यति ॥३०॥ देखा करता जो मुझको सबमें और सबको जो देखता है मुझमें उसके लिए मैं न अदृश्य कभी और मेरे लिए यह अदृश्य नहीं ॥३०॥ परब्रह्म को जानने वाले महापुरुष की स्थिति: ईशावास्योपनिषद् ऐसे योगी का वर्णन इन शब्दों में करता है: यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति । सर्वभूतेषु च आत्मानम् ततो न विजुगुप्सते ॥६॥ जो मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों को परमात्मा में ही निरन्तर देखता है और संपूर्ण प्राणियों में परमात्मा को देखता है उसके पश्चात वह कभी भी किसी से घ्रणा नहीं करता । ऐसे ही समदृष्टि वाले सिद्ध पुरुषों के लिए कहा: विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि च एव श्वपाके च पण्डिता : समदर्शिन : ॥१८/अध्याय ५॥ संत ज्ञानेश्वर ने तो जो़र देकर कहा है: जो व्यक्ति एकत की भावना से मुझे ही जीवमात्र में समान रूप से मिला हुआ जानकर , केवल मेरा ही स्वरूप देखता है, वह व्यक्ति इस प्रकार की उक्ति को एकदम व्यर्थ साबित कर देता है कि “यही मैं हूँ “। चाहे कोई सा मार्ग हो, निष्काम कर्म, ज्ञान अथवा भक्ति मार्ग सबका ध्येय एक ही है: उमा जे रामचरन रत विगत काम, मद, क्रोध। निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध ॥११२ख॥ उत्तरकांड ॥ रामचरितमानस
7:12 PM
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गुरू ज्ञान... साले की बुराई, शक्की को दवाई, प्रेमी को अपने दोस्त से मिलाना, पत्नी को अपनी असली इन्कम बताना, नवजात कुत्ते के बच्चे को सहलाना, और पहलवान की बहन से इश्क लड़ाना, कभी नहीं, कभी नहीं !! नाई से उधारी में दाढ़ी या फिर सेकंड हैण्ड गाड़ी, नॉन वेज होटल में वेजिटेरियन खाना, और बिना पानी देखे टॉयलेट में जाना, कभी नहीं, कभी नहीं !! दो नंबर की कमाई रिश्तेदार के नाम रखना, सुंदर जवान नौकरानी को काम पर रखना, पत्नी से सुंदर पड़ोसन को बताना, और पुलिस वाले को मकान में किराये पर रखना, कभी नहीं, कभी नहीं !! बिना हाथ दिए गाड़ी मोड़ना, सफ़र में सहयात्री के भरोसे अटैची छोड़ना, चिपकू मेहमान को बढ़िया खाना खिलाना, टीचर के बच्चे को ट्यूशन पढ़ाना, कभी नहीं, कभी नहीं !! चोरी के डर से पड़ोसी को सुलाना, कम उम्र की महिला को आंटी बुलाना, लंगर की पंक्ति में आखिर में बैठना, और पत्नी से उसके मायके में ऐंठना, कभी नहीं, कभी नहीं !! गुरू दक्षिणा अपेक्षित है! Paavan
7:06 PM
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ग़ज़ल- ज़िन्दगी की जुस्तज़ू में, आ गई जाने किधर ? पत्थरों के जंगलों में, आदमी ढूँढे, नज़र। लूटने औ लुटने वाले, में रहा है फ़र्क क्या? आज जो दिखता इधर है, कल वो दिखता था उधर। मरने, जीने से किसी के कब रुकी है ज़िन्दगी ? वो सितारे कह रहे हैं आसमां से टूटकर। एक प्रस्तर क़ायदे का लिख न पाते, आज जो, डिग्रियाँ लेकर युवा वो, फिर रहे हैं, दरबदर। कोई कर सकता नहीं, सहयोग ऐसे शख़्स का, जो भरोसा ही नहीं, करता हैं अपने आप पर। थे बहुत आश्वस्त, नेता, पर भरोसा करके हम, रहबरों की रहबरी में, खो गई है रहगुज़र। जल चुकेगा फूस तब तो, आग भी मिट जाएगी, आग को भी चाहिए है, फूस, अपनी उम्रभर। जुस्तजू=खोज, चाह, प्रस्तर= पैराग्राफ़, रहबर-नेता, रहगुजर= राह 'Maahir'
7:04 PM
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ग़ज़ल- मेरी ग़ज़लों में मिलती है, माटी की बू-बास ज़रा, कल की झलक सहित है इनमें वर्तमान, इतिहास ज़रा। मर्म भाव का जब जानोगे तब ही कुछ पा सकते हो, सच को जानो, आजाएगा, जीवन में उल्लास ज़रा। जीवन के वो सूत्र मिलेंगे, जो ज्ञानी कहते आए, सब ऋषि, मुनि, जैन, बौद्ध, कबीर, मार्क्स और रैदास ज़रा। कितने चढे मुलम्मे इन पर, चेहरों को कुछ समझो तो, आमआदमी की पीड़ा का तब होगा अहसास ज़रा। आज सत्य के संवाहक ख़तरे में ख़ुद को डाल रहे, ऐसे लोगों के कामों से दिखती हमको आस ज़रा। मीठा बोलें, सज धज के, जो दोषी हैं अपराधों के, देवतुल्य उनको कहते हैं जो हैं चमचे ख़ास ज़रा। राष्ट्र, धर्म, सभ्यता, आदि के मीठे सपने दिखला कर, वो कहते झेलो चुप रह कर मिलता है जो त्रास ज़रा। वो कहते हैं सत्य वही है जो वो कहते अपने मुँह से, भीषण गर्मी को अब बोलो तुुम, मादक मधुमास ज़रा। 'Maahir'
7:03 PM
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गर ऐतेबार न करता तो और क्या करता, मैं उससे प्यार न करता तो और क्या करता? बिछड़ते वक़्त उन आंखों में चांद रौशन था, मैं इंतज़ार न करता तो और क्या करता? मेरे ख़ुलूस से घबरा गया था मेरा दोस्त, पलट के वार न करता तो और क्या करता? हवा के साथ ही चलने में फ़ायदा था मेरा, ये कारोबार न करता तो और क्या करता? सुकूने दिल भी वही था, क़रारे जां भी वही, वो बेक़रार न करता तो और क्या करता? ख़ुद आ गया था परिंदा मेरे निशाने पर, जो मैं शिकार न करता तो और क्या करता? मेरे मिज़ाज की नरमी ही मेरी दुश्मन थी, गुलों को ख़ार न करता तो और क्या करता? ख़ुलूस.......... प्यार, स्नेह, क़रारे जां......... जान का क़रार 'Maahir'
7:01 PM
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ख़ुद समझ पाए न जिसको वह भी समझाने लगे, वो नए वादे से फिर जनता को बहलाने लगे। ईश्वर ने जन्म ले कर कष्ट कितने सह लिए ? बस तनिक तक़लीफ़ से हम-आप घबराने लगे। मुफ़लिसों ने ज़ालिमों से पाई जो सतही दया, कष्ट में उनको लगा आराम सा पाने लगे। शस्त्र सारे रख चुका हूँ, शास्त्र को थामा है अब, क्या हुआ कुछ लोग हमसे आज घबराने लगे। शायरी पर आज अपनी हो रहा है फ़ख़्र कुछ, शेर मेरे दोस्त-दुश्मन आज दुहराने लगे। Maahir
6:59 PM
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कविता : शिक्षा-व्यवसाय! ×××××××××××××××××× जबसे कि स्कूल,निजी हो गए, ऑनर कमाने में बिजी हो गए, स्कूल टीचर हो गए सर,मैडम, होमवर्क भेजने ईजी हो गए! इंटरव्यू होता अब पेरेंट्स का, पैरेंट-टीचर्स मीटिंग का खेल, टीचर्स सभी पैसेंजर-लोकल, गार्जियन बने एक्सप्रेस-मेल! ट्यूटर भी वैसे हैं अफलातून, उनके बड़े हैं अनोखे कानून, फी स्कूल से ट्यूटर तक की, जनवरी को भी बना दे जून! कोरोना दे गया और बहाना, 'ऑन-लाइन' पढ़ना-पढ़ाना, अब सबसे मुश्किल है काम, बच्चों से मोबाइल हटवाना। सरकार अभी इतना कर दे, थोड़ा सा जो ध्यान इधर दे, मां-बाप से पढ़ कर बच्चा, परीक्षा,सेंटर पर जाकर दे! सरकार ही कराए इम्तिहान, जांच ले वह बच्चों का ज्ञान, बिचौलिया से इन स्कूलों से, अभिभावक की छूटे जान! किसी को ये बुरा लग जाय, वो कहें,नकारात्मक-उपाय, सरकारी स्कूलों को लेकिन, लील गया शिक्षा-व्यवसाय! Paavan
6:56 PM
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एक ग़ज़ल- आँख से ओझल है, पर वो देखता है दोस्तो, जो दिया उसने, वो कर्मों से सिवा है दोस्तो। जो है तुम में, वो है मुझमें, देखना है देख लो, आत्मा, जल, क्षिति, गगन, पावक, हवा है दोस्तो। कितने पैगम्बर हैं भेजे उसने, फिर भी क्यूँ यहाँ ? आदमी अब तक गुनाहों में फँसा है दोस्तो। काम को जो कर रहा है, मान के पूजा, उसे, हर बुलंदी के लिए रस्ता मिला है दोस्तो। क्यूँ क़यामत के मुझे तुम, अद्ल से बहका रहे, ज़िन्दगी में भी, गुनाहों की सज़ा है दोस्तो। क्या कभी मुमकिन है, अहसां का उतरना सोच लो, उसका जो तुम को, बिना मांगे मिला है दोस्तो। क्यूँ ये नाटक कर रहे हो, जिस्मो-जां होते हुए, कर्म को पूजा, तो धर्मों ने कहा है दोस्तो। हाथ की रेखाएं तो, बनती- बिगड़तीं कर्म से, सब ने कर्मों से ही, क़िस्मत को लिखा है दोस्तो। इश्क़ से दुनिया बनी है, इश्क़ से क़ायम है यह, इश्क़ के ही नूर से, हर गुल खिला है दोस्तो। एक ही रब ने बनाया सबको यदि कहते हो तुम, व्यक्तियों के बीच क्यों यह फ़ासला है दोस्तो, 'Mahir'
6:52 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक : २३ : संसार के सभी दु :खों से छूटने के लिए निरन्तर रहो योग में अवस्थित: तम् विद्यात् दु:खसंयोगवियोम् योगसन्ज्ञितम् । स: निश्चयेन योक्तव्य : योग : अनिर्विण्णचेतसा ॥२३॥ जानकर जिसको मुक्त होता नर दु:खमय संसार के संयोग से कहते जिसे हैं योग : । उसे धैर्य और उत्साह से दृढ़- निश्चयी हो करना परम कर्तव्य है ॥२३॥ श्रीमद्भगवद्गीता अपनी विशिष्ट शैली में बाइसवें श्लोक में कही हुई बात को विपर्यय रूप में दोहरा रही है । इसके अनुसार संसार में केवल दु:ख ही दुख है। उसी को व्यक्त करने के लिए “दु:खसंयोग “ कहकर योग को उससे वियोग कराने वाला कहा। क्योंकि योग की चरम अवस्था में पहुँच कर, स्वरूप की अनुभूति होने पर साधक इन्द्रियातीत होकर सदैव परमानन्द में मग्न रहता है पर इसके लिए आवश्यक है दृढ़ निश्चय और अभ्यास में उकताहट का त्याग । Paavan Teerth
6:51 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक २२ : योग में स्थित योगी के लिए इससे बड़ा कोई लाभ नहीं और कोई ऐसा दु:ख नहीं जो उसे विचलित कर सके : यम् लब्ध्वा न अपरम् लाभम् मन्यते न अधिकम् तत : । यस्मिन् स्थित: न दु:खेन गुरुणा अपि विचाल्यते ॥२२॥ जिसे करके प्राप्त गिनता नहीं उससे बडा कुछ लाभ दूजा है कभी । उस पूर्णता को प्राप्त योगी को विचलित न करता दु:ख भारी भी कभी। ॥२२॥ संदर्भ : पिछले श्लोक के संदर्भ में जहाँ योगी की समाधि स्थिति को “सुखम् आत्यान्तिकम्” कहा गया, लेकिन उसके साथ ही दो और विशेषण ,”बुद्धिग्राहम् और अतीन्द्रियम्” भी जोड़े गए । इसका सीधा अर्थ है कि ऐसा योगी प्रकृति के सभी कार्यकलापों से ऊपर उठ गया है और उसके लिए परमात्म- सुख से बड़ा न कोई अन्य सुख है और न प्रकृति-जन्य ऐसा कोई दुख ही है जो उसे विचलित कर सके ! 'Paavan Teerth '
6:50 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक २१ : तत्व की प्राप्ति का विशिष्ट सुख : सुखम् आत्यन्तिकम् यत् तत् बुद्धिग्राह्यम् अतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न च एव अयम् स्थित : चलति तत्वत : ॥२१॥ इन्द्रियातीत हुआ योगी करता अनुभव अखंड आनन्द का जिस अवस्था में केवल सूक्ष्म बुद्धि से । उस समय विचलित होता नहीं वह परमात्मा के स्वरूप के ध्यान से ॥२१॥ योगी का आत्यान्तिक सुख : सुखम् आत्यन्तिकम् : यह सुख इन्द्रियातीत होने से अवर्णनीय है ।गीता में विभिन्न स्थानों पर इसी को अक्षय , अत्यन्त, एकान्तिक , सुख का नाम दिया गया है । यथा : सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शम् अत्यन्तम् सखम् अश्नुते ॥२८/अध्याय ६॥ अतीन्द्रियम् : इसको वर्णन करते हुए संत ज्ञानेश्वर कहते हैं- “ जीवात्मा भी शरीर के सहयोग से परमात्मा में मिलकर उसके साथ एकत्व प्राप्त कर लेता है ।_______ इसीलिए उस अनुभव की वार्ता वाणी के हाथ नहीं आती जिससे संवादरूपी गाँव में प्रवेश किया जा सके । बुद्धिग्राह्यम् - इस सुख में बुद्धि लीन नहीं होती और विवेक भी जाग्रत रहता है फिर भी बुद्धि की पकड़ के बाहर होने से , जैसा ऊपर कहा गया है संवाद के बाहर है। इतने पर भी मुख्य बात है अपने भीतर बैठी आत्मा के अस्तित्व में दृढ़ विश्वास । जैसा कि उपनिषद में कहा है: नैव वाचा न मनसा प्राप्तुम् शक्यो न चक्षुषा । “अस्ति इति” ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥११/अध्याय २/वल्ली ३ ॥कठोपनिषद 'Paavan Teerth'.
