श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : आत्म-आनन्द में निमग्न योगी का वर्णन : य : अन्त:सुख : अन्तराराम : तथा अन्तर्ज्योति : एव य : । स : योगी ब्रह्मनिर्वाणम् ब्रह्मभूत : अधिगच्छति ॥२४॥ अन्तरात्मा में सुखानुभूति कर आत्मा में रमा रहता नित्य जो आत्मा के ज्ञान से प्रकाशित जो वही ब्रह्म के साथ एकात्म हुआ ब्रह्म को प्राप्त हुआ योगी है ॥२४॥ ब्रह्म मे मग्न योगी का अन्तर : पिछले तीन श्लोकों में बाह्य संस्पर्शों से युक्त योगी किस प्रकार प्रतिक्रिया करता है तो अब ऐसे योगी की आन्तरिक स्थित का वर्णन करते हैं । १. ऐसे योगस्थ साधक को प्रकृतिजन्यबाह्य पदार्थों मे सुख नहीं अनुभव होता, प्रत्युत एकमात्र परमात्मा मे ही सुख का अनुभव होता है, इसीलिए उसको “अन्त :सुख “ कहा । २. यह साधक भोगों में नहीं रमता,प्रत्युत केवल परमात्म-तत्व मे ही रमण करता है इसलिए उसे “अन्तराराम :” कहा। ३. सभी ज्ञान और उनका प्रकाशक इन्द्रियाँ और बुद्धि न होकर केवल परमात्मतत्व का ज्ञान है इसीलिए यहाँ “अन्तज्योति :” कहा गया है । जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ज्ञान गुन धामू ॥ तुलसीकृत रामचरितमानस ऐसा साधक “ब्रह्मभूत” अर्थात अपना अहं खोकर तत्वनिष्ठ होकर “ ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त कर लेता है और साधक ब्रह्ममय हो जाता है: ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति ब्रहदारण्यकोपनिषद (४।४।६।) 'Paavan Teerth'