ग़ज़ल- दूर करने को बलाएं आजकल की, कुछ मदद लेनी पड़ेगी अब अनल की। झूठ उनका खिलखिला के हँस रहा जब, याद आई तब उन्हें फिर गंगाजल की। सत्य से आँखें चुराकर मीडिया अब, दे रही है बस ख़बर अब राशिफल की। बात हक़ की कर रहा जो भी उसे तो मिल रही धमकी मुसलसल रायफल की। पीढ़ियों की अब उन्हें चिंता कहाँ है, सोचते हैं वो महज बस आजकल की। बागबाँ की मस्लेहत को देखकर अब, रूह कांपी दोस्तो हर फूल-फल की। स्वार्थ का गहरा कुहासा छा रहा है, अब हवा से गंध आती है गरल की। बात दिल की आप तक पहुँचा सके बस, इसलिए ही ली मदद उसने ग़ज़ल की। सोचता, लिखता है अब दिनरात 'शेखर', फ़िक्र से है आँख जो उसने सजल की। Maahir