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A personal blog by Pavan Kumar "Paavan"
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6:50 PM
Article Published by : PAVAN KUMAR SHARMA,' PAAVAN &MAAHIR
श्रीमद्भगवद्गीता : कर्मक्षेत्रे-रणक्षेत्रे : अध्याय ६ : आत्मसंयम योग : क्रमश : श्लोक २१ : तत्व की प्राप्ति का विशिष्ट सुख : सुखम् आत्यन्तिकम् यत् तत् बुद्धिग्राह्यम् अतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न च एव अयम् स्थित : चलति तत्वत : ॥२१॥ इन्द्रियातीत हुआ योगी करता अनुभव अखंड आनन्द का जिस अवस्था में केवल सूक्ष्म बुद्धि से । उस समय विचलित होता नहीं वह परमात्मा के स्वरूप के ध्यान से ॥२१॥ योगी का आत्यान्तिक सुख : सुखम् आत्यन्तिकम् : यह सुख इन्द्रियातीत होने से अवर्णनीय है ।गीता में विभिन्न स्थानों पर इसी को अक्षय , अत्यन्त, एकान्तिक , सुख का नाम दिया गया है । यथा : सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शम् अत्यन्तम् सखम् अश्नुते ॥२८/अध्याय ६॥ अतीन्द्रियम् : इसको वर्णन करते हुए संत ज्ञानेश्वर कहते हैं- “ जीवात्मा भी शरीर के सहयोग से परमात्मा में मिलकर उसके साथ एकत्व प्राप्त कर लेता है ।_______ इसीलिए उस अनुभव की वार्ता वाणी के हाथ नहीं आती जिससे संवादरूपी गाँव में प्रवेश किया जा सके । बुद्धिग्राह्यम् - इस सुख में बुद्धि लीन नहीं होती और विवेक भी जाग्रत रहता है फिर भी बुद्धि की पकड़ के बाहर होने से , जैसा ऊपर कहा गया है संवाद के बाहर है। इतने पर भी मुख्य बात है अपने भीतर बैठी आत्मा के अस्तित्व में दृढ़ विश्वास । जैसा कि उपनिषद में कहा है: नैव वाचा न मनसा प्राप्तुम् शक्यो न चक्षुषा । “अस्ति इति” ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥११/अध्याय २/वल्ली ३ ॥कठोपनिषद 'Paavan Teerth'.
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