6:48 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक २० : योगी की समाधि-अवस्था : यत्र उपरमते चित्तम् निरुद्धम् योगसेवया । यत्र च एव आत्मना आत्मानम् पश्यन् आत्मनि तुष्यति ॥२०॥ योग के अभ्यास में ध्यानस्थ हो जब चित्त हो जाता शान्त है । सूक्ष्म बुद्धि से आत्म को देखता मनुज संतुष्ट हो रहता आत्म के ही ध्यान में ॥२०॥ साधक की उत्तरोत्तर समाधि अवस्था की ओर प्रगति के चरण : धारणा : साधक का निश्चय कि मन को केवल स्वरूप में ही लगाना है । ध्यान के मुख्य अंग : ध्याता - ध्यान करने वाला ध्यान- स्वरूप में तद्रूपता ध्येय- साध्य का रूप स्वरूप समाधि- जब साधक में केवल ध्येय ही जाग्रत रहता है । संप्रज्ञात समाधि- चित्त की एकाग्र अवस्था, जिसमें ध्येय का नाम-नामी बना रहता है । असंप्रज्ञात समाधि- जब नाम की स्मृति न रहकर केवल नामी(ध्येय) रह जाता है । “निरुद्धम् योगसेवया”- ऊपर की असंप्रज्ञात समाधि ही चित्त की निरुद्ध अवस्था है । (क) सबीज समाधि -जिसमें संसार की सूक्ष्म वासनायें, सिद्धियों के रूप में बनीं रहती हैं । निर्बीज समाधि -जब साधक सिद्धियों से भी उपराम हो जाता है-यही निरुद्ध पद से गीता में कहा गया है । “तुष्यति”-जब योगी का संसार से सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाता है और वह केवल अपने स्वरूप में ही संतोष का अनुभव करता है । Paavan Teerth
6:43 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता ; कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक १९ : योगयुक्त साधक की मन :स्थिति : यथा दीप : निवातस्थ न इंगते सा उपमा स्मृता । योगिन : यतचित्तस्य युंजत : योगम् आत्मन : ॥१९॥ वायु-रहित स्थान पर जैसे दीपशिखा स्थिर हो रहती । वैसे ही योग-युक्त हो ध्यान लगाता जीते हुए चित्त का योगी ॥१९॥ ध्यान दीजिए: निवातस्थ : - स्पन्दित वायु का अभाव , न कि वास का अभाव। दीपशिखा से उपमा का अर्थ: चित्त दीपक की लौ के समान स्वभाव से ही चंचल है , इसलिए चित्त को दीपक की लौ की उपमा दी गई । योगी के चित्त की परमात्म-तत्व में दीपशिखा के समान प्रकाशमय या जाग्रति रहती है। समाधि में चित्त में स्वरूप की जागृति रहती है । 'Paavan Teerth '
7:53 PM
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आगे सफर था और पीछे हमसफर था.. रूकते तो सफर छूट जाता और चलते तो हमसफर छूट जाता.. मंजिल की भी हसरत थी और उनसे भी मोहब्बत थी.. ए दिल तू ही बता,उस वक्त मैं कहाँ जाता... मुद्दत का सफर भी था और बरसो का हमसफर भी था रूकते तो बिछड जाते और चलते तो बिखर जाते.... यूँ समँझ लो, प्यास लगी थी गजब की... मगर पानी मे जहर था... पीते तो मर जाते और ना पीते तो भी मर जाते. बस यही दो मसले, जिंदगीभर ना हल हुए! ना नींद पूरी हुई, ना ख्वाब मुकम्मल हुए!! वक़्त ने कहा.....काश थोड़ा और सब्र होता! सब्र ने कहा....काश थोड़ा और वक़्त होता!! सुबह सुबह उठना पड़ता है कमाने के लिए साहेब...। आराम कमाने निकलता हूँ आराम छोड़कर। "हुनर" सड़कों पर तमाशा करता है और "किस्मत" महलों में राज करती है!! "शिकायते तो बहुत है तुझसे ऐ जिन्दगी, पर चुप इसलिये हु कि, जो दिया तूने, वो भी बहुतो को नसीब नहीं होता".. अजीब सौदागर है ये वक़्त भी! जवानी का लालच दे के बचपन ले गया.... अब अमीरी का लालच दे के जवानी ले जाएगा. ...... लौट आता हूँ वापस घर की तरफ... हर रोज़ थका-हारा, आज तक समझ नहीं आया की जीने के लिए काम करता हूँ या काम करने के लिए जीता हूँ। बचपन में सबसे अधिक बार पूछा गया सवाल - "बङे हो कर क्या बनना है ?" जवाब अब मिला है, - "फिर से बच्चा बनना है. “थक गया हूँ तेरी नौकरी से ऐ जिन्दगी मुनासिब होगा मेरा हिसाब कर दे...!! दोस्तों से बिछड़ कर यह हकीकत खुली! बेशक,कमीने थे पर रौनक उन्ही से थी!! भरी जेब ने ' दुनिया ' की पहेचान करवाई और खाली जेब ने ' अपनो ' की. जब लगे पैसा कमाने, तो समझ आया, शौक तो मां-बाप के पैसों से पुरे होते थे, अपने पैसों से तो सिर्फ जरूरतें पुरी होती है!! हंसने की इच्छा ना हो... तो भी हसना पड़ता है... . कोई जब पूछे कैसे हो...?? तो मजे में हूँ कहना पड़ता है... . ये ज़िन्दगी का रंगमंच है दोस्तों.... यहाँ हर एक को नाटक करना पड़ता है. "माचिस की ज़रूरत यहाँ नहीं पड़ती, यहाँ आदमी आदमी से जलता है!" दुनिया के बड़े से बड़े साइंटिस्ट, ये ढूँढ रहे है की मंगल ग्रह पर जीवन है या नहीं, पर आदमी ये नहीं ढूँढ रहा कि जीवन में मंगल है या नहीं। मंदिर में फूल चढ़ा कर आए तो यह एहसास हुआ कि... पत्थरों को मनाने में , फूलों का क़त्ल कर आए हम गए थे गुनाहों की माफ़ी माँगने .... वहाँ एक और गुनाह कर आए हम ।। 'Maahir'
7:49 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक १४ : योगी का अन्तर्संयम : प्रशान्तात्मा विगतभी : ब्रह्मचारिव्रते स्थित : । मन : संयम्य मच्चित्त : युक्त : आसीत मत्पर : ॥१४॥(योग-साधक) प्रशान्तात्मा, भय-रहित होकर ब्रह्मचर्य-व्रत का आचरण करते। मन को सुस्थिर किए चित्त मुझ में लगाए मेरे परायण हो रहे ॥१४॥ श्लोक में आए शब्दों पर विचार: प्रशान्तात्मा : जिसका अन्त:करण राग-द्वेष रहित होता है वह स्वत :सिद्ध शान्ति पाता है और ऐसे व्यक्ति का नाम “प्रशान्तात्मा” है । “विगतभी :” - जब मनुष्य शरीर के साथ मैं और मेरेपन की मान्यताओं को छोड़ देता है तब उसमें किसी प्रकार का भय नहीं रहता । “ब्रह्मचारिव्रते स्थित:”- ध्यानयोगी को अपना जीवन संयत और नियत रखना चाहिए और ज्ञानेंद्रियों द्वारा भोगे जाने वाले, शब्द, स्पर्श,रूप, रस और गन्ध के साथ साथ मान, बड़ाई और शरीर के आराम से दूर रहकर किसी भी विषय का भोगबुद्धि, रसबुद्धि से सेवन न कर केवल निर्वाहबुद्धि से ही सेवन करे । यह न केवल ध्यानकाल में ही नहीं व्यवहारकाल में भी अपेक्षित है। इस प्रकार का संयम केवल शून्य में न होकर केवल भगवान मे चित्त लगाने और परायण होने के लिए है । Paavan Teerth.
7:48 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक १५ : ध्यानयोगी का परमात्म- तत्व में विलीन होना : युंजन एवम् सदा आत्मानम् योगी नियतमानस : शान्तिम् निर्वाणपरमाम् मत्संस्थाम् अधिगच्छति ॥१५॥ योगी वश में किए निज चित्त को निज आत्म को मेरे स्वरूप में स्थित किए । प्राप्त कर लेता मुझमे अवस्थित परमानन्द की पराकाष्ठा निमज्जित शान्ति को ॥१५॥ योगी की परमात्म-स्थिति : “योगी नियतमानस :” - जिसका मन पर अधिकार है वह नियतमानस : है ।परमात्मा के सिवाय उसका किसी से सम्बन्ध नहीं रहता । “निर्वाणपरमा शान्ति “ - परमात्मतत्व की प्राप्ति होने पर ही परम शान्ति होती है । जबकि संसार के त्याग से शान्ति प्राप्त होती है । योगिराज संत ज्ञानेश्वर ने तो इस अवस्था के बारे में यहाँ तक कहा है: जीवात्मा शरीर के सहयोग से परमात्मा से मिलकर उसके साथ एकत्व को प्राप्त कर लेता है । इसलिए उस अनुभव की वार्ता वाणी के हाथ नहीं आती जिससे संवाद रूपी गाँव में प्रवेश किया जा सके। Paavan Teerth.
6:00 PM
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16 सिद्धियाँ विवरण 〰️〰️🌼🌼〰️〰️ 1. वाक् सिद्धि : - जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं. 2. दिव्य दृष्टि सिद्धि:- दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं. 3. प्रज्ञा सिद्धि : - प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें. 4. दूरश्रवण सिद्धि :- इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता. 5. जलगमन सिद्धि:- यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो. 6. वायुगमन सिद्धि :- इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं. 7. अदृश्यकरण सिद्धि:- अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं. 8. विषोका सिद्धि :- इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं. 9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :- इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं. 10. कायाकल्प सिद्धि:- कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं. 11. सम्मोहन सिद्धि :- सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं. 12. गुरुत्व सिद्धि:- गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं. 13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि:- इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की. 14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि:- जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं. 15. इच्छा मृत्यु सिद्धि :- इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं. 16. अनुर्मि सिद्धि:- अनुर्मि का अर्थ हैं. जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो पूजन पाठ, कुंडली, गृह प्रवेश, शादी, वास्तु दोष, ग्रह दोष, गृह दोष, पितृ दोष, कालसर्प दोष, एवं भागवत और जागरण एवं माता की चौकी के लिए संपर्क करें ।। Pavan Kumar Paavan.
9:03 PM
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मैं नहीं कहता कि मैं ही कहता हूं,मैं तो कहता हूँ कि मैं भी कहता हूं‼️ कहाँ किसकी जीत हार होगी?जान लें! रााजस्थान में एक कहावत है कि नाई नाई बाल कितने? कि जजमान! जस्ट वेट अभी सामने आ जाएंगे।यही कहावत आज मुझे दोहरानी पड़ रही है। जिस उम्मीदवार को देखो वही अपनी जीत के दावे कर रहा है। ऐसा लग रहा है कि दो सौ सीट के लिए दो हज़ार लोग जीतने वाले हैं। चुनाव लड़ने वाले भले ही डरे सहमे अपने अपने ईश्वर अल्लाह को याद कर रहे हों मगर उनके समर्थक तो ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे उनके नेता जी की जीत तो उनकी वज़ह से ही हो चुकी है। ज़रा किसी से उनके नेता की हार के समीकरण बताने लगो तो ऐसे गुर्राने लगते हैं जैसे बटका ही भर लेंगे। पिछले दिनों मैंने ऐसे बड़बोले मूर्खों से ख़ूब मुक़ाबला किया। जिस नेता जी की मैंने हालत पतली बता दी उनके चिल्गोज़े मेरे ऊपर टूट कर पड़ गए। जैसे मेरे लिख देने से ही उनके नेता जी हार जाएंगे। जैसे आठों विधानसभाओं में मैं ही किसी नेता जी को जितवा और दूसरों को हरवा रहा हूँ। असलियत तो यह है कि पत्रकार सिर्फ़ अपनी अक़्ल और नज़रिए का इस्तेमाल करते हैं । उनका आंकलन उनकी निजी बुद्धि पर टिका होता है। ज़रूरी नहीं कि वह जो कह रहे हैं वह ही अंतिम सत्य है। पत्थर की लक़ीर है। तो हमेशा अपने आंकलन को लेकर किसी तरह की ज़िद नहीं रखता। मैं नहीं कहता कि मैं ही कहता हूं। मैं तो कहता हूँ कि मैं भी कहता हूँ। पत्रकारों का काम होता है समय को पढ़ना और पढ़े हुए को प्रस्तुत करना। जो लोग यह सोचते हैं कि पत्रकार ब्रह्मा जी होते हैं । सृष्टि के रचयिता होते हैं। वही नेताओं के भाग्य विधाता होते हैं यह उनकी अल्पबुद्धि का परिचायक ही है। चुनावो को लेकर प्रायः यह होता है कि कोई अपनी निंदा सुनना ही पसंद नहीं करता। जिसको कमज़ोर बता दो लगता है जैसे उसकी पूंछ पर पैर रख दिया हो। इतनी आवाज़ें आती हैं कि लगता है पत्रकार से कोई पाप हो गया हो। जिस नेता को जीतता हुआ बता दो उसके समर्थक सराहना नहीं करेंगे मगर जिसे आप हारा हुआ बता दो उसके समर्थक कपड़े फाड़ने पर उतारू हो जाएंगे। मित्रों! किसी भी सीट पर कितने भी दिग्गज खड़े हों सब तो जीत नहीं सकते। जो जीतेगा सिकन्दर वही होगा। लेकिन परिणाम से पहले टुच्चे नेता भी ख़ुद को सिकन्दर के पिता मान कर चल रहे होते हैं। पिछले दिनों मैंने अजमेर की आठों विधानसभा का आंकलन प्रस्तुत किया।