श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक ५ और ६ : उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् । आत्मा एव हि आत्मन : बन्धु: आत्मा एव रिपु : आत्मन : ॥५॥ स्वयं ही तू स्वयं का उद्धार कर स्वयं तू बन ना कभी स्वयं के अवसाद का कारण कभी । क्योंकि आप ही तू मित्र अपना आप ही निज शत्रु है ॥५॥ बन्धु : आत्मा आत्मन : तस्य येन आत्मा एवआत्मना जित : । अनात्मन : तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् ॥६॥ समता-अवस्थित अन्त:करण जिसका ब्रह्म को सम देखता सब लोक में इसलिए स्वयं ही वह बंधु निज का । पर जीत न जो पाया स्वयं को वह स्वयं ही शत्रु बन जाता स्वयं का ॥६॥ अपना उद्धार करने में आत्मस्वातन्त्र्य : पूर्व श्लोक में श्री भगवान ने योगारूढ़ होने में अर्थात अपना उद्धार करने में मनुष्य को स्वतंत्र बताया। अब इन दो श्लोकों में, पहले अन्वय से और बाद में व्यतिरेक से, वर्णन किया है कि आत्मा अपना ही मित्र कब होता है और आत्मा अपना शत्रु कब हो जाता है । इसी तथ्य को अध्याय तेरह मे : समम् पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् । न हिनस्ति आत्मना आत्मानम् तत: याति पराम् गतिम् ॥२८॥ श्लोक पाँच और छह में आए “आत्मा “ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थ में : १. अंतरात्मा २. मैंपन अर्थात स्वयं ३. अन्त:करण या मन यहाँ श्री भगवान ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात जो कही ,वह यह है कि शास्त्र, संत, गुरु, सब आपका मार्गनिर्देश तो कर सकते हैं, यथा, तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम् ज्ञानिन : तत्वदर्शिन : ॥३४॥ निष्कर्ष में जो हमारे सहायक, रक्षक, उद्धारक, उनमें भी जब हम स्वयं से उनमें श्रद्धा-भक्ति करेंगे, उनकी बात मानेंगे तभी हमें तत्वज्ञान होगा अन्यथा वे हमारा उद्धार नहीं कर सकते। Paavan Teeth