प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जब उसके रास्ते में हम भवन अपने बनाते हैं, नदी के एक दिन दोनों किनारे बोल जाते हैं। बुरा जब वक़्त आता है, अजब मंज़र ये दिखता है, वो जो मज़बूत लगते हैं सहारे, बोल जाते हैं। बुढ़ापे में ज़रूरत जब अधिक होती है सेवा की, ज़ियादा जो हुआ करते दुलारे, बोल जाते हैं। समझ वाले समझते हैं, ज़रा सा ग़ौर करते ही, ज़ुबाँ गर चुप रहा करती, नज़ारे बोल जाते हैं। बहस में जाति-पंथों के किसी मुद्दे पे जब आते, बहुत जो ख़ास बनते हैं तुम्हारे, बोल जाते हैं। मंज़र=दृष्य 'Maahir'