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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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7:49 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक १४ : योगी का अन्तर्संयम : प्रशान्तात्मा विगतभी : ब्रह्मचारिव्रते स्थित : । मन : संयम्य मच्चित्त : युक्त : आसीत मत्पर : ॥१४॥(योग-साधक) प्रशान्तात्मा, भय-रहित होकर ब्रह्मचर्य-व्रत का आचरण करते। मन को सुस्थिर किए चित्त मुझ में लगाए मेरे परायण हो रहे ॥१४॥ श्लोक में आए शब्दों पर विचार: प्रशान्तात्मा : जिसका अन्त:करण राग-द्वेष रहित होता है वह स्वत :सिद्ध शान्ति पाता है और ऐसे व्यक्ति का नाम “प्रशान्तात्मा” है । “विगतभी :” - जब मनुष्य शरीर के साथ मैं और मेरेपन की मान्यताओं को छोड़ देता है तब उसमें किसी प्रकार का भय नहीं रहता । “ब्रह्मचारिव्रते स्थित:”- ध्यानयोगी को अपना जीवन संयत और नियत रखना चाहिए और ज्ञानेंद्रियों द्वारा भोगे जाने वाले, शब्द, स्पर्श,रूप, रस और गन्ध के साथ साथ मान, बड़ाई और शरीर के आराम से दूर रहकर किसी भी विषय का भोगबुद्धि, रसबुद्धि से सेवन न कर केवल निर्वाहबुद्धि से ही सेवन करे । यह न केवल ध्यानकाल में ही नहीं व्यवहारकाल में भी अपेक्षित है। इस प्रकार का संयम केवल शून्य में न होकर केवल भगवान मे चित्त लगाने और परायण होने के लिए है । Paavan Teerth.
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