कौन जीतेगा ? कौन हारेगा यह कभी नहीं लिखा। हां नज़दीकी टक्कर किस किस के बीच है यह ज़रूर लिखा। आप ताज़्ज़ुब करेंगे कि यह बात भी लोगों के गले नहीं उतरी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार सबको है।आपको है तो मुझे भी है। यह तो नहीं हो सकता कि कोई पत्रकार वही लिखे जो आप सुनना चाहते हैं। जब ज़रूरी नहीं कि आप मुझसे सहमत हों तो मैं भी आपसे सहमत होऊं यह भी ज़रूरी नहीं। ऐसे लोग जो मेरी बात से इक़तफ़ाक नहीं रखते उनसे मुझे कोई शिक़ायत नहीं और यदि किसी को मुझसे शिक़ायत हो तो क्षमा याचना करता हूँ। आज फिर आठों विधानसभाओं के लिए लिख रहा हूँ। ब्यावर में सीधी टक्कर मेरे हिसाब से कांग्रेस के पारस पंच और इंदर सिंह बागावास के बीच है। अब यह कहूँगा कि भाजपा के शंकर सिंह रावत तीसरे स्थान पर जा सकते हैं तो कही मित्र बुरा मान जाएंगे अतः मैं लिख रहा हूँ कि शंकर सिंह रावत ही चुनाव जीतेंगे। यह लिखने में भी मेरे क्या फ़र्क़ पड़ता है? केकड़ी में सीधी टक्कर भाजपा और कांग्रेस के बीच है। भाजपा के शत्रुघ्न गौतम कांग्रेस के रघु शर्मा पर भारी पड़ रहे हैं मगर फिर वही सावधानी ! नाराज़ होने वालों के लिए लिख रहा हूँ कि रघु शर्मा 25 हज़ार से जीतेंगे। मसूदा में मेरे हिसाब से आर एल पी के सचिन सांखला मज़बूत स्थिति में हैं। भाजपा के वीरेन्द्र कानावत उनसे सीधी टक्कर में हैं। वाज़िद अली चीता के साथ कुछ मजबूरियां जरूर नज़र आ रही हैं। किशनगढ में निर्दलीय सुरेश टांक सबसे मज़बूत स्थिति में हैं। उनके और कांग्रेस के डॉ विकास चौधरी के बीच टक्कर ज़रूर है मगर जीतना टांक का ही तय है। मेरे इस आंकलन पर यदि किसी को ठेस पहुंची हो तो लिख रहा हूँ कि भाजपा के भागीरथ चौधरी भारी मतों से विजयी होंगे। पुष्कर में भाजपा के सुरेश रावत ही सिकन्दर होंगे मगर यदि कुछ कट्टर समर्थक यह मानते हों कि यह लिख कर मैंने सच का साथ नहीं दिया तो क्षमा के साथ कह देता हूँ कि नसीम अख्तर यह चुनाव जीतने जा रही हैं। अशोक रावत और डॉ बाहेती के चाहने वालों के लिए यह सूचना कि उन दोनों की ज़मानत बच जाएगी। और बेहतर सुनना चाहें तो ये कि टक्कर दोनों के बीच ही है। अजमेर उत्तर से मेरा मानना है कि टक्कर कॉन्ग्रेस के महेन्द्र सिंह रलावता और निर्दलीय उम्मीदवार ज्ञान सारस्वत के बीच हैं। कौन जीत जाए कहा नहीं जा सकता। जो लोग भाजपा के देवनानी जी को जीता हुआ मान रहे हैं उनको शुभकामनाएं। ईश्वर उनको भारी मतों से विजयी बनाए। अजमेर दक्षिण से भाजपा की अनीता भदेल चुनाव जीतने जा रही हैं। यह मेरी निजी राय है मगर आप चाहें तो द्रोपदी बहन को भी जीता हुआ मान सकते हैं। मुझे ख़ुशी होगी। नसीराबाद से वैसे तो भाजपा के रामस्वरूप लाम्बा जीतते दिखाई दे रहे हैं मगर आप चाहें तो शिव प्रकाश को भी जितवा सकते हैं। Pavan Kumar 'Paavan'
8:34 PM
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बुजुर्गों का बचपन मोहन बेटा ! मैं तुम्हारे काका के घर जा रहा हूँ। क्यों पिताजी ? और आप आजकल काका के घर बहुत जा रहे हो ...? तुम्हारा मन मान रहा हो तो चले जाओ ... पिताजी ! लो ये पैसे रख लो, काम आएंगे। पिताजी का मन भर आया . उन्हें आज अपने बेटे को दिए गए संस्कार लौटते नजर आ रहे थे। जब मोहन स्कूल जाता था ... वह पिताजी से जेब खर्च लेने में हमेशा हिचकता था, क्यों कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। पिताजी मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से घर चला पाते थे ... पर माँ फिर भी उसकी जेब में कुछ सिक्के डाल देती थी ... जबकि वह बार-बार मना करता था। मोहन की पत्नी का स्वभाव भी उसके पिताजी की तरफ कुछ खास अच्छा नहीं था। वह रोज पिताजी की आदतों के बारे में कहासुनी करती थी ... उसे ये बडों की टोका टाकी पसन्द नही थी ... बच्चे भी दादा के कमरे में नहीं जाते, मोहन को भी देर से आने के कारण बात करने का समय नहीं मिलता। एक दिन पिताजी का पीछा किया ... आखिर पिताजी को काका के घर जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है ? वह यह देख कर हैरान रह गया कि पिताजी तो काका के घर जाते ही नहीं हैं ! !! वह तो स्टेशन पर एकान्त में शून्य एक पेड़ के सहारे घंटों बैठे रहते थे। तभी पास खड़े एक बजुर्ग, जो यह सब देख रहे थे, उन्होंने कहा ... बेटा...! क्या देख रहे हो ? जी....! वो । अच्छा, तुम उस बूढ़े आदमी को देख रहे हो....? वो यहाँ अक्सर आते हैं और घंटों पेड़ तले बैठ कर सांझ ढले अपने घर लौट जाते हैं . किसी अच्छे सभ्रांत घर के लगते हैं। बेटा ...! ऐसे एक नहीं अनेकों बुजुर्ग माएँ बुजुर्ग पिता तुम्हें यहाँ आसपास मिल जाएंगे ! जी, मगर क्यों ? बेटा ...! जब घर में बड़े बुजुर्गों को प्यार नहीं मिलता.... उन्हें बहुत अकेलापन महसूस होता है, तो वे यहाँ वहाँ बैठ कर अपना समय काटा करते हैं ! वैसे क्या तुम्हें पता है.... बुढ़ापे में इन्सान का मन बिल्कुल बच्चे जैसा हो जाता है । उस समय उन्हें अधिक प्यार और सम्मान की जरूरत पड़ती है , पर परिवार के सदस्य इस बात को समझ नहीं पाते। वो यही समझते हैं कि इन्होंने अपनी जिंदगी जी ली है फिर उन्हें अकेला छोड देते हैं . कहीं साथ ले जाने से कतराते हैं . बात करना तो दूर अक्सर उनकी राय भी उन्हें कड़वी लगती है। जब कि वही बुजुर्ग अपने बच्चों को अपने अनुभवों से आने वाले संकटों और परेशानियों से बचाने के लिए सटीक सलाह देते है। घर लौट कर मोहन ने किसी से कुछ नहीं कहा। जब पिताजी लौटे, मोहन घर के सभी सदस्यों को देखता रहा l किसी को भी पिताजी की चिन्ता नहीं थी।पिताजी से कोई बात नहीं करता, कोई हंसता खेलता नहीं था जैसे पिताजी का घर में कोई अस्तित्व ही न हो ! ऐसे परिवार में पत्नी बच्चे सभी पिताजी को इग्नोर करते हुए दिखे ! सबको राह दिखाने के लिऐ आखिर मोहन ने भी अपनी पत्नी और बच्चों से बोलना बन्द कर दिया ... वो काम पर जाता और वापस आता किसी से कोई बातचीत नही ...! बच्चे पत्नी बोलने की कोशिश भी करते , तो वह भी इग्नोर कर काम मे डूबे रहने का नाटक करता ! !! तीन दिन मे सभी परेशान हो उठे... पत्नी, बच्चे इस उदासी का कारण जानना चाहते थे। मोहन ने अपने परिवार को अपने पास बिठाया। उन्हें प्यार से समझाया कि मैंने तुम से चार दिन बात नहीं की तो तुम कितने परेशान हो गए ? अब सोचो तुम पिताजी के साथ ऐसा व्यवहार करके उन्हें कितना दुख दे रहे हो ? मेरे पिताजी मुझे जान से प्यारे हैं। जैसे तुम्हें तुम्हारी माँ ! और फिर पिताजी के अकेले स्टेशन जाकर घंटों बैठकर रोने की बात बताई। सभी को अपने बुरे व्यवहार का खेद था l उस दिन जैसे ही पिताजी शाम को घर लौटे, तीनों बच्चे उनसे चिपट गए ...! दादा जी ! आज हम आपके पास बैठेंगे...! कोई किस्सा कहानी सुनाओ ना। पिताजी की आँखें भीग आई। वो बच्चों को लिपटकर उन्हें प्यार करने लगे। और फिर जो किस्से कहानियों का दौर शुरू हुआ वो घंटों चला . इस बीच मोहन की पत्नी उनके लिए फल तो कभी चाय नमकीन लेकर आती lपिताजी बच्चों और मोहन के साथ स्वयं भी खाते और बच्चों को भी खिलाते। अब घर का माहौल पूरी तरह बदल गया था ! !! एक दिन मोहन बोला , पिताजी...! क्या बात है ! आजकल काका के घर नहीं जा रहे हो ...? नहीं बेटा ! अब तो अपना घर ही स्वर्ग लगता है ...! !!आज सभी में तो नहीं, लेकिन अधिकांश परिवारों के बुजुर्गों की यही कहानी है . बहुधा आस पास के बगीचों में , बस अड्डे पर , नजदीकी रेल्वे स्टेशन पर परिवार से तिरस्कृत भरे पूरे परिवार में एकाकी जीवन बिताते हुए ऐसे कई बुजुर्ग देखने को मिल जाएंगे I आप भी कभी न कभी अवश्य बूढ़े होंगे l आज नहीं तो कुछ वर्षों बाद होंगे . जीवन का सबसे बड़ा संकट है बुढ़ापा ! घर के बुजुर्ग ऐसे बूढ़े वृक्ष हैं , जो बेशक फल न देते हों पर छाँव तो देते ही हैं !अपना बुढापा खुशहाल बनाने के लिए बुजुर्गों को अकेलापन महसूस न होने दीजिये , उनका सम्मान भले ही न कर पाएँ , पर उन्हें तिरस्कृत मत कीजिये . उनका खयाल रखिये। और ध्यान रखियेगा की आपके बच्चे भी आपसे ही सीखेंगे अब ये आपके ऊपर निर्भर है कि आप उन्हें क्या सिखाना पसन्द करेंगे...I सदैव प्रसन्न रहिये। जो प्राप्त है, पर्याप्त है।। Pavan Kumar 'Paavan'
8:25 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक १३ : योग के लिए शरीर की स्थिति: समम् कायशिरोग्रीवम् धारयन् अचलम् स्थिर : । सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रम् स्वम् दिश : च अनवलोकयन् ॥१३॥ शरीर, सिर और गर्दन को सीधा अचल स्थापित कर । दिशाओं को न देख कर दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित करे ॥१३॥ ध्यानयोग : परमात्मा को पाने की राह: श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित ध्यानयोग कोरा हठयोगियों की योग-साधना नहीं है अपितु यह परमात्म-तत्व की ओर ले जाने वाला एक पड़ाव है । गीता का वर्णन कृष्ण-यजुर्वेदीय शाखा के श्वेता- श्वतरोपनिषद् के सन्निकट है।जहाँ वर्णन आता है: त्रिरुन्नतं स्थाप्य समम् शरीरम् ह्रदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य ब्रह्मोडुपेन प्रतरेतविद्वान्स्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥८/अध्याय २॥ विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह सिर ,ग्रीवा और वक्षस्थल इन तीनों को सीधा और स्थिर रखे। वह उसी दृढ़ता के साथ संपूर्ण इन्द्रियों को मानसिक पुरुषार्थ कर अन्त:करण मे सन्निविष्ट करे और ॐकार रूप नौका द्वारा संपूर्ण प्रवाहों से पार हो जाए । ऐसे ही स्थान और आसन के बारे मैं : समे शुचौ शर्करावह्निवालुका- विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभि: मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥१०/अध्याय २॥ साधक को चाहिए कि वह समतल और पवित्र भूमि, कंकड़, अग्नि तथा बालू से रहित , जल के आश्रय और शब्द आदि की दृष्टि से मन के अनुकूल , नेत्रों को पीड़ा न देने वाले (तीक्ष्ण आतप से रहित) गुहा आदिआश्रय स्थल में मन को ध्यान के निमित्त अभ्यास में लगाए । Paavan Teerth.
