श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ११ : ध्यानयोग के लिए स्थान और आसन का विवरण : शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरम् आसनम् आत्मन : । न अत्युच्छिृतम् न अतिनीचम् चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥११॥ शुद्ध स्थान पर पहुँचकर स्वयं अपना स्थिर आसन लगाए । जो न बहुत ऊँचा हो न नीचा हो वस्त्र, मृगछाला और कुश का आसन बिछाए ॥११॥ देश और आसन के संबंध में: ज्ञानेश्वरी के रचयिता संत ज्ञानेश्वर जो सिद्ध योगी थे, ने स्थान के बारे में कहा है कि “वह ऐसा होना चाहिए कि उसे देखते ही वैराग्य दुगुना हो जाय। जिस स्थान पर अपने आप अभ्यास हो जाता है और अनुभव स्वयं साधक के अंत:करण को माला पहना देता है और वैराग्य को थपथपाकर जाग्रत करता है । वह स्थान इतना पावन होना चाहिए कि वहाँ साक्षात ब्रह्म ही दृष्टिगोचर हो ।” “आसनम् आत्मन :” रामचरितमानस में शिव-पार्वती संवाद की भूमिका में महान योगेश्वर भगवान शिव का वर्णन करते हुए कवि लिखता है: परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिल उमा निवासू ॥ ८/ दोहा १०५ बालकांड तेहि गिरिपरबटबिटपबिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला ॥ एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥ निज कर डासि नागरिपु छाला बैठे सहजहिं संभु कृपाला ॥ २,४ ५/दोहा १०६ बालकांड ध्यान के लिए जैसे स्थान की आवश्यकता होती है और साोधक को जिस प्रकार निराभिमानी और वैराग्योन्मुख होना चाहिए उसका अत्यंत सटीक वर्णन है । Paavan Teerth