skip to main |
skip to sidebar
RSS Feeds
A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
![]() |
![]() |
7:14 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १८ ज्ञानी कर्मयोगी की दृष्टि : विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे , गवि , हस्तिनि । शुनि च एव श्वपाके च पण्डिता : समदर्शिन : ॥१८॥ विनयशील विद्वान ब्राह्मण में गौ, हाथी, श्वान से लेकर चाण्डाल तक में ज्ञानी सभी में देखता एक ही परमात्म को ॥१८॥ ज्ञानी के बाह्य व्यवहार का विवरण : पिछले श्लोक सत्रह में आए “ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: “ अर्थात ज्ञान से जिसके सारे कल्मष नष्ट हो गए हैं ,ऐसा साधक सांसारिक धरातल पर विद्वान और विनयशील ब्राह्मण से लेकर सबसे निम्न श्रेणी का कार्य करने वाले चाण्डाल और पशुओं में गौ, हाथी और कुत्ते तक में परमात्म की दृष्टि से सम भाव रखता है ।इस श्लोक को इसी अध्याय के सातवें श्लोक के विशुद्ध आत्मा और अन्त:करण वाले जितेन्द्रिय कर्मयोगी के “सर्वभूतात्मभूतात्मा का ही स्पष्टीकरण समझना चाहिए । 'Paavan Teerth'
![]() |
Post a Comment