8:22 PM
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एक ग़ज़ल- मुझे इस बात का शिकवा बहुत है, हुआ हर काम अब महँगा बहुत है। मिला जो दर्द मुझको इश्क़ में वो, कसकता है, मगर अच्छा बहुत है। ज़रूरत जब पड़ी, वो व्यस्त थे कुछ, मुझे इस बात का सदमा बहुत है। ख़यालों में वो इक चेहरा बसा है, जिसे देखा नहीं, सोचा बहुत है। वो मेरा था, रहेगा बस मेरा ही, किया जिसने हमें रुसवा बहुत है। उसे नफ़रत हुई अब आईने से, दिखा जब भी, लगा झटका बहुत है। 'Maahir'
8:20 PM
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ग़ज़ल- बाँचिए तो सुब्ह का अख़बार है ये ज़िन्दगी, नापिए तो वक़्त की रफ़्तार है ये ज़िन्दगी। ढालते अपनी समझ से हम इसे आकार में, क्या ग़जब का सोचिए किरदार है ये ज़िन्दगी। भाग्यवादी मानते, सब हो रहा है भाग्य से, जागरूकों के लिए दस्तार है ये ज़िन्दगी। दस्तार= सिर की पगड़ी, आत्मसम्मान शक्तिशाली के कई अपराध करती माफ़ ये, निर्बलों के वास्ते तो दार है ये ज़िन्दगी। आपदा में ढूँढते अवसर जो हैं, उनके लिए, कुछ नहीं बस एक कारोबार है ये ज़िन्दगी। जो नहीं तरजीह देते आदमीयत को कभी, दोस्तो उनके लिए धिक्कार है ये ज़िन्दगी। कर रहा मेहनत समझ के वक़्त के हालात, जो मैं कहूँ, उसके लिए गुलजार है ये ज़िन्दगी। किरदार=चरित्र, दार=फाँसी का फंदा, तरजीह= प्राथमिकता, गुलजार=ख़ूबसूरत बगीचा, सुन्दर उपवन 'Maahir'
8:18 PM
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सस्ता माइक्रोस्कोप प्रोटीन मैपिंग को जन-जन तक पहुंचा सकता हैगहराई में अनुभाग में | जीवविज्ञान टीम कम लागत वाले उपकरण के साथ पहली प्रोटीन संरचनाओं का समाधान करती है यूके के शोधकर्ताओं का कहना है कि उनका प्रोटोटाइप क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप $500,000 में बनाया और बेचा जा सकता है। फोटो: सीजे रूसो/मेडिकल रिसर्च काउंसिल प्रयोगशाला आण्विक जीवविज्ञान किसी भी संरचनात्मक जीवविज्ञानी से बात करें, और वे आपको बताएंगे कि कैसे एक अच्छी नई पद्धति उनके क्षेत्र पर हावी हो रही है। प्रोटीन को फ्लैश फ्रीजिंग करके और उन पर इलेक्ट्रॉनों की बमबारी करके, क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (क्रायो-ईएम) निकट-परमाणु रिज़ॉल्यूशन के साथ प्रोटीन आकृतियों को मैप कर सकता है, उनके कार्य के लिए सुराग प्रदान कर सकता है और उन धक्कों और घाटियों को प्रकट कर सकता है जिन्हें दवा डेवलपर्स लक्षित कर सकते हैं। तकनीक कई विन्यासों में टेढ़े-मेढ़े प्रोटीनों को पकड़ सकती है, और यह उन प्रोटीनों को भी पकड़ सकती है जो पारंपरिक एक्स-रे विश्लेषण की सीमा से बाहर हैं क्योंकि वे क्रिस्टलीकृत होने का हठपूर्वक विरोध करते हैं। कई शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि क्रायो-ईएम अगले साल हल की गई नई प्रोटीन संरचनाओं की संख्या में एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी को पार कर जाएगा। फिर भी, अपने सभी आकर्षणों के बावजूद, क्रायो-ईएम में खामियां हैं: फ्रीजिंग प्रक्रिया जटिल है, और माइक्रोस्कोप महंगे हैं। हाई-एंड मशीनों को खरीदने में 5 मिलियन डॉलर से अधिक, स्थापित करने में लगभग इतनी ही लागत और संचालन और रखरखाव में प्रति वर्ष सैकड़ों हजारों की लागत आ सकती है। कई अमेरिकी राज्यों और देशों में एक भी क्रायो-ईएम माइक्रोस्कोप नहीं है। ओक्लाहोमा विश्वविद्यालय में संरचनात्मक जीवविज्ञानी राखी राजन कहती हैं, ''अभी जो है और जो नहीं है वही स्थिति है।'' विश्वविद्यालय में फिलहाल एक का अभाव है। मेडिकल रिसर्च काउंसिल की प्रयोगशाला आण्विक जीवविज्ञान (एलएमबी) के शोधकर्ता इस क्षेत्र को लोकतांत्रिक बनाने के लिए काम कर रहे हैं ( विज्ञान , 24 जनवरी 2020, पृष्ठ 354)। आज, नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज की कार्यवाही में , यूके टीम ने एक प्रोटोटाइप क्रायो-ईएम माइक्रोस्कोप को एक साथ जोड़ने का वर्णन किया है जिसने इसकी पहली संरचनाओं को हल कर लिया है। मशीन - जिसे एलएमबी भौतिक विज्ञानी क्रिस रूसो "फेरारी" के बजाय "सस्ती छोटी हैचबैक" कहते हैं - लागत के दसवें हिस्से के लिए क्षमताओं में उच्च-स्तरीय मशीनों को टक्कर दे सकती है। रूसो का मानना है कि एक निर्माता $500,000 में डिज़ाइन बना और बेच सकता है। चैन जुकरबर्ग इमेजिंग इंस्टीट्यूट के संस्थापक तकनीकी निदेशक ब्रिजेट कैराघेर का कहना है कि यह नए कर्मचारियों के स्टार्टअप पैकेज या अनुसंधान एजेंसियों द्वारा दिए जाने वाले उपकरण अनुदान की पहुंच के भीतर है। वह कहती हैं, ''यह एक अद्भुत मशीन होगी।'' "हर कोई जो संरचनात्मक जीव विज्ञान करना चाहता है वह इसे कर सकता है।" कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) में हालिया प्रगति संरचनात्मक जीव विज्ञान करने का एक और भी सस्ता तरीका प्रदान करती प्रतीत हो सकती है। एआई एल्गोरिदम अपने अमीनो एसिड अनुक्रम से प्रोटीन की संरचना का सटीक अनुमान लगा सकता है। लेकिन क्योंकि एआई को ज्ञात संरचनाओं पर प्रशिक्षित किया जाता है, इसलिए उनकी भविष्यवाणियां कभी-कभी असामान्य प्रोटीन कॉन्फ़िगरेशन के साथ लड़खड़ा जाती हैं, रूसो कहते हैं, और वे अभी भी क्रायो-ईएम के विकल्प नहीं हैं। उच्च-स्तरीय क्रायो-ईएम माइक्रोस्कोप तक पहुंच को बढ़ावा देने के लिए, राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान ने तीन राष्ट्रीय केंद्र बनाए हैं जहां गैर-शोधकर्ता नमूने भेज सकते हैं। लेकिन हब-एंड-स्पोक्स प्रणाली समस्याओं के साथ आती है। राजन अक्सर राष्ट्रीय केंद्रों से नतीजों के इंतजार में कई महीने बिता देती है, लेकिन बाद में उसे पता चलता है कि उसके नमूने बेकार थे। हालाँकि वह प्रोटीन को फ़्रीज़ करने में बेहतर हो रही है, राजन का मानना है कि उसके 10% से भी कम नमूनों के नतीजे अच्छे डेटा आए हैं। इसीलिए, भले ही शोधकर्ता एक शीर्ष क्रायो-ईएम माइक्रोस्कोप नहीं खरीद सकते, कई लोग एक स्क्रीनिंग मशीन चाहते हैं जो उच्च रिज़ॉल्यूशन छवियों के लिए राष्ट्रीय केंद्रों को भेजने से पहले कम से कम नमूनों की गुणवत्ता की जांच कर सके। यह रुसो और उनके सहयोगियों के लिए एक प्राथमिक प्रेरणा थी, जिसमें एलएमबी में नोबेल पुरस्कार विजेता रिचर्ड हेंडरसन शामिल थे, जिन्होंने क्रायो-ईएम का नेतृत्व किया था। टीम की प्रमुख अंतर्दृष्टियों में से एक यह थी कि इलेक्ट्रॉन बीम को आमतौर पर उच्च-स्तरीय क्रायो-ईएम माइक्रोस्कोप में उपयोग की जाने वाली ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती है। 100 किलोइलेक्ट्रॉनवोल्ट (केवी) का स्तर - एक तिहाई उच्च - आणविक संरचना को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है, और वे चिंगारी को बुझाने के लिए एक विनियमित गैस, सल्फर हेक्साफ्लोराइड की आवश्यकता को समाप्त करके लागत को कम करते हैं। टीम ने लेंस की प्रणाली में सुधार की गुंजाइश भी देखी जो इलेक्ट्रॉनों पर ध्यान केंद्रित करती है और डिटेक्टर जो नमूने की जांच के बाद उन्हें पकड़ लेता है। परिणामी प्रोटोटाइप के साथ, एलएमबी समूह ने 11 विविध प्रोटीनों की संरचना निर्धारित की। एक था आयरन-स्टोरिंग प्रोटीन एपोफेरिटिन, जिसका उपयोग क्रायो-ईएम बेंचमार्क के रूप में किया जाता है। एलएमबी शोधकर्ताओं ने इसे 2.6 एंगस्ट्रॉम पर मैप किया - जो हाइड्रोजन परमाणु के व्यास का 2.6 गुना है। रूसो का कहना है कि यह 1.2 एंगस्ट्रॉम के रिकॉर्ड क्रायो-ईएम रिज़ॉल्यूशन जितना ऊंचा नहीं है, लेकिन परमाणु मॉडल बनाने के लिए काफी अच्छा है। और प्रक्रिया तेज़ थी. क्योंकि माइक्रोस्कोप फ्रीजिंग चरण के रूप में उसी प्रयोगशाला में बैठा था, टीम जल्दी से जांच कर सकती थी कि उसके नमूने काफी अच्छे थे, बजाय किसी उच्च-स्तरीय मशीन से परिणामों के लिए हफ्तों इंतजार करने के। रुसो कहते हैं, "हर एक संरचना एक दिन से भी कम समय में तैयार की गई थी।" टॉप-एंड मशीन बनाने वाली थर्मो फिशर साइंटिफिक का कहना है कि वह पहले से ही क्रायो-ईएम बाजार का विस्तार कर रही है। 2020 में, इसने टुंड्रा नामक कम लागत वाला विकल्प बेचना शुरू किया, जो 100 केवी पर संचालित होता है। कंपनी के क्रायो-ईएम व्यवसाय की प्रमुख उपाध्यक्ष त्रिशा राइस कहती हैं, "ऐसे विश्वविद्यालय हैं जिन्होंने शायद कभी विश्वास नहीं किया था कि वे क्रायो-ईएम के मालिक हो सकते हैं, जिनके पास अब उपकरण हैं।" दरअसल, राजन के विश्वविद्यालय ने 1.5 मिलियन डॉलर में एक ऑर्डर दिया था। रूसो का कहना है कि टुंड्रा सही दिशा में एक कदम है, लेकिन उनकी टीम के नवाचार क्रायो-ईएम को और भी सस्ता बना सकते हैं। उदाहरण के लिए, वे कहते हैं, टुंड्रा शीर्ष-अंत सूक्ष्मदर्शी में उपयोग किए जाने वाले महंगे इलेक्ट्रॉन स्रोत के सरलीकृत संस्करण पर ऊर्जा को वापस डायल करता है, जबकि एलएमबी प्रोटोटाइप पर इलेक्ट्रॉन गन को शुरुआत से 100 केवी के लिए डिज़ाइन किया गया था। लेकिन वह समझते हैं कि उनकी टीम के डिज़ाइन के व्यावसायीकरण के लिए संभावित निर्माताओं द्वारा बड़े निवेश की आवश्यकता होगी। रूसो कहते हैं, ''हम उन सभी से बात कर रहे हैं।'' "लेकिन दिन के अंत में, यह उन पर निर्भर है
8:08 PM
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सर- फूफा किसे कहते हैं। छात्र- जी, फूफा एक रिटायर्ड जीजा होता है, जिसने एक जमाने में जिस घर में शाही पनीर खा रखा हो और उसे सुबह शाम धुली मुंग की दाल खिलाई जाए, उसका फू और फा करना वाजिब है, इसलिए ऐसे शख्स को फूफा कहना उचित है। प्र०: फूफा पर निबन्ध लिखिए। उत्तर: - फूफा बूआ के पति को फूफा कहते हैं। फूफाओं का बड़ा रोना रहता है शादी ब्याह में। किसी शादी में जब भी आप किसी ऐसे अधेड़ शख़्स को देखें जो पुराना, उधड़ती सिलाई वाला सूट पहने, मुँह बनाये, तना-तना सा घूम रहा हो। जिसके आसपास दो-तीन ऊबे हुए से लोग मनुहार की मुद्रा में हों तो बेखटके मान लीजिये कि यही बंदा दूल्हे का फूफा है ! ऐसे मांगलिक अवसर पर यदि फूफा मुँह न फुला ले तो लोग उसके फूफा होने पर ही संदेह करने लगते हैं। अपनी हैसियत जताने का आखिरी मौका होता है यह उसके लिये और कोई भी हिंदुस्तानी फूफा इसे गँवाता नहीं ! फूफा करता कैसे है यह सब ? वह किसी न किसी बात पर अनमना होगा। चिड़चिड़ाएगा। तीखी बयानबाज़ी करेगा। किसी बेतुकी सी बात पर अपनी बेइज़्ज़ती होने की घोषणा करता हुआ किसी ऐसी जानी-पहचानी जगह के लिये निकल लेगा, जहाँ से उसे मनाकर वापस लाया जा सके ! अगला वाजिब सवाल यह है कि फूफा ऐसा करता ही क्यों है ? दरअसल फूफा जो होता है, वह व्यतीत होता हुआ जीजा होता है। वह यह मानने को तैयार नहीं होता है कि उसके अच्छे दिन बीत चुके और उसकी सम्मान की राजगद्दी पर किसी नये छोकरे ने जीजा होकर क़ब्ज़ा जमा लिया है। फूफा, फूफा नहीं होना चाहता। वह जीजा ही बने रहना चाहता है और शादी-ब्याह जैसे नाज़ुक मौके पर उसका मुँह फुलाना, जीजा बने रहने की नाकाम कोशिश भर होती है। फूफा को यह ग़लतफ़हमी होती है कि उसकी नाराज़गी को बहुत गंभीरता से लिया जायेगा। पर अमूमन एेसा होता नहीं। लड़के का बाप उसे बतौर जीजा ढोते-ढोते ऑलरेडी थका हुआ होता है। ऊपर से लड़के के ब्याह के सौ लफड़े। इसलिये वह एकाध बार ख़ुद कोशिश करता है और थक-हारकर अपने इस बुढ़ाते जीजा को अपने किसी नकारे भाईबंद के हवाले कर दूसरे ज़्यादा ज़रूरी कामों में जुट जाता है। बाकी लोग फूफा के ऐंठने को शादी के दूसरे रिवाजों की ही तरह लेते हैं। वे यह मानते हैं कि यह यही सब करने ही आया था और वह अगर यही नहीं करेगा तो क्या करेगा, ज़ाहिर है कि वे भी उसे क़तई तवज्जो नहीं देते। फूफा यदि थोड़ा-बहुत भी समझदार हुआ तो बात को ज़्यादा लम्बा नहीं खींचता। वह माहौल भाँप जाता है। मामला हाथ से निकल जाये, उसके पहले ही मान जाता है। बीबी की तरेरी हुई आँखें उसे समझा देती हैं कि बात को और आगे बढ़ाना ठीक नहीं। लिहाजा, वह बहिष्कार समाप्त कर ब्याह की मुख्य धारा में लौट आता है। हालांकि, वह हँसता-बोलता फिर भी नहीं और तना-तना सा बना रहता है। उसकी एकाध उम्रदराज सालियां और उसकी ख़ुद की बीबी ज़रूर थोड़ी-बहुत उसके आगे-पीछे लगी रहती हैं। पर जल्दी ही वे भी उसे भगवान भरोसे छोड़-छाड़ दूसरों से रिश्तेदारी निभाने में व्यस्त हो जाती हैं। फूफा बहादुर शाह ज़फ़र की गति को प्राप्त होता है। अपना राज हाथ से निकलता देख कुढ़ता है, पर किसी से कुछ कह नहीं पाता। मनमसोस कर रोटी खाता है और दूसरों से बहुत पहले शादी का पंडाल छोड़ खर्राटे लेने अपने कमरे में लौट आता है। फूफा चूँकि और कुछ कर नहीं सकता, इसलिये वह यही करता है। इन हालात को देखते हुए मेरी आप सबसे यह अपील है कि फूफाओं पर हँसिये मत। आप आजीवन जीजा नहीं बने रह सकते। आज नहीं तो कल आपको भी फूफा होकर मार्गदर्शक मंडल का हिस्सा हो ही जाना है। अाज के फूफाओं की आप इज़्ज़त करेंगे, तभी अपने फूफा वाले दिनों में लोगों से आप भी इज़्ज़त पा सकेंगे। एक फूफा की दर्द भरी दास्तान, सभी फुफओ को समर्पित || फुफा पर िबन् समाप्त! Pavan Kumar "Paavan"
7:51 PM
