श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ५ : कर्मसंन्यास योग : क्रमश : श्लोक १५ : स्वरूप ज्ञान के अभाव में जीव मोहित हैं : न आदत्ते कस्यचित् पापम् न च एव सुकृतम् विभु : । अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् तेन मुह्यन्ति जन्तव : ॥१५॥ न ही किसी के पाप को और न ही सुकृत कर्म को ग्रहण करता विभु कभी । मोहित हुए सब जीव हैं क्योंकि अज्ञान से ढका उनका ज्ञान है ॥१५॥) क्यों परमात्मा किसी जीव का पाप और पुण्य नहीं लेता ? प्रकृति के परवश हुआ जीव अपने स्वरूप को भूल कर स्वयं को कर्मों का कर्ता मान बैठता है और सुखी और दुखी होता है । जबकि परमात्मा सत् चित् और आनन्दमय है और जीव उसका अंश होने से उसका स्वरूप भी वही है : “ईस्वर अंस जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥ सो मायाबस भयउ गोसाईं । बँध्यो कीर मरकट की नाईं ॥ जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई।जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥ चौपाई २-३-४/दोहा ११७ उत्तरकांड - रामचरितमानस अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् : ऊपर कहे अनुसार अपने को ईश्वर का अंश है यह भूल कर बैठता है कि वह कर्ता है इसलिए परमात्मा उसके कर्मों का भागी नहीं बनता ।यदि मनुष्य सद्भाव से किए अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित कर देता है तो उसे कर्म नहीं बाँधते। ऐसे अज्ञानी मनुष्यों के लिए भगवान ने ताड़ना करते हुए शब्द प्रयोग किया “जन्तु” अर्थात कीड़े मकोड़े के समान। 'Paavan Teerth'