कविता : रसोईघर रसोईघर,... देखा है मैं ने, ताक कर नहीं, पत्नी की तरह ही, नाश्ता-खाना बनाकर; रसोईघर की उमस में, पसीने से नहाकर,प्याज के आंसू बहाकर,भात पकाकर, चोखा बनाकर और तड़का लगाकर, आटा गूंध कर,रोटी बेल कर,फुला कर। मैं नहीं मानता कि नहीं कर सकता मैं वह सब,जो करती हैं पत्नी दिन में अनगिनत बार जाकर,रसोईघर। लेकिन इस आधार पर नहीं कर सकता अंडरएस्टीमेट गृहणी के कार्य को,क्योंकि भात-रोटी,दाल-सब्जी,पापड़-चटनी भर नहीं है रसोई घर। नाश्ता-खाना बनाना तो, किसी गृहणी के कार्यों का सबसे छोटा हिस्सा होता है, कार्यों के बीच एक स्वनिर्मित मनोरंजन, अपनी और अपनों की पसंद से बनाने को व्यंजन; घर-द्वार,झाड़ू-पोछा,बर्तन-चौंका जैसे दिखने वाले और हमें नहीं दिखने वाले अनेक कार्यों की खान है 'रसोईघर'। जिस दिन किसी को महसूस हो जाएगा यह सच, डांट-डपट,प्रताड़ना का भाव जाएगा उतर, "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते,रमंते तत्र देवता:" का उभरेगा स्वर; नारियों को प्रति आ जाएगी संवेदना जिस दिन घर-घर में, थम जाएगी उनपर होने वाली हिंसा,घर में और सड़क पर! Pavan Kumar Sharma