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एक ग़ज़ल- भुला के हक़ीक़त जो सोता रहेगा, वो अश्क़ों से दामन भिगोता रहेगा। ग़रीबों को ज़ालिम सताते रहे हैं, न जागे वो, तब तो यह, होता रहेगा। किनारे-किनारे ही तैरा जो, उसको, डुबोता है दरिया, डुबोता रहेगा। वही मंज़िलें पा सका है, जो इंसां, इरादों में ख़्वाबों को बोता रहेगा। उसे फ़स्ल वो काटनी ही पड़ेगी, जिसे ज़िन्दगानी में बोता रहेगा। लुटा तू, पिटा तू, मगर कह रहे वो, तमाशा हुआ है, ये होता रहेगा। अदीबो क़लम हक़ की ख़ातिर उठाओ, नहीं तो ग़लत जो है, होता रहेगा। अदीब= साहित्यकार। 'Maahir'
7:50 PM
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#ग़ज़ल_غزل: ---------------------- दूँ क़र्ज़ कैसे, तुमको चुकाना तो है नहीं कारूँ का मेरे घर भी खज़ाना तो है नहीं//१ دوں قرض کیسے، تمکو چکانا تو ہے نہیں کاروں کا میرے گھر بھی خزانہ ٹو ہی نہیں//۱ हमको भी कौन उनके इरादों पे है यकीं उनको भी वादा करके निभाना तो है नहीं//२ ہمکو بھی کون اُنکے ارادوں پے ہے یقیں انکو بھی وعدہ کرکے نبھانا تو ہے نہیں//۲ क्यों देखते हो ख़्वाब मुहब्बत के इतने तुम ये ज़िंदगी है दोस्त,फ़साना तो है नहीं//३ کیوں دیکھتے ہو خواب محبّت کے اتنے تم یہ زِندگی ہے دوست، فسانہ تو ہے نہیں//۳ देखूँ मैं तुमको और न मचले तुम्हारा दिल इतना बुरा भी मेरा निशाना तो है नहीं//४ دیکھوں میں تمکو اور نہ مچلے تمہارا دِل اتنا برا بھی میرا نشانہ تو ہے نہیں//۴ सहने का हौसला रखो गर इश्क़ है तुम्हें शैदाई आशिक़ों का ज़माना तो है नहीं//५ سہنے کا حوصلا رکھو گر عشق ہے تمھیں شیدائی عاشقوں کا زمانہ تو ہے نہیں//۵ मुझपे वो आँख मूंद के कर लेगा क्यों यकीं इतना भी अपना रब्त पुराना तो है नहीं//६ مجھپے وہ آنکھ موند کے کر لیگا کیوں یقیں اتنا بھی اپنا ربط پرانا تو ہے نہیں//۶ या तो मिलूँ मैं मैक़दे या कू ए हुस्न में रिंदों का 'राज़' और ठिकाना तो है नहीं//७ یہ تو ملوں میں میکدے یہ کو اے حُسن میں رندوں کا راز اور ٹھکانہ تو ہے نہیں//۷ ' COLLECTION BY Maahir;" #راز_نوادوی (ایک انجان شاعر) कारूँ-किंवदंती में वर्णित एक राजा जो बहुत ही अमीर था शैदाई-आशिक़,लवर रब्त-संबंध,आत्मीयता कू ए हुस्न-सौंदर्य की गली रिंद-शराबी --------------------------------------------------------------------- #जनाब_अब्बास_ताबिश_साहिब_की_ग़ज़ल तुझ जैसा हर तरफ़ नज़र आना तो है नहीं दिल आईना है,आईना-ख़ाना तो है नहीं //१ تجھ جیسا ہر طرف نظر آنا تو ہے نہیں دل آئینہ ہے، آئینہ خانہ تو ہے نہیں ऐ हिज्र तू ही कर ले कोई शक्ल इख़्तियार बिछड़े हुओं ने लौट के आना तो है नहीं //२ اے ہجر تُو ہی کر لے کوئی شکل اختیار بچھڑے ہوؤں نے لوٹ کے آنا تو ہے نہیں क्यों ख़्वाब और साँप में रहती है कश्मकश आँखों की तह में कोई ख़ज़ाना तो है नहीं //३ کیوں خواب اور سانپ میں رہتی ہے کشمکش آنکھوں کی تہ میں کوئی خزانہ تو ہے نہیں तू ने भी इस बलन्दी से महताब की तरह आते दिखायी देना है आना तो है नहीं //४ تُو نے بھی اس بلندی سے مہتاب کی طرح آتے دکھائی دینا ہے,___\\ آنا تو ہے نہیں तुझसे म'आमला तो है ख़ुद से म'आमला तू ज़िंदगी है दोस्त ज़माना तो है नहीं //५ تجھ سے معاملہ تو ہے خود سے معاملہ تُو زندگی ہے دوست زمانہ تو ہے نہیں अब्बास_ताबिश عباس تابش ___________________________ मुहतरमा_रेहाना_रूही_साहिबा_की_ग़ज़ल तेरी गली को छोड़ के जाना तो है नहीं दुनिया में कोई और ठिकाना तो है नहीं //१ تیری گلی کو چھوڑ کے جانا تو ہے نہیں دنیا میں کوئی اور ٹھکانا تو ہے نہیں जी चाहता है काश वो मिल जाए राह में हालाँकि मोजज़ों का ज़माना तो है नहीं //२ جی چاہتا ہے کاش وہ مل جائے راہ میں حالانکہ معجزوں کا زمانا تو ہے نہیں इस घर में उस के नाम का कमरा हैआज भी जिस को कभी भी लौट के आना तो है नहीं //३ اس گھر میں اس کے نام کا کمرہ ہے آج بھی جس کو کبھی بھی لوٹ کے آنا تو ہے نہیں शायद वो रहम खा के मिरी जान बख़्श दे क़ातिल है कोई दोस्त पुराना तो है नहीं //४ شاید وہ رحم کھا کے مری جان بخش دے قاتل ہے کوئی دوست پرانا تو ہے نہیں अश्कों को'रूही'ख़र्च करो देख-भाल के आँखों के पास कोई ख़ज़ाना तो है नहीं //५ اشکوں کو روحیؔ خرچ کرو دیکھ بھال کے آنکھوں کے پاس کوئی خزانا تو ہے نہیں रेहाना_रूही ریحانہ روحی _________________________________ जनाब_रहमान_फ़ारिस_साहिब_की_ग़ज़ल बैठे हैं चैन से कहीं जाना तो है नहीं हम बे-घरों का कोई ठिकाना तो है नहीं //१ بیٹھے ہیں چین سے کہیں جانا تو ہے نہیں ہم بے گھروں کا کوئی ٹھکانا تو ہے نہیں तुम भी हो बीते वक़्त के मानिंद हू-ब-हू तुम ने भी याद आना है आना तो है नहीं //२ تم بھی ہو بیتے وقت کے مانند ہو بہو تم نے بھی یاد آنا ہے آنا تو ہے نہیں अहद-ए-वफ़ा से किस लिए ख़ाइफ़ हो मेरी जान कर लो कि तुम ने अहद निभाना तो है नहीं //३ عہد وفا سے کس لیے خائف ہو میری جان کر لو کہ تم نے عہد نبھانا تو ہے نہیں वो जो हमें अज़ीज़ है कैसा है कौन है क्यूँ पूछते हो हम ने बताना तो है नहीं //४ وہ جو ہمیں عزیز ہے کیسا ہے کون ہے کیوں پوچھتے ہو ہم نے بتانا تو ہے نہیں दुनिया हम अहल-ए-इश्क़ पे क्यूँ फेंकती है जाल हम ने तिरे फ़रेब में आना तो है नहीं //५ دنیا ہم اہل عشق پہ کیوں پھینکتی ہے جال ہم نے ترے فریب میں آنا تو ہے نہیں वो इश्क़ तो करेगा मगर देख भाल के 'फ़ारिस'वो तेरे जैसा दिवाना तो है नहीं //६ وہ عشق تو کرے گا مگر دیکھ بھال کے فارسؔ وہ تیرے جیسا دوانہ تو ہے نہیں रहमान_फ़ारिस رحمان فارس
7:42 PM
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Ghazal ग़म हों फिर भी ज़िन्दगी से दिल लगा के देखिए, और थोड़ा शायरी से दिल लगा के देखिए। कर चुके नुक्सान नासमझी में कितना आजतक, कुछ समझ की रोशनी से दिल लगा के देखिए। वक़्त आगे बढ़ रहा है, छोड़ कर हर चीज़ को, आप भी कुछ ताज़गी से दिल लगा के देखिए। रंग-रोगन से बहुत दिन दिल बहल सकता नहीं, मान्यवर, कुछ सादगी से दिल लगा के देखिए। इस मशीनी दौर में इंसानियत के वास्ते, आँख की भी कुछ नमी से दिल लगा के देखिए। आपको गुज़रा हुआ कुछ वक़्त याद आ जाएगा, हो सके तो चाँदनी से दिल लगा के देखिए। चाँद से चेहरों की रौनक फ़िक्र से होती है कम, कुछ तो 'शेखर' दिल्लगी से दिल लगा के देखिए। Maahir
7:41 PM
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Samvidhaan. देश की जनता ने, कुछ ऐसा लिखा है संविधान, लक्ष्य यह इंसानियत का, दे रहा है संविधान। ये बनाया है हमीं ने, "लोग हम भारत के" हैं, विश्व में सबसे सुखद ये, खिल रहा है संविधान। "लोक" के आलोक को, विस्तार देने के लिए, इस धरा को, स्वर्ग करने को, लिखा है संविधान। "लोग भारत के" जो हैं, उनकी तरक्की के लिए, देश-दुनिया को सजाने, को लिखा है संविधान। "राज्य गण" का ही रहे, औ काबिलों को पद मिलें, "आमजन की बात" कहने, को लिखा है संविधान। लोकमत की धारणा को, सच बनाने के लिए, सोच जनता की जगाने, को लिखा है संविधान। "पंथ से निरपेक्षता" हो, सोच “मानवता" रहे, वास्ते जनहित के जन ने, लिख दिया है संविधान। आमजन के वास्ते, हर काम हो जाए सहज, रंक को सामर्थ्य देने, को बना है संविधान। राष्ट्रपति के वास्ते भी, वोट की दरकार हो, इक नया इतिहास रचने, को रचा है संविधान। सब तरह की हो यहाँ, "आजादी" जनहित के लिए, ख़्वाब जनता के सजाने, को लिखा है संविधान। “नीति के निर्देश” हैं तो, “मूल हैं अधिकार” भी, “मूल कर्तव्यों” को शामिल, कर सजा है संविधान। "अवसरों की" हो यहाँ, "समता" सभी के वास्ते, ज़िन्दगी नैतिक बनाने, को लिखा है संविधान। "एकता” हो देश में, "इंसानियत” उद्देश्य हो, राज्य जनता का बनाने, को लिखा है संविधान। हैसियत का अब कोई, अंतर न हो इंसान में, भेदभावों को मिटाने, को लिखा है संविधान। देश की हर हाल में क़ायम रहे "इंटीग्रिटी", देश को "संप्रभु" बनाने, को खिला है संविधान। बाद करने के "सृजित” ये, "आत्म अर्पित" भी किया, दोस्तो जनहित की ख़ातिर, लिख दिया है संविधान। - वीरेन्द्र कुमार शेखर।
7:39 PM
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कविता : रसोईघर रसोईघर,... देखा है मैं ने, ताक कर नहीं, पत्नी की तरह ही, नाश्ता-खाना बनाकर; रसोईघर की उमस में, पसीने से नहाकर,प्याज के आंसू बहाकर,भात पकाकर, चोखा बनाकर और तड़का लगाकर, आटा गूंध कर,रोटी बेल कर,फुला कर। मैं नहीं मानता कि नहीं कर सकता मैं वह सब,जो करती हैं पत्नी दिन में अनगिनत बार जाकर,रसोईघर। लेकिन इस आधार पर नहीं कर सकता अंडरएस्टीमेट गृहणी के कार्य को,क्योंकि भात-रोटी,दाल-सब्जी,पापड़-चटनी भर नहीं है रसोई घर। नाश्ता-खाना बनाना तो, किसी गृहणी के कार्यों का सबसे छोटा हिस्सा होता है, कार्यों के बीच एक स्वनिर्मित मनोरंजन, अपनी और अपनों की पसंद से बनाने को व्यंजन; घर-द्वार,झाड़ू-पोछा,बर्तन-चौंका जैसे दिखने वाले और हमें नहीं दिखने वाले अनेक कार्यों की खान है 'रसोईघर'। जिस दिन किसी को महसूस हो जाएगा यह सच, डांट-डपट,प्रताड़ना का भाव जाएगा उतर, "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते,रमंते तत्र देवता:" का उभरेगा स्वर; नारियों को प्रति आ जाएगी संवेदना जिस दिन घर-घर में, थम जाएगी उनपर होने वाली हिंसा,घर में और सड़क पर! Pavan Kumar Sharma
7:36 PM
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एक ग़ज़ल- प्रेम में इन्कार भी इक़रार है, सोचिये क्या आपको इन्कार है। कण से कण के बीच जो दिखता लगाव, ज़िन्दगी का एक ये आधार है। प्रेम भाषा बंधनों से है परे, प्रेम तो बस भाव का संसार है। प्रेम में दुनिया समायी है मेरे, चर-अचर हर शय से मुझको प्यार है। शर्त कोई प्रेम में होती नहीं, तर्क के आगे का ये संसार है। प्रेम होता है स्वत: ही दोस्तो, जो हुआ करने से वो व्यापार है। तुम अभी से प्रेम में घबरा गए, इस सफ़र में कष्ट अपरम्पार है। प्रेम जिसको हो गया उसके लिए, प्रेम का हर कष्ट सुख का द्वार है। मशवरे के वास्ते आये हो तुम, प्रेम में हर मशवरा बेकार है। तुम बहक सकते हो कुछ सँभलो ज़रा, मेरे वश में दिल कहाँ अब यार है। ढूँढते हो प्रेम का कारण अबस, प्रेम का बस प्रेम ही आधार है। प्रेम से अस्तित्व में आया जहाँ, प्रेम ही संसार का आधार है। 'Maahir'
7:31 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ११ : ध्यानयोग के लिए स्थान और आसन का विवरण : शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरम् आसनम् आत्मन : । न अत्युच्छिृतम् न अतिनीचम् चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥११॥ शुद्ध स्थान पर पहुँचकर स्वयं अपना स्थिर आसन लगाए । जो न बहुत ऊँचा हो न नीचा हो वस्त्र, मृगछाला और कुश का आसन बिछाए ॥११॥ देश और आसन के संबंध में: ज्ञानेश्वरी के रचयिता संत ज्ञानेश्वर जो सिद्ध योगी थे, ने स्थान के बारे में कहा है कि “वह ऐसा होना चाहिए कि उसे देखते ही वैराग्य दुगुना हो जाय। जिस स्थान पर अपने आप अभ्यास हो जाता है और अनुभव स्वयं साधक के अंत:करण को माला पहना देता है और वैराग्य को थपथपाकर जाग्रत करता है । वह स्थान इतना पावन होना चाहिए कि वहाँ साक्षात ब्रह्म ही दृष्टिगोचर हो ।” “आसनम् आत्मन :” रामचरितमानस में शिव-पार्वती संवाद की भूमिका में महान योगेश्वर भगवान शिव का वर्णन करते हुए कवि लिखता है: परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिल उमा निवासू ॥ ८/ दोहा १०५ बालकांड तेहि गिरिपरबटबिटपबिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला ॥ एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥ निज कर डासि नागरिपु छाला बैठे सहजहिं संभु कृपाला ॥ २,४ ५/दोहा १०६ बालकांड ध्यान के लिए जैसे स्थान की आवश्यकता होती है और साोधक को जिस प्रकार निराभिमानी और वैराग्योन्मुख होना चाहिए उसका अत्यंत सटीक वर्णन है । Paavan Teerth
7:30 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे अध्याय ६: आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक १० : ध्यानयोग का वर्णन : योगी युंजीत सततम् आत्मानम् रहसि स्थित : । एकाकी यतचित्तात्मा निराशी : अपरिग्रह : ॥१०॥ एकाकी, एकान्त में होकर के स्थित मन, इन्द्रियों और शरीर को कर नियंत्रित आशा-रहित, संग्रह-रहित हो योगी निरन्तर आत्म को ब्रह्म मे रखता निमज्जित ॥१०॥ श्लोक में आए शब्दों पर विचार: योग : युज् समाधौ धातु से योग शब्द बना है जिसका अर्थ चित्त-वृत्तियों का निरोध करना है । एकाकी और एकान्त में स्थित होवे : ध्यान के लिए योगी अकेला हो और एकान्त स्थान में रहे । इसलिए “रहसि स्थित:” कहा। यतचित्तात्मा: साधक अन्त:करण सहित शरीर को वश में रखने वाला हो । अपरिग्रह:अर्थात अपने लिए सुख बुद्धि से कुछ भी संग्रह न करे। क्योंकि ऐसा करने से मन का खिंचाव उन्हीं में लगा रहेगा निराशी : बाहर के संग्रह के साथ भीतर के भोग और संग्रह की इच्छा का त्याग । आत्मानम् सततम् युंजीत : ध्यान से पहले यह दृढ़ निश्चय रखें कि अब मेरे को संसार का कोई काम नहीं करना है, केवल भगवान का ध्यान ही करना है। कर्मयोगी संसार में तो भगवान को मिलाये पर भगवान मे संसार को न मिलाए। Paavan Teerth.
