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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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8:00 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : छठा अध्याय : प्रस्तावना और श्लोक १। : प्रस्तावना : पिछले पाँचवें अध्याय में निष्काम कर्मयोगी के लिए श्लोक २५ से योगी के लिए जो व्यवहारिक बातें बताई गई थीं उन्हीं का वर्णन इस अध्याय में विस्तार से किया गया है और अंत में अर्जुन को निराश न होकर अभ्यास और वैराग्य के द्वारा सतत् लगे रहने से शान्तब्रह्म से एकमेक होश्रद्धा-संयुक्तहोकर योगियों में भी परमश्रेष्ठ होने का आश्वासन दिया है । छठे अध्याय को श्रीगीता के भाष्यकारों ने विभिन्न नाम दिए हैं , यथा, ध्यान -योग, अध्यात्म योग, चित्तवृत्ति -निरोध योग, प्रमुख हैं । छठे अध्याय से पूर्व के अध्याय दो से पाँच मे श्री भगवान ने ज्ञान के विभिन्न आयामों का कलेवर प्रस्तुत किया और इस अध्याय में कहा कि हे मानव ! अब मैं तुझे बताता हूँ कि परब्रह्ममय होने के लिए किस प्रकार तुझे अपने शारीरिक और मानसिक क्रिया-कलापों को साधना है । श्री गीता हमें अपना व्यवहार शुद्ध और निर्मल रखकर मन का समाधान और शांति प्राप्त कर परमार्थ के मार्ग पर अग्रसर करती है । गीता हमें यथास्थान, जैसे हैं, जो कर रहे हैं, वहाँ पर ही न छोड़ कर, हाथ पकड़ कर आगे ले जाती है, ऊपर उठाती है और परमार्थिक रूप से सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कराती है । सूत्र रूप में कहें तो तीसरे अध्याय के: कर्मण : हि अपि बोद्धव्यम् बोद्धव्यम् च विकर्मण : । अकर्मण: च बोद्धव्यम् गहना कर्मण : गति : ॥१७॥ विकर्म अर्थात विशेष कर्म , मन का वह संयोग जिससे मिल कर कर्म में श्रेष्ठता आती है , बताती है । मानसिक साधना की मुख्य बातें : १. चित्त की एकाग्रता २. चित्त की एकाग्रता के लिए उपयुक्त जीवन परिमितता ३. सम-दृष्टि अथवा मंगल दृष्टि ४. वैराग्य ५. अभ्यास का पाठ पढ़ाती हुई अंत में साधक को श्रद्धामय बने रहने का संदेश देती है । श्री भगवान उवाच : अनाश्रित: कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति य : । स: संन्यासी च योगी च न निरग्नि: न च अक्रिय : ॥१॥ श्री भगवान उवाच : कर्मफल आश्रित न हो कर करणीय कर्म करता जो नर । वही संन्यासी, वही योगी अक्रिय, अग्नि का त्यागी नहीं ॥१॥ श्रीमद्भगवद्गीता का प्रमुखतम संदेश : मनुष्यमात्र को शास्त्र विहित सभी कर्म बिना कर्मफल की आशा के करते रहना चाहिए । जो ऐसा करता है वही सच मे योगी है, वही संन्यासी कहलाने योग्य है केवल सब काम-धाम छोड़ कर गृहस्थों के लिए आवश्यक अग्नि सेवन छोड़ने वाला संन्यासी नहीं । यहाँ स्पष्टत: श्री भगवान ने कहा है कि कर्म किसी अवस्था में न छूटते हैं, न छोड़ने की आवश्यकता है केवल कर्मों से फलाशा और आसक्ति के त्याग की आवश्यकता है । Pavan Kumar Sharma (Paavan Teerth)
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