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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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6:19 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक २३ : काम और क्रोध के वेग को सहन करने वाला ही सुखी : शक्नोति इह एव य : सोढुम् प्राक् शरीरविमोक्षणात् कामक्रोधोद्भवम् वेगम् स : युक्त : स : सुखी नर : ॥२३॥ शरीर रहते जो है समर्थ काम-क्रोध के वेग को सहने में सक्षम । वही जन है योगी वहीं जन है सुखी ॥२३॥ इन्द्रिय-जन्य विषयों के संताप के संदर्भ में काम-क्रोध पर विजय: श्लोक में एक बहुत ही महत्वपूर्ण वाक्यांश है,”प्राक् शरीरविमोक्षणात्” , अर्थात शरीर छूटने से पहले , क्योंकि मृत् शरीर पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता। इस संदर्भ में नारदपरिव्राजकोपनिषद का नारद का पितामह ब्रह्मा से पूछे गए प्रश्न , कि संन्यास का अधिकारी कौन? का उत्तर दृष्टव्य है : “प्राणे गते यथा देह :सुखं दु:खं न विन्दति । तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत ॥तीसरा उपदेश/२७॥ हमारा शरीर : छिति, जल , पावक , गगन, समीरा । पंच रचित यह अधम सरीरा ॥ होने के कारण व्यष्टि में प्रकृति का अंश है और परमात्म से भिन्न है और क्षेत्र है : “इच्छा द्वेष सुखम् दु:खम् संघात : चेतना धृति : । एतत् क्षेत्रम् समासेन सविकारम् उदाह्रतम् ॥६/ अध्याय १३॥ इस प्रकार इन विकारों से अनिद्विग्न होने वाला ही सच्चा कर्मयोगी है ।
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