7:26 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ५ और ६ : उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् । आत्मा एव हि आत्मन : बन्धु: आत्मा एव रिपु : आत्मन : ॥५॥ स्वयं ही तू स्वयं का उद्धार कर स्वयं तू बन ना कभी स्वयं के अवसाद का कारण कभी । क्योंकि आप ही तू मित्र अपना आप ही निज शत्रु है ॥५॥ बन्धु : आत्मा आत्मन : तस्य येन आत्मा एवआत्मना जित : । अनात्मन : तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् ॥६॥ समता-अवस्थित अन्त:करण जिसका ब्रह्म को सम देखता सब लोक में इसलिए स्वयं ही वह बंधु निज का । पर जीत न जो पाया स्वयं को वह स्वयं ही शत्रु बन जाता स्वयं का ॥६॥ अपना उद्धार करने में आत्मस्वातन्त्र्य : पूर्व श्लोक में श्री भगवान ने योगारूढ़ होने में अर्थात अपना उद्धार करने में मनुष्य को स्वतंत्र बताया। अब इन दो श्लोकों में, पहले अन्वय से और बाद में व्यतिरेक से, वर्णन किया है कि आत्मा अपना ही मित्र कब होता है और आत्मा अपना शत्रु कब हो जाता है । इसी तथ्य को अध्याय तेरह मे : समम् पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् । न हिनस्ति आत्मना आत्मानम् तत: याति पराम् गतिम् ॥२८॥ श्लोक पाँच और छह में आए “आत्मा “ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थ में : १. अंतरात्मा २. मैंपन अर्थात स्वयं ३. अन्त:करण या मन यहाँ श्री भगवान ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात जो कही ,वह यह है कि शास्त्र, संत, गुरु, सब आपका मार्गनिर्देश तो कर सकते हैं, यथा, तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम् ज्ञानिन : तत्वदर्शिन : ॥३४॥ निष्कर्ष में जो हमारे सहायक, रक्षक, उद्धारक, उनमें भी जब हम स्वयं से उनमें श्रद्धा-भक्ति करेंगे, उनकी बात मानेंगे तभी हमें तत्वज्ञान होगा अन्यथा वे हमारा उद्धार नहीं कर सकते। Paavan Teeth
7:22 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग क्रमश : श्लोक ७ : आत्मा का परमात्मा में लय करने की विधि : जितात्मन : प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित : । शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो : ॥७॥ स्वयं के आत्म को करके विजय शान्त अन्त:करण से । जो शीत-उष्ण , सुख-दु:ख को, और मान और अपमान को सम देखता उसको नित्य ही हैं प्राप्त रहते परमात्मा ॥७॥ परमात्मा में लीन होने की विधि : इस श्लोक में परमात्मा शब्द आत्मा के लिए ही प्रयुक्त है। देह का आत्मा सामान्यतः सुख-दु:ख, शीत-उष्ण, मान-अपमान में पड़ कर प्रकृति के गुणों से बद्ध रहने के कारण जीवात्मा कहा जाता है और इन गुणों से मुक्त होकर इन्द्रिय - संयम से वहीं परमात्मा हो जाता है ।तत्वत: शरीर में रहने वाला आत्मा ही परमात्मा है । देखिए: उपद्रष्टा अनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर: । परमात्मा इति च अपि उक्त: देहे अस्मिन् पुरुष: पर : ॥२२/ अध्याय १३॥ एक और महत्वपूर्ण बात श्लोक में शरीर. मन और विवेक को स्थिर रखने की, शीत-उष्ण, सुख-दु:ख और मान-अपमान को मनको जीत कर प्रशान्त रहने के लिए कहकर कही गयी है । Paavan Teerth.
6:43 PM
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Kavita(Brahmin) जो जगा नहीं,वह रोयेगा! जो बचा उसे भी खोएगा! सब एक कंठ मिलकर गाओ! बट चुके बहुत अब और नहीं! बिन मिले हमारा ठौर नहीं! यह रात बड़ी भय वाली है! आँधी ने भुजा उठा ली है! बुझ रहे हमारे दीप सकल! डाकू के उमड़े हैं दल बल! स्थिति बिल्कुल त्रेता वाली! जब उठा परशु था विकराली! जब न्याय विमर्दित होता है! सारा समाज जब रोता है! तब ब्राह्मण पोथी तज देता! सौगंध विपुल यह ले लेता! जब तक अधर्म न डोलेगा! तब तक यह लोहित खौलेगा! टंकार परशु की हो जाये! सच आज फैसला हो जाये! 'Paavan Teerth'
6:35 PM
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Kavita (Brahmin) जो जगा नहीं,वह रोयेगा! जो बचा उसे भी खोएगा! सब एक कंठ मिलकर गाओ! बट चुके बहुत अब और नहीं! बिन मिले हमारा ठौर नहीं! यह रात बड़ी भय वाली है! आँधी ने भुजा उठा ली है! बुझ रहे हमारे दीप सकल! डाकू के उमड़े हैं दल बल! स्थिति बिल्कुल त्रेता वाली! जब उठा परशु था विकराली! जब न्याय विमर्दित होता है! सारा समाज जब रोता है! तब ब्राह्मण पोथी तज देता! सौगंध विपुल यह ले लेता! जब तक अधर्म न डोलेगा! तब तक यह लोहित खौलेगा! टंकार परशु की हो जाये! सच आज फैसला हो जाये! Paavan Teerth
6:24 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ६: आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ३ और ४ : साधक से सिद्ध होने तक : आरुरुक्षो : मुने : योगम् कर्म कारणम् उच्यते । योगारूढस्य तस्य एव शम : कारणम् उच्यते ॥३॥ योग में आरूढ़ मुनि की सफलता मैं निष्काम कर्म बनते हेतु हैं । योग में आरूढ़ जन के कर्म-संकल्प चुक गए होते सभी ॥३॥ यदा हि न इनि्द्रयार्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढ : तदा उच्यते ॥४॥ जब कभी इन्द्रियों की भोग-इच्छा और कर्म में आसक्ति शेष रहती है नहीं । तब ही सभी - संकल्प-त्यागी योग में आरूढ़ कहलाते तभी ॥ ४॥ साधक से सिद्ध-कर्मयोगी तक : इसी अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा गया: अनाश्रित: कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति य: स: संन्यासी च योगी च न निरग्नि न च अक्रिय: ॥१॥ इसलिए तीसरे श्लोक तक आते-आते “शम:” का यह अर्थ करना कि योगारूढ़ हो जाने पर कर्म छोड़ देना अन्यायपूर्ण है । इसका अर्थ इतना भर है कि योगारूढ़ कर्मशील का शम अर्थात मन की शांति का कारण हो जाता है ।योगारूढ कर्मयोगी को लोकसंग्रहकारक कर्म करने के लिये अब “शम” “कारण “ या साधन हो जाता है यद्यपि उसका अब कर्म में कोई स्वार्थ नहीं रह गया है । पिछले पाँचवें अध्याय में ही कहा है: युक्त: कर्मफलम् त्यक्त्वा शान्तिम् आप्नोति नेष्ठिकीम् (श्लोक १२/अध्याय ५)। चौथे श्लोक में आए प्रकृति का अंश जानकर इनि्द्रयों और उनसे सम्पन्न होने वाली क्रियाओं में आसक्ति का सर्वथा त्याग कर संसार से प्राप्त साधनों को संसार की सेवा में निष्काम भाव से लगा देना चाहिए । इस प्रकार सभी संकल्पों का त्याग कर लोकमंगल के लिए कर्म करने वाला कर्मयोगी सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है । Paavan Teerth
8:12 PM
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ग़ज़ल- दूर करने को बलाएं आजकल की, कुछ मदद लेनी पड़ेगी अब अनल की। झूठ उनका खिलखिला के हँस रहा जब, याद आई तब उन्हें फिर गंगाजल की। सत्य से आँखें चुराकर मीडिया अब, दे रही है बस ख़बर अब राशिफल की। बात हक़ की कर रहा जो भी उसे तो मिल रही धमकी मुसलसल रायफल की। पीढ़ियों की अब उन्हें चिंता कहाँ है, सोचते हैं वो महज बस आजकल की। बागबाँ की मस्लेहत को देखकर अब, रूह कांपी दोस्तो हर फूल-फल की। स्वार्थ का गहरा कुहासा छा रहा है, अब हवा से गंध आती है गरल की। बात दिल की आप तक पहुँचा सके बस, इसलिए ही ली मदद उसने ग़ज़ल की। सोचता, लिखता है अब दिनरात 'शेखर', फ़िक्र से है आँख जो उसने सजल की। Maahir
8:04 PM
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प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जुर्रत न गर रही तो कहाँ ज़िन्दगी रही, राहें सहल हुईं, जो ये ज़िन्दादिली रही। जाने को जान भी ये चली जाएगी कभी, वो काम करगुज़र कि लगे ज़िन्दगी रही। उसकी ही यह कृपा है बड़ी, मुझ पे दोस्तो, जो सोच में मेरी ज़रा आवारगी रही। जो कामयाब हो न सके, गौर वो करें, ढूँढेंगे तो मिलेगी जो उनकी कमी रही। देखे न जानबूझ के जब वो मेरी तरफ़, तो ज़िन्दगी लगी कि वहीं पर रुकी रही। परछाइयों के क़द पे तो इतना न कर गुरूर, छोड़ेंगी साथ जो न कहीं रोशनी रही। वो रेल, बस, जहाज सभी बंद से हुए, ऐसी बुरी दशा न कभी विश्व की रही। कोरोना वायुयान से आया था देश में, हलकान चप्पलों पे बहुत मुफ़लिसी रही! 'Maahir'
8:00 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : छठा अध्याय : प्रस्तावना और श्लोक १। : प्रस्तावना : पिछले पाँचवें अध्याय में निष्काम कर्मयोगी के लिए श्लोक २५ से योगी के लिए जो व्यवहारिक बातें बताई गई थीं उन्हीं का वर्णन इस अध्याय में विस्तार से किया गया है और अंत में अर्जुन को निराश न होकर अभ्यास और वैराग्य के द्वारा सतत् लगे रहने से शान्तब्रह्म से एकमेक होश्रद्धा-संयुक्तहोकर योगियों में भी परमश्रेष्ठ होने का आश्वासन दिया है । छठे अध्याय को श्रीगीता के भाष्यकारों ने विभिन्न नाम दिए हैं , यथा, ध्यान -योग, अध्यात्म योग, चित्तवृत्ति -निरोध योग, प्रमुख हैं । छठे अध्याय से पूर्व के अध्याय दो से पाँच मे श्री भगवान ने ज्ञान के विभिन्न आयामों का कलेवर प्रस्तुत किया और इस अध्याय में कहा कि हे मानव ! अब मैं तुझे बताता हूँ कि परब्रह्ममय होने के लिए किस प्रकार तुझे अपने शारीरिक और मानसिक क्रिया-कलापों को साधना है । श्री गीता हमें अपना व्यवहार शुद्ध और निर्मल रखकर मन का समाधान और शांति प्राप्त कर परमार्थ के मार्ग पर अग्रसर करती है । गीता हमें यथास्थान, जैसे हैं, जो कर रहे हैं, वहाँ पर ही न छोड़ कर, हाथ पकड़ कर आगे ले जाती है, ऊपर उठाती है और परमार्थिक रूप से सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कराती है । सूत्र रूप में कहें तो तीसरे अध्याय के: कर्मण : हि अपि बोद्धव्यम् बोद्धव्यम् च विकर्मण : । अकर्मण: च बोद्धव्यम् गहना कर्मण : गति : ॥१७॥ विकर्म अर्थात विशेष कर्म , मन का वह संयोग जिससे मिल कर कर्म में श्रेष्ठता आती है , बताती है । मानसिक साधना की मुख्य बातें : १. चित्त की एकाग्रता २. चित्त की एकाग्रता के लिए उपयुक्त जीवन परिमितता ३. सम-दृष्टि अथवा मंगल दृष्टि ४. वैराग्य ५. अभ्यास का पाठ पढ़ाती हुई अंत में साधक को श्रद्धामय बने रहने का संदेश देती है । श्री भगवान उवाच : अनाश्रित: कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति य : । स: संन्यासी च योगी च न निरग्नि: न च अक्रिय : ॥१॥ श्री भगवान उवाच : कर्मफल आश्रित न हो कर करणीय कर्म करता जो नर । वही संन्यासी, वही योगी अक्रिय, अग्नि का त्यागी नहीं ॥१॥ श्रीमद्भगवद्गीता का प्रमुखतम संदेश : मनुष्यमात्र को शास्त्र विहित सभी कर्म बिना कर्मफल की आशा के करते रहना चाहिए । जो ऐसा करता है वही सच मे योगी है, वही संन्यासी कहलाने योग्य है केवल सब काम-धाम छोड़ कर गृहस्थों के लिए आवश्यक अग्नि सेवन छोड़ने वाला संन्यासी नहीं । यहाँ स्पष्टत: श्री भगवान ने कहा है कि कर्म किसी अवस्था में न छूटते हैं, न छोड़ने की आवश्यकता है केवल कर्मों से फलाशा और आसक्ति के त्याग की आवश्यकता है । Pavan Kumar Sharma (Paavan Teerth)
