प्रस्तुत है एक ग़ज़ल- जुर्रत न गर रही तो कहाँ ज़िन्दगी रही, राहें सहल हुईं, जो ये ज़िन्दादिली रही। जाने को जान भी ये चली जाएगी कभी, वो काम करगुज़र कि लगे ज़िन्दगी रही। उसकी ही यह कृपा है बड़ी, मुझ पे दोस्तो, जो सोच में मेरी ज़रा आवारगी रही। जो कामयाब हो न सके, गौर वो करें, ढूँढेंगे तो मिलेगी जो उनकी कमी रही। देखे न जानबूझ के जब वो मेरी तरफ़, तो ज़िन्दगी लगी कि वहीं पर रुकी रही। परछाइयों के क़द पे तो इतना न कर गुरूर, छोड़ेंगी साथ जो न कहीं रोशनी रही। वो रेल, बस, जहाज सभी बंद से हुए, ऐसी बुरी दशा न कभी विश्व की रही। कोरोना वायुयान से आया था देश में, हलकान चप्पलों पे बहुत मुफ़लिसी रही! 'Maahir'