श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे :अध्याय ६: आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ३ और ४ : साधक से सिद्ध होने तक : आरुरुक्षो : मुने : योगम् कर्म कारणम् उच्यते । योगारूढस्य तस्य एव शम : कारणम् उच्यते ॥३॥ योग में आरूढ़ मुनि की सफलता मैं निष्काम कर्म बनते हेतु हैं । योग में आरूढ़ जन के कर्म-संकल्प चुक गए होते सभी ॥३॥ यदा हि न इनि्द्रयार्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढ : तदा उच्यते ॥४॥ जब कभी इन्द्रियों की भोग-इच्छा और कर्म में आसक्ति शेष रहती है नहीं । तब ही सभी - संकल्प-त्यागी योग में आरूढ़ कहलाते तभी ॥ ४॥ साधक से सिद्ध-कर्मयोगी तक : इसी अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा गया: अनाश्रित: कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति य: स: संन्यासी च योगी च न निरग्नि न च अक्रिय: ॥१॥ इसलिए तीसरे श्लोक तक आते-आते “शम:” का यह अर्थ करना कि योगारूढ़ हो जाने पर कर्म छोड़ देना अन्यायपूर्ण है । इसका अर्थ इतना भर है कि योगारूढ़ कर्मशील का शम अर्थात मन की शांति का कारण हो जाता है ।योगारूढ कर्मयोगी को लोकसंग्रहकारक कर्म करने के लिये अब “शम” “कारण “ या साधन हो जाता है यद्यपि उसका अब कर्म में कोई स्वार्थ नहीं रह गया है । पिछले पाँचवें अध्याय में ही कहा है: युक्त: कर्मफलम् त्यक्त्वा शान्तिम् आप्नोति नेष्ठिकीम् (श्लोक १२/अध्याय ५)। चौथे श्लोक में आए प्रकृति का अंश जानकर इनि्द्रयों और उनसे सम्पन्न होने वाली क्रियाओं में आसक्ति का सर्वथा त्याग कर संसार से प्राप्त साधनों को संसार की सेवा में निष्काम भाव से लगा देना चाहिए । इस प्रकार सभी संकल्पों का त्याग कर लोकमंगल के लिए कर्म करने वाला कर्मयोगी सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है । Paavan Teerth