6:25 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : आत्म-आनन्द में निमग्न योगी का वर्णन : य : अन्त:सुख : अन्तराराम : तथा अन्तर्ज्योति : एव य : । स : योगी ब्रह्मनिर्वाणम् ब्रह्मभूत : अधिगच्छति ॥२४॥ अन्तरात्मा में सुखानुभूति कर आत्मा में रमा रहता नित्य जो आत्मा के ज्ञान से प्रकाशित जो वही ब्रह्म के साथ एकात्म हुआ ब्रह्म को प्राप्त हुआ योगी है ॥२४॥ ब्रह्म मे मग्न योगी का अन्तर : पिछले तीन श्लोकों में बाह्य संस्पर्शों से युक्त योगी किस प्रकार प्रतिक्रिया करता है तो अब ऐसे योगी की आन्तरिक स्थित का वर्णन करते हैं । १. ऐसे योगस्थ साधक को प्रकृतिजन्यबाह्य पदार्थों मे सुख नहीं अनुभव होता, प्रत्युत एकमात्र परमात्मा मे ही सुख का अनुभव होता है, इसीलिए उसको “अन्त :सुख “ कहा । २. यह साधक भोगों में नहीं रमता,प्रत्युत केवल परमात्म-तत्व मे ही रमण करता है इसलिए उसे “अन्तराराम :” कहा। ३. सभी ज्ञान और उनका प्रकाशक इन्द्रियाँ और बुद्धि न होकर केवल परमात्मतत्व का ज्ञान है इसीलिए यहाँ “अन्तज्योति :” कहा गया है । जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ज्ञान गुन धामू ॥ तुलसीकृत रामचरितमानस ऐसा साधक “ब्रह्मभूत” अर्थात अपना अहं खोकर तत्वनिष्ठ होकर “ ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त कर लेता है और साधक ब्रह्ममय हो जाता है: ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति ब्रहदारण्यकोपनिषद (४।४।६।) 'Paavan Teerth'
6:19 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक २३ : काम और क्रोध के वेग को सहन करने वाला ही सुखी : शक्नोति इह एव य : सोढुम् प्राक् शरीरविमोक्षणात् कामक्रोधोद्भवम् वेगम् स : युक्त : स : सुखी नर : ॥२३॥ शरीर रहते जो है समर्थ काम-क्रोध के वेग को सहने में सक्षम । वही जन है योगी वहीं जन है सुखी ॥२३॥ इन्द्रिय-जन्य विषयों के संताप के संदर्भ में काम-क्रोध पर विजय: श्लोक में एक बहुत ही महत्वपूर्ण वाक्यांश है,”प्राक् शरीरविमोक्षणात्” , अर्थात शरीर छूटने से पहले , क्योंकि मृत् शरीर पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता। इस संदर्भ में नारदपरिव्राजकोपनिषद का नारद का पितामह ब्रह्मा से पूछे गए प्रश्न , कि संन्यास का अधिकारी कौन? का उत्तर दृष्टव्य है : “प्राणे गते यथा देह :सुखं दु:खं न विन्दति । तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत ॥तीसरा उपदेश/२७॥ हमारा शरीर : छिति, जल , पावक , गगन, समीरा । पंच रचित यह अधम सरीरा ॥ होने के कारण व्यष्टि में प्रकृति का अंश है और परमात्म से भिन्न है और क्षेत्र है : “इच्छा द्वेष सुखम् दु:खम् संघात : चेतना धृति : । एतत् क्षेत्रम् समासेन सविकारम् उदाह्रतम् ॥६/ अध्याय १३॥ इस प्रकार इन विकारों से अनिद्विग्न होने वाला ही सच्चा कर्मयोगी है ।
4:32 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक २१ : ब्रह्म- युक्त योगी का बाहरी संसार से व्यवहार : बाह्यस्पर्शेषु असक्तात्मा विन्दति आत्मनि यत् सुखम् । स : ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखम् अक्षयम् अश्नुते ॥२१॥ बाहर के विषयों से रह अनासक्त जो आत्मानन्द में रहते निमग्न । स्थित हो नित ब्रह्मध्यान अक्षय सुख का अनुभव करते ॥२१॥ ब्रह्मानन्द में मग्न योगी : पिछले बीसवें श्लोक में स्थिर बुद्धि और संशय-रहित ब्रह्म-स्थित योगी के संसार के मानसिक और बौद्धिक व्यवहार की चर्चा की गई तो अब इस श्लोक में उसके इन्द्रियजन्य व्यवहार का वर्णन किया गया है ।ऐसा योगी अनासक्त रहकर ब्रह्मसुख का अक्षय सुख प्राप्त कर लेता है और सदा उसी में निमग्न रहता है । 'Paavan Teerth '
4:23 PM
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ग़ज़ल- सियासी सोच में यारो ग़रीबों की क़ज़ा-सी है, इसी से दिख रही हर सिम्त ये गहरी उदासी है। पढ़े-लिक्खे भी करते हैं जहालत की बहुत बातें, ग़रीबों को सताने में मियाँ सबकी रज़ा-सी है। न शिक्षा, नौकरी, सेहत, न खाने की उचित चीज़ें, युवाओं में सहन करने की ताक़त तो धरा-सी है। हटाने के किए वादे सभी नेता, न हट पाई, ग़रीबी तो लगे साहिब कि जैसे बेहया-सी है। न अवसर हो बराबर का तो कैसे अद्ल है मुमकिन? ये मुफ़लिस की तो मुझको ज़िन्दगी लगती सज़ा'सी है। नशे में झूमती जनता अभी तक जाति-धर्मों के, कि जैसे अक़्ल को उसने बता रक्खी धता-सी है। बढ़े चीज़ों की जब कीमत, कहाँ अब शोर मचता है? भुला कर कष्ट जनता ले रही इसमें मज़ा-सी है। कज़ा=मृत्यु, ज़हालत=मूर्खता, रज़ा=सहमति,धरा=पृथ्वी, बेहया= बेशर्म, जो आसानी से नष्ट न हो सके, अद्ल =न्याय (सम्पूर्ण न्याय) 'Maahir'
7:25 PM
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प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जब उसके रास्ते में हम भवन अपने बनाते हैं, नदी के एक दिन दोनों किनारे बोल जाते हैं। बुरा जब वक़्त आता है, अजब मंज़र ये दिखता है, वो जो मज़बूत लगते हैं सहारे, बोल जाते हैं। बुढ़ापे में ज़रूरत जब अधिक होती है सेवा की, ज़ियादा जो हुआ करते दुलारे, बोल जाते हैं। समझ वाले समझते हैं, ज़रा सा ग़ौर करते ही, ज़ुबाँ गर चुप रहा करती, नज़ारे बोल जाते हैं। बहस में जाति-पंथों के किसी मुद्दे पे जब आते, बहुत जो ख़ास बनते हैं तुम्हारे, बोल जाते हैं। मंज़र=दृष्य 'Maahir'
7:22 PM
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ग़ज़ल- ए.आई.दौर में जज़्बे बचाना सीख लो साहिब, ज़रा इंसानियत से दिल लगाना सीख लो साहिब। ए.आई.= A.I=Artificial Intelligence कड़ी मेहनत से पाया है ये तुमने जो मुक़ाम ऊँचा, अना को भी ज़रा अपनी झुकाना सीख लो साहिब। मुकाम=स्थान, अना=अहंकार दिलाई थी क़सम तुमने न रक्खें राब्ता हम से, मेरे ख़्वाबों से भी तो दूर जाना सीख लो साहिब। राब्ता=सम्बन्ध बुरा गर वक़्त आया तो,तजुर्बा काम आयेगा, ज़रा मिल-बाँट के जीवन चलाना सीख लो साहिब। कभी करते हैं वह भी,जिससे वो इंकार करते हैं, सही अनुमान लहजों से लगाना सीख लो साहिब। तजुर्बा है मेरा ये काम होता है इबादत-सा, किसी रोते हुए जन को हँसाना सीख लो साहिब। 'वही’ का आसमानों से तो अब आना न है मुमकिन, जहां अपने तजारिब से सजाना सीख लो साहिब। वही=आदमी को सही रास्ता दिखाने वाली आसमानी किताब 'Maahir'
7:17 PM
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ग़ज़ल- सोच में जब ज़रा सादगी आ गई, ज़िन्दगी में मेरी, हर ख़ुशी आ गई। काम जनहित के जब भी वो करने लगे, बीच में इक न इक बेबसी आ गई। दर्दो ग़म जब ज़ियादा बढ़े दोस्तो, जां बचाने मेरी दिल्लगी आ गई। रास्ता उसका रोका तरक़्क़ी ने जब, बाढ़ पे शान्त सी वो नदी आ गई। हो चुकी जब तबाही, तो टूटा भरम, फिर समझ दोस्तो, काम की आ गई। कोशिशों ने भी जब हार मानी नहीं तब अँधेरों से भी रोशनी आ गई। 'सच' को 'सच' कह सका जब सलीके से मैं, लोग कहने लगे शायरी आ गई। बन्दगी=प्रार्थना, भरम=भ्रम, आतिशी=आग जैसी 'Maahir'
7:15 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेच्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १९ : ब्रह्मवेत्ता का वर्णन : इह एव तै : जित : सर्ग : येषाम् साम्ये स्थितम् मन : । निर्दोषम् हि समम् ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिता : ॥ १९॥ जिनका मन समता में स्थित उन्होंने जीत लिया संसार सभी। क्योंकि सम-निर्दोष ब्रह्म है जैसे वे भी ब्रह्मभाव में स्थित वैसे ॥१९॥ ब्रह्म-वेत्ता कैसा ? सर्वत्र और सदा समभाव में रहने वाला जो “एकमेवाद्वितीयम्”ब्रह्म है वह मैं ही हूँ । जो विषयों का संग त्यागे बिना और इन्द्रियों का दमन किये बिना कामनारहित होकर नि:संगता का भोग करता है,जो सामान्य जन की ही भाँति सब प्रकार के आचरण करता है,परन्तु सांसारिक वस्तुओं का अज्ञानजन्य मोह त्याग देता है। समदृष्टि उस व्यक्ति का विशेष लक्षण होता है ।इसी समता को गीता ने योग कहा है-“समत्वं योग उच्यते” (२/४८) और इसकी प्राप्ति को ही गीता मनुष्य-जन्म की पूर्णता मानती है और ऐसा ही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है । Paavan Teerth.
7:14 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १८ ज्ञानी कर्मयोगी की दृष्टि : विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे , गवि , हस्तिनि । शुनि च एव श्वपाके च पण्डिता : समदर्शिन : ॥१८॥ विनयशील विद्वान ब्राह्मण में गौ, हाथी, श्वान से लेकर चाण्डाल तक में ज्ञानी सभी में देखता एक ही परमात्म को ॥१८॥ ज्ञानी के बाह्य व्यवहार का विवरण : पिछले श्लोक सत्रह में आए “ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: “ अर्थात ज्ञान से जिसके सारे कल्मष नष्ट हो गए हैं ,ऐसा साधक सांसारिक धरातल पर विद्वान और विनयशील ब्राह्मण से लेकर सबसे निम्न श्रेणी का कार्य करने वाले चाण्डाल और पशुओं में गौ, हाथी और कुत्ते तक में परमात्म की दृष्टि से सम भाव रखता है ।इस श्लोक को इसी अध्याय के सातवें श्लोक के विशुद्ध आत्मा और अन्त:करण वाले जितेन्द्रिय कर्मयोगी के “सर्वभूतात्मभूतात्मा का ही स्पष्टीकरण समझना चाहिए । 'Paavan Teerth'
7:12 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १७ : परमात्म-तत्व को प्राप्त साधक की स्थिति: तद् बुद्धय : तदात्मान : तन्निष्ठा : तत्परायणा : । गच्छन्ति अपुनरावृत्तिम् ज्ञाननिर्धूतकल्मषा : ॥१७॥ ज्ञान से कर नष्ट पाप-समूह को बुद्धि, मन सब कर समाहित ब्रह्म मे होकर परायण प्राप्त होता अपुनरावर्तिनी परमगति को ॥१७॥ ज्ञान के सूर्य के प्रकाश में : साधक विवेक के द्वारा असत का त्याग करने पर स्वत: सत् स्वरूप में स्थित हो जाता है । इस कारण मन से स्वत:- स्वाभाविक परमात्मा का ही चिन्तन होने लगता है और तब वह हर समय परमात्मा में स्वयं की स्वत:-स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करता है और अपनी सत्ता परमात्मा की सत्ता में लीन कर देता है । इस प्रकार सत-असत् के विवेक की जागृति होने पर असत् की सर्वथा निवृत्ति हो जाती हैं और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है । Paavan Teerth.
7:10 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५: कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १६ : सूर्य के प्रकाश के सदृश ज्ञान , अज्ञान को नाश कर परमात्म-तत्व का साक्षात्कार करवा देता है: ज्ञानेन तु तत् अज्ञानम् येषाम् नाशितम् आत्मन : । तेषाम् आदित्यवत् ज्ञानम् प्रकाशयति तत्परम् ॥१६॥ ज्ञान के आलोक से अज्ञान का नाश है जिन ने किया । ज्ञान साधन सूर्य सम अपने प्रकाशसे प्रगट करता परमात्म को ॥१६॥ अज्ञान का नाश होने पर ज्ञान -सूर्य का प्रकाश और इस प्रकार मैं- मेरापन-ममता का मोह नाश होने पर परमात्म-तत्व का विवेक: पिछले पन्द्रहवें श्लोक के सूत्र, “अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् “ के अज्ञान का आवरण हटने पर ज्ञान अर्थात विवेक होने पर सूर्य के सदृश प्रकाश में उस परम परमात्म - तत्व की अनुभूति । Paavan Teerth.
