श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : श्लोक १ : प्रस्तावना: महाभारत के मध्य भीष्मपर्व के अन्तर्गत कही गई श्रीमद्भगवद्गीता का उद्देश्य अर्जुन को माध्यम बनाकर समस्त जीवों के मोह का निवारण कर उनको निष्काम कर्मयोग के मार्ग पर स्वधर्मानुसार प्रवृत्त करना । वक़्ता को श्रोता की मन:स्थित समझ कर उसको श्रेयस्कर मार्ग पर लगाना होता है । यहाँ अर्जुन अपने स्वजनों, पूज्य गुरुजनों को देखकर युद्ध के मैदान से भागने को उद्यत हो रहा था तो श्री कृष्ण जैसे सखा ने पहले ज्ञान का भंडार खोलकर उसे सांख्य और स्थित-प्रज्ञ के रूप से अवगत कराया वहीं शनै: शनै: उसे कर्मयोग के विभिन्न आयामों से उसे स्वधर्म पर चलने के लिए प्रेरित किया लेकिन अर्जुन फिर भी अपनी मोहग्रस्त स्थिति से पूरी तरह से बाहर नहीं आ पा रहा । पिछले चौथे अध्याय के तेंतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक कर्म तथा पदार्थों का स्वरूप से त्यागकर तत्वदर्शीज्ञानी के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करने की बात सुनी तो उसे अपनी मोह-आवेष्टित क्रिया ही ठीक जँचने लगी और उसी अध्याय के अंत में कही बात कि कर्मयोगी उस तत्व को अपने आप ही प्राप्त कर लेता है को उसने किनारे कर श्री भगवान की अन्त में बयालीसव्ं श्लोक की कही बात “आतिष्ठ उत्तिष्ठ” और युद्ध कर , को मानो भूल ही गया और अपना हठपूर्ण मत प्रश्न के रूप में उलाहना देते हुए प्रगट कर दिया । अर्जुन उवाच : संन्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुन: योगम् च शंससि । यत् श्रेय : एतयो : एकम् तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥१॥ अर्जुन उवाच : हे कृष्ण ! करते प्रशंसा आप कर्म के संन्यास और फिर हैं योग की । कल्याणकर दोनों में जो हो एक सुनिश्चित कर उसको कहें ॥१॥ 'Paavan Teerth'