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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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4:23 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
ग़ज़ल- सियासी सोच में यारो ग़रीबों की क़ज़ा-सी है, इसी से दिख रही हर सिम्त ये गहरी उदासी है। पढ़े-लिक्खे भी करते हैं जहालत की बहुत बातें, ग़रीबों को सताने में मियाँ सबकी रज़ा-सी है। न शिक्षा, नौकरी, सेहत, न खाने की उचित चीज़ें, युवाओं में सहन करने की ताक़त तो धरा-सी है। हटाने के किए वादे सभी नेता, न हट पाई, ग़रीबी तो लगे साहिब कि जैसे बेहया-सी है। न अवसर हो बराबर का तो कैसे अद्ल है मुमकिन? ये मुफ़लिस की तो मुझको ज़िन्दगी लगती सज़ा'सी है। नशे में झूमती जनता अभी तक जाति-धर्मों के, कि जैसे अक़्ल को उसने बता रक्खी धता-सी है। बढ़े चीज़ों की जब कीमत, कहाँ अब शोर मचता है? भुला कर कष्ट जनता ले रही इसमें मज़ा-सी है। कज़ा=मृत्यु, ज़हालत=मूर्खता, रज़ा=सहमति,धरा=पृथ्वी, बेहया= बेशर्म, जो आसानी से नष्ट न हो सके, अद्ल =न्याय (सम्पूर्ण न्याय) 'Maahir'
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