7:04 PM
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ग़ज़ल ------------------------ माँग लू बोसा तो इक दम से बिगड़ जाता है प्यार की बात पे भी यार तू लड़ जाता है //१ مانگ لو بوسہ تو اک دم سے بگڑ جاتا ہے پیار کی بات پے بھی یار تو لڑ جاتا ہے //١ इश्क़ की धार को बेहतर है रवाँ रक्खें हम पानी ठहरा रहे तो तय है कि सड़ जाता है //२ عشق کی دھار کو بہتر ہے رواں رکھے ہم پانی ٹھہرا رہے تو طے ہے کہ سڑ جاتا ہے //٢ रिश्ते भी ऐंठने लगते हैं नहीं मिलने से जैसे कपड़ा कई सालों का जकड़ जाता है //३ رشتہ بھی اینٹھنے لگتے ہیں نہیں ملنے سے جیسے کپڑا کئی سالوں کا جکڑ جاتا ہے //٣ हम भी कुछ शह्रे नवादा से कटे हैं ऐसे जैसे मिट्टी से कोई पेड़ उखड़ जाता है //४ ہم بھی کچھ شہر نوادہ سے کٹے ہیں ایسے جیسے مٹی سے کوئی پیڑ اکھڑ جاتا ہے //۴ जबकि रह जाते हैं शह्रों में हज़ारों भूखे खाना लाखों घरों में रोज़ ही सड़ जाता है //५ جبکہ رہ جاتے ہیں شہروں میں ہزاروں بھوکھے کھانا لاکھوں گھروں میں روز ہی سڑ جاتا ہے //۵ यूँ ही मिलता नहीं है काम मुसलसल हमको उसपे हर हफ़्ते में इतवार भी पड़ जाता है //६ یوں ہی ملتا نہیں ہے کام مسلسل ہم کو اسپے ہر ہفتے میں اتوار بھی پڑ جاتا ہے //۶ कितना करता है वफ़ा मुझसे पड़ोसी मेरा हफ़्ते दो हफ़्ते में वो आ के झगड़ जाता है //७ کتنا کرتا ہے وفا مجھ سے پڑوسی میرا ہفتے دو ہفتے میں وہ آ کے جھگڑ جاتا ہے //٧ ऐसी भी औरतें देखी हैं हमेशा जिनसे कुछ ज़ियादा ही नमक खाने में पड़ जाता है //८ ایسی بھی عورتیں دیکھی ہیں ہمیشہ جن سے کچھ زیادہ ہی نمک کھانے میں پڑ جاتا ہے //٨ 'राज़' क्यों रब ने बनाई है तबीअत ऐसी नर्म इतना हूँ आ के कोई भी चढ़ जाता है //९ 'راز' کیوں رب نے بنائی ہے طبیعت ایسی نرم اتنا ہوں، آ کے کوئی بھی چڑھ جاتا ہے //٩ 'Maahir' बोसा- चुम्बन, प्रेम के आवेग में होंठ आदि अंगों को स्पर्श करने या या दबाने की क्रिया रवाँ- प्रवहमान शह्रे नवादा- नवादा शह्र, मेरा आबाई शह्र मुसलसल- लगातार
7:01 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १५ : स्वरूप ज्ञान के अभाव में जीव मोहित हैं : न आदत्ते कस्यचित् पापम् न च एव सुकृतम् विभु : । अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् तेन मुह्यन्ति जन्तव : ॥१५॥ न ही किसी के पाप को और न ही सुकृत कर्म को ग्रहण करता विभु कभी । मोहित हुए सब जीव हैं क्योंकि अज्ञान से ढका उनका ज्ञान है ॥१५॥) क्यों परमात्मा किसी जीव का पाप और पुण्य नहीं लेता ? प्रकृति के परवश हुआ जीव अपने स्वरूप को भूल कर स्वयं को कर्मों का कर्ता मान बैठता है और सुखी और दुखी होता है । जबकि परमात्मा सत् चित् और आनन्दमय है और जीव उसका अंश होने से उसका स्वरूप भी वही है : “ईस्वर अंस जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥ सो मायाबस भयउ गोसाईं । बँध्यो कीर मरकट की नाईं ॥ जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई।जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥ चौपाई २-३-४/दोहा ११७ उत्तरकांड - रामचरितमानस अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् : ऊपर कहे अनुसार अपने को ईश्वर का अंश है यह भूल कर बैठता है कि वह कर्ता है इसलिए परमात्मा उसके कर्मों का भागी नहीं बनता ।यदि मनुष्य सद्भाव से किए अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित कर देता है तो उसे कर्म नहीं बाँधते। ऐसे अज्ञानी मनुष्यों के लिए भगवान ने ताड़ना करते हुए शब्द प्रयोग किया “जन्तु” अर्थात कीड़े मकोड़े के समान। 'Paavan Teerth'
6:56 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रों : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ८ और ९ : तत्त्वज्ञानी का अकर्तापन : न एव किंचित् करोमि इति युक्त : मन्येत तत्त्ववित् । पश्यन्, श्रृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्, अश्नन्, गच्छन्, स्वपन्, श्वसन् ॥८॥ प्रलपन्, विसृजन्, गृह्वन्, उन्मिषन्, निमिषन्, अपि । इन्द्रियाणि , इन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इति धारयन् ॥९॥ तत्त्वज्ञानी स्वयम् को रखकर अलग देखता, सुनता, स्पर्श करता, सूँघता और जीमता पैर से चल कर जाता ॥८॥ या कि सोकर, साँस लेता, बात करता त्यागता मल-मूत्र को , ग्रहण करता हाथ से आँखों को खोलता और बंद करता हुआ भी ऐसा समझता, इन्द्रियां ही इन्द्रियों के लिए करती काम कुछ नहीं करता स्वयं से वह ॥९॥ आइए विचार करें : ऊपर के श्लोक सात में जिस योगयुक्त शुद्ध अन्त:करण मन वश में किए जितेन्द्रिय की चर्चा अपने समान सभी भूत प्राणियों की चर्चा हुई थी वही अपने शरीर के कार्य- कलाप को किस प्रकार देखता है उसकी चर्चा इन दो श्लोकों में हुई है । यहाँ पाँचों ज्ञानेंद्रियों और पाँचों कर्मेन्द्रियों और उनके कार्यों की चर्चा के साथ सोना-अन्त:करण की क्रिया श्वास लेना- प्राण की और आँखों का खोलना और मूँदना- कूर्म नामक उपप्राण की बात हुई है । ये सभी क्रियायें प्रकृति मे हो रही हैं स्वरूप में नहीं । संक्षेप में तुलसी की भाषा में कहें तो : “जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। मायाधीश ज्ञान गुणधामू ॥ 'Paavan Teerth'
6:53 PM
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प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- सोच में जब ज़रा सादगी आ गई, ज़िन्दगी में मेरी, हर ख़ुशी आ गई। काम जनहित के जब भी वो करने लगे, बीच में इक न इक बेबसी आ गई। दर्दो ग़म जब ज़ियादा बढ़े दोस्तो, जां बचाने मेरी दिल्लगी आ गई। रास्ता उसका रोका तरक़्क़ी ने जब, बाढ़ पे शान्त सी वो नदी आ गई। हो चुकी जब तबाही, तो टूटा भरम, फिर समझ दोस्तो, काम की आ गई। कोशिशों ने भी जब हार मानी नहीं तब अँधेरों से भी रोशनी आ गई। 'सच' को 'सच' कह सका जब सलीके से मैं, लोग कहने लगे शायरी आ गई। बन्दगी=प्रार्थना, भरम=भ्रम, आतिशी=आग जैसी 'Maahir'
2:16 PM
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प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- कठिन वो रास्ते अपनी जगह हैं, रवाँ कुछ क़ाफ़िले अपनी जगह हैंl अँधेरे खुश हैं, सूरज ढल रहा जो, वो जुगनू नाचते अपनी जगह हैं ज़ुबाँ खुलने से पहले लोग देखो, इशारे भाँपते अपनी जगह हैंl करें जमहूरियत की बात लेकिन, अधर उनके सिले अपनी जगह हैं। जमहूरियत=प्रजातंत्र क़फ़स की तीरगी के बाद भी तो, दहकते हौसले अपनी जगह हैं। क़फ़स=क़ैदखाना, तीरगी=अँधेरा बधाई चंद्रयानों की है उनको, ज़मीं के मसअले अपनी जगह हैं। मसअले= प्रकरण 'Maahir'
2:12 PM
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प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- सभी क़ानून लिख डाले उन्होंने आज, काग़ज़ पर, हुआ है देश में क़ानून का अब राज, काग़ज़ पर। ग़रीबों को दिलाने अद्ल सब नेता लगे कब से, किये जाते हैं निर्बल के मगर बस काज काग़ज़ पर। अद्ल=न्याय पहुँच वाला जो ज़ालिम है, मदद करते हैं सब उसकी, बची नारी की है देखो यहाँ बस लाज काग़ज़ पर। कड़े क़दमों के आदेशों से अकड़े हैं क़दम उनके, गिरा करती है अपराधी पे लेकिन गाज काग़ज़ पर। जो ज़िम्मेदार बनते थे, ख़यानत कर उन्होंने ही, हड़प ली मुफ़लिसों की भूमि देखो आज काग़ज़ पर। ख़ुशी बच्चे की लिक्खोगे भला तुम किस तरह "शेखर", बनाया जिसने पहली बार सुन्दर ताज, काग़ज़ पर। 'Maahir'
1:48 PM
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प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जब उसके रास्ते में हम भवन अपने बनाते हैं, नदी के एक दिन दोनों किनारे बोल जाते हैं। बुरा जब वक़्त आता है, अजब मंज़र ये दिखता है, वो जो मज़बूत लगते हैं सहारे, बोल जाते हैं। बुढ़ापे में ज़रूरत जब अधिक होती है सेवा की, ज़ियादा जो हुआ करते दुलारे, बोल जाते हैं। समझ वाले समझते हैं, ज़रा सा ग़ौर करते ही, ज़ुबाँ गर चुप रहा करती, नज़ारे बोल जाते हैं। बहस में जाति-पंथों के किसी मुद्दे पे जब आते, बहुत जो ख़ास बनते हैं तुम्हारे, बोल जाते हैं। मंज़र=दृष्य 'Maahir'
8:32 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे - रणक्षेत्रे : अध्याय ५: कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ७ : कर्मयोगी का सभी प्राणियों के साथ तादात्म्य स्थापन : योगयुक्त : विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय : । सर्नभूतात्मभूतात्मा कुर्वन् अपि न लिप्यते ॥७॥ अन्त:करण से शुद्ध , मन को वश किए इन्द्रियजित कर्मयोगी । निज आत्म को ही देखता सब प्राणियों में सब कर्म करते भी, उनमें लिप्त होता है नहीं ॥७॥ योगयुक्त कर्मयोगी के लक्षण और व्यवहार: योगयुक्त कर्मयोगी का अन्त: करण शुद्ध,मन और इन्द्रियों को जीते हुए अपनी आत्मा को सब प्राणियों में जानते हुए, सभी कर्म करते हुए भी राग और द्वेष से मुक्त हुआ सभी कर्मों को करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता अथवा वह कर्मबन्धन से मुक्त हुआ रहता है । 'Paavan Teerth '
8:30 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे- रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ४ : सांख्य (संन्यास) और कर्मयोग दोनों का लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति: सांख्ययोगौ पृथक् बाला : प्रवदन्ति न पण्डिता : । एकम् अपि आस्थित: सम्यक उभयो : विन्दते फलम् ॥४॥ नासमझ ही सांख्य और योग को पृथक कर हैं जानते न कि ज्ञानी हैं कभी । एक में ही भली विधि स्थित हुआ नर परमात्म-फल पाता सुनिश्चित ॥४॥ युद्ध के परिप्रेक्ष्य में समझिए : सारे विकल्पों के असफल होने पर धर्मराज युधिष्ठिर के नेतृत्व में युद्धक्षेत्र में खड़े होकर अर्जुन का परिस्थिति से निराश होकर शस्त्र छोड़ कर शास्त्र का आधार लेकर पलायन करने और उसे उचित ठहराते देख भगवान श्री कृष्ण ने दूसरे अध्याय में सांख्य की चर्चा कर अर्जुन को स्थितप्रज्ञ के रूप के दर्शन कराए । इसके बाद परवर्ती अध्यायों में विस्तार से कर्मयोग के विभिन्न पहलुओं पर अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया । इस पर विचार करते हुए विनोबा जी के अनुसार: “कर्मयोग मार्ग में भी है और मुकाम पर भी है ।परन्तु संन्यास सिर्फ़ मुक़ाम पर ही है, मार्ग में नहीं । यदि यही बात शास्त्र की भाषा में कहनी हो, तो कर्मयोग साधन भी है और निष्ठा भी , परन्तु संन्यास सिर्फ़ निष्ठा है, निष्ठा का अर्थ है, अंतिम अवस्था ।” 'Paavan Teerth'
8:27 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक २ : श्री भगवान उवाच : संन्यास : कर्मयोग : च नि :श्रेयसकरौ , उभौ । तयो : तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोग : विशिष्यते ॥२॥ कर्म से संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्षदायक हैं तुम सुनो पर दोनों में कर्म को त्यागने से कर्मयोग साधने में सुलभ होने से अति श्रेष्ठ है मैंने कहा ॥२॥ विचारणीय : प्रथम श्लोक में अर्जुन अपने प्रश्न में संन्यास और कर्मयोग में “श्रेय” पूछ रहा है तो श्री भगवान उत्तर मे “नि:श्रेयसकरौ” कह रहे हैं ।मेरे विचार में अर्जुन सांसारिक धरातल पर है जबकि श्री भगवान आध्यात्मिक स्तर पर सांसारिक राग -द्वेष से ऊपर उठकर उसको संसार के पदार्थों को संसार की सेवा में लगा कर उसे मोक्ष का मार्ग दिखा रहे हैं । 'Paavan Teerth'
8:25 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रों : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक ८ और ९ : तत्त्वज्ञानी का अकर्तापन : न एव किंचित् करोमि इति युक्त : मन्येत तत्त्ववित् । पश्यन्, श्रृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्, अश्नन्, गच्छन्, स्वपन्, श्वसन् ॥८॥ प्रलपन्, विसृजन्, गृह्वन्, उन्मिषन्, निमिषन्, अपि । इन्द्रियाणि , इन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इति धारयन् ॥९॥ तत्त्वज्ञानी स्वयम् को रखकर अलग देखता, सुनता, स्पर्श करता, सूँघता और जीमता पैर से चल कर जाता ॥८॥ या कि सोकर, साँस लेता, बात करता त्यागता मल-मूत्र को , ग्रहण करता हाथ से आँखों को खोलता और बंद करता हुआ भी ऐसा समझता, इन्द्रियां ही इन्द्रियों के लिए करती काम कुछ नहीं करता स्वयं से वह ॥९॥ आइए विचार करें : ऊपर के श्लोक सात में जिस योगयुक्त शुद्ध अन्त:करण मन वश में किए जितेन्द्रिय की चर्चा अपने समान सभी भूत प्राणियों की चर्चा हुई थी वही अपने शरीर के कार्य- कलाप को किस प्रकार देखता है उसकी चर्चा इन दो श्लोकों में हुई है । यहाँ पाँचों ज्ञानेंद्रियों और पाँचों कर्मेन्द्रियों और उनके कार्यों की चर्चा के साथ सोना-अन्त:करण की क्रिया श्वास लेना- प्राण की और आँखों का खोलना और मूँदना- कूर्म नामक उपप्राण की बात हुई है । ये सभी क्रियायें प्रकृति मे हो रही हैं स्वरूप में नहीं । संक्षेप में तुलसी की भाषा में कहें तो : “जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। मायाधीश ज्ञान गुणधामू ॥ 'Paavan Teerth'
8:19 PM
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श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : श्लोक १ : प्रस्तावना: महाभारत के मध्य भीष्मपर्व के अन्तर्गत कही गई श्रीमद्भगवद्गीता का उद्देश्य अर्जुन को माध्यम बनाकर समस्त जीवों के मोह का निवारण कर उनको निष्काम कर्मयोग के मार्ग पर स्वधर्मानुसार प्रवृत्त करना । वक़्ता को श्रोता की मन:स्थित समझ कर उसको श्रेयस्कर मार्ग पर लगाना होता है । यहाँ अर्जुन अपने स्वजनों, पूज्य गुरुजनों को देखकर युद्ध के मैदान से भागने को उद्यत हो रहा था तो श्री कृष्ण जैसे सखा ने पहले ज्ञान का भंडार खोलकर उसे सांख्य और स्थित-प्रज्ञ के रूप से अवगत कराया वहीं शनै: शनै: उसे कर्मयोग के विभिन्न आयामों से उसे स्वधर्म पर चलने के लिए प्रेरित किया लेकिन अर्जुन फिर भी अपनी मोहग्रस्त स्थिति से पूरी तरह से बाहर नहीं आ पा रहा । पिछले चौथे अध्याय के तेंतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक कर्म तथा पदार्थों का स्वरूप से त्यागकर तत्वदर्शीज्ञानी के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करने की बात सुनी तो उसे अपनी मोह-आवेष्टित क्रिया ही ठीक जँचने लगी और उसी अध्याय के अंत में कही बात कि कर्मयोगी उस तत्व को अपने आप ही प्राप्त कर लेता है को उसने किनारे कर श्री भगवान की अन्त में बयालीसव्ं श्लोक की कही बात “आतिष्ठ उत्तिष्ठ” और युद्ध कर , को मानो भूल ही गया और अपना हठपूर्ण मत प्रश्न के रूप में उलाहना देते हुए प्रगट कर दिया । अर्जुन उवाच : संन्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुन: योगम् च शंससि । यत् श्रेय : एतयो : एकम् तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥१॥ अर्जुन उवाच : हे कृष्ण ! करते प्रशंसा आप कर्म के संन्यास और फिर हैं योग की । कल्याणकर दोनों में जो हो एक सुनिश्चित कर उसको कहें ॥१॥ 'Paavan